“ भारत हमारी मातृभूमि है और वह हमेशा रहेगी. यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने देश की आज़ादी के संघर्ष के मोर्चे पर आगे रहे हैं. ”
यह उद्धरण है जम्मू कश्मीर में स्वतंत्र और राजशाही से मुक्ति की लड़ाई के अग्रणी योद्धा ,वहाँ के पहले मुख्यमंत्री (तब प्रधानमंत्री) और सबसे बड़े नेता मरहूम शेख अब्दुल्ला का. धारा 370 के साथ ही जम्मू-कश्मीर का राज्य के तौर पर अस्तित्व समाप्त कर दिया गया है. वहाँ इंटरनेट बंदी से लेकर अन्य पाबंदियों को 6 माह पूरे हो चुके हैं. एक तरह से पूरा कश्मीर कैद में है. बीबीसी हिन्दी की वेबसाइट पर प्रियंका दुबे की रिपोर्ट बताती है कि बीते 6 महीनों में कश्मीर भयानक अवसाद में है. उक्त रिपोर्ट के अनुसार पुलवामा में ही अवसाद के मरीजों की संख्या में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. आर्थिक रूप से भी कश्मीर को भारी नुकसान हुआ है. पर्यटन से लेकर सेब के व्यवसाय तक तमाम काम धंधों के चौपट होने की खबरें हैं.
इस सब के बीच कश्मीर और कश्मीरियों के खिलाफ दक्षिणपंथी कुत्सा अभियान निरंतर चलता ही रहता है,जिसके जरिये कश्मीर पर लगी हर पाबंदी को जायज ठहराने की जमीन तैयार की जाती है.
कश्मीर में मुखयमधारा के राजनेताओं के बंधक बनाए जाने और उनके खलनायकीकरण के दौर में शेख अब्दुल्ला को उनकी जीवनी के जरिये जानना, दरअसल यह समझने की कोशिश है कि कश्मीर को कैसा बनाने का सपना कश्मीर के इस सबसे कद्दावर नेता का था और आज उसका क्या बना दिया गया है !
शेख अब्दुल्ला की उर्दू में प्रकाशित जीवनी का नाम है- आतिश-ए-चिनार. प्रख्यात अँग्रेजी लेखक दिवंगत खुशवंत सिंह ने अँग्रेजी में इस जीवनी का अनुवाद- फ्लेम्स ऑफ चिनार- नाम से किया. इस अनुवाद की भूमिका में खुशवंत सिंह इस जीवनी के लिखे जाने और उसके अनुवाद का पूरा किस्सा बयान करते हैं. उसी किस्से से यह समझ में आता है कि शेर-ए-कश्मीर के नाम से पहचाने जाने वाला इस नेता का कद कितना बड़ा था. खुशवंत सिंह लिखते हैं कि कश्मीरी विद्वान और शोधकर्ता मुहम्मद युसुफ टैंग ने शेख को इस बात के लिए तैयार किया कि वे अपनी जीवनी लिखें. यह प्रक्रिया यूं चली कि शेख बोलते जाते और टैंग लिखते जाते. इसी क्रम में 1965 में टैंग ने राज्य अभिलेखागार में सरकारी रिकॉर्ड देखे. टैंग यह देख कर हैरत में पड़ गए कि लगभग हर दस्तावेज़ में शेख का संदर्भ था.
शेख चाहते थे कि यह जीवनी उर्दू और अँग्रेजी में साथ-साथ प्रकाशित हो. लेकिन विभिन्न वजहों से ऐसा हो न सका. खुशवंत सिंह इस तथ्य को स्वयं दर्ज करते हैं कि उर्दू में इस जीवनी में 1000 पृष्ठ और 73 अध्याय हैं जबकि अँग्रेजी में 172 पन्नो और 25 अध्यायों में समेट दिया गया है.
इस पुस्तक का पीडीएफ संस्करण,जो मुझे प्राप्त हुआ,उसके पहले पन्ने पर जॉर्ज बरनार्ड शा का कथन अंकित है : all autobiographies are lie यानि सभी आत्मकथाएं झूठ होती हैं. लेकिन शेख अब्दुल्ला की यह जीवनी इस कथन को ही झुठलाती प्रतीत होती है.
