समकालीन जनमत
जनमत

क्या हम बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों की क्लाइमेट चेंज को नकारने की पीआर कैम्पेन की कीमत चुका रहे हैं ?

कार्पोरेट पीआर और लाबीइंग की ताकत से सभी वाकिफ़ हैं. उम्मीद है आप नीरा राडिया को भूले नहीं होंगे. लेकिन आज हम अमेरिकी पीआर कंपनी- एपोनिमस पीआर के मुखिया ब्रूस हैरिसन की कहानी के जरिये यह जानने की कोशिश करेंगे कि कैसे आज से 30 साल पहले हैरिसन ने बड़ी तेल और ग्रीन हाउस गैस छोड़नेवाली कंपनियों के लिए एक ऐसी पीआर रणनीति बनाई जिसके जरिये उसने न सिर्फ क्लाइमेट चेंज की अवधारणा पर ही संदेह पैदा कर दिया बल्कि उसे नकारने की हद तक चले गए.

क्लाइमेट चेंज को लेकर हैरिसन की इस पीआर रणनीति और ‘स्पिन’ को पूर्व अमेरिकी उप-राष्ट्रपति अल गोर ने विश्व युद्धों के बाद सबसे बड़ा नैतिक अपराध करार दिया था.

उसका नतीजा दुनिया आज भुगत रही है.

एक ओर दुनिया ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज की मार से दोहरी हो रही है और दूसरी ओर, दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों का कारोबार धड़ल्ले से जारी है. उनका मुनाफ़ा हर दिन नए रिकार्ड बना रहा है. विडम्बना देखिए कि ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज के लिए सबसे बड़ी गुनाहगार होने के बावजूद बड़ी तेल कंपनियों का कारोबार लगातार फल-फूल रहा है. उनके रिकार्डतोड़ मुनाफ़े पर कोई देश और सरकार अंकुश लगाने या उसे नियंत्रित करने या फिर उनके मुनाफ़े पर छप्परफाड़ मुनाफ़ा टैक्स (विंडफाल टैक्स) लगाने तक को तैयार नहीं है.

आखिर इसका राज क्या है ? असल में, यह दुनिया की बड़ी तेल कंपनियों की पी.आर और लाबीइंग की ताकत की जीत है जिसके कारण क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार होने के बावजूद उनके कारोबार और कोयला सहित पेट्रोलियम उत्पादों के इस्तेमाल पर कोई रोक नहीं लग पा रही है.

यह एक ऐसी कहानी है जो कोई तीन दशक पहले काफी सोच-विचार और योजना के साथ शुरू हुई थी जिसका मकसद किसी भी तरह से क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वार्मिंग की जिम्मेदारी और जवाबदेही से बड़ी तेल (फ़ासिल फ्यूल) कंपनियों को बचाना था. इसके लिए इन तेल कंपनियों ने पीआर और लाबीइंग की जो रणनीति अपनाई, उसका जोर मौसम विज्ञान (क्लाइमेट साइंस) की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा करना और क्लाइमेट चेंज की आशंकाओं को नकारना था. वे लम्बे समय तक कामयाब रहीं.

बड़ी तेल कंपनियों का छप्परफाड़ मुनाफा

लेकिन बड़ी तेल कंपनियों की कार्पोरेट पीआर और लाबीइंग की रणनीति कैसे कामयाब हुई, इस कहानी पर थोड़ी देर में लौटते हैं. हालाँकि इससे यह पता चलता है कि कैसे उनका कार्पोरेट पीआर लम्बे समय से बारीकी और चालाकी से दिन-रात वैश्विक और घरेलू जनमत को प्रभावित करने में जुटा हुआ है. दूसरी ओर, उनकी राजनीतिक लाबीइंग की ताकत का आलम यह है कि दुनिया के ताकतवर मुल्कों की राजनीतिक पार्टियाँ और नेता उनकी जेब में हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि बड़ी तेल कंपनियों के पीआर और लाबीइंग की ताकत का सीधा संबंध उनके रिकार्डतोड़ मुनाफ़े से है जिसके कारण वे सालाना अरबों डालर खर्च करके वैश्विक जनमत को प्रभावित करने से लेकर राजनीतिक लाबीइंग कर पाती हैं. आश्चर्य नहीं कि जब दुनिया भर में और यहाँ तक कि विकसित देशों में कच्चे तेल की ऊँची कीमतों के कारण महंगाई 40 साल के रिकार्ड तोड़ रही है, गरीबों और मध्यमवर्ग तक के लिए खर्चे चला पाना मुश्किल हो रहा है, उसी समय बड़ी तेल कंपनियों को छप्परफाड़ मुनाफ़ा हुआ है.

