समकालीन जनमत
राही मासूम रज़ा का घर
ग्राउन्ड रिपोर्ट

पूर्वांचल में “अबकी परिवर्तन बा” को जमीन पर जैसा देखा

के के पांडेय

लोकसभा चुनाव 2024 का अब अंतिम चरण ही बचा है। जिसमें उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में शिव की काशी, लहुरी काशी यानी गाज़ीपुर, नाथ संप्रदाय का केंद्र गोरखपुर से लेकर बुद्ध की धरती कुशीनगर तक शामिल है।

इस अंतिम चरण में गाजीपुर, घोसी, बलिया की बिहार सीमा तक घूमते हुए जो एक वाक्य कानों में सर्वाधिक बार पड़ा वह था, “अबकी परिवर्तन बा”। चाहे किसी गांव में जाएं या चट्टी-चौराहे पर, लोग खुलकर बोल रहे हैं।

पहले दौर में, जैसा अधिकांश लोग कह रहे थे कि मतदाता साइलेंट है, चुप है। लेकिन, न मुझे पिछले चरण  में आजमगढ़- जौनपुर की दो-दो सीटों पर घूमते हुए ऐसा नजर आया और न ही बलिया,  गाजीपुर और घोसी में घूमते हुए ऐसा लगा।

गाजीपुर
‘अबकी परिवर्तन बा’ के इस वाक्य के भीतर की तहें समझने के लिए मैं बात करता हूं, तो गाजीपुर के कठवा मोड़ से आगे नूरपुर गांव के और आसपास के अगल-बगल के गांव के लोगों को एक चाय की दुकान पर चाय पीते हुए अखबार की एक खबर पर बहस करते सुनता हूं।

कठवामोड़ की सड़क के एक तरफ गाजीपुर लोकसभा तो दूसरी तरफ बलिया लोकसभा का क्षेत्र है। उनकी बातचीत में मैं भी शरीक़ हो जाता हूं।

मनोज सिन्हा, उप राज्यपाल जम्मू कश्मीर की फोटो छपी है, 28 तारीख के अखबार में मंदिर में पूजा करते हुए। उसी को लेकर बहस चल रही थी, कि वह क्या करने यहां आकर मंदिर-मंदिर घूम रहे हैं और वोट मांग रहे। संवैधानिक गरिमा भी रखनी चाहिए पद की।

यह बहस आगे महंगाई, किसानों की हालत, अग्निवीर योजना से होते हुए सामाजिक समीकरणों तक आ जाती है।

याद रखना चाहिए कि इस इलाके में कई बड़े गांव जो 10 से 15 हजार वोट वाले गांव हैं, जहां से ब्रिटिश राज के समय से ही सेवा में भारी पैमाने पर भर्ती होती रही है।

गाजीपुर और घोसी यह जुड़वा सीट हैं। यह इलाका कभी कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ था और बाद में बसपा का भी मजबूत आधार का इलाका रहा है।

पिछले चुनाव में भी गाजीपुर और घोसी की सीट बसपा को मिली थी और वह सपा के साथ गठबंधन में थी। इस बार इन दोनों सीटों पर सपा-कांग्रेस का इंडिया गठबंधन लड़ रहा है और बसपा अलग लड़ रही।

यादव-मुस्लिम, दलित के अलावा चौहान और राजभर समुदाय तथा भूमिहार और कुशवाहा यहां अच्छी संख्या में है और यहां की राजनीति में शुरू से उनका प्रभाव रहा है ।

गाजीपुर की सीट से अफजाल अंसारी के मुकाबले भाजपा से मनोज सिन्हा के नजदीकी पारस राय हैं, तो बसपा से बीएचयू की छात्र राजनीति से आए डॉक्टर उमेश सिंह लड़ रहे हैं।

गाजीपुर में कम्युनिस्ट पार्टी के बाद आमतौर पर अंसारी परिवार एक ध्रुव बना रहा है। खुद अफजाल अंसारी पहली बार 1985 में मोहम्मदाबाद विधानसभा से कम्युनिस्ट पार्टी से ही चुनाव जीत कर आए थे।