इस जीवनी में शेख अब्दुल्ला ऐसे व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं, जो बेहद बेबाकी से अपने मित्रों की आलोचना करते हैं तो राजनीतिक विरोधियों की तारीफ भी करते हैं. नेहरू से शेख की मित्रता रही पर वे नेहरू की बेहद कठोर आलोचना करते हैं.1953 में बख्शी गुलाम मुहम्मद को शेख को हटा कर मुख्यमंत्री बनाया गया था. बख्शी की सरकार की शेख कठोर आलोचना करते हैं. वे लिखते हैं कि बख्शी ने पैसे और बाहुबल के दम पर एक कृत्रिम शांति स्थापित की. पुलिस अधीक्षक गुलाम शेख के नियंत्रण में लंपट तत्वों को संगठित किया,जिन्होंने जनता का भारी दमन किया. लेकिन इस तीखी आलोचना के साथ ही यह कहना नहीं भूलते कि बख्शी के कार्यकाल में पहला मेडिकल कॉलेज और पहला रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज बना. शेख लिखते हैं कि उसी समय प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षा मुफ्त की गयी. इस तरह अपने को अपदस्थ कर मुख्यमंत्री बने व्यक्ति द्वारा क्या-क्या सकारात्मक कदम उठाए गए,इसको तफ़सील से गिनवाते हैं. साथ ही यह भी लिखते हैं कि बख्शी विरोधाभासों का मेल थे,एक तरफ जहां वे बेहद कठोर व क्रूर थे तो दूसरी ओर कतिपय अवसरों पर जरूरतमंदों के लिए वे बेहद उदार थे.
गांधी के शेख मुरीद थे. उनका भरोसा था कि यदि गांधी जीवित होते तो कश्मीर समस्या का समाधान आसानी से हो जाता. वे गांधी की हत्या पर द्रवित होते हैं और यह भी दर्ज करते हैं कि गांधी की हत्या पर जम्मू में आरएसएस के लोगों ने मिठाई बांटी. शेख गांधी को आधुनिक युग का महानतम मनुष्य बताते हैं और उनके शिष्यों से अपील करते हैं कि कश्मीर समस्या का समाधान सत्य और अहिंसा से करें. गांधी के शिष्यों ने ऐसा किया नहीं और अब तो उनके हत्यारे को महान समझने वालों का राज है.
शेख अब्दुल्ला की जीवनी की यही विशेषता है कि वे बेहद बेबाकी से सभी चीजों का वर्णन करते हैं. अपने परिवार की पृष्ठभूमि का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि शाल बनाना उनका पुश्तैनी पेशा रहा है. इसी क्रम वे लिखते हैं कि अफगान शासन के दौरान ही उनके एक पुरखे ने इस्लाम धर्म अपनाया और इसके पहले वे कश्मीरी ब्राह्मण थे. इस जीवनी में एक अध्याय कश्मीरी पंडितों पर है. उस अध्याय में वे लिखते हैं कि इस्लाम के उभार से पहले कश्मीर बौद्धों और कश्मीरी पंडितों के संघर्ष की चपेट में था. हर्ष देव के शासन काल में इस संघर्ष ने गृह युद्ध का रूप ले लिया. शेख कहते हैं कि उसी दौरान एक कश्मीरी पंडित सेह बट्ट ने इस्लाम धर्म अपना लिया और अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान सिकंदर (1398) से कर दिया. फिर बेबाकी से शेख कहते हैं कि नए-नए धर्म परिवर्तन किए हुए पंडितों ने कश्मीरी पंडितों पर बहुत अत्याचार किया, जिसके चलते पंडितों ने पलायन किया. आगे वे बताते हैं कि सुल्तान सिकंदर का पुत्र सुल्तान जैन-उल-अबिदीन जब गद्दी पर बैठा तो उसने पंडित विरोधी नीति को उलट दिया और पलायन कर चुके पंडितों को वापस कश्मीर बुलाने के लिए दूत भेजे. इस मुस्लिम शासक ने गौहत्या पर पाबंदी लगा दी. शेख कश्मीरी पंडितों की तारीफ भी करते हैं और उनके साथ द्वंद के कारणों की शिनाख्त भी करते हैं.
एक अन्य प्रसंग में शेख की यह उक्ति कश्मीरी पंडितों के साथ द्वंद के मामले में उचित जान पड़ती है. वे लिखते हैं, “ अपने अनुभव से हमने सीखा कि संघर्ष का असल कारण धर्म नहीं है,बल्कि विभिन्न वर्गों और समूहों में हितों का टकराव है.”