रिपोर्टों के मुताबिक, बड़ी बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों के मुनाफ़े में इस साल लगातार दूसरी तिमाही में रिकार्डतोड़ बढ़ोत्तरी हुई है. गार्डियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया की पांच सबसे बड़ी तेल कंपनियों ने इस साल की पहली छमाही (जनवरी से जून) में लगभग 100 अरब डालर का मुनाफा कमाया है.

इस रिपोर्ट के अनुसार, ब्रिटिश तेल कंपनियों- बीपी को 8.5 अरब डालर और शेल को 11.5 अरब डालर, अमेरिकी कंपनियों- एक्सन-मोबिल को 17.6 अरब डालर और शेवरान को 11.6 अरब डालर और फ्रेंच कंपनी- टोटल को 9.8 अरब डालर का मुनाफ़ा हुआ है. इस तरह दुनिया की इन पांच बड़ी तेल कंपनियों को इस तिमाही (अप्रैल से जून) में 50 अरब डालर से ज्यादा का रिकार्डतोड़ मुनाफा हुआ है.

यह कोई मामूली रकम नहीं है क्योंकि यह सिर्फ तीन महीने का मुनाफा है. याद रहे कि आर्थिक रूप से दिवालिया हो चुका श्री लंका अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के वास्ते सिर्फ 5 अरब डालर के ऋण के लिए मुद्रा कोष के सामने झोली फैलाए बैठा है. यह भी याद रहे कि दुनिया के दो दर्जन से ज्यादा देशों की सालाना जीडीपी 50 अरब डालर से कम है.

इस छप्परफाड़ मुनाफ़े से ही इन तेल कंपनियों को वह ताकत मिल जाती है जिससे वे दुनिया भर की सरकारों और राजनेताओं को अपनी उँगलियों पर नचा रही हैं. ये वह बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनियाँ हैं जिनके साम्राज्य को बनाए रखने के लिए अमेरिका-ब्रिटेन-फ़्रांस ने दुनिया के कई देशों की सरकारों का तख्ता पलटने में भी कोई संकोच नहीं किया.

इन तेल कंपनियों पर अनेक देशों में न सिर्फ तेल के कुओं के लिए स्थानीय समुदायों के जबरन विस्थापन, उत्पीड़न और स्थानीय पर्यावरण को बर्बाद करने से लेकर नदियों, जंगलों और झीलों को खत्म करने के आरोप लगते रहे हैं बल्कि उनपर मानवाधिकारों के उल्लंघन और सामाजिक-राजनीतिक एक्टिविस्टों की हत्याओं और उन्हें जेल भिजवाने के भी आरोप हैं.

इसके बावजूद उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा बल्कि उनके रसूख और प्रभाव में और इजाफ़ा ही हुआ है. इसमें उनके पीआर और लाबीइंग की बहुत बड़ी भूमिका है.

आत्महत्या की ओर दुनिया

असल में, पीआर और लाबीइंग कम्पनियाँ अपने कार्पोरेट और दूसरे ताकतवर क्लाइंटस के लिए चतुराई, बारीकी और कलात्मक सिद्धहस्तता के साथ विपरीत तथ्यों, मुद्दों, सवालों और आरोपों को तोड़ने-मरोड़ने, उन्हें अपने हितों के मुताबिक ‘स्पिन करने’ और न्यूज मीडिया और दूसरे ओपिनियन मेकर्स का इस्तेमाल करके अपने क्लाइंट्स की बनावटी लेकिन सकारात्मक छवि पेश करने के लिए जानी जाती रही हैं.

अब लौटते हैं उस कहानी की ओर जो परदे के पीछे से चलनेवाले इन तेल कंपनियों के उस पीआर रणनीति और लाबीइंग की हैरत-अंगेज़ कहानी है जिसके जरिये इन तेल कंपनियों ने जनमत को प्रभावित करने के साथ-साथ सरकारों की नीतियों को भी न सिर्फ अपने खिलाफ जाने से रोका बल्कि उसका फ़ायदा उठाया. यह पूरी कहानी का खुलासा बीबीसी के जेन मैकमुलेन ने अपनी एक रिपोर्ट में किया है. इस पर बीबीसी ने तीन किस्तों में एक फिल्म भी बनाई है लेकिन यह भारत में उपलब्ध नहीं है. इसे देश देखने के लिए आपको यूट्यूब पर बिग आयल वर्सेस द वर्ल्ड खोजनी होगी.

इस रिपोर्ट के मुताबिक, कोई तीस साल पहले अमेरिका में बड़ी तेल और औद्योगिक कंपनियों ने एक पीआर कंपनी की मदद से एक गोपनीय योजना तैयार की जिसका उद्देश्य आम लोगों में क्लाइमेट चेंज को लेकर संदेह करना और उन्हें यह समझाना था कि क्लाइमेट चेंज कोई समस्या नहीं है. मैकमुलेन के अनुसार, इन कंपनियों की यह विध्वंसकारी पीआर रणनीति सालों तक कामयाब रही और जिसके भयावह नतीजे आज सबके सामने हैं.

