2018 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से रोहित डे की किताब ‘ ए पीपुल’स कनस्टीच्यूशन : द एवरीडे लाइफ़ आफ़ ला इन द इंडियन रिपब्लिक ’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत 1950 के अंतिम महीने में जलालाबाद के सब्जी विक्रेता मुहम्मद यासिन से होती है जो नगरपालिका की ओर से सब्जी बेचने का केवल एक लाइसेंस जारी करने की खबर से परेशान थे । जिसे लाइसेंस दिया गया उसकी इजारेदारी सब्जी के समूचे धंधे पर होनेवाली थी। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगायी कि उनका धंधा जारी रखने की अनुमति दी जाए। उनके वकील का तर्क था कि नगरपालिका की कार्यवाही उसके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण तो है ही, उनके मुवक्किल यासिन के आजीविका के अधिकार का भी उल्लंघन है।
भारत के इतिहास की आजादी, विभाजन, चुनाव और देशी रियासतों के विलय जैसी बड़ी कहानियों में यासिन की यह कहानी बहुत छोटी है। फिर भी उसकी कहानी जाननी जरूरी है क्योंकि अधिकारसंपन्न नागरिक के बतौर देश की सर्वोच्च अदालत जाने वालों में वह पहला भारतीय था। उसकी समस्या और उसका समाधान इस नवस्वाधीन देश के संविधान की परीक्षा था। यासिन का यह साहस भारतीय संविधान की बुनियादी विशेषताओं को उजागर करता है। पहली बात कि इसका रिश्ता दैनन्दिन से है। दूसरी बात कि इसका लगाव अल्पसंख्यकों या निम्नवर्गीय समूह के साधारण देशवासियों से है। तीसरी बात कि बाजार के रिश्तों को नियंत्रित करने के राज्य की कोशिश से अधिकांश टकराव हुए।
15 अगस्त 1947 की आधी रात के गजर के साथ भारत आजाद हुआ। तीन साल बाद प्रांतीय सदनों द्वारा नामित संविधान सभा ने नया संविधान अपनाया जिसमें भारत को संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया। उस समय के लिहाज से यह उल्लेखनीय उपलब्धि थी। चार साल में संविधान सभा ने संविधान लिखा। कांग्रेस पार्टी के दबदबे के बावजूद इस सभा में लिंग, धर्म, जाति और जनजाति की विविधता के साथ तमाम राजनीतिक विचारों को जगह देने की कोशिश की गयी। उस समय जो भी देश स्वाधीन हुए उनके संदर्भ में यह उल्लेखनीय था कि भारतीयों ने अपना संविधान लिखा। केन्या, मलयेशिया, घाना और श्री लंका जैसे देशों के लिए यह काम ब्रिटिश अधिकारियों ने ही अंजाम दिया। इजरायल और पाकिस्तान में संविधान सभाओं का गठन हुआ था लेकिन भारत की तरह उनके देशों में किसी दस्तावेज पर सहमति नहीं बन सकी ।
उस दौर के स्वाधीन हुए देशों में भारत का संविधान सबसे अधिक समय तक कायम रहा और सार्वजनिक जीवन को अब भी निर्देशित करता है। उसकी इस दीर्घजीविता पर विद्वानों ने कम ही ध्यान दिया है। संविधान निर्माण और उसकी संरचना के बारे में तो बहुत कुछ मिल जाता है लेकिन इसे समझने की कोशिश कम हुई है कि समाज ने किन प्रक्रियाओं के जरिये इसे अपनाया । किसी संविधान से देश की राजनीति में आये बुनियादी बदलावों के निशान मिलते हैं। इसके बावजूद इसका पता नहीं चलता कि भारतवासियों ने इसे कैसे समझा और नयी व्यवस्था को कैसे महसूस किया। 1920 के बाद से ही सभी भारतीय भाषाओं के अखबारों में संविधान संबंधी बहसें प्रमुखता से छपने लगी थीं । 1946 में जब संविधान लिखने की प्रक्रिया शुरू हुई तो उसने देश भर में भारी उत्सुकता पैदा की। संविधान सभा को बच्चों, घरेलू स्त्रियों और डाकियों तक से तार, चिट्ठी और आवेदन मिले जिनमें दावे थे, मांगें थीं और बहुतेरे सुझाव भी थे। यासिन जैसे हजारों भारतीयों ने अदालतों में संविधान को याद किया ।