पूरी जीवनी को पढ़ते हुए शेख अब्दुल्ला ऐसे नेता के रूप में सामने आते हैं जो बेहद उदार,व्यापक दृष्टि वाला, धर्मनिरपेक्ष और वंचितों के पक्ष में खड़ा व्यक्तित्व है. वे पाकिस्तान के विचार का विरोध करते हैं, उसे पलायनवादी औज़ार (escapist device) कहते हैं. वे मुस्लिमों को पाकिस्तान बनने से उन्हें होने वाली दिक्कतों के बारे में चेताते हैं और उन्हें हिंदुओं के साथ बिरदराना रिश्ते विकसित करने को कहते हैं.हालांकि वे यह भी इंगित करते हैं कि पाकिस्तान की मांग, हिन्दू सांप्रदायिकता के जवाब में मुस्लिम प्रतिक्रिया थी.
जिन्ना के बारे में शेख लिखते हैं- ऐसा लगता है कि मोहम्मद अली जिन्ना,अपने अलावा यदि किसी दूसरे व्यक्ति को बर्दाश्त कर सकते थे तो वो खुद मोहम्मद अली जिन्ना ही थे. कश्मीर के संदर्भ में मुस्लिम लीग के बारे में वे लिखते हैं कि लीग कश्मीर के शासकों के करीब थी. मुस्लिम लीग के वर्ग चरित्र का विश्लेषण करते हुए शेख कहते हैं कि शक्तिशाली जमीनदार ही इसका प्रतिनिधित्व करते थे, इसलिए जनता के अधिकारों की रक्षा से ज्यादा,इन्हीं के हितों को सुरक्षित करने में उसकी दिलचस्पी थी. एक अन्य संदर्भ में वे कहते हैं कि हिन्दू बुर्जुवा अंग्रेजों का, सरकार और उससे अधिक संपत्ति और सत्ता में स्थान लेने को लालायित था.
कश्मीर के संबंध में शेख बेहद स्पष्ट हैं. वे कश्मीर को किसी धर्म विशेष के नजरिए से नहीं देखते. समूचे कश्मीर के लोगों को अपने साथ जोड़ने के लिए ही वे मुस्लिम कॉन्फ्रेंस से नेशनल कॉन्फ्रेंस तक का सफर करते हैं. वे कहते हैं कि हमारे आंदोलन का प्राथमिक उद्देश्य शोषण का विरोध और शोषितों का समर्थन करना है. कश्मीर के संदर्भ में अपना नजरिया स्पष्ट करने के लिए वे नेशनल कॉन्फ्रेंस का घोषणा पत्र जारी करते हैं, जिसका नाम वे रखते हैं-नया कश्मीर. नया कश्मीर महिलाओं,मजदूरों और समाज के कमजोर तबकों के अधिकारों की रक्षा का आश्वासन देता है. शेख लिखते हैं कि न केवल मुस्लिम लीग के नवाबों ने बल्कि कॉंग्रेस के अंदर के प्रतिक्रियावादियों ने भी “नए कश्मीर” का विरोध किया. हालांकि बाद में नेहरू के नेतृत्व में कॉंग्रेस ने इसे अनुमोदित कर दिया.
कश्मीर में भूमि सुधार शेख की सरकार ने किए. भूमि हदबंदी की गयी,जमीनदारी और बंधुआ मजदूरी खत्म की गयी. शेख लिखते हैं कि सीलिंग से फाजिल 4 लाख एकड़ जमीन का पुनर्वितरण किया गया और करीब 2 लाख किसानों को भूमि पर अधिकार दिया गया. साथ ही सूदखोरी भी समाप्त की गयी. शेख अब्दुल्ला आजादी के तुरंत बाद कश्मीर की सत्ता संभालते हुए वहाँ परिवार नियोजन पर ज़ोर देते हैं. शेख के अनुसार सत्ता में उनकी जगह लेने वाले लोग इस बात के लिए उनका मज़ाक उड़ाते थे. यह मज़ाक उड़ाना तभी बंद हुआ जब भारत सरकार ने भी परिवार नियोजन को अपनी प्राथमिकता बना लिया.
शेख की आत्मकथा कश्मीर और देश के एक कालखंड का आँखों देखा वर्णन है. उस दौर के तमाम मुद्दों-मसलों को लेकर वे बेहद साफ़गोई से अपनी बात कहते हैं. कश्मीर पर कबायलियों का हमला हो,धारा 370 या जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु हो,वे किसी भी मसले पर किनाराकशी करने की कोशिश नहीं करते.
