समकालीन जनमत
स्मृति

नक्सलबाड़ी विद्रोह, भोजपुर आंदोलन और कवि-आलोचक रामनिहाल गुंजन

 

(पहले स्मृति दिवस पर)

रामनिहाल गुंजन के पूर्वज पटना जिले के बिहटा थाने के भरतपुरा गांव से आकर आरा में बसे थे। गांव में वे कृषि कार्य से जुड़े हुए था, पर उपज कम होने और आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण वे आरा आए थे। यहां भी बंटाईदारी पर खेती करते थे। इसलिए खेत मजदूर और छोटे श्रमशील किसान उनकी संवेदना के दायरे में रहे। जाहिर है इस वर्ग की सामाजिक श्रेणियों की भी उन्होंने अनदेखी नहीं की।

वैसे तो रामनिहाल गुंजन प्रगतिशील-जनवादी साहित्यिक परंपरा के प्रति गहरी आस्था रखने वाले कवि-आलोचक थे। वे इस विरासत को जीवन भर संजोते रहे, इसके महत्त्व को रेखांकित करते रहे, इसके प्रति अपने अटूट वैचारिक यकीन को जाहिर करते रहे। लेकिन इस परंपरा में भी 1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह और कृषि-क्रांति के लक्ष्य को वे ज्यादा महत्त्व देते थे और उसे हिंदी साहित्य में एक निर्णायक मोड़ की वजह मानते थे। वे उसी के प्रभाव से विकसित साहित्य की नवजनवादी धारा से अपने आप को जोड़ते रहे। इस धारा को उन्होंने कभी भी प्रगतिशील-जनवादी धारा से सर्वथा विछिन्न नहीं माना, बल्कि उसी का विकास मानते रहे।

रामनिहाल गुंजन अपनी अनूदित पुस्तकों- ‘ मार्क्सवाद और कविता ’ तथा ‘साहित्य, संस्कृति और विचारधारा ’ तथा आलोचनात्मक पुस्तकों- ‘रचना और परंपरा’, ‘हिंदी आलोचना और इतिहास-दृष्टि’, ‘राहुल सांकृत्यायन: व्यक्ति और विचार’, ’शमशेर नागार्जुन मुक्तिबोध’, ‘निराला: आत्मसंघर्ष और दृष्टि’, ‘प्रखर आलोचक रामविलास शर्मा’, ‘हिंदी कविता का जनतंत्र’, ‘कविता और संस्कृति’ आदि को नवजनवादी विचार-दृष्टि से ही प्रेरित बताते हैं। सत्ता का लगभग प्रवक्ता बन चुके कुछ भूतपूर्व-अभूतपूर्व क्रांतिकारी साहित्यकारों के विपरीत रामनिहाल गुंजन आखिरी सांस तक पूरी मजबूती के साथ अपनी वैचारिक पोजीशन पर कायम रहे। कभी बढ़-चढ़कर उन्होंने इस धारा का नेतृत्वकारी होने के प्रति न अपनी दावेदारी जताई और न ही कभी विचार और व्यवहार में इससे अलग कोई रास्ता अपनाया।

1961 में बीए ऑनर्स करने के बाद उन्होंने दो स्कूलों में पढ़ाया। फिर रेलवे की नौकरी में धनबाद गये, पर उसे शीघ्र ही छोड़ दिया। वहां से लौटकर आरा समाहरणालय में नौकरी की। उस समय भोजपुर सामंतवादी-वर्णवादी वर्चस्व के खिलाफ जबर्दस्त जनप्रतिरोध का इलाका था। जब 1976 में वे सचिवालय की नौकरी में पटना गये, तब वहां वे कई ऐसे लेखकों के संपर्क में आए जो नक्सलबाड़ी और उसके प्रभाव में भोजपुर और मध्य बिहार में छिड़े क्रांतिकारी संग्राम से प्रभावित थे और उस आंदोलन के सामंती एवं शासकीय दमन के विरुद्ध जिनके भीतर गहरा आक्रोश था। गुंजन जी पहले से इस आंदोलन से प्रभावित थे।

1976 की अपनी कविता ‘सिलसिला’ में वे लिखते हैं- ‘‘मुझे नहीं पता/ संविधान की कौन सी धारा/ खेतिहर मजदूरों को जमीन से बेदखल करती है/ और मजदूरी माँगने पर/ उसके सीने पर गोली दागती है/ इसी के खिलाफ/ लड़ाई को मुद्दा बनाकर/ पेश करते हुए/ मैंने कई बार सोचा है/ लेकिन एक ही जगह पर बार-बार/ आकर ठहर गया हूँ कि/ जन से जुड़ने का कौन सा रास्ता/ हमें ले जाता है उस मुकाम पर/ जहाँ भाषा के वर्जित प्रदेश का सिलसिला खत्म हो जाता है/ और शुरू होता है जनता से जुड़ने का असली जनतंत्र।’’

जनता से जुड़ने के रास्ते की तलाश ही उनकी कविता को मध्य बिहार के उन गाँवों तक ले गयी, जहाँ लोग अपने हक-अधिकार के लिए लड़ रहे थे। ‘इन दिनों’ कविता, जो 1985 में लिखी गई, उसमें मध्य बिहार के वे गाँव अपने नामों के साथ आते हैं- ‘‘मुझे मालूम है/ वह जगह कहाँ है/ जहाँ से देश का नक्शा बदलता है/ और लोग-बाग/ जहाँ खड़े हैं/ पूरी मजबूती के साथ/ अपने पाँवों को जमीन पर/ रोपे हुए/ यही वह जमीन है/ सहार/ मसौढ़ी/ धनरुआ/ रूपसपुर/ पारस बिगहा/ चवरी और पीपरा की ओर/ जहाँ से इतिहास/ गुजरा है/ दिन में कई-कई बार/ जहाँ हजारों हजार सूरज/ चमकते हैं/ अपनी-अपनी धुरी पर।’’