एक अनुमान के मुताबिक यहाँ 43 फ़ीसदी पिछड़ी – अति पिछड़ी जातियां हैं, जिनमें यादवों की संख्या भी अच्छी खासी है । 12 फीसद मुस्लिम और 17 फीसदी अगड़ी तथा 21 फीसद दलित। बाकी में अन्य जातियां। फिलहाल यहां पांच विधानसभाओं में से चार पर सपा और एक जखनियां विधानसभा पर ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा है, जो अब भाजपा के साथ है।

अंसारी को यादव-मुस्लिम के अलावा अति पिछड़े और दलित जातियों से पहले भी समर्थन मिलता रहा है। इस बार अति पिछड़े और दलित जातियों में जो पिछली बार आमतौर पर उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ गईं थीं, उनमें टूट है। खासकर कुशवाहा या मौर्या, पासवान और चमार जाति के भीतर का एक हिस्सा, जिसका लाभ गठबंधन को मिलेगा।

बसपा के अलग से लड़ने का यहाँ गठबंधन को नुकसान होता हुआ नहीं दिख रहा, क्योंकि पूर्वांचल की अन्य सीटों की तरह यहां भी गैर जाटव जातियों में बड़ा हिस्सा और जाटव में भी छोटा एक हिस्सा खासकर नौजवानों का वह रोजगार और संविधान के सवाल पर भाजपा के खिलाफ है।

पारस राय नए प्रत्याशी हैं लेकिन भाजपा के परंपरागत वोट में वे कुछ नया जोड़ते हुए नहीं दिख रहे। जरूर उन्हें राजभर वोट मिलेगा लेकिन भूमिहार और ब्राह्मण का अधिकतम वोट मनोज सिन्हा की तरह वह ले पाएंगे उसमें लोगों को संशय है।

घोसी

गाज़ीपुर सीट से लगी घोसी से एनडीए से ओमप्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर के मुकाबले इंडिया गठबंधन से राजीव राय चुनाव लड़ रहे हैं।

बसपा ने यहां से पूर्व सांसद रहे बालकृष्ण चौहान को खड़ा किया है। बसपा इस सीट पर पूर्वांचल की किसी भी सीट के मुकाबले अपेक्षाकृत रूप से ज्यादा मजबूत दिख रही है और वह चुनाव को त्रिकोणीय बना सकती है। उसके प्रत्याशी का चौहान समुदाय से होना बसपा के भीतर जाटव जाति जो बसपा का कोर वोटर है उसके बड़े हिस्से को अपनी तरफ खींचने की स्थिति में है और उन्हें संघर्ष में ला दिया है। जिसे एक गांव घुम्मा के 35 वर्ष से पुराने कार्यकर्ता बताते हैं, हांलाकि पार्टी से नाराज भी हैं,

“पार्टी हमारी गड़बड़ा गई है, सही निर्णय नहीं ले रहीं मायावती जी, लोग छोड़कर जा रहे हैं। हमारे इलाके के जमीन पर लड़ाई लड़ने वाले राजेंद्र कुमार जी थे, आज वह सपा में हैं। कई और नेता कार्यकर्ता छोड़ गए।

पार्टी में सोच विचार कम हो गया है , नए लोग नहीं आ रहे लेकिन मैं वोट दूंगा अपनी पार्टी को चाहे हारे या जीते।

वहीं बैठी चाय दुकान चलाने वाली महिला चुनाव पर चर्चा सुनते हुए बोल पड़ती हैं कि “ का मोदी जी के अलावा और केहू ना ह, काहे उनके देंईं। पांच किलो राशन से जिनगी चली। दू गो बल्ब जलाइला बिल आइल बा एक लाख। इहे उनकर शासन बा।”