इनमें अधिकतर मामले बहुत ही कठिन हालात से जुड़े हुए थे। एक मुसलमान को जब पाकिस्तान भेजे जाने की बात पता चली तो उसने सर टकराकर जख्मी कर लिया ताकि इलाज के दौरान वकील को आवेदन दायर करने का मौका मिल जाये। एक बंगाली ने ट्राम भाड़ा बढ़ाने की कानूनी वैधता को चुनौती दी। एक व्यक्ति ने मांग की कि पूरे देश में मातृवंशीय व्यवस्था लागू हो और सभी सरकारी कागजों में पिता की जगह माता का नाम दर्ज किया जाये। असल में संविधान लोगों पर उतरा नहीं,रोज ब रोज के मामलात ने उसका उत्पादन और पुनरुत्पादन किया। आजाद भारत की शुरुआत से ही नागरिकों की राजनीतिक सक्रियता ने अदालतों को प्रभावित किया। इसका सबूत जनहित याचिकाओं का लम्बा इतिहास है जो जजों की पहल नहीं थीं बल्कि याचियों ने दाखिल कीं ।
सार्वजनिक और निजी जीवन में संविधान की प्रमुखता के बावजूद इसके इतिहास का पर्याप्त अध्ययन नहीं हुआ है। इसकी एक वजह है कि भारतीय संविधान की भूमिका की सरल व्याख्या नहीं हो सकती। असल में संविधान का आधार मनमाने नियमों की जगह कानून के शासन की इच्छा है लेकिन भारत में दोनों की मौजूदगी साथ साथ रही है। एक ओर तो भारत में जीवित और जाग्रत संवैधानिक संस्कृति नजर आती है।
भारत के सुप्रीम कोर्ट को अक्सर दुनिया की सबसे शक्तिशाली संवैधानिक अदालत कहा जाता है जिसे न्यायिक समीक्षा के व्यापक अधिकार मिले हुए हैं। उसे संविधान की व्याख्या का अंतिम अधिकार है और इसकी सीमाओं के अतिक्रमण को भी रोकना उसका दायित्व है। वकीलों की मजबूत ताकत, राज्य के समर्थन और जनता की प्रचंड सहानुभूति की बदौलत इसने सार्वजनिक जीवन में सर्वव्यापी भूमिका निभायी है और भारत की राजनीति का शायद ही कोई ऐसा महत्वपूर्ण मुद्दा होगा जिस पर सुप्रीम कोर्ट के किसी न किसी फैसले का जाने या अनजाने असर न पड़ा हो।
सरकार को अदालत अक्सर सवाल के घेरे में ले लेती है और तमाम ऐसे सरकारी फैसलों को पलट देती है जिनमें संविधान की सीमाओं का उल्लंघन किया गया हो। अस्मिता, हित, अधिकार और देश के नागरिकों को क्षति संबंधी धारणाओं पर संवैधानिक भाषा का गहरा असर है और तमाम क्रांतिकारी सामाजिक राजनीतिक आंदोलन भी कानून और संविधान के साथ संवाद बनाने का प्रयास करते हैं। दलितों और आदिवासियों समेत तमाम हाशिये के समूहों ने देश के संविधान को सार्वजनिक संसाधन में बदल दिया है और गांवों के बाहर संविधान की प्रस्तावना की पत्थरगड़ी के जरिये समता के एक वायदे में मूर्त कर दिया है ।