1976 के बाद ही बिहार में नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा नाम के एक नए साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन का गठन हुआ। रामनिहाल गुंजन उससे सक्रिय रूप से जुड़े। भूमिगत रूप से नवजनवादी लेखकों द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिकाएं उन्हें मिलने लगी थीं। रामनिहाल गुंजन ने स्वयं लिखा है- ‘‘उनमें जरूरी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती थीं, जो हमारे बीच होने वाली वैचारिक बहसों के लिए आधार देती थीं तथा वैचारिक समृद्धि में भी सहायक थीं। मेरी जो आलोचना पुस्तक ‘विश्व कविता की क्रांतिकारी विरासत’ है, उन्हीं विचार-बिंदुओं को सामने रखकर लिखी गई थी।’’

‘विश्व कविता की क्रांतिकारी विरासत’ रामनिहाल गुंजन की आलोचना की पहली पुस्तिका है, जिसका प्रकाशन 1988 में हुआ था। उनके निधन से एकाध साल पूर्व गार्गी प्रकाशन ने उनकी इस पुस्तिका को दुबारा छापा। उनकी यह पहली पुस्तिका लगभग ढाई दशक के दौरान लेखन और विचार की दुनिया में सक्रियता के दौरान बनने वाली उनकी वैचारिक दृष्टि का साक्ष्य है। इस पुस्तिका के आरंभ में ही वे विश्व की व्यापक जनता के दुख-दर्द और परजीवी शोषक शक्तियों के खिलाफ उसके संघर्ष से कविता के अटूट संबंधों की चर्चा करते हैं। दुनिया के विभिन्न मुल्कों के जिन प्रमुख लेखकों, चिंतकों और कवियों ने वहाँ के जनसंघर्षों के साथ चल रहे वैचारिक संघर्षों में अपनी क्रांतिकारी भूमिका निभाई, उनमें से कई लोगों  को पुस्तिका में रेखांकित किया गया है।

यह पुस्तिका इस मायने में खास है कि इसमें मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओ, हो ची मिन्ह और चेग्वेरा जैसे क्रांतिकारी विचारकों, नेताओं और योद्धाओं की कविताओं को भी दर्ज किया गया है। उन्होंने लिखा है कि ‘ मार्क्स , एंगेल्स और लेनिन की कविताओं में व्यक्त जो सच्चाई है, उसका सरोकार विश्व सर्वहारा-वर्ग और व्यापक जन-समुदाय की मुक्ति की चिंता से है।’ गौरतलब है कि लेनिन ने सिर्फ एक ही कविता लिखी थी, लेकिन 1905-07 में वाल्टीक नदी के किनारे गुप्तवास में रची गई ‘संघर्ष’ शीर्षक इस कविता की पंक्तियों को उद्धृत करना आलोचक ने जरूरी समझा है। इसमें रूस की जनता के बेहतर भविष्य की उम्मीद है और भूखे, सताये, अपमानित सर्वहारा-जन से लड़ाई का आह्वान है।

युवाओं के नाम लिखी गई मार्क्स की एक कविता की काफी चर्चा होती रही है, पर गुंजन जी के आलोचनात्मक लेख से उनकी पत्नी जेनी को संबोधित प्रेम कविताओं के बारे में भी जानकारी मिलती है। वे इसे भी चिह्नित करना नहीं भूलते कि मार्क्स ने चिकित्सा, आचार-संहिता और गणित जैसे शुष्क विषयों को लेकर भी कविताएँ लिखीं। उन्होंने एंगेल्स की ‘किताबी ज्ञान’, ‘दुश्मन’, ‘एक शाम’ आदि कविताओं का भी जिक्र किया है। इसी संदर्भ में उन्होंने माओ के बारे में लिखा है- ‘वे चीनी-क्रांति से पहले से ही कविताएँ लिख रहे थे। उनकी काव्य-यात्रा 1925 से 1965 तक जारी रही।’ उनकी ‘कविताएँ ज्यादातर प्रकृतिपरक हैं, लेकिन कई कविताएँ अपने मित्रों, कवियों, लेखकों और चीनी मिलिशिया की महिलाओं को संबोधित हैं।’

उन्होंने माओ द्वारा येनान कला-गोष्ठी में दिए गए विश्वप्रसिद्ध भाषण का जिक्र किया है और लिखा है कि साम्राज्यवाद के खिलाफ व्यापक प्रतिरोध के लिए सांस्कृतिक मोर्चे पर जिन लेखकों और कवियों ने अपनी सर्वाध्कि सतर्कता और क्रांतिकारी संकल्पबद्धता का पूरा परिचय दिया, उसमें लूशुन का नाम प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है, जो चीन के क्रांतिकारी कवि और चिंतक थे।