मऊ शहर में घुसते ही मेरी मुलाकात ख्वाजा जहांपुर महुआबारी के कढ़ाई का काम करने वाले सूरज राजभर , वंदना राजभर इन लोगों से होती है, जो लोग एक पुल पर निशुल्क प्याऊ चला रहे थे।

यह लोग अपने मोहल्ले में निशुल्क शिक्षा के लिए 8 वीं तक की कोचिंग भी चलाते हैं । सूरज राजभर बताते हैं कि आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण वह पढ़ नहीं सके। उन्हें ग्रेजुएशन में अपनी पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी तब से अपने काम के अलावा वह अपनी बहन रेशम, जिसने अभी प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल पास किया है, उसके साथ निशुल्क कोचिंग चलाते हैं।

कहते हैं राजनीति बहुत खराब हो गई है इसलिए मैं किसी से सहायता नहीं लेता। नेता लोग चाहते हैं कि मैं उनके लिए भीड़ जुटाऊं और वोट मांगूं।

रोजगार और शिक्षा को वो सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं और कहते हैं कि इसपर काफी संकट है। इसलिए बच्चों को पढ़ना चाहता हूं। क्योंकि सरकार तो कुछ नहीं कर रही गरीब बच्चों के लिए। वोट के सवाल को टालते हैं।

मझवारा थाने से आगे चलने पर एक दलित बस्ती में लोगों से मिलना हुआ। वहां बुजुर्ग लोगों का कहना था कि हम अपनी ही पार्टी के साथ खड़े हैं। अब दूसरे को दे भी देंगे तो मानेगा नहीं। चाहे जीते चाहे हारे हम बहन जी के साथ ही रहेंगे।

लेकिन वही थोड़ी दूरी पर बैठे कई नौजवान जिनमें दिशांत और धीरेंद्र हैं जो ग्रेजुएट हैं, कहते हैं कि कोई भर्ती नहीं हो रही। जानबूझकर पेपर लीक करवाया जा रहा ताकि नियुक्ति नहीं करनी पड़े और संविधान में बदलाव करके यह लोग आरक्षण भी खत्म करेंगे। इसलिए हम लोग इसको जो हरा रहा है उसे वोट करेंगे। परिवर्तन जरूरी है।

सामने का खाली मैदान दिखाते हुए धीरेंद्र कहते हैं कि पहले यहां गांव के पचासों लोग दौड़ते थे अब यह खाली है। क्या करेंगे दौड़कर? मैंने पूछा कि आपलोग शाम को क्या करते हैं उन्होंने कहा कि बहुत होगा तो शाम को इसमें क्रिकेट खेला जाएगा, नौकरी के लिए कोई नहीं दौड़ेगा।

बलिया
इस बात की और तस्दीक करता हुआ गाजीपुर जिले का वह हिस्सा जो बलिया लोकसभा में परिसीमन के बाद आकर जुड़ गया है यानी मोहम्मदाबाद विधानसभा, उसके भी भूमिहार बहुल गांव में या ब्राह्मणों के बीच भी ‘इस बार परिवर्तन बा’ का वाक्य काफी सुनाई पड़ता है। चाहे वह बीरपुर हो रेवतीपुर या गहमर।

आप बाजार के किसी चट्टी पर या सड़क किनारे से अंदर बस्ती में घुस जाएं तो लोग बात करते, बहस करते, खुलकर पक्ष लेते मिल जाएंगे।

उजियार में मुझे गांव के चौराहे पर एक समूह गले में भगवा गमछा डाले मिला, जिसमें सत्यनारायण राम, सुरेंद्र राम आदि कई लोग ज्यादातर जाटव और एक-दो लोग कुर्मी समुदाय के थे। गमछे पर ही बात शुरू हुई तो पता लगा कि थोड़ी देर पहले किसी स्थानीय नेता ने बंटवाया है। क्या भाई सबलोग गमछा ओढ़ लिए हैं क्या मेरे ऐसा कहते ही एक सज्जन तुरंत बोल पड़ते हैं कि “गमछी से का वोट दियाई, अरे प्रेम से केहू दे दिहस त ले लिहलीं।”