लेकिन इसके साथ ही दूसरी ओर सरकार और नागरिक कानून के अनुपालन पर कोई ध्यान नहीं देते। अठारहवीं सदी से ही न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार, शाहखर्ची और देरी का घुन लगा हुआ है। न्याय का सारा कामकाज ऐसी भाषा में होता है जो लोगों को समझ नहीं आती। आजादी के बाद से निजी विवादों को अदालत में घसीट लाने की प्रवृत्ति में गिरावट आयी है। इस तरह हमारे देश में कानून और अव्यवस्था का सहकार चल रहा है। यह सहकार 1990 दशक के बाद बहुतेरे देशों में नजर आया। असल में दुनिया भर में अदालतें ऐसी संस्था के बतौर उभरी थीं जो अतीत के साथ संबंध विच्छेद का द्योतक थीं। संविधान के प्रति निष्ठा का रिश्ता केवल आजादी के साथ शासन के बदलाव से ही नहीं है। 1990 दशक में नवउदारवाद के साथ ही मानवाधिकार के सवाल पर अंतर्राष्ट्रीय संजाल भी उभरे। नवउदारवाद और वैश्वीकरण के चलते शासकीय बिखराव आया और राज्य का प्राधिकार भी एकाधिक टुकड़ों में बंट गया। इसके कारण कानून की ताकत बढ़ी ।
संविधान का दैनन्दिन जीवन में प्रवेश और राजनीति के कानूनीकरण का इतिहास भारत में न केवल अफ़्रीका और पूर्वी यूरोप के देशों से बल्कि कनाडा और न्यू ज़ीलैंड जैसे पुराने लोकतांत्रिक देशों से भी पुराना रहा है। संविधान को अंगीकृत करने के कुछ दिन बाद ही हजारों नागरिकों ने संविधान का सहारा लेकर शासन की कार्यवाहियों को अदालती चुनौती देना शुरू कर दिया। इस तरह नागरिकों ने राजनीति को अदालतों में घसीटा। अंग्रेजी राज में राज्य के साथ नागरिकों के टकराव को सड़क के आंदोलनों से लेकर बंद कमरे की समझौता वार्ताओं तक सुलझाया जाता था। आजादी के बाद ये टकराव अदालतों के दरवाजों तक आने लगे।
किताब में बताया गया है कि भारतीय संविधान ऐसा दस्तावेज है जिसके मूल राजनीतिक कुलीनों की सहमति से बने लेकिन आजादी के पहले ही दशक में वह सामान्य देशवासियों के अनुभव का अंग बन गया। निर्माण और लागू करने की प्रक्रिया में यह राजनीति में प्रमुख स्थान बनाने में कामयाब रहा। तमाम संविधान सही और गलत, कानूनी और गैर कानूनी या वैध और अवैध की दुनिया में रहते हैं तथा उनकी व्याख्या का दबाव बाहर से आता है। किताब में संविधान का अध्ययन करने के लिए जजो और अधिकारियों के साथ ही सामान्य लोगों की ऐसी कार्यवाहियों का भी जायजा लिया गया है जिन्होंने इसकी व्याख्या का भारी दबाव बनाया। इस नयी पद्धति का प्रयोग करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के अभिलेखागार को छानकर समझने की कोशिश की गयी है कि भारत के दैनन्दिन जीवन को किस तरह संविधान ने गढ़ा और आकार दिया है ।
जब संविधान सभा ने भारत को सम्प्रभु, लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया तो बदलाव क्या आया ? इस सवाल के उत्तर में दो अलग अलग कहानियां सुनने को मिल सकती हैं। एक कहानी वह है जिसे वकील और नेता अक्सर सुनाते हैं। इसके मुताबिक एकबारगी देश ने अपने अतीत से पूरी तरह छुटकारा पा लिया। वर्ग, जाति, नस्ल, धर्म या लिंग आधारित किसी भी भेदभाव के बिना सारी जनता की सम्प्रभु इच्छा की अभिव्यक्ति के बतौर एक नयी व्यवस्था अंगीकृत की गयी। संविधान की सफलता का रहस्य उसके लागू होने के समय में निहित है। माना जाता है कि देश ऐसे लोकप्रिय राष्ट्रीय आंदोलन से पैदा हुआ था जिसके नेता कानून के शासन से प्रतिबद्धता की दूरदृष्टि से युक्त थे। स्वतंत्र देश की पैदाइश के साथ संविधान भी लागू हुआ। इतिहास और राजनीति के विचारकों ने पिछले दशक में