( भानु कुमार दुबे ‘मुंतज़िर मिर्ज़ापुरी’ एक तरक्कीपसंद शायर रहे हैं। उनका जन्म 26 सितंबर 1953 को हुआ था। आज से दो साल पहले 28 जनवरी 2023 को उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली। अपने उतार-चढ़ाव भरे जीवन में उन्हें तीन बार मानसिक चिकित्सालय में भर्ती होना पड़ा था। एक बार वह टीबी में ऐसे मुब्तिला हुए कि सेकंड स्टेज तक पहुँच गए थे पर यह उनकी जिजीविषा ही थी जिसके चलते वह इन सारी बाधाओं को पार करते हुए अपना लेखन जारी रख सके। भाकपा(माले) के वह समर्पित कार्यकर्ता थे। छपने-छपाने के मामले में वह बेहद संकोची रहे इसलिए उनका केवल एक ग़ज़ल संग्रह ‘सांस्कृतिक संकुल’ से “क़तरे की रवानी” नाम से प्रकाशित हो सका। लेखक, अनुवादक दिनेश अस्थाना ने संस्मरण की इस शृंखला में बहुत डूब कर अपने यार ‘मुंतज़िर मिर्ज़ापुरी’ को याद किया है। )
हमारी गली- गली मुंशी परमानन्द मुख़्तार, में भानु का जन्म नहीं हुआ था। मुझे यह भी नहीं पता और यह जानने की मैंने कभी कोशिश भी नहीं कि उसका जन्म कहाँ हुआ था। बस इतना मुझे माालूम है कि उसके पिताजी श्री आनन्द दुबे, प्रिंसिपल, ए0एस0 जुबिली इंटर कालेज, मिर्जापुर, यहाँ बसने से पहले सपरिवार वासलीगंज के ही साधवाड़ा में रहते थे। इस समय जो उसका घर है उसके ठीक सामने से थोड़ा पूरब की ओर हटकर मेरे दोस्त गोपाल जी का घर है। गोपालजी मुहल्ले में मेरे सबसे पहले दोस्त थे। (अभी कुछ ही दिन पहले वह भी इस दुनिया से कूच कर गये हैं।) स्कूल से आने के बाद का मेरा पूरा समय उन्हीं के यहाँ गुजरता था। जहाँ आज भानु का घर है वहाँ मेरे बचपन में लकड़ी की एक टाल हुआ करती थी। उस समय घरों में खाना लकड़ी पर ही बनाया जाता था इसलिये हर मुहल्ले में एक या अधिक लकड़ी की टाल मिल ही जाया करती थी। उसी टाल वाली जगह पर भानु का मकान बना, यह शायद 1965-66 की बात है।
भानु के पुराने दोस्त वहीं, साधवाड़ा के ही थे- गुरुदयाल, जटाशंकर, शिव वगैरह। हमलोग जब कुछ बड़े हुये और मुहल्ले भर में आने-जाने लगे तभी उसके दोस्तों से परिचय बन पाया। भानु अपना समय अपने पुराने दोस्तों के साथ ही गुजारना पसन्द करता था, जो कि व्यावहारिक भी था। हमारे आसपास के और भानु के परिवार के सामाजिक स्तर में बहुत फ़र्क़ था शायद इसीलिये और उसके परिवार के लोगों की सबसे न घुलने-मिलने की सहज-वृत्ति के चलते भी हमारे बीच कोई विशेष संवाद स्थापित नहीं हो सका था।
भानु पढ़ाई में मुझसे एक साल आगे था यानी मैं जब नवीं कक्षा में था और वह दसवीं में तो एक दिन मालूम हुआ कि भानु घर से कहीं भाग गया है। उसके पिताजी बहुत परेशान थे, भानु के अन्य दोस्तों के अलावा गोपाल से भी उसके बारे में पूछा था पर किसी को कुछ भी नहीं पता था। दो या तीन दिन बाद एक सुबह हमलोग गोपाल के चबूतरे पर बैठे ‘‘आज’’ अखबार पढ़ रहे थे। उस दौर में हिन्दी पट्टी का यह एक प्रमुख अखबार हुआ करता था। उस समय मामूली घरों में अखबार नहीं आता था, हमारे घर में भी नहीं। पर मुझे पढ़ने का शौक था तो अड़ोस-पड़ोस के घरों मंे जाकर अपना यह शौक पूरा कर लेता था। अचानक