राहुल यादुका
ये कहना गलत होगा कि हालिया जाति सर्वेक्षण के कारण बिहार या देश की राजनीति में जाति का सवाल फिर से मुख्यधारा में आ गया है। ऐसा इसलिए क्यूंकि बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से और अन्य राज्यों में कमोबेश परोक्ष रूप से जाति ही दलीय राजनीति को संचालित करती है। राजनीतिक गोलबंदी के एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में जाति की महत्ता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। भले ही कोई राजनीतिक दल खुले मंच से जाति के प्रश्नों की बात न करता हो, या इसकी मुखालफत करता प्रतीत होता हो, लेकिन जमीनी स्तर पर उसकी भी गोलबंदी स्थानीय समाज में जातिगत समीकरणों का सम्मान करती ही है। इसलिए सर्वप्रथम इस बात को स्थापित करना चाहिए कि हम जाति पर विमर्श करते समय जाति को एक नैतिक विषय के रूप में न लेकर एक सामाजिक यथार्थ की तरह लें जैसे वरिष्ठ राजनीतिक वैज्ञानिक रजनी कोठारी ने देखा था। उन्होंने समझाया था कि एक परंपरागत समाज में लोकतंत्र को जमीन पर उतारने में जाति जैसी सामाजिक संस्थाओं की केन्द्रीय भूमिका है। दूसरे शब्दों में उन्होंने ये कहा कि राजनीति में जाति का समावेश नहीं हुआ है बल्कि जाति के माध्यम से हमारे समाज में लोकतान्त्रिक राजनीति ने जड़ पकड़ा है।
इस बात को पुनरउद्धृत करके का कोई मूल्य नहीं कि जाति भारतीय समाज का ढांचा है। जिस तरह मूर्ति को आकार देने में मिट्टी के अलावा लकड़ी के ढांचे की भूमिका होती है, ठीक उसी प्रकार भारतीय समाज को आकार देती है जाति। इस व्यवस्था को शास्त्रों का संबल मिला है। कुछ एक उदाहरणों को छोड़कर राज्यसत्ता ने भी इसका सम्मान किया है। इस व्यवस्था ने समाज में श्रेणियाँ पैदा की और संसाधन, काम, सम्मान आदि को व्यवस्थित रूप से वितरित किया। इस वितरण में न्याय और बराबरी थी या नहीं, ये सर्वविदित है। जाति को हजारों वर्ष पहले से चुनौती भी दी गई। शायद ही ऐसा कोई कालखंड रहा होगा जब जाति के इर्दगिर्द समाज में गतिशीलता न रही हो। इस पूरी यात्रा की पुनरावृति यहाँ करना शब्द और समय की बर्बादी होगी।
बिहार के पिछले 100-125 साल के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास को अगर पढ़ा जाए तो ऐसा लगेगा कि वस्तुतः समाज की विभिन्न जातियों के बीच हो रहे संघर्ष के बारे में पढ़ा जा रहा है। यहाँ एक और बात कह दी जाए कि बिहार में जाति और वर्ग समानार्थी नहीं तो पूरी तरह से अलग भी नहीं। जाति और वर्ग बहुत हद तक एक दूसरे को आच्छादित करती हैं। इससे ये भी रेखांकित होता है कि जाति के तमाम रूपों में इसका एक आर्थिक आयाम भी है। जाति पेशा और संसाधन को बाटने का एक उपकरण भी रहा है। ये और बात है कि इस संघर्ष का लक्ष्य अलग-अलग कालखंड में अलग रहा है।