संविधान की रक्षा करने की कोशिश की है और इसे नैतिक दृष्टि से संपन्न दस्तावेज के बतौर परिभाषित किया है। संविधान के पाठ और संविधान सभा की बहसों को कुछ बुनियादी अंतर्विरोधों को सामायोजित करने की कोशिश के रूप में देखा गया है। असल में संविधान और लोकतांत्रिक आकांक्षा, व्यक्तियों और समुदाय के अधिकारों या धार्मिक स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षा के बीच तनाव रहता है । इस तनाव को हल करने की कोशिश के बतौर देश के संविधान को समझने का प्रयास हाल के दिनों में तेज हुआ है ।
भारत के संविधान द्वारा लाये गये बदलावों के रूप में बालिग मताधिकार और सामाजिक क्रांति का संस्थानीकरण का जिक्र बहुधा किया जाता है। इसके महत्व को समझने के लिए तत्कालीन समाज को ध्यान में रखना होगा। कहने की जरूरत नहीं कि भारतीय समाज ऊंच नीच पर आधारित था। पश्चिमी परिपक्व लोकतांत्रिक देशों में भी कुछ ही समय पहले मताधिकार को स्त्रियों, अश्वेतों और कामगारों तक विस्तारित किया गया था।
अंग्रेजी राज में विभिन्न औपनिवेशिक सुधारों के जरिये भी मताधिकार को सामुदायिक पहचानों और संपत्ति के आधार पर सीमित ही रखा गया था। इस इतिहास से पूरी तरह अलग होकर एकबारगी सभी बालिगों को मताधिकार दे दिया गया। मान्यता यह थी कि राज्य जैसी दानवाकार मशीन को मनुष्य की इच्छा के अधीन ले आने के सपने में ही लोकतंत्र की सच्ची आत्मा बसती है। इसके जरिये ही राजनीतिक रूप से समान अधिकार प्राप्त नागरिक एक साथ मिलकर अपने इतिहास का निर्माण करना शुरू करते हैं।
संविधान में समाजार्थिक वंचना को केंद्रीय महत्व देना भी खास बात थी। उसकी उद्देशिका में सभी नागरिकों को समाजार्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने की बात शामिल है। संपत्ति के अधिकार को सीमित करके इसने भूमि सुधार का रास्ता खोला, छुआछूत और मानव तस्करी का उन्मूलन किया, स्त्रियों और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान की अनुमति दी तथा धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अधिकार प्रदान किया।
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत शासन के बुनियादी कायदे बनाये गये। इनमें संसाधनों का समान बंटवारा, बच्चों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा, पुरुष और स्त्री को समान काम का समान वेतन, काम के बेहतर हालात और जीने लायक पगार, शराबबंदी, बाल श्रम का निषेध तथा पोषण में सुधार और सबके स्वास्थ्य की गारंटी जैसे प्रावधानों का भी उल्लेख हुआ।
सरकारी नीति में बुनियादी अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच वरीयता में इस अंतर के बावजूद अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा कि भविष्य में विधायिका और कार्यपालिका इन सिद्धांतों के प्रति महज जुबानी निष्ठा जताने की जगह इन्हें अपनी तमाम कार्यवाहियों का आधार बनाएगी। इनमें आर्थिक से लेकर नैतिक सवालों तक संविधान की आकांक्षा व्यक्त हुई थी। आजादी को इसने समाजार्थिक विषमता के खात्मे से जोड़ा। उदारपंथी संविधान के जरिये समाजार्थिक बदलाव एक नया प्रयोग था । इसके जरिये इस मान्यता को चुनौती दी गयी कि सामाजिक विषमता और आर्थिक बदहाली को दूर करने के प्रयास लोकतांत्रिक शासन के तहत नहीं किये जा सकते ।