यह कहानी शुरू होती है 1992 में जब दुनिया में मौसम परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) और धरती के गर्म होने को लेकर गंभीर वैज्ञानिक शोध सामने आने लगे थे. इसका असर कुछ हद तक सार्वजनिक चर्चाओं में भी दिखने लगा था. सरकारों पर नीतियों में बदलाव का दबाव बढ़ने लगा था. इसी साल ब्राजील के रियो में पहली बार अर्थ समिट के प्लेटफार्म से क्लाइमेट एक्शन का एक फ्रेमवर्क तैयार हुआ था.

जाहिर है कि बड़ी तेल और फासिल फ्यूल कम्पनियाँ चिंतित थीं. उन्हें यह डर सता रहा था कि कहीं जीवाश्म ईंधन (फासिल फ्यूल) के इस्तेमाल को कम करने, इस तरह उनके कारोबार को सीमित करने और उर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर जोर न बढ़ने लगे. इस चिंता के साथ इन कंपनियों ने ग्लोबल क्लाइमेट कोलिशन (जीसीसी) की शुरुआत की थी जिसका मकसद क्लाइमेट चेंज पर चर्चा या नरेटिव की दिशा को बदलना था. इस कोलिशन में खासकर तेल, कोयला, आटोमोबाइल, टाप बिजली, स्टील और रेल कम्पनियाँ शामिल थीं.

साइलेंट स्प्रिंग

मैकमुलेन के मुताबिक, इस कोलिशन ने एक पीआर एजेंसी को हायर करने का फैसला किया ताकि क्लाइमेट चेंज पर नरेटिव को अपने मुताबिक मोड़ा जा सके. यह सालाना 5 लाख डालर का कान्ट्रेक्ट था जिसपर कई पीआर कंपनियों की नज़र थी. इनमें ब्रूस हैरिसन की कंपनी- एपोनिमस पीआर भी थी जिसे उसने अपनी पत्नी के साथ मिलकर शुरू किया था. हैरिसन ने जीसीसी को बताया कि उसने कैसे मुद्दे को ‘स्पिन’ करके आटोमोबाइल सुधारों को रोकने में कामयाबी हासिल की है. जीसीसी को हैरिसन का पिच यानी आइडिया पसंद आया.

ब्रूस हैरिसन: ग्रीन पीआर के डीन या डान ?

जीसीसी हैरिसन के पिछले रिकार्ड से भी प्रभावित थी. हैरिसन के पास 70 के दशक से ही अमेरिका में प्रदूषण फैलानेवाली कुछ बड़ी कंपनियों खासकर रसायन कंपनियों के एकाउंट थे. इस कारण ही हैरिसन को “पर्यावरण पीआर का पिता” कहा जाता था. कुछ उसे “ग्रीन पीआर का डीन” भी कहते हैं. कारण यह कि हैरिसन ने अपनी क्लाइंट कंपनियों का न सिर्फ जमकर बचाव किया बल्कि उनके खिलाफ होनेवाले फैसलों और कानूनों को बनने से रोकने या उन्हें कमजोर करने में भी कामयाब रहा था.

उदाहरण के लिए, अमेरिका में कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से हो रहे नुकसान पर रैचेल कार्लसन की 1962 में छपी क्लैसिक किताब “साइलेंट स्प्रिंग” के बाद खूब हंगामा मचा. कीटनाशकों के इस्तेमाल पर नियंत्रण के लिए कानून बनाने की कोशिशें शुरू हुईं तो कीटनाशक बनानेवाली कंपनियों ने हैरिसन की पीआर कंपनी को हायर किया.

हैरिसन ने पर्यावरण रक्षा संबंधी उपायों और कानूनों को रोकने के लिए बचाव में आर्थिक तर्क खड़े कर दिए. वह एक शुद्ध उपयोगितावादी तर्क था. उसने रसायन कंपनियों के बचाव को ऐसे पेश किया जैसे वे बुराई होते हुए भी क्यों अनिवार्य हैं और उनसे होनेवाला नुकसान उनसे होनेवाले फायदों की तुलना में कैसे कम है. यह भी कि उनपर रोक से रोजगार से लेकर कृषि उत्पादन पर कितना बुरा असर पड़ेगा.