सफाई में कहते हैं कि गुमटी वाला मुसलमान ह लेकिन इहो लिहले बा त का वोट दे देई। दूसरे बोल पड़ते हैं कि हमारी बिरादरी का वोट गठबंधन में जाएगा जरूर कुछ लोग बसपा को देंगे। लेकिन परिवर्तन करना है ।

तभी चश्मा लगाए एक सज्जन बोल उठते हैं सनातन बाबा के वोट जाई। सनातन पांडेय इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी हैं और उनके सामने पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी के बेटे नीरज शेखर हैं। पिछली बार वह मात्र 15 हजार वोट से भाजपा प्रत्याशी वीरेन्द्र सिंह मस्त से हार गए थे।

मैं बैरिया गाँव के सामने जो भूमिहार जाति का महत्वपूर्ण गाँव है, वहां शहीद द्वार देखकर रूक जाता हूं। 62 की लड़ाई में लद्दाख में शहीद हुए नर्वदेश्वर राय का गाँव है। उनकी मूर्ति भी लगी है । यह गांव इलाके का चुनावी तापमान नापने वाली जगह है।

यहां भूमिहार, कोयरी दलित, यादव सभी मिलते हैं। और सभी राजनीतिक रूप से काफी परिपक्व हैं। चाहे 86 साल के देवमनी चौधरी हों या शैलेंद्र राय, सत्ता के खिलाफ यहाँ लोगों में एक स्वर से जबरदस्त आक्रोश दिखता है।

सपा से चुनाव के ठीक पहले भाजपा में शामिल हुए पूर्व मंत्री नारद राय पर लोग तंज करते हैं कि “जहां गइल बाड़ें ऊ कुल एनका भिखारी बनाकर छोड़ दिहैं”। इन सभी का एकमत है चाहे जिस जाति के हों, कि इस बार परिवर्तन होगा।

राही मासूम रज़ा का घर

इसी लोकसभा क्षेत्र का एक गांव गंगोली जो गाजीपुर जिले में है, जहां से आधा गांव, टोपी शुक्ला, नीम का पेड़ जैसी रचनाओं के लेखक राही मासूम रजा साहब आते हैं, वहां भी जाना हुआ।

उनकी रचनाओं में आए पात्रों की भाषा , इंसानियत और भाईचारे के खिलाफ किसी भी तंत्र को खोलकर लोगों के सामने रख देने का जो शानदार फ़न दिखता है और उसमें जो तंज़ मिलता है, वह शायद इसी मिट्टी का कमाल है। इसलिए जब यहां के लोग बोलते हैं तो उसमें आया एक मुहावरा किसी भी लच्छेदार, महीन, गोलमोल राजनीतिक भाषा की कलई खोल देता है।

कुल मिलाकर इन तीन लोकसभा क्षेत्रों को घूमते हुए और साथ में थोड़ा बहुत सलेमपुर लोकसभा को देखते हुए कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

1.एनडीए की सोशल इंजीनियरिंग कमजोर पड़ी है।
2. इंडिया गठबंधन ने अपने आधार को बड़ा किया है और यादव-मुस्लिम पूरी तरह एकजुट होने के अलावा अति पिछली जातियों में उसकी पैठ बनी है । खासकर मौर्य , प्रजापति जैसी गैर यादव पिछड़ी जातियों में।
3. तीन महंगाई बेरोजगारी जैसे बड़े राष्ट्रीय मुद्दों के साथ संविधान पर संकट और उसे बचाने का मामला ग्रामीण इलाके में नीचे तक बहस में गया है। इसने दलित जातियों और अति पिछड़ों के भीतर इंडिया गठबंधन को लेकर आकर्षण पैदा किया है। जिसमें कांग्रेस के होने कारण उनका थोड़ा विश्वास भी ज्यादा नजर आता है।

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