अब क्यूंकी बात जातियों को गिनने और उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति पता लगाने की चल रही है तो ये याद किया जाना चाहिए कि 20वीं शताब्दी के शुरुवाती दशकों में ब्रिटिश साम्राज्य भारतीय समाज को बेहतर समझने (और नियंत्रित करने) के प्रयास कर रहा था और इस प्रयास में जातियों को सूचीबद्ध करना, उनकी सामाजिक हैसियत दर्ज करना आदि जरूरी समझा गया। इस छोटे से राजकीय हस्तक्षेप के व्यापक सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ कालांतर में सामने आए। एक बेहद महत्वपूर्ण बिन्दु यहाँ रेखांकित करना जरूरी है। निकोलस डर्क्स अपनी किताब ‘कास्टस ऑफ माइन्ड’ में बताते हैं कि ब्रिटिश काल में हुए जातीय जनगणना के दौरान लोग आमतौर पर अपनी जाति को श्रेणी में ऊपर रखवाना चाहते थे। लेकिन वर्तमान समय में अनेक जातियाँ खुद को अपेक्षाकृत अधिक पिछड़ा मनवाना चाहती है। इससे ये प्रतीत होता है कि जातियों का आत्मबोध भी राज्य के स्वरूप और समाज के साथ उसके संबंध से भी परिचालित होता है। ये कहा जा सकता है कि ब्रिटिश राज्य के लिए लोककल्याणकारी होना अनिवार्य नहीं था क्यूंकी उसकी वैधता का श्रोत लोग नहीं थे। इसलिए लोग भी राज्य से ऐसी उम्मीद नहीं करते थे। यहाँ ये कह देना उचित होगा कि ब्रिटिश राज्य पूरी तरह से बल पर आधारित भी नहीं था। राष्ट्रवादी इतिहासकार बिपान चंद्रा ब्रिटिश राज्य को एक ‘सेमी-अथॉरिटेरीअन’ राज्य की तरह देखते हैं जो राजकीय हिंसा और लोककल्याण दोनों से आंशिक वैधता लेता था। आजाद भारत में राज्य निश्चित रूप से कल्याणकारी ही है, भले ही इसके कल्याण करने की क्षमता और तरीके पर बहस हो सकती है। लेकिन ये स्थापित है कि आम लोगों की स्वीकृति [हम भारत के लोग] ही राज्य को वैधता प्रदान करती है। ये रोचक है कि इस स्वीकृति को संप्रेषित करने का माध्यम आम चुनाव है जिसको तमाम राजनीतिक दल जमीन पर उतारते हैं।
इस आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राज्य की समाज में केन्द्रीयता बढ़ी है। ब्रिटिश राजनीतिक सिद्धांतकार हैरोल्ड लासकी के शब्दों में कहें तो राज्य अब अनेक शक्ति के ध्रुवों में महज एक ध्रुव नहीं रहा। आधुनिकता और आधुनिक राज्य ने समानांतर शक्ति केंद्रों [मसलन धर्म, परिवार, समुदाय आदि] को अपेक्षाकृत धूमिल कर राज्य को एक ऊंचे पायदान पर अकेले प्रतिस्थापित किया है। नतीजतन, लोगों की दावेदारी भी राज्य के प्रति बढ़ी है। 21वीं शताब्दी में बिहार पर अपनी किताब “डिमाक्रसी अगैन्स्ट डेवलपमेंट” में जेफ्री वितसो कहते हैं कि 1990 के बाद हुए राजनीतिक परिवर्तन में राज्य ही पुरस्कार है (द स्टेट इज़ द प्राइज़)। उपरोक्त चर्चा के आलोक में ये समझना सुगम होना चाहिए कि समाज में व्यापक और आमूल परिवर्तन के लिए राज्य की संरचना को बदलना जरूरी समझा गया। अतीत में सामाजिक और आर्थिक रूप से सम्पन्न जातियों ने राज्य [अथवा सत्ता] को अपने कब्जे में रखा, इसलिए अब सामाजिक और आर्थिक रूप से सबल होने के लिए राज्य पर कब्जा करना अनिवार्य समझा गया। ये ध्यान दिया जाना चाहिए कि यहाँ हम राज्य की मार्क्सवादी व्याख्या के समीप हैं। यहाँ ये मान्यता है कि राज्य उदारवादी राजनीतिक दर्शन की तर्ज पर निरपेक्ष नहीं हैं। लिहाजा ये जानना महत्वपूर्ण हो जाता है राज्य में बैठा कौन है, उसकी जाति क्या है, उसका वर्ग क्या है, आदि। यही जानना “पहचान की राजनीति” का बीज है। इसलिए पहचान की राजनीति के प्रति एक बौद्धिक दुराभाव रखना बिहार जैसे समाज को समझने में बाधक बन जाएगा। लेकिन पहचान की राजनीति को बिना