एक खबर पर निगाह ठहर गयी- ‘‘वाराणसी के चित्रा सिनेमा में रात के आखिरी शो के बाद जब सफाई कर्मचारी सिनेमा हाल की सफाई कर रहे थे तो उन्हें वहाँ एक युवक बेहोशी की हालत में मिला। उसके पास से मिले कागजात से पता चलता है कि युवक का नाम भानु कुमार दुबे है। उसकी जेब से नींद की दवाओं की खाली पन्नी भी मिली है। प्रतीत होता है कि बड़ी मात्रा में नींद की गोलियाँ खा लेने से ही वह बेहोश हो गया है।’’ उसके बाद किसी पुलिसिया कार्रवाई का जिक्र था। हमलोग दौड़ते हुये प्रिंसिपल साहब के पास गये और उन्हें अखबार दिखाया। वह तुरंत एक्शन मंे आ गये।
वही शायद पहला मौका था जब उसकी दिमाग़ी हालत के बारे में हमलोगों को पता चला। लेकिन हमलोग अभी भी क़रीब नहीं आ पाये थे, सिर्फ़ जब-जब उसकी तबीयत इतनी खराब हो जाती थी कि पूरे मुहल्ले को पता चल जाय तभी हमलोग भी जान पाते थे। बहरहाल नतीजा यह हुआ कि वह ‘भानु पागल’ के नाम से मशहूर हो गया ंऔर वह भी इसके मजे लेने लगा। हाँलाकि उसकी ज़ेहनी कुव्वत का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ऐसी हालत में भी हाई-स्कूल वह प्रथम श्रेणी में पास हुआ था। उस समय तक वह विभिन्न नशों का आदी हो चुका था। सिगरेट-शराब से आगे बढ़कर वह गाँजे के दम मारने लगा और नशीली गोलियाँ भी लेने लगा था। एक बार तो वह मेरे सामने ही स्टेशन रोड के किसी ढाबे में (नाम नहीं याद आ रहा है) ठर्रे की एक बोतल लेकर बैठ गया और मीट के साथ उसे पूरी गटक गया था। इंटर की परीक्षा भी उसने इसी आलम में दी थी। जिस दिन परीक्षाफल घोषित होना था, वह अपने फेल हो जाने की अफ़वाह फैलाकर शाम से ही ग़ायब हो गया, किसी सिनेमा हाल में रात का शो देखा और रात मंे एक बजे के आसपास लौटा तो सीधे अपने घर नहीं गया। हमारी गली में ही मन्नालाल नामका एक लड़का रहता था। गर्मी के दिन थे और गली में सबकी चारपाई सड़क के किनारे ही लगती थी। मैं भी बाहर ही लेटा हुआ था कि भानु आता हुआ दिखायी पड़ा। जलती सिगरेट बदस्तूर उसके हाथ में थी। मैं भी इस कौतूहल वश कि देखें वह कहाँ जाता है, उसके पीछे लग लिया। वह सीधे मन्ना की चारपाई तक गया और शरारतन उसकी बन्द पलक पर सिगरेट का गुल हौले से छुवा दिया। स्वाभाविक था कि मन्ना चैंककर उठा तो भानु उसे चिढ़ाने के अन्दाज़ मे बोल पड़ा, ‘‘बड़ा मजा आवता न कि भनुआ फेल होइ गवा।’’ और मन्ना दोनों हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा उठा, ‘‘जा भानू भैया, अपने घरे जा। हमके सोवै दा।’’ ज़ाहिर था कि वह भानु के पागलपन से ख़ौफ़ज़दा था और भानु ठहाके लगाते हुये अपने घर की ओर चल पड़ा। सच यह था कि भानु इंटर भी पास हो गया, हाँलाकि नम्बर बहुत अच्छे नहीं आये थे।
भानु ज़हीन तो था ही, यही वज़ह थी कि उसे हर साल मेरिट स्कालरशिप मिलती रही। इंटर के बाद उन्हीं पैसों से भानु घर से बिना बताये भारत भ्रमण पर निकल गया, इस दौर में उसने डलहौजी से लेकर शिलांग तक की यात्रा की और इसीलिये ग्रैजुयेशन क्लासेज़ में दाखि़ला नहीं ले सका, एकैडमिक पढ़ाई की भाषा में कहें तो उसका एक साल बरबाद हो गया था।