मई दिवस पर शिकागो के मजदूरों के प्रयाण गीत ‘श्रमिक जनता जग रही है’ और एजेन पोतिए के विश्वप्रसिद्ध गीत ‘इंटरनेशनल’ को भी पुस्तिका में जगह दी गई है। यह गीत दुनिया के मजदूर आंदोलनों और वामपंथी आंदोलनों के बीच खूब गाया जाता रहा है। उन्होंने रूस के क्रांतिकारी कवि मायकोव्स्की की कविता ‘काला और गोरा’ और ‘लेनिन’ की पंक्तियाँ उद्धृत की हैं। तुर्की के क्रांतिकारी कवि नाजिम हिकमत का संक्षिप्त जीवन-परिचय और उनकी मशहूर कविताओं-‘यह दुनिया’ और ‘तुम्हारे हाथ’ का खास तौर पर इस पुस्तिका में जिक्र है।

न केवल चीली के विश्वप्रसिद्ध कवि पाब्लो नेरुदा, बल्कि क्यूबा के कवि रेजिन और निकोलस गील्यिन, ग्वाटेमाला के कवि ओतेरेनो कास्तील्यो, स्पेनिश कवि डेविड फेर्नादेस, बल्गेरियाई कवि निकोला वाप्सारोव आदि की कविताओं को विश्व कविता की क्रांतिकारी विरासत के तौर पर इस पुस्तिका में दर्ज किया गया है। इसमें दुनिया के युवा क्रांतिकारियों में सर्वाधिक मशहूर चेग्वेरा द्वारा क्यूबाई क्रांति के नायक फिदेल कास्त्रो पर लिखी गई एक दुर्लभ कविता की पंक्तियाँ उद्धृत की गई हैं। कोई क्रांतिकारी कवि किस तरह भाषा और देशों की सरहदों को पारकर दुनिया की क्रांतिकारी काव्य-चेतना का हिस्सा बन जाता है, इसका उदाहरण महान जर्मन कवि और नाटककार ब्रेख्त हैं। रामनिहाल गुंजन ने उनकी कविता ‘मजदूर की निगाह में इतिहास की किताब’ कविता की पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए यह जानकारी दी है कि बांग्ला के क्रांतिकारी कवि सरोज दत्त ने इसका बांग्ला में रूपांतर किया था। ‘लेनिन’ को संबोधित ब्रेख्त की कविता की चर्चा इस लिहाज से उल्लेखनीय है कि इसमें जनता के सच्चे नेता और उनके सच्चे अनुयायियों का संवेदनशील व्यवहार परिलक्षित होता है। कविता में कुजान बुलाक के गरीब जुलाहों द्वारा मरणोपरांत लेनिन की मूर्ति बनाने के लिए इकट्ठा किए गए पैसे से मलेरिया-ज्वर के लिए जिम्मेवार मच्छरों को मारने के लिए पेट्रोल खरीदकर दलदल पर छिड़कने का जिक्र है। कवि इसे ही लेनिन का सम्मान मानता है। ब्रेख्त के शब्दों में- ‘लोगों ने लेनिन को मान दिया।’

दक्षिण अफ्रीका के नस्लवाद-विरोधी-आंदोलन का भी दुनिया और भारत के क्रांतिकारी कवियों पर गहरा असर रहा। इस पुस्तिका में दक्षिण अफ्रीका के मुक्ति संग्राम के गुरिल्ला योद्धा सोलोमन महलांगू और अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के सदस्य बेंजामिन मोलाइस की काव्य-पंक्तियों को शामिल किया गया है। सोलोमन महलांगू को 1979 में तथा बेंजामिन मोलाइस को 1985 में दक्षिण अफ्रीका की नस्लभेदी सरकार ने फाँसी पर चढ़ा दिया था। इस नस्लभेदी शासकीय दमन को ब्रिटेन का खुला समर्थन प्राप्त था। लेकिन उसी ब्रिटेन के क्रांतिकारी कवि लुई मैकनीस को विश्व की क्रांतिकारी कविता की पंरपरा में शामिल करना गुंजन जी नहीं भूलते।

इस पुस्तिका के उत्तरार्ध में भारत की तेलुगू, बांग्ला, पंजाबी, उर्दू और हिंदी की भाषा के क्रांतिकारी कवियों का जिक्र किया गया है। तेलुगू के कवि सुब्बाराव पाणिग्रही और चेराबंड राजू के क्रांतिकारी जीवन और सृजन से लेखक ने पाठकों को अवगत कराया है। इनके साथ एमटी खान, निखिलेश्वर और वरवरा राव के नामों का भी उल्लेख किया गया है। बांग्ला के क्रांतिकारी कवियों में सुकांत भट्टाचार्य, सरोज दत्त और द्रोणाचार्य की क्रांतिकारी जिंदगी और कविता के बारे में चर्चा की गई है। पंजाबी की कविता में मौजूद रूमानियत और मध्यवर्गीय रूझान की परंपरा का जिक्र करते हुए रामनिहाल गुंजन ने अवतार सिंह पाश, अमरजीत चंदन, सुरजीत मोहनजीत, लाल सिंह दिल आदि को पंजाबी कविता को क्रांतिकारी चेतना और दृष्टि से लैस करने वाले कवियों के रूप में चिह्नित किया है। 23 मार्च 1988 को खालिस्तानी उग्रवादियों ने पाश की हत्या कर दी थी, इस पुस्तिका का प्रकाशन उसके बाद हुआ, इस कारण इसे पाश को ही समर्पित किया गया है। पाश के क्रांतिकारी जीवन, उनकी शहादत और उनकी कविता पर कवि ने विस्तार से लिखा है।