आलोचनात्मक विश्लेषण के सामाजिक न्याय का सर्वश्रेष्ठ और एकमात्र रास्ता मानना भी एक प्रकार की हठधर्मिता होगी। सबसे अधिक महत्व का सवाल यही है कि क्या एक ऐसे बौद्धिक वातावरण में जहां न्याय को केवल एक नैतिक अवधारणा के रूप में समझा जाता है, वहाँ इसे एक सतत गतिशील अवधारणा की तरह लिया जाएगा और इसपर होने वाली बहस को खुले मन से स्वीकार किया जाएगा। वर्तमान जाति सर्वेक्षण हमारे सामाजिक विमर्श की गुणवत्ता की परीक्षा की घड़ी भी है।
इस बहस से जुड़ा एक और पहलू विचारणीय है। जाति सर्वेक्षण का तर्क आमतौर पर ऐतिहासिक संरचनात्मक गैरबराबरी से निकाला जाता है। क्यूंकी ऐतिहासिक रूप से समाज जातियों में बाँटा गया है और तदनुरूप सारी व्यवस्था बनी है, इसलिए ये जानना जरूरी है कि आजादी के 75 साल के बाद और मण्डल कमिशन की कुछ एक सिफारिश लागू होने के तीन दशक बाद हमारे समाज में गैरबराबरी की क्या स्थिति है। तर्क के इस हिस्से में समाजवादी धरे के पुराने नारे की अनुगूँज भी है – जो ‘भागीदारी’ और ‘हिस्सेदारी’ में तारतम्य बनाता है। लेकिन इस बहस को पॉलिसी या नीतिनिर्माण की बहस के रूप में भी देखा जाना चाहिए। हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहां नीति को अधिकाधिक तथ्य पर आधारित (एविडेंस बेस्ड पॉलिसी मैकिंग) करने का आग्रह है। सरकार लगातार लोककल्याण की योजनाओं में वित्तीय नियमन की बात करती है जिससे वाजिब लाभुकों तक ही सामाजिक धन पहुंचे। इसके लिए डाटा पर विशेष जोड़ रहता है। थोड़ा आश्चर्य होता है जब देश का सोशल ऐलीट अन्यथा तो डाटा की पूजा करता है लेकिन सामाजिक न्याय के आलोक में इसकी मुखालफत करता प्रतीत होता है। कोई शक नहीं कि नीतियाँ राजनीतिक हितसाधन का एक उपादान हैं। जो तबका जाति जनगणना के विरोध में है, उसका तर्क ये है कि इससे जातीगत राजनीति को बल मिलेगा। उनकी बात एकदम सही है। जाति जनगणना का उद्देश्य भी यही होना चाहिए कि इससे समाज में एक आंतरिक हलचल हो जिससे लोगों में राजनीतिक चेतना का विकास हो और वो सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ सकें। इस आँकड़े से ये पता चल जाएगा कि क्या कोई जाति विशेष रूप से संसाधनों के मामले में वंचित है। तदनुरूप योजनाएं बनाई जा सकेंगी। यहाँ एक बात कही जानी जरूरी है। दरअसल जातिगत राजनीति को लेकर जो आशंका है, वो संभवतः चुनावी लोकतंत्र के एक विकृत रूप को लेकर है जिसका साक्षी हमारा उत्तर-उपनिवेशवादी समाज रहा है। सिर्फ विकृत कहना भी सही नहीं होगा। लोकतान्त्रिक सिद्धांत के कुछ चिंतक मानते हैं कि उत्तर उपनिवेशवादी समाज में लोकतंत्र का अपना ‘विशिष्ट’ स्वरूप है जिसको ‘विकृत’ कहना उचित नहीं होगा। फिर भी, कुछ एक चारित्रिक विशेषताओं को विशिष्ट न कहकर विकृति कहना ही उचित होगा – मसलन राजनीति का अपराधिकरण, हिंसा, धन और बाहुबल का प्रयोग आदि। फिर भी यहाँ ये मान कर चला जाए कि लोकतान्त्रिक राजनीति संस्थाओं में समाज के विभिन्न तबकों के समुचित प्रतिनिधित्व का एक अच्छा माध्यम है।