संविधान के पाठ के इन क्रांतिकारी पहलुओं के बावजूद उनके प्रभाव के सिलसिले में बौद्धिकों ने थोड़ा संयम बरता है। उनका कहना है कि देश का संविधान कुलीन परियोजना था। संविधान के जरिये लोकतंत्र की स्थापना न तो किसी जन दबाव से हुई, न ही इसे किसी राज्य से छीनकर हासिल किया गया। उनकी राय में भारत की जनता को लोकतंत्र उपहार के रूप में उसके राजनीतिक कुलीनों ने ही सौंप दिया। लोकतंत्र और समता जैसे मजबूत आदर्शों की जगह मुट्ठी भर अंग्रेजी भाषी बौद्धिकों के घेरे से बाहर नहीं बनी। किसी भी शक्तिशाली समूह ने इसके लिए गोलबंदी नहीं की थी। इसके विपरीत मान्यता वाले लोग कहते हैं कि देश के संविधान में स्वाधीनता आंदोलन के करिश्माई और समर्पित पुरोधाओं ने आंदोलन के सकारात्मक मूल्यों को पिरो दिया। जब पहली पीढ़ी के वे नेता नहीं रहे तो उन मूल्यों को कायम रखने की जिम्मेदारी सर्वोच्च अदालत और जजों की सक्रियता पर आ गयी ।
संविधान के बारे में आधिकारिक धारणा के विपरीत बहुतेरे लोग उसे मृगछलना समझते हैं। असल में इसने उत्तेजना के साथ निराशा भी पैदा किया। इस सिलसिले में लेखक ने मंटो की कहानी नया कानून को याद किया है। उसमें मंगू नामक एक तांगा चलाने वाला लाहौर में 1935 के इंडिया ऐक्ट संबंधी उत्तेजना का बयान करता है। इससे स्वशासन का विस्तार हुआ था। इस नये कानून के पारित होने से मंगू को उम्मीद है कि अंग्रेज बिल में छिप जाएंगे। जिस दिन बिल पारित होता है उसी दिन किराया अधिक मांगने का आरोप लगाकर एक अंग्रेज उस पर हमला कर देता है। मंगू भी उस पर घूंसे बरसाते हुए अपना राज होने की खबर देता है। उसे धक्का लगता है जब दो पुलिस अफ़सर उसे घसीटकर थाने ले जाते हैं। तमाम समय वह नये कानून की दुहाई देता रहता है लेकिन कोई उसकी नहीं सुनता और उसे हिरासत में बंद कर दिया जाता है।
इस कहानी का जिक्र अक्सर आजादी और संविधान के प्रसंग में सपने और हकीकत के बीच के अंतराल को बताने के लिए किया जाता है । इसे जमीनी संघर्ष से उपजे सपने और शासकीय यथार्थ के टकराव का मुहावरा भी समझा गया है । इसके जिक्र की एक वजह यह भी थी कि संविधान में दो तिहाई हिस्सा 1935 के इंडिया ऐक्ट से लिया गया था ।
इसे संविधान सभा के चरित्र से भी संकेतित किया जाता है। इस सभा के सदस्यों का सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर निर्वाचन नहीं हुआ था। शायद इसी वजह से सार्वभौमिक बालिग मताधिकार और नागरिक अधिकारों के प्रावधान के बावजूद भारतीय गणतंत्र की गहरी जड़ें औपनिवेशिक कानूनों और केंद्र का नियंत्रण कायम रखने वाली संस्थाओं में बनी रहीं। इसकी छाप आपातकाल संबंधी प्रावधान में मौजूद थी जिसके तहत केंद्र सरकार कभी भी बुनियादी अधिकारों को स्थगित कर सकती थी, अदालतों की हदबंदी कर सकती थी, संसदीय चुनाव टाल सकती थी और निर्वाचित विधान सभाओं को भंग कर सकती थी।