पुस्तिका के अंत में हिन्दी और उर्दू के क्रांतिकारी कवियों की चर्चा की गयी है। उर्दू शायरों में सिर्फ फैज का ही जिक्र किया गया है। गुंजनजी के अनुसार फैज अहमद फैज प्रगतिशील और क्रांतिकारी कवि के रूप में उर्दू शायरी का प्रतिनिधित्व करते थे। हिंदी के मशहूर गीतकार शंकर शैलेंद्र जिनके गीत जनांदोलनों के मुहावरे बन गए, उनको भी क्रांतिकारी विरासत का हिस्सा माना गया है। इसके अतिरिक्त निराला, मुक्तिबोध, धूमिल और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की क्रांतिकारी कविताओं की इसमें चर्चा की गई है। अंत में रामनिहाल गुंजन ने यह भी लिखा है कि यह नहीं समझना चाहिए कि विश्व कविता की क्रांतिकारी विरासत यहीं तक सीमित है, बल्कि उससे भी आगे जाती है और आगे लगातार चलती जाएगी।

कवि-आलोचक वेदनंदन सहाय ने इस पुस्तिका पर लिखा कि ‘रामनिहाल गुंजन ने इस पुस्तिका में मूलतः मार्क्सवाद के उदय होने के पश्चात जो शोषण के विरुद्ध बागी स्वर उभरे हैं, उन्हें ही तरजीह दी है।’ हालांकि उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘ऐसा प्रयास हिंदी में अभी तक किया गया प्रतीत नहीं होता।’’

हालांकि गुंजन जी कुछ कारणवश नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा से सांगठनिक तौर पर अलग हो गए थे, पर विचारधारात्मक तौर पर कभी अलग नहीं हुए। वे नवजनवादी धारा की संकीर्णता के पक्षधर नहीं थे। ‘नक्सलबाड़ी और हिंदी साहित्य’ नामक विचार-गोष्ठी में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि ‘नक्सलबाड़ी आंदोलन के पूर्व की जो जनवादी साहित्य-परंपरा रही है उसकी ओर भी ध्यान जाना चाहिए।’ नई सदी में जब साम्राज्यवादी-उपभोक्तावादी और सांप्रदायिक-सामंती शक्तियों ने विचारधरात्मक चुनौतियाँ पेश कीं, तो रामनिहाल गुंजन को पुनः सांगठनिक तौर पर सक्रिय होना जरूरी लगा। सन् 2008 में उन्होंने जन संस्कृति मंच, बिहार के राज्य अध्यक्ष की जिम्मेवारी स्वीकार की और लगातार तीन बार उन्हें इस पद पर चुना गया। निधन के समय वे जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे।

गुंजन जी संप्रदायवाद और जातिवाद के विरोधी रहे हैं। उन्होंने अपने सम्मान में आयोजित एक गोष्ठी में कहा था कि किशोरावस्था में गांधी जी की हत्या ने उन्हें बहुत मर्माहत किया था। सांप्रदायिक प्रतिक्रियावादी विचारधारा के प्रति घृणा उनके भीतर उसी समय से थी। उन्होंने यह भी कहा कि जनता का शोषण-दमन करने वाली शक्तियों के खिलाफ घृणा या नफरत जायज है। इसी घृणा ने प्रेमचंद को महान रचनाकार बनाया।

सांप्रदायिक उन्माद की राजनीति से प्रबल घृणा के कारण भी अनेक चेतनशील और आदर्शवादी लोग वामपंथी विचारधारा से जुड़े। रामनिहाल गुंजन भी उनमें से एक थे। अस्सी के दशक के अंत और नब्बे के दशक के आरंभ में जब सांप्रदायिक उन्माद की राजनीति में उभार आने लगा, तब एक पत्रिका की ओर से आयोजित परिचर्चा में हिस्सा लेते हुए रामनिहाल गुंजन ने सांप्रदायिकता के इतिहास की चर्चा करते हुए लिखा था- ‘‘हालाँकि अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति के तहत देश में कई जगहों पर दंगे कराने में अंग्रेज सरकार सफल भी रही, लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों में भगत सिंह, अशफाकउल्ला खाँ आदि देशभक्तों, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तथा कांग्रेसी नेताओं के सांप्रदायिक एकता कायम रखने की दिशा में निरंतर प्रयत्नशील रहने के कारण देश में अंग्रेजों की ‘फूट डालो’ की नीति नाकामयाब रही। मगर, विभाजन के पूर्व देश में ऐसी स्थिति पैदा कर दी गई कि देश दो टुकड़ों में बंट गया। इसके पीछे प्रबल सांप्रदायिक भावना ही काम कर रही थी। इस परिचर्चा में उन्होंने सांप्रदायिकता को देश के लिए एक भीषण संकट मानते हुए उसके निदान के उपाय भी सुझाए थे। उन्होंने लिखा था कि ‘‘आज की स्थिति में देश एक भीषण संकट के दौर से गुजर रहा है। यह आवश्यक है कि देश में सद्भाव कायम करने के साथ-साथ प्रगतिशील मानवीय मूल्यों को विकसित करने के लिए नए सिरे से एक स्वस्थ चेतना का परिवेश निर्मित किया जाए। इस दिशा में प्रगतिशील और जनवादी ताकतों को एकजुट करने के लिए तमाम वामपंथी शक्तियों और दलों को अपना भेदभाव भुलाकर आगे आना होगा। इस प्रसंग में एक जरूरी और गौरतलब बात है और वह यह कि सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले साहित्य, इतिहास तथा अन्य सांस्कृतिक उपकरणों के स्थान पर स्वस्थ और प्रगतिशील चेतना जगाने वाले साहित्य- गीत, नाटक, कविता, कहानी आदि की रचना तथा उसके प्रचार-प्रसार पर अधिक-से-अधिक बल देना होगा।’’

