हिन्दी भाषा में प्रेमचंद ने पहला उपन्यास ‘सेवासदन’ लिखा। उर्दू भाषा में यह ‘बाज़ारे हुश्न’ नाम से लिखा गया था। हिन्दी में ‘सेवासदन’ नाम से 1918 ई में छपा।
‘सेवासदन’ में हिन्दी नवजागरण की छाया साफ-साफ दिखती है। हालाँकि, हिन्दी समाज में यह नवजागरण बहुत छोटे से नये बने बौद्धिक समाज के बीच से आ रहा था। अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर के राष्ट्रीयता आधारित आन्दोलनों और उसकी अभिव्यक्ति के बतौर देखें तो पाएंगे कि हिन्दी समाज को अभिव्यक्त करता कोई आन्दोलन नहीं है। मध्यवर्ग के स्तर पर भी कोई सामाजिक नेता हिन्दी समाज से नहीं है।
दिल्ली के 1913 ईस्वी में राजधानी बनने के बाद भी मध्यवर्ग से निकला कोई ऐसा सामाजिक नेता हिन्दी समाज से नहीं है, जो समाज सुधारों का अगुआ बने।
एक तरह से काँग्रेस के अंतर्गत जो भारतीय राजनीतिक वर्ग सक्रिय था, वह सामाजिक सुधारों का न तो समर्थक रहा, न ही पक्षधर।
गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जैसे बड़े राजनीतिक भी इसमें से थे, जो महाराष्ट्र जैसी जगह से आते थे, जहाँ सामाजिक सुधारों के प्रयास 1840ई. के बाद से ही मिलने लगते हैं।
अभी हाल ही में आया, संजीव का उपन्यास ‘प्रत्यंचा’, कोल्हापुर के मराठा शासक शाहू जी(1899-1922) के बहाने महाराष्ट्र में सामाजिक सुधारों और आधुनिकीकरण की आगे बढ़ी हुई स्थिति को सामने लाता है।
यह मराठा सन्त आन्दोलन के आध्यात्मिक रंग लिये सामाजिक सुधारों को ज्यादा ठोस और भौतिक बनाता है। लेकिन भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के भीतर इसकी कोई अभिव्यक्ति नहीं है। बंगाल, पंजाब से भी कोई ऐसा राजनीतिक नेतृत्व नहीं है।
किसान आन्दोलन, बल्कि ज्यादा समाज सुधार के तत्वों को अपने भीतर शामिल किये हुए थे, हिन्दी समाज में। इसमें बाबा रामचंद्र, सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन आदि कई नाम हैं।
महात्मा गाँधी भी, जो सामाजिक सुधारों का उदार, मानवीय या मध्यम मार्ग लेते हैं, वह इन्हीं किसान आन्दोलनों के भीतर से उपजे दबाव, भगत सिंह, अम्बेडकर जैसे नेताओं के राजनीतिक परिदृश्य में आने के असर से अधिक होता है।
सामाजिक सुधार के सवाल पर तो विवेकानंद जैसे आध्यात्मिक नेता भी उस समय के राजनीतिक नेतृत्व से आगे बढ़े हुए थे।
लेकिन हिन्दी लेखकों, पत्र-पत्रिकाओं ने सामाजिक नेताओं के इस अभाव की पूर्ति जरूर की कुछ हद तक। एक तरह से प्रेमचंद इसमें सबसे आगे बढ़े हुए लेखक के रूप में सामने आते हैं।
हिन्दी नवजागरण को भी वे ज्यादा ठोस जमीन पर लाते हैं, सही सवालों के बीच खड़ा करते हैं और तमाम दुविधाओं से मुक्त करते हैं। अर्थात उपनिवेशवाद-विरोध और वर्णवाद या ब्राह्मणवाद विरोध को बहुत साफ-साफ इस नवजागरण का मुख्य विचार बनाते हैं।
हिन्दी नवजागरण भले ही, किसी सामाजिक आन्दोलन के भीतर से न आकर बांग्ला सामाजिक आन्दोलन के प्रभाव से आया।
‘सेवासदन’ उपन्यास में हिन्दी साहित्य में अनुवाद की भरमार होने पर एक समाज सुधारक जब चिंता व्यक्त करता है, तो उससे भी यही बात निकलती है, कि हिन्दी समाज का नया बना शिक्षित और बौद्धिक/बुद्धिजीवी/लेखक वर्ग उस प्रभाव के तहत सामाजिक सुधार का वाहक बना।
‘सेवासदन’ उपन्यास इसका बड़ा प्रकटन करता है। इस उपन्यास को अपने समय के सारे सन्दर्भों से जब देखा जायेगा, तब इसका महत्व ज्यादा समझ में आयेगा कि क्यों यह उपन्यास हिन्दी लेखन में एक भू-चिन्ह है, मोड़ है।