हैरिसन की पीआर रणनीति यह होती थी कि वह पर्यावरण रक्षा के मुद्दे को बिलकुल उलट करके या रिफ्रेम करके पेश करता था. जैसे उसने क्लाइमेट चेंज के मुद्दे पर तेल और कोयला जैसे फासिल फ्यूल के इस्तेमाल को नियंत्रित करने (रेगुलेशन) की संभावनाओं को तारपीडो करने के लिए उसे अमेरिका में रोजगार, व्यापार और कीमतों पर पड़नेवाले नकारात्मक असर के बरक्स पेश किया.

ग्रीन पीआर रणनीति की गीता

यह एक तरह से आमलोगों को अनावश्यक रूप से डराने की रणनीति भी थी कि अगर फासिल फ्यूल के इस्तेमाल को रेगुलेट करने की कोशिश की गई तो उन्हें अपने रोजगार से हाथ धोने के लिए तैयार रहना होगा, उसका व्यापार और कारोबार पर बुरा असर पड़ेगा और लोगों को पेट्रोल-गैस की अधिक कीमतें देने के लिए तैयार रहना होगा. इस तरह हैरिसन ने पूरे मुद्दे को रिफ्रेम करते हुए नीति-निर्माताओं के सामने पर्यावरण की चिंता करते हुए अमेरिकी लोगों के रोजगार, व्यापार और कीमतों को भी ध्यान में रखने का काउंटर नरेटिव पेश कर दिया.

बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, इसके साथ ही हैरिसन ने वैज्ञानिकों के बीच क्लाइमेट चेंज को लेकर मौजूद मतभेदों का भी अपने क्लाइंट्स के पक्ष में खूब इस्तेमाल किया. हालाँकि ऐसे वैज्ञानिक संख्या में कम थे जो क्लाइमेट चेंज, उसमे ग्रीन हाउस गैसों की भूमिका और उसके धरती के तापमान पर असर को लेकर आश्वस्त नहीं थे. यह स्वाभाविक था क्योंकि विज्ञान और विशेषज्ञ किसी भी उभरते विज्ञान और शोध को लेकर 100 फीसदी निश्चित नहीं होते हैं. लेकिन हैरिसन ने उन वैज्ञानिकों को अख़बारों में लेख लिखने और भाषण देने के लिए पैसे देने शुरू किए जो क्लाइमेट चेंज को लेकर निश्चित नहीं थे. अख़बारों ने भी संतुलन के नामपर ऐसे लेखों को छापने के साथ उन्हें अपनी रिपोर्टों में भी जगह देनी शुरू कर दी.

इससे एक ऐसा माहौल बनाया गया कि जिस विषय पर वैज्ञानिकों में ही मतभेद हैं, वे निश्चित नहीं है और जहाँ लाखों लोगों का रोजगार और कारोबार-व्यापार दाँव पर है, फासिल फ्यूल को नियंत्रित करने का कोई भी फैसला जल्दबाजी होगी. उससे नुकसान ज्यादा होगा.

यह सब परोक्ष रूप से किसी भी रेगुलेशन की सम्भावना को खत्म करना या उसे बहुत कमजोर और अप्रभावी बनाने के तर्क थे. यही हुआ भी. अगले कई दशकों तक यह पीआर रणनीति ऐसी कामयाब रही कि क्लाइमेट चेंज के मुद्दे पर किसी भी सार्वजनिक चर्चा, अखबारी रिपोर्ट, टीवी बहसों में पर्यावरणवादियों और वैज्ञानिकों के साथ-साथ क्लाइमेट चेंज को नकारने या उसे संदेह से देखने और आर्थिक तर्क रखनेवालों को बराबर का हिस्सा मिलता रहा. इस रणनीति के जरिये वे बड़े जनमत को भ्रम में रखने में सफल रहे.

इसका नतीजा यह हुआ कि फासिल फ्यूल को नियंत्रित करने, उसके इस्तेमाल में कटौती करने और वैकल्पिक उर्जा के स्रोतों को बढ़ावा देने की दिशा में लम्बे समय तक कोई ठोस प्रयास नहीं हो पाया. उलटे बड़ी बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों का कारोबार खूब फलता-फूलता रहा. उनका मुनाफा बढ़ता रहा. आश्चर्य नहीं कि इस पीआर रणनीति का इस्तेमाल आज भी प्रदूषण फैलानेवाली और ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज के लिए जिम्मेदार ग्रीन-हाउस छोड़नेवाली कम्पनियाँ कर रही हैं.

लेकिन दुनिया आज उस मुकाम पर पहुँच गई है जहाँ मानवजाति के खत्म होने की आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं.

क्लाइमेट चेंज की तबाही

यह है कार्पोरेट पीआर, स्पिन और लाबीइंग की ताकत जो परदे के पीछे से मुद्दों को तोड़ने-मरोड़ने के खेल में कलात्मक बारीकी और सिद्धहस्तता हासिल कर चुका है.

Fearlessly expressing peoples opinion