रामनिहाल गुंजन जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के उन्मूलन की विचारधारात्मक परंपरा से जुड़े हुए थे। राजनीति के सांप्रदायीकरण और जातिवाद के साथ-साथ राजनीति के अपराधीकरण के भी रामनिहाल गुंजन मुखर विरोधी रहे। आरा शहर में सांप्रदायिक सौहार्द की लड़ाई लड़ने वाले मो. सूफियान की हत्या के विरोध में मंच से भाषण देने की घटना हो या चर्चित आलोचक प्रो. मैनेजर पांडेय के पुत्र आनंद पांडेय की हत्या के खिलाफ आयोजित धरना में शामिल होने की घटना या प्रो. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के खिलाफ प्रतिवाद जुलूस में मौजूदगी की- वे हमेशा अगली कतार में रहे। इस तरह के अनेक अवसरों का मैं साक्षी रहा हूं। भगत सिंह शहादत दिवस पर होने वाले आयोजन में वे हमेशा मौजूद रहते थे।

एक आलोचक के बतौर वे अपने प्रिय साहित्यकारों को भी उनकी कमजोरियों के लिए नहीं बख्सते। जैसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल को रामनिहाल गुंजन बहुत ज्यादा महत्त्व देते हैं, पर उनका स्पष्ट मानना है कि तुलसीदास के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कई असंगतियों के शिकार हुए हैं। उनके अनुसार राहुल सांकृत्यायन ने तुलसी-साहित्य पर वर्ण-व्यवस्था-समर्थक होने का आरोप लगाया और रामविलास शर्मा ने भी तुलसी के द्वारा वर्ण-व्यवस्था के आधार को मजबूत किए जाने का प्रकारांतर से समर्थन ही किया। तुलसीदास को लेकर मार्क्सवादी आलोचकों के बीच जो बहस है, उसमें रामनिहाल गुंजन मुक्तिबोध के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। मुक्तिबोध ने ब्राह्मणेतर संत कवियों की काव्य-भावना को अधिक जनतांत्रिक, सर्वांगीण और मानवीय बताया है। रामनिहाल गुंजन का आकलन है कि ‘‘मुक्तिबोध की दृष्टि साहित्य के अभिप्राय और परिणाम पर केंद्रित है, जबकि रामविलास शर्मा की दृष्टि अनुमान पर आधरित है। अतः मुक्तिबोध की दृष्टि ज्यादा प्रासंगिक और समीचीन ठहरती है।’’

‘नागार्जुन की कविता में स्त्री-विमर्श और दलित प्रश्न’ शीर्षक अपने लेख में रामनिहाल गुंजन ने नागार्जुन के ‘मानस चतुःशताब्दी-समारोह’ लेख के अंश को उद्धृत किया है- ‘‘हिंदी भाषा भाषी बहुजन समाज को ब्राह्मणवादी प्राचीरों की दुर्लंघ्य-दुर्भेद्य परिधि के अंदर नियतिवाद की पीनक में पड़े रहने का ‘अक्षय पाठ’ पढ़ानेवाला यह ‘महाकाव्य’ शोषण और प्रवंचना की नई-पुरानी बुनियादों को हिला पाएगा क्या? कबीर और नानक की बराबरी में बिठलाकर तुलसीदास से जवाब-तलब करो तो आपको असलियत का पता चल जाएगा।’’

मैनेजर पांडेय की पुुस्तक ‘साहित्य और इतिहास-दृष्टि’ की समीक्षा के क्रम में रामविलास शर्मा द्वारा वर्तमान रचनाशीलता के प्रति उपेक्षा बरतने को रामनिहाल गुंजन ने नक्सलबाड़ी से प्रभावित रचनाशीलता की उपेक्षा से जोड़कर देखा है। उनके शब्दों में- ‘‘यह इसी से स्पष्ट है कि ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ के प्रकाशन-काल (1978) तक हिंदी साहित्य की दुनिया में नक्सलबाड़ी आंदोलन (1967) के प्रभाव के तहत लिखी गई कविताओं का लंबा सिलसिला दिखाई पड़ता है, लेकिन उसके बारे में डॉ. शर्मा द्वारा कोई उल्लेख नहीं किया जाना जरूर आश्चर्यजनक लगता है।’’

रामनिहाल गुंजन इस दौर के कवियों में धूमिल के साथ-साथ विजेंद्र, विष्णुचंद्र शर्मा, आलोक धन्वा, मनमोहन, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, वेणु गोपाल, लीलाधर जगूड़ी, पंकज सिंह, कुमार विकल, शलभ श्रीराम सिंह, ऋतुराज आदि की चर्चा अपने लेखों में करते हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के बारे में वे लिखते है- ‘‘1967 के नक्सलवादी आंदोलन का प्रभाव उन पर भी पड़ चुका था और वे अपनी रचनाओं में, चाहे कविताएं हों या गीत, उस चेतना का परिचय देने लगे थे, जो उस विचारधारारात्मक प्रभाव के तहत स्वाभाविक था। इसलिए कविता और गीत के तेवर में फर्क आ चुका था। उनकी ‘गरीबा का गीत’ और ‘देशगान’ जैसी गीत-रचनाओं के आधर पर इसकी तथ्यात्मक जांच की जा सकती है।’’