देश की आजादी के तुरंत बाद कश्मीर पर हुए पाकिस्तान के कबायलियों हमले के संदर्भ में वे लिखते हैं कि पाकिस्तान को डर था कि ये आक्रामक कबाईली पेशावर और अन्य शहरों की तरफ न बढ़ जाएँ. इसलिए पाकिस्तान ने उन्हें कश्मीर की तरफ मोड़ दिया और लूट में उनके हिस्सा देने के प्रति आश्वस्त किया. दंगे और लूट में इन कबायलियों ने हिन्दू,मुस्लिम और सिख सभी को निशाना बनाया. शेख लिखते हैं कि इस हमले से पाकिस्तान एक तीर से दो शिकार कर रहा था,पहला कबायलियों से मुक्ति और दूसरा कश्मीर को घुटनों पर लाना. हमले से भयभीत महाराजा जम्मू चला गया. शेख लिखते हैं कि इस हमले के प्रतिरोध के लिए जो जन मिलिशिया,नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा बनाया गया उसमें मुस्लिम और गैर मुस्लिम सभी शरीक थे. मुस्लिमों ने गैर मुस्लिमों के घरों की रक्षा की ज़िम्मेदारी ली और ऐलान किया कि उनकी लाशों पर से गुजर कर ही इन घरों तक पहुंचा जा सकता है.
इसी दौरान ही कश्मीर के भारत में विलय के समझौते पर दस्तखत हुए. शेख खुलासा करते हैं कि गवर्नर जनरल माउण्टबेटन ने कश्मीर के महाराजा को सुझाव दिया कि वे रियासत का दोनों देशों में से किसी एक देश में विलाय कर लें. साथ ही पटेल का संदेश भी उन्हें दिया कि महाराजा द्वारा कश्मीर का पाकिस्तान में विलय अमैत्रीपूर्ण नहीं समझा जाएगा. मेहर चंद महाजन की किताब-कश्मीर्स एक्सेशन टु इंडिया-के हवाले से शेख लिखते हैं कि महाराजा ने कहा कि दिल्ली से मदद मांगों और मदद न मिले तो पाकिस्तान के आगे आत्म-समर्पण कर दो. शेख लिखते हैं कि भारत सरकार द्वारा बनाए गए विलय पत्र पर महाराजा ने दस्तखत किए. यह विलय पत्र नेहरू को सौंपते हुए मेहर चंद महाजन ने कहा कि फौज आज ही कश्मीर के लिए रवाना की जाये,नहीं तो मैं जिन्ना के पास जा कर विलय के समझौते पर दस्तखत कर लूँगा. नेहरू इस शर्त से भड़क गए तो शेख लिखते हैं कि स्वयं उन्होंने नेहरू से कहा नेशनल कॉन्फ्रेंस भारत में विलय का समर्थन करती है.
धारा 370 जो आज भी सबसे चर्चित विषय बना हुआ है,कश्मीर के संदर्भ में उसके हासिल होने की प्रक्रिया का शेख विस्तार से उल्लेख करते हैं. पर साथ ही यह भी स्पष्ट कहते हैं 1953 के बाद इसे कई बार कमजोर किया गया.
कश्मीर के संदर्भ में यह प्रचार किया जाता रहा है कि वहाँ के लोगों को भारत सरकार बरसों से अब तक 2 रुपया किलो बासमती चावल देती रही है. शेख अब्दुल्ला की जीवनी इस चावल के रहस्य से भी पर्दा उठाती है. वे लिखते हैं कि जब उन्हें सत्ता से हटा कर बख्शी गुलाम मोहम्मद को सत्ता पर बैठाया गया तो उसी दौरान मुफ्त चावल की सप्लाई भी हुई. शेख इस चावल सब्सिडी को अनैतिक और अराजनीतिक बताते हैं और जब इन्दिरा गांधी के शासन काल में शेख मुख्यमंत्री बने तो उन्होने खुद ही पहल ले कर इस चावल सब्सिडी को बंद करवा दिया. शेख आजादी के बाद जब पहली बार सत्ता में आए तो उन्होंने “अधिक अन्न उगाओ” अभियान चलाया था ताकि कश्मीर को अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सके.
आज के भारत के सत्ताधारी और उनके समर्थक कश्मीर के अलग संविधान और जनमत संग्रह के विरोध पर काफी मुखर रहे हैं. शेख अब्दुल्ला की जीवनी से गुजरिए तो आपको पता चलता है कि जिस जमाने में कश्मीर में जनमत संग्रह की बात हुई और जब वहाँ संविधान बना तो दोनों से यदि