संविधानों की परम्परा व्यक्ति को राज्य से सुरक्षा प्रदान करने की रही थी लेकिन इसके विपरीत भारत का संविधान राज्य को समाज तथा अर्थतंत्र बदलने की ताकत भी देता है। इस तरह संविधान भारत की संप्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखने, राज्य की रक्षा, विदेशों से बेहतर रिश्तों, कानून व्यवस्था, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा अभद्रता और नैतिकता के नाम पर बुनियादी अधिकारों को कभी भी निरस्त कर सकता था। संविधान सभा के एकमात्र कम्युनिस्ट सदस्य ने टिप्पणी की कि मौलिक अधिकारों को किसी सिपाही के नजरिये से लिखा गया है। अंग्रेजी शासन की पुलिस, सेना, अदालत और नौकरशाही को लगभग जस का तस रहने दिया गया था।
आलोचकों ने यह भी कहा कि इसमें संशोधन की प्रक्रिया आसान होने से इस दस्तावेज में बहुत स्थिरता नहीं है। संसद में दो तिहाई के बहुमत से इसे संशोधित किया जा सकता था। कहा गया कि अगर शासन के हितों के मुताबिक इसे आसानी से बदल दिया जा सकता है तो फिर यह शासन की कार्यवाही पर रोक कैसे लगाएगा। जिस अवधि तक (चौदह साल) का अध्ययन किताब में किया गया है तब तक सत्रह बार संशोधन किये जा चुके थे। इनमें से आधे संशोधन सर्वोच्च अदालत की ताकत पर रोक लगाने के मकसद से किये गये।
इसकी यह आलोचना कभी जनता में जगह नहीं बना सकी कि यह भारतीय दस्तावेज नहीं है। संविधान के लेखक भी जानते थे कि इसमें निहित मूल्य नागरिकों के वास्तविक अनुभव से नहीं पैदा हुए। इसलिए भी अंबेडकर ने अपने व्याख्यान में कहा कि राजनीतिक जीवन में समता को तो मान्यता दी गयी है लेकिन समाजार्थिक संरचनाओं के कारण इसे अन्य क्षेत्रों में विस्तरित नहीं किया जा सका।
आलोचना या प्रशस्ति की जगह इस किताब में माना गया है कि भारतीय गणतंत्र में दैनन्दिन जीवन को संविधान ने बहुत गहराई से बदल दिया है। बदलाव की इस प्रक्रिया का संचालन कुलीन नेताओं और जजों के मुकाबले देश के एकदम हाशिये के नागरिकों ने किया है। अंग्रेजी में कुलीनों की सहमति से तैयार इस दस्तावेज ने लोगों की कल्पना से जीवन ग्रहण किया और उन्होंने ही इसके अस्तित्व को सार्थक बनाया, इसकी शरण ली और इसके साथ बहस मुबाहिसा किया।
संविधान लागू होने के साल भर ही हैदराबाद के मुख्यमंत्री ने दिल्ली सरकार को पत्र लिखकर बताया कि तमाम तरह के लोग संविधान के मौलिक अधिकारों का हवाला देकर हाइ कोर्ट में मुकदमे दायर कर रहे हैं। एक पाकिस्तानी स्त्री ने पुलिस द्वारा देश छोड़ने के आदेश पर स्थगन हेतु वाद दायर किया । दो अध्यापकों को जब स्थानीय भाषा की परीक्षा पास करने को कहा गया तो वे भी इसे चुनौती देने अदालत जा पहुंचे। ऐसी हालत केवल हैदराबाद की ही नहीं थी। जीवन के सभी क्षेत्रों के नागरिक संवैधानिक अधिकारों के आधार पर अदालत में वाद दायर करने लगे थे और इस पर देश के नेताओं तथा नौकरशाहों को हैरत होती थी। हैदराबाद की विशेषता यह थी कि इसे हाल में ही भारत में शामिल किया गया था और अभी वहां सैनिक शासन जैसा ही था ।