रामनिहाल गुंजन नक्सलबाड़ी विद्रोह से प्रभावित कविता को संघर्ष की कविता कहते हैं और कविता या साहित्य में मौजूद संघर्ष-चेतना को समाज और देश में मौजूद वर्ग-संघर्ष की स्थिति से जोड़कर देखते हैं। वे इन्हें सही सामाजिक संदर्भों वाली कविता भी कहते हैं और मानते हैं कि ‘उसे अगर मध्यवर्गीय रुचि, संस्कार और मानसिकता से अलग कर देखा जाए तो वह ज्यादा प्रामाणिक सिद्ध हो सकती है।’ नक्सलबाड़ी विद्रोह के बाद आपातकाल एक ऐसी घटना थी, जिसने रचनाकारों को व्यवस्था-विरोधी और सत्ता-विरोधी रचनाएँ लिखने के लिए प्रेरित किया। हालांकि आपातकाल के दौर में जो सत्ता-विरोधी कविताएं लिखी गईं, उन सबको रामनिहाल गुंजन क्रांतिकारी मानने के पक्ष में नहीं हैं। उनका सवाल है कि ‘‘इस दौर में जिन कवियों ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं, उनके माध्यम से उन्होंने किस हद तक सत्ता और व्यवस्था का विरोध एक निश्चित वैज्ञानिक विचारधारा के तहत किया तथा उनका समग्र लेखन अपने सामाजिक व्यवहार को किस रूप में प्रमाणित करता है। क्योंकि ऐसे बहुत से कवियों ने भी व्यवस्था-विरोधी कविताएँ लिखीं, जिनका उद्देश्य महज तत्कालीन सरकार को बदलना था। लेकिन दूसरी ओर देखा जाए तो उनका समग्र लेखन प्रतिक्रियावाद और व्यक्तिवाद से अनुप्राणित रहा है।

इस दौर के कवियों के बीच वे स्पष्ट अंतर करते हैं- ‘‘एक तो वे हैं, जो सत्ता की राजनीति के साथ हैं, इसलिए उनका वर्तमान के प्रति कोई विरोध या क्षोभ नहीं है। दूसरी ओर वे कवि हैं, जिनकी रचनाओं द्वारा सामाजिक, और राजनीतिक असंगतियों पर बराबर चोटें पड़ रही हैं। इस प्रकार वे स्पष्टतः वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ हैं।’’ हिंदी कहानी के क्षेत्र में सक्रिय तीसरी धारा- नवजनवादी धारा को रामनिहाल गुंजन 67 के नक्सलबाडी विद्रोह से जुड़ी कृषि क्रांति की अवधारणा से जोड़ते रहे हैं। आलोचक मधुरेश की पुस्तक ‘हिंदी कहानी का विकास’ की समीक्षा करते हुए उन्होंने इस पर जोर दिया है कि इस धारा से जुड़े कहानीकारों की चर्चा जरूर की जानी चाहिए।

अस्सी के दशक में अमेरिका के नेतृत्व में पूंजीवादी और प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ नए सिरे से संगठित होने लगी थीं। दुनिया में समाजवादी व्यवस्था का सपना देखने वालों के लिए ‘सोवियत रूस’ जो एक चमकता हुए सितारा था, उसकी रोशनी मद्धिम होने लगी थी। हालाँकि तब भी अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ दुनिया में संघर्ष थमा नहीं था। अस्सी के दशक में नस्लभेद के खिलाफ लंबे संघर्ष के महान नायक नेल्सन मंडेला दुनिया की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं और सामाजिक विभेद से मुक्ति के लिए संघर्षरत लोगों और संगठनों के आस्था के केंद्र बन चुके थे। उम्र के सत्तर साल पार कर चुके ‘नेल्सन मंडेला के लिए’ 1988 में लिखी गई गुंजन जी कविता में इस आस्था को महसूस किया जा सकता है-

‘‘ साथी मंडेला

तुमने अपने देश और दुनिया के सामने

इस सच्चाई को

साबित कर दिया कि

दुनिया का अवाम चाहता है

क्रांति…’’

इसी कविता में रामनिहाल गुंजन आगे लिखते हैं-

‘‘ तुम्हारे जीवन के पचीस बसंत

गुजर चुके हैं

सींखचों के पीछे

हमें पूरा यकीन है कि

तुम अपनी कौम की खातिर

इस कैद की सजा को भी

छोटा साबित कर दोगे

और एक दिन

अपने महादेश को

काली रोशनी से कर दोगे जगमग  ’’

जब हिन्दी में संगठित रूप से स्त्री-दलित विमर्श शुरू नहीं हुआ था, उस वक्त ही रामनिहाल गुंजन अपनी कविता ‘लूशुन को याद करते हुए’ में नारी-मुक्ति-संघर्ष और ‘बाबा साहब की याद में’ सामाजिक समता और न्याय के पक्ष में लिख रहे थे। ‘लूशुन को याद करते हुए’ कविता उनकी एक कहानी ‘नए वर्ष की बलि’ पढ़कर लिखी गई है। रामनिहाल गुंजन लूशुन को नारी-मुक्ति की लड़ाई छेड़ने वाले साहित्यकार के रूप में याद किया है। उन्होंने लिखा है-

लूशून महज अपने ही देश के नहीं

इस और

उस देश के भी थे

जहाँ सियांगलीन की औरतों की तरह

उन स्त्रियों ने

अपना मुक्ति-संघर्ष

आज भी रक्खा है जारी

जो अब भी जकड़ी हैं

कई सत्ताओं के बीच

और जिनसे मुक्त होने के लिए

उन्हें फिर किसी लूशुन का इंतजार है

ताकि वे खड़ी हो सकें

उन सत्ताओं के

खिलाफ

पूरी मजबूती के साथ।’’