‘सेवासदन’ उपन्यास में जितने समाज सुधारक हैं, उनके भीतर के पिछड़ेपन, वर्णवादी सोच को उघाड़ने के पीछे प्रेमचंद की जो भी विचार प्रक्रिया काम कर रही थी, लेकिन उससे एक बात तो उभर ही आती है कि हिन्दी नवजागरण हिन्दी समाज का नवजागरण नहीं था, लेकिन हिन्दी लेखकों को इसने नवीन चेतना दी। इस चेतना के चलते ही कई लेखकों ने हिन्दी समाज की दशा-दिशा को लक्ष्य किया। प्रेमचंद इसको ही लेकर हिन्दी उपन्यास-लेखन में आते हैं।
‘सेवासदन’ हिन्दी समाज के भीतर के पिछड़ेपन, पुरातन विचार, पाखण्ड, अतार्किक, अविवेकी, अमानवीय सामाजिक नीति-नियम को एक अवधारित चरित्र(सुमन) के माध्यम से सामने लाता है।
सुमन जैसे चरित्र को प्रेमचंद ने अपनी नयी बनी चेतना, विचार-तत्व के अंतर्गत रचा और उसे समाज के हर संस्थागत संरचना में प्रवेश कराया और उसके यथार्थ को, सच्चाई को दिखा दिया। हिन्दी समाज की सांस्थानिक रुग्णता को उन्होंने पहले ही उपन्यास में लक्षित किया।
‘सेवासदन’, उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन और भारतीय राष्ट्र की निर्मित होती चेतना के भीतर से अपना विचार तत्व ग्रहण करता है।
नारी मुक्ति का विचार भी इसी से निकला था। मराठी और बंगाली राष्ट्रीयताओं के निर्माण और स्त्री शिक्षा के उनके प्रयासों का असर कई रूपों में हिन्दी समाज तक पहुंचने लगा था।
इसी का नतीजा था कि बीसवीं शताब्दी के बिलकुल शुरुआत में ही नेहरू परिवार की स्त्रियों द्वारा स्त्री दर्पण पत्रिका का प्रकाशन इलाहाबाद में शुरू किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य स्त्री शिक्षा और जागरण था।
परम्परा के भीतर आधुनिकता का प्रवेश हुआ। तर्क और विवेक स्त्री का नया आभूषण था। ‘सेवासदन’ की सुमन ऐसी ही स्त्री है। वह सभी तरह की स्त्रियों की मुक्ति का वाहक बनती है। घरेलू स्त्री, विधवा, वेश्या आदि के टाइप/प्रतिनिधि चरित्र के रूप में ख़ुद सुमन है, साथ ही भोली, शान्ता जैसी स्त्रियों के लिए भी वह मुक्ति के राह खोलती है।
सुमन के रूप में एक ऐसे पात्र की अवधारणा प्रेमचंद ने की है, जो स्त्री जागरण का समूचा प्रतिनिधित्व कर सके। जिसमें समाज सुधार आन्दोलनों और राष्ट्रीय आन्दोलन तथा मानवतावादी दर्शन की उपलब्धियाँ शामिल हों।
प्रेमचंद का मुख्य उद्देश्य था, हिन्दी-उर्दू समाज के भीतर की वास्तविकता को सामने लाना। मध्ययुगीन पिछड़े मूल्यों, जाति-वर्ण के अमानवीय बन्धनों को ‘सेवासदन’ उपन्यास में बखूबी उभारा गया है।
सुमन भले अवास्तविक लगे लेकिन वह जिन-जिन लोगों के सम्पर्क में आती है, वे सभी वास्तविक हैं। उपन्यास कला की जो ख़ूबी होती है, प्रेमचंद उसी का इस्तेमाल सामाजिक सच्चाइयों को सामने लाने के लिए करते हैं।
सामाजिक बन्धन में सबसे अधिक स्त्री जकड़ी थी, इसलिए मुक्ति का महत्व उसके लिए सबसे अधिक था।
प्रेमचंद खुद के अनुभवों में भी इस बात से वाकिफ़ थे, इसीलिए सुमन को वे स्त्री मुक्ति का वाहक बना कर विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक, संस्थानिक परिवेश से गुजारते हैं।
स्त्री की वास्तविक दशा के सामने आने पर ही स्त्री मुक्ति का प्रश्न अपनी तार्किक परिणति पाता है। ‘सेवासदन’ में प्रेमचंद ने यही किया है।
मुक्ति कामी किसी भी वर्ग, समुदाय का पहला लक्ष्य होता है, सम्मान और बराबरी के व्यवहार की आकांक्षा। विवाह के बाद सुमन पण्डित गजाधर की पत्नी के रूप में वह सम्मान और बराबरी नहीं पाती।
इस आकांक्षा में वह भोली तक पहुँच जाती है, जो वेश्या है। लेकिन सम्मान और बराबरी की यह मंजिल नहीं थी। बहुत कम समय में वह वहाँ से भी निकल जाती है।
उसके दो संवाद इसे स्पष्ट करते हैं। पहला संवाद पद्म सिंह से है। वह कहती है-