समस्या इससे आगे बढ़ने पर आती है। पहला सवाल ये उठता है कि क्या एक इतिहासोन्मुख तर्क के सहारे भविष्य का संधान संभव है! आगे बढ़ने से पहले विगत 30-40 सालों के जाति के इर्द गिर्द हुई राजनीति और इसके फलाफल पर भी चिंतन कर लेना श्रेयस्कर होगा। यहाँ एक बात साफ-साफ कहा जाना जरूरी है। आज बहुजन आंदोलन और समाजवादी धरे से जुड़े लोग डाटा के आधार पर आर्थिक और सामाजिक स्थिति के पुनर्मूल्यांकन की बात तो करते हैं, पर जब-जब “आरक्षण के समीक्षा” की बात होती है, समाज और विमर्श में बहुत तेजी से ध्रुवीकरण हो जाता है। ऐसा कहने वाले को सीधे दक्षिणपंथी मान लिया जाता है। इसमे दो राय नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बीच-बीच में ये सवाल उठाता है और उसके पुराने रिकार्ड से शक होना लाज़िम भी है। सामाजिक समरसता की आड़ में उनकी नियत का सबको पता है। मगर, फिर भी, संघ के डर से सामाजिक न्याय पर किसी भी बहस को चुप कर देना देश-समाज के लिए बिल्कुल अच्छा नहीं हो सकता। यहाँ थोड़ा स विषयांतर करते हुए इसपर जिक्र कर लेना चाहिए कि सामाजिक बहस के क्या तकाजे होने चाहिए। यहाँ जिक्र किया जाना चाहिए थॉमस कुन्ह का जिन्होंने ये प्रतिपादित किया कि जिस सिद्धांत को तथ्यों के सहारे भी नकारा न जा सके, वो वैज्ञानिक नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में “फॉल्सीफीकेशन” ही वैज्ञानिकता का तकाजा है। इस दृष्टि से देखें तो हर परिपाटी को आलोचना के लिए खुला होना चाहिए। उसकी ताकत आलोचना का तर्कसंगत जवाब देने में है, तर्क को दबा देने में नहीं। दूसरी बात, मनोविश्लेषणात्मक आलोचना (साइकोएनालीटिकल क्रिटीक) को अवैज्ञानिक माना गया है – क्यूंकी इस आलोचना पद्धती में टेक्स्ट की जगह ऑथर को देखा जाता है। लिहाजा इसको “फॉल्सीफाइ” करना असंभव है। उदाहरण के लिए सामाजिक न्याय की आलोचना में तर्क की जगह तर्क देने वाले को देखा जाए तो विमर्श की स्वस्थ परम्परा नहीं बन सकती। सामाजिक स्तर पर ये तरीका जातियों के पड़े एक समुदाय की निर्मिती को भी रोक देता है। ऐसे में एक समतामूलक समाज तो दूर, एक नागरिक समाज का निर्माण भी संभव नहीं हो सकता।
जाति के आधार पर गैरबराबरी को डाटा के माध्यम से स्थापित करने और इसके आधार पर राजनीति अथवा राजनीति में हिस्सेदारी तय करने के अलावा भी सामाजिक न्याय की लड़ाई के कई पहलू हैं जो समय के साथ नेपथ्य में चले गए हैं। इसमे शक नहीं कि भागीदारी और हिस्सेदारी में तारतम्य होनी ही चाहिए लेकिन राजनीतिक आयाम में समानुपातिक प्रतिनिधित्व के अलावा भी समाज में अनेक आयाम हैं जहां बहुजन हाशिये पर हैं। संजय बारू अपनी किताब में “पावर ऐलीट” की चर्चा करते हुए बताते हैं कि समाज के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि ऐलीट होते हैं जो परस्पर एक भी हो सकते हैं और नहीं भी। ये खाई लालू सरकार के कार्यकाल में भी खुल कर परिलक्षित हुई। जहाँ एक तरफ विधायिका में पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व बढ़ रहा था, वहीं प्रशासन, न्यायपालिका, मीडिया, शिक्षा आदि में ऊंची जातियों का वर्चस्व कायम था। लेकिन कम से कम बिहार में जो मंडलोत्तर राजनीति हुई है, इसमे राजनीतिक शक्ति पर दावेदारी सबसे मुखर रूप से दिखी है। शायद ऐसा इसलिए रहा क्यूंकी सत्ता को बाकी सामाजिक आयामों में