स्पष्ट है कि बदलते समय में और स्त्रियों की मुक्ति के संदर्भ में लूशुन की परंपरा गुंजन जी को प्रासंगिक लगती है। वे प्रगतिशील-जनवादी या वामपंथी कविता के खिलाफ संचालित आत्मकेंद्रित, सत्तापरस्त और कलावादी कविता के तर्कों को मंजूर नहीं करते। अपनी कविता ‘बाबा साहब की याद में’ वे अंबेडकर जैसे परिवर्तनकारी व्यक्तित्व को करते हैं।

कविता के पहले अनुच्छेद में उन्होंने लिखा है-

जब देश बढ़ रहा था

लगातार अंधेरे की तरफ

तुम आए थे

सफेद रोशनी की तरह अचानक

सदियों से राह भटकी आलोक-किरण

तब चमकी थी

आँखों में इस उप-महादेश की

और तुम होते गए थे

विराट पुरुष की महिमा से मंडित’’

इस पहले अनुच्छेद को गौर से देखा जाए तो महसूस होगा कि किस तरह अंधेरे-उजाले के परंपरागत अर्थ और विराट पुरुष के अर्थ को भी कवि ने बदल दिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक विषमता के लिए जिम्मेवार वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ अतीत में भी संघर्ष हुए थे, अंबेडकर के साथ जैसे वह पूरी परंपरा नए सिरे से प्रकाशमान हो उठती है। विराट पुरुष का वह मिथ, जिसके विभिन्न अंगों से चार वर्ण पैदा होने की बात की गई थी, उसकी तुलना में अंबेडकर का ‘विराट पुरुष की महिमा से मंडित’ हो जाना, एक तरह से उस विभेदकारी अवधारणा को ही पलट देने जैसा है, जहाँ विराटता के भौतिक और सामाजिक अर्थ हैं, जहाँ विराटता का पैमाना व्यक्ति की मानवीय भूमिका है। कविता में आगे कवि ने कपिल-कणाद के अन्त्यज पुत्रों के दुखों और अपमान भरे जीवन से अंबेडकर के जीवन को जोड़ते हुए जाति, धर्म, संप्रदाय, मजहब की बुनियाद पर कायम दीवारों के खिलाफ समता और न्याय की तलवार उठाने और अप्रतिम ज्ञान का दहकता सूरज उगाने का श्रेय उन्हें दिया गया है। इसके बाद कवि ने लिखा है-

‘‘अंधरूढ़ियों और

चट्टानी जड़ता के खिलाफ

निरंतर चेतना जगाई थी तुमने

तुमने उन सारे जड़-चेतन को देखा था

महाबुद्ध की आँखों से

और पढ़ाया था सबको

ढाई आखर का पाठ ’’

यहाँ कविता बुद्ध ही नहीं, कबीर की परंपरा से भी अंबेडकर का संबंध् जोड़ती है। अंबेडकर यूँ ही वर्ण-व्यवस्था के विरोधी नहीं हो गए थे, बल्कि विरोधी परंपराओं का भी गहरा अध्ययन किया था, इसके भी संकेत इस कविता में हैं-

तुमने ही की थी दरअसल परिक्रमा

वेद, पुराण और इतिहास की

तुमसे कुछ भी न था अगोचर

तुममें था सब कुछ समाहित

ओ इतिहास पुरुष!

तुम्हारे अजेय संकल्पों की रोशनी में

अनवरत चलती रहे मनुष्यता

और इतिहास को मिले

एक नया मोड़

दुनिया में जहाँ कहीं भी हो

भेद-भाव और जहालत का साम्राज्य

उसे ध्वस्त कर बहती रहे

विशाल श्रम की जन-गंगा।’’

ज्ञात जानकारी के अनुसार अब तक किसी ने इस कविता को कहीं उद्धृत नहीं किया है। इस कविता की अंतिम पंक्तियों पर ध्यान दिया जाए तो महसूस होगा कि यह कविता एक ऐतिहासिक काम करती है। यह सामाजिक मुक्ति और आर्थिक मुक्ति के संघर्ष को परस्पर अलगा कर देखने की प्रवृत्ति का निषेध करते हुए अंबेडकरवाद और मार्क्सवाद के बीच बनी दीवार को ध्वस्त कर देती है। यह कविता अंबेडकर की विरासत को प्रगतिशील-जनवादी विचारधारा के सहयोगी के बतौर चिह्नित करती है।

मेहनतकशों की मुक्ति की प्रबल आकांक्षा ही है जो उनसे ‘गोरख पांडेय की याद में’ जैसी कविता की रचना कराती है। औरतों की आजादी के हक में लिखी गई गोरख की कविताओं और काव्य-पंक्तियों को भी इस कविता में याद किया गया है।

जिन लोगों ने कविता को छद्म सद्भावना पैदा करने का यंत्र बना दिया, जो खेतिहर मजदूरों को सताने और भूख की ज्वाला में झोंकने वालों के साथ रहे, जो व्यवहार में सामंती-सांप्रदायिक-वर्णवादी हैं, जो साम्राज्यवादी एजेंसियों के पैसे से चलने वाले साहित्य-उत्सवों में गीत गाते हैं, जो जाति, संप्रदाय और भाषा के नाम पर लोगों को बांटते हैं, उनके विरुद्ध रामनिहाल गुंजन को कबीर, नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, मुक्तिबोध, निराला, प्रेमचंद जैसों की परंपरा की याद आती है-

