इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में 13 नवंबर को मुक्तिबोध जयंती के अवसर पर प्रणय कृष्ण की किताब ‘ मुक्तिबोध साहित्य का गति- पथ ‘ का विमोचन किया गया. पुस्तक-विमोचन में शहर के वरिष्ठ कवि हरिश्चंद्र पांडे, समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय, प्रो.सुधा सिंह, विभागाध्यक्ष लालसा यादव, प्रो. संतोष भदौरिया, कवि विवेक निराला, प्रो. विवेक तिवारी, प्रो.कुमार बीरेन्द्र, प्रो.बसंत त्रिपाठी आदि मौजूद रहे।
सबसे पहले पुस्तक का परिचय देते हुए प्रो. बसंत त्रिपाठी ने कहा कि मुक्तिबोध का लिखा हुआ जीवन के हर पल, हर क्षण को याद करता है। प्रणय कृष्ण ने इस किताब में मार्क्सवादी दस्तावेजों के प्रतिमान के आधार पर मुक्तिबोध की रचनाओं को समझने की चेष्टा की है और इसलिए ये किताब मुक्तिबोध की रचनाओं के मामले में जितना भी कुहासा रहा है उसे छांटने का काम करती है। मुक्तिबोध पर सबसे ज्यादा आरोप उनके अवचेतन को लेकर है, उनके कैरेक्टर्स के अपराधबोध से माना गया कि यह कवि मुक्तिबोध का ही अपराधबोध है तो इस बारे में प्रणय कृष्ण इस किताब में कहते हैं कि यह मुक्तिबोध का निजी आत्मभियोग नहीं है बल्कि जिस तरह की पूंजीवादी व्यवस्था है एक ईमानदार मनुष्य के भीतर इस तरह का द्वंद्व और अपराधबोध आना स्वाभाविक है।
हमारे दो बड़े आलोचक रामविलास शर्मा और नामवर सिंह ने मुक्तिबोध का भाष्य करने के लिए जिन टूल्स का प्रयोग किया वो प्रगतिशील या मार्क्सवादी नहीं थे लेकिन प्रणय कृष्ण मुक्तिबोध को समझने वाले वह व्यक्ति हैं जिसने मुक्तिबोध को समझने के लिए प्रगतिशील आलोचना की उलट धारा का प्रयोग किया और उसे उलटे से सीधा कर दिया। प्रणय कृष्ण ने मुक्तिबोध की स्त्री दृष्टि को भी समझने का प्रयास किया है। मुक्तिबोध अपनी कविता में शोषित तबके को एक आम भारतीय गृहस्थिन के अर्थ में देखते हैं। मुक्तिबोध एक तरफ ताकतवर प्रगतिशील स्त्री को स्थापित करते हैं और दूसरी ओर शोषण के सबसे निचले पायदान के प्रतीक के रूप में गृहस्थी के चक्र में फंसी स्त्री को रखते हैं। मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया के बारे मे प्रणय कृष्ण लिखते हैं कि रचना की प्रकृति और रचनाकार के परिवेश में जो बदलाव आ रहे थे उसमें बिलकुल नई चुनौतियों का नये ढंग से सामना करना होता है और जो भी लेखक इसका सामना करेगा उसकी रचना प्रक्रिया उसके पूर्ववर्ती कवियों से अलग होगी।
समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने कहा कि चाहे कविता किसी भी देश की हो यदि वह अपने देशकाल से बिंधि हुई है तो वह दूसरे देशों में भी पढ़ी जाएगी और उसके अपने देश की हालत भी उस कविता में रहेगी। देश कोई भी हो, रहते सबमें मनुष्य हैं और जो लोगों के दुखों से बिंधा हुआ लेखक है वह निश्चित ही किसी अन्य देश के उसी तरह के दुःख, शोषण और अन्याय सहते मनुष्य से अपना रिश्ता कायम कर लेता है। उदाहरण के बतौर निराला की ‘ राम की शक्तिपूजा’ की इन पंक्तियों को ही देख लीजिए ” अन्याय जिधर है उधर शक्ति “। ये किसी एक देश की नहीं देश-देश की कथा है। मुक्तिबोध एक ऐसे कवि हैं कि जब आप उनकी आलोचना, निबंधों, लेखों को देखिए तो कविता में भी वो आलोचना के सूत्र आपको मिल जाएंगे जैसे पूंजीवाद से मुक्ति के बारे में वो अपने निबंधों में जो बात करते हैं वो उनकी कविता में भी आ जाएगी जैसे कि
“कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।”
“अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब।”
मुक्तिबोध के भीतर आधुनिकता की तलाश है। रामजी राय ने कहा कि मुक्तिबोध ने अंधकार के खिलाफ अपनी कविताओं के जरिए जो ज्योतिशास्त्र लिखा उसे समझने की और आज के समय के अनुरूप एक नया ज्योतिशास्त्र लिखे जाने की भी बहुत जरूरत है।
आगे दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो. सुधा सिंह अपना अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहती हैं कि मुक्तिबोध के अन्य अनेक पक्षों को भी इसी तरह से आगे और भी समझे जाने की जरूरत है। वो कहती हैं कि मुक्तिबोध ने परिवार को फैंटेसी के स्तर पर नहीं बल्कि जीवन के यथार्थ के स्तर पर देखा, समझा और उसकी समस्याओं को झेला है। वो अपनी घृणा, प्रेम, चिन्ता और उसके सरोकारों को छिपाते नहीं हैं बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त करते हैं।
कार्यक्रम का संचालन विभाग के असिस्टेंट प्रो. दीनानाथ मौर्य ने किया। कार्यक्रम के अंत में प्रो. कुमार बीरेन्द्र ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कार्यक्रम के समापन की घोषणा की।
कार्यक्रम के दौरान सैकड़ों की संख्या मे छात्र, विश्वविद्यालय के अध्यापक, साहित्यकर्मी और शहर के बुद्धिजीवी शामिल रहे।