परिवर्तन का माध्यम माना गया। इसका परिणाम यह भी हुआ कि राज्यसत्ता पर कब्जे को सामाजिक न्याय का अभिप्राय बना दिया गया। “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावे सौ में साठ” नारे में सिर्फ विधानसभा में साठ हिस्सा तक सीमित था? ये भी देखना होगा कि 27% आरक्षण के अलावा भी मण्डल कमिशन की सिफारिशें थीं। क्या राजनीतिक के इतर आयामों में बहुजनों की उदासीनता सामाजिक न्याय के सपने को सच कर सकेगी? ये सामाजिक न्याय की यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक है।
अगला मुद्दा है विकास और सम्मान के परस्पर संबंध का। सर्वविदित है कि लालू प्रसाद यादव अक्सर सभाओ में कहा करते थे कि विकास नहीं, सम्मान चाहिए। इस दर्शन को उन्होंने कुछ हद तक फलीभूत भी किया जिसके साक्ष्य हैं। एक शोधपत्र में राज्य को जानबूझ कर कमजोर किये जाने को “स्टेट इनकपेसिटी बाई डिजाइन” कहा गया है। उन्होंने ये तक कहा कि लोग बाहर जाकर कमाएँ और बिहार के गाँव में आकर “जीट” में रहें। ऐतिहासिक सामाजिक अपमान के बोध के आलोक में विकास के ऊपर सम्मान को रखना बिल्कुल तर्कसंगत नहीं है, ऐसी बात नहीं है। लेकिन, सवाल उठता है कि कब तक ये युक्ति काम करेगी कि लोग बाहर जाकर कमाएँ और गाँव में शान से रहें। जिस तरह का पलायन बिहार के गाँव से हो रहा है, ऐसे में सम्मान के साथ जीना नामुमकिन है। इसके भी साक्ष्य हैं। यहाँ भले ‘सम्मान’ मिला हो, पूरे भारत में लोग बिहार का मज़ाक बना रहे हैं। ऐसा नहीं कि इसके लिए मंडलोत्तर राजनीति ही जिम्मेदार है, लेकिन इस राजनीति के केंद्र में विकास की परंपरागत अवधारणा नहीं रही, इसमे भी शक नहीं। क्या अब समय नहीं आया कि बहुजन राजनीति “सम्मान” और “विकास” को एक करने के बारे में सोचे? क्या ये संभव ही नहीं ? अगर है तो इसका रूप कैसा होगा? नीतीश कुमार की सरकार “न्याय के साथ विकास” के मामले में कितनी सफल हुई, इसपर अभी गंभीर शोध नहीं मिलते। यहाँ ये गौर करने लायक बात है कि नीतीश सरकार के कार्यकाल में लिखी गई तमाम किताबें एक पैटर्न फॉलो करती हैं – 1990 के पहले के समय को नेपथ्य में रखकर 1990-2005 को एक अंधकार युग की तरह चित्रित किया जाता है और ऐसे भूमिका बनाकर नीतीश कुमार के कार्यकाल को एक पुनर्जागरण का समय बताने की कोशिश की जाती है। तमाम लेखक और पत्रकार अमूमन यही काल विभाजन इस्तेमाल करते हैं। इसपर भी पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
आज जरूरत इस बात को समझने की है कि हमारे सामने अनेक चुनौतियाँ हैं जो हमें हमारी राजनीति को पुनरपरिभाषित करने को बाध्य करती हैं। मसलन बिहार के 28 जिले बाढ़ प्रभावित हैं और बाकी सूखे की मार झेलते हैं। हमारे राज्य से डिस्ट्रेस माइग्रैशन बहुत अधिक है। बिहार धीरे-धीरे रमिटन्स-बेस्ड ईकानमी बन रहा है। रोजगार का संकट व्यापक है। जलवायु परिवर्तन का भारी असर बिहार पर होगा ही होगा। उधर बड़े फलक पर जिस तरह से एआई, रोबाटिक्स आदि का विकास हो रहा है, परंपरागत रोजगार सिकुड़ेंगे। ऐसे में हमें सोचना चाहिए कि क्या “ पॉलिटिक्स ऑफ रिडिस्टरीब्यूशन ” काफी होगा या हमें “ पॉलिटिक्स ऑफ प्रोडक्शन ” के बारे में भी सोचना होगा।