‘‘आज जरूरत है उस दूजे कबीर की

जो परे हो धर्म और जाति से

दूसरों के घर की बजाय

जो जलाता हो अपना ही घर

तभी दूर पर खड़े ऐसे में

दिख जाते हैं कहीं नाजिम हिकमत

कहीं पाब्लो नेरूदा

और यहीं कहीं खड़े हैं मुक्तिबोध

गढ़ों और मठों को तोड़ते हुए

कहीं हरिजन बच्चों को

क्रांति-पाठ पढ़ाते निराला

और कहीं जारी है

गोबर से प्रेमचंद के लंबे संवाद का सिलसिला

लिहाजा

कहीं कविता खत्म नहीं होती।’’

इस कविता की वर्णन-शैली नागार्जुन की कविता ‘भोजपुर’ और मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में’ की याद दिलाती है।

गुंजन जी वामपंथियों की ऐतिहासिक गड़बड़ियों को भी अपनी कविता का विषय बनाते रहे। ‘नंदीग्राम’ शीर्षक कविता इसका सर्वाधिक उपयुक्त उदाहरण है- ‘जिनसे कभी नहीं थी उम्मीद/ वे ही ढाते रहे कहर/ नंदीग्राम में।’ कवि नंदीग्राम में शासकीय दमन झेल रही जनता के प्रतिरोध के पक्ष में खड़ा होता है। उनकी आमार बाड़ी तोमार बाड़ी नक्सलबाड़ी की तर्ज पर आवाज में आवाज मिलाता है- ‘‘आज के हर ग्राम का नाम है/ नंदीग्राम/ आमार ग्राम/ तोमार ग्राम/ सबार ग्राम नंदीग्राम।’’ भूमि-अधिग्रहण के खिलाफ उनकी लड़ाई कवि को प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ के नायक सूरदास की याद दिलाती है।

पत्रकार और समाजशास्त्री अरविंद नारायण दास के निधन पर ‘जनपक्षधर पत्रकारिता की चुनौतियां’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी का अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए उन्होंने कहा था कि ‘‘क्रांति में पत्रकारों और साहित्यकारों की प्रमुख भूमिका होती है। गांधी, तिलक, भगतसिंह से लेकर इटली के ग्राम्शी इसके उदाहरण हैं। जनपक्षधर पत्राकार भी आमलोगों के बीच से ही आते हैं, यदि क्रांति के लिए प्रयास तेज होते हैं, तो उनकी चेतना भी इससे प्रभावित होती है।’’ अपने तईं उन्होंने भी यही भूमिका निभाने की कोशिश की।

‘अभी’, ‘प्रारूप’, ‘संरचना’ और ‘प्रस्ताव’ आदि पत्रिकाओं का नामकरण उन्होंने ही किया। ‘सीमांत’ के सौजन्य संपादक रहे, जिसके हर अंक में वे ‘समानधर्माएँ’ नामक स्तंभ में छोटी पत्र-पत्रिकाओं पर लिखते थे। चंद्रभूषण तिवारी की चर्चित पत्रिका ‘वाम’ के भी वे सहयोगी रहे और उसका प्रूफ देखने का भी काम किया। विजेंद्र अनिल द्वारा संपादित ‘प्रगति’ पत्रिका भी उनकी ही देख-रेख में निकलती थी। पटना से हरिहर प्रसाद द्वारा संपादित पत्रिका ‘प्रस्ताव’ के लिए वे लेख और समीक्षाएँ लिखते थे। गुंजन जी का कहना है कि एक तरह से वे इसके भूमिगत संपादक थे। उसके लूशुन अंक की पूरी योजना उन्हीं की थी।

आज जिस दिशा में हिंदुत्ववादी राजनीति बढ़ रही है, उस संदर्भ में गुंजन जी की एक कविता देखी जा सकती है। वे बताते हैं कि राम-रावण युद्ध तो आज भी जारी है, लेकिन कथा से बाहर की दुनिया का यथार्थ बदला हुआ है- ‘राम की सेना आज/ लड़ रही है रावण की तरफ से/ बेपनाह नफरत फैलाने वाले लोग/ पैदा हो रहे हैं लगातार।’ लेकिन इतिहास की एक समझदारी है, जिसके बल पर वे कहते हैं- ‘वे मिट जाएँगे/ पूरी दुनिया से ही/ नहीं बच पाएगा उनका नामोनिशान भी/ आने वाली शताब्दियों में/ घृणा की जगह उपजेगा/ एक बार फिर व्यापक मानवीय प्रेम।’’

नई सदी की शुरुआत में कवि अरुण शीतांश से बातचीत के दौरान उन्होंने जो उम्मीद जाहिर की, वह ध्यान देने लायक है। उन्होंने कहा- ‘‘मैं समझता हूँ कि यह सदी नए साहित्य की सदी होगी। जिसमें उसका संघर्ष मुख्य रूप से नई प्रौद्योगिकी द्वारा पैदा की गई रचना-विरोधी और जन-विरोधी स्थितियों को लेकर होगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि नए साहित्य के जरिए भारतीय कविता-कहानी या आलोचना का विकास नए सिरे से होगा, जिसमें प्रगतिशील और जनवादी तथा नवजनवादी लेखकों की भूमिका निश्चित रूप से ऐतिहासिक महत्त्व की सिद्ध होगी।’’

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