तमाम आशंकाओं के बावजूद देश के सार्वजनिक जीवन पर संविधान का दबदबा नजर आने लगा। जनता की इसी संवैधानिक चेतना की जांच पड़ताल इस किताब का उद्देश्य है। इसमें संविधान को लेकर एक तरह का द्वंद्व दिखाई देता है। एक ओर तो वह शासन की इच्छा की राजनीति है तो दूसरी ओर शासन से जनता की अपेक्षा का उभार भी बन जाता है। इनके बीच की कशमकश ने ही देश के हालिया इतिहास को आकार दिया है। इस क्रम में नजर आया कि औपनिवेशिक अतीत से पूरी तरह अलग होते हुए भी संविधान के कुछ प्रावधानों को जानबूझकर नजरअंदाज किया गया है। संविधान में प्रावधान है कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से राहत पाने के लिए भारत का कोई भी नागरिक सीधे सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। प्रांतीय हाइ कोर्टों को तो और भी व्यापक अधिकार प्रदान किये गये हैं। वे मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में सरकार के विरोध में रिट जारी करके राहत प्रदान कर सकते हैं। मौलिक अधिकारों के बारे में तो बहुत विचार हुआ है लेकिन उनके उल्लंघन के मामले में राहत के इन प्रावधानों पर कम ध्यान दिया गया है। इन प्रावधानों के सहारे नागरिक किसी भी कानून या प्रशासनिक कार्यवाही को अदालत में चुनौती दे सकता है ।
ये प्रावधान जिस समय लागू हुए उस समय आजादी के बाद भारतीय राज्य अपना विस्तार शुरू ही कर रहा था और समाजार्थिक बदलावों की कोशिश में दैनन्दिन में हस्तक्षेप भी बस शुरू ही हुआ था। इसके कारण अदालतों में मुकदमों की बाढ़ आ गयी। इस हालत के लिए राज्य और अदालतें तैयार नहीं थे। गुलाम भारत में लगभग सभी मुकदमे संपत्ति संबंधी विवाद के दीवानी अदालत में जाते थे। आजादी के बाद इनमें घटोत्तरी आयी लेकिन राज्य पर मुकदमे तेजी से बढ़े। संविधान निर्माताओं ने जब राहत का प्रावधान किया था तो उनको इसका अंदाजा नहीं था। जब राज्य ने नागरिकों के व्यवहार को ढालना चाहा तो अनेक लोगों की आजीविका और जीवन पद्धति में व्यवधान आया । लोकतांत्रिक मतादेश राज्य के पक्ष में था और विकास का उसका नारा सर्वमान्य था इसलिए आम जनता के बीच राज्य को चुनौती देना सम्भव नहीं था । ऐसी स्थिति में नगरपालिका के कर्मचारी से लेकर महाराजा तक सभी असंतुष्ट अदालत की शरण में गये ।
अदालतों की लोकप्रियता की एक वजह राहत संबंधी ये प्रावधान तो थे ही, मुकदमों के जल्दी निपटारे ने भी उनके प्रति भरोसा पैदा किया। दीवानी दावे के मुकाबले राहत की याचिका का शुल्क बहुत कम था। 1950 में सुप्रीम कोर्ट ने 600 से अधिक याचिकाओं पर सुनवाई की। 1962 तक इन सुनवाइयों की संख्या 3833 हो चुकी थी। इसी अवधि में अमेरिका में सुनवाई की संख्या 960 मात्र रही थी। अमेरिका की आजादी के पचास साल बाद तक वहां की सुप्रीम कोर्ट ने कुल 40 ही मुकदमे सुने थे। भारत की अदालतों में दायर मुकदमों के निपटारे का अनुपात पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों की अदालतों से अधिक रहा है। भारत में दायर मूकदमों में विविधता भी अधिक रही है। इनसे पता चलता है कि रोजमर्रा के जीवन में राज्य किस हद तक दखल देता था और किस हद के बाद नागरिक इस दखलंदाजी के प्रतिवादस्वरूप अदालत की शरण में चले जाते थे। इन मुकदमों में वाद विवाद की मार्फत लोकतंत्र की धारणात्मक शब्दावली ने प्रत्यक्ष रूप ग्रहण किया। राज्य और नागरिक के इस मुखामुखम से संवैधानिक अंत:क्रिया का जन्म हुआ। यह संवैधानिक अदालत और उसकी बहसें नागरिकता का अभिलेखागार बन गयीं।