“जितना आदर मेरा अब हो रहा है, उसका शतांश भी तब नहीं होता था। एक बार मैं सेठ चिम्मनलाल के ठाकुरद्वारे में झूला देखने गयी थी, सारी रात बाहर खड़ी भीगती रही, किसी ने अंदर नहीं जाने दिया। लेकिन कल उसी ठाकुरद्वारे में मेरा गाना हुआ, तो ऐसा जान पड़ता था मानो मेरे चरणों से वह मंदिर पवित्र हो गया।”
यहाँ सुमन ने समाज के अगुआ लोगों के दोहरे चरित्र, पाखंड और ढकोसले को भी उजागर कर दिया है। लेकिन वेश्या के रूप में मिले इस सम्मान को वह वास्तविक नहीं मानती है। समाज सुधारक बिट्ठलदास से मिलने पर वह विधवा आश्रम की सेविका बन जाती है। अपना आंतरिक आशय वह बिट्ठलदास के साथ इस संवाद में व्यक्त करती है-
“आप सोचते होंगे भोग विलास की लालसा से कुमार्ग में आयी हूँ, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। मैं जानती हूँ कि मैंने निकृष्ट कर्म किया है। लेकिन मैं विवश थी, इसके सिवा मेरे लिए कोई रास्ता नहीं था। …मैं ऊंचे कुल की लड़की हूँ, पिता की नादानी से मेरा विवाह एक दरिद्र मूर्ख से हुआ। लेकिन दरिद्र होने पर भी मुझसे अपना अपमान न सहा जाता था। जिसका निरादर होना चाहिए, उसका आदर होते देख मेरे हृदय में कुवासनाएं उठने लगती थीं। …सुख न सही यहाँ आदर तो है। मैं किसी की गुलाम तो नहीं हूँ।”
इस संवाद में स्वाधीनता की भावना भी प्रकट हो जाती है।
वस्तुतः स्वाधीनता की भावना के कारण ही तमाम समाज सुधारकों का ध्यान सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों और गलत परम्पराओं पर गया।इससे सबसे अधिक स्त्री पीड़ित थी।
वह तमाम प्रथाओं की पराधीन थी। वह अमानवीय स्थितियों और दोहरी गुलामी को जी रही थी। इसीलिए सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों में सबसे अधिक जोर स्त्री शिक्षा और स्त्री मुक्ति पर दिया गया।
सती प्रथा, बाल-विवाह का विरोध, विधवा-विवाह का समर्थन और स्त्री शिक्षा पर जोर इन आन्दोलनों के भीतर का मुख्य तत्व है। इन्हीं सब के प्रभाव में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘बाला बोधिनी’ पत्रिका प्रारम्भ की। हिन्दी नवजागरण के अगुआ माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र के यहाँ भी स्त्री की सामाजिक-धार्मिक गुलामी सामने थी, इसीलिए उन्हें स्त्री पर अलग से पत्रिका निकालनी पड़ी।
1909 ई. में रामेश्वरी नेहरू और कमला नेहरू ने ‘स्त्री दर्पण’ पत्रिका का प्रकाशन इलाहाबाद से शुरू किया और उसमें सिर्फ स्त्रियों का लेखन ही छापने का तय किया गया। इस पत्रिका का उद्देश्य स्त्री जागरण और स्त्री शिक्षा को समाज में बढ़ावा देना था।
हालाँकि इसका प्रभाव बहुत सीमित था और यह सामाजिक आन्दोलन का रूप नहीं ले पाया, लेकिन हिन्दी के बौद्धिकों पर इसका प्रभाव पड़ा। पूरे छायावादी काव्य के भीतर इसे देखा जा सकता है।
छायावाद का प्रारम्भ 1916ई. माना जाता है। यही समय ‘सेवासदन’ के लेखन का भी है, प्रकाशन जरूर 1918ई. में होता है। कहने का आशय यह, कि हिन्दी उपन्यास लेखन में उतरने के बाद पहले ही उपन्यास को स्त्री पराधीनता की सामाजिक सच्चाई पर केन्द्रित कर स्त्री मुक्ति को उपन्यास का मुख्य लक्ष्य बनाते समय प्रेमचंद अपने लेखकीय सरोकार के केन्द्र में अपने समय के भीतर की मुख्य धमक को जगह दे रहे थे।
हिन्दी समाज का यह नया बनता बौद्धिक वर्ग था, जो यह समझ रहा था कि मुक्ति का कोई भी विचार बिना स्त्री मुक्ति के पूर्ण नहीं। सेवासदन उपन्यास को हिन्दी नवजागरण और स्त्री मुक्ति के इन्हीं सन्दर्भों में देखकर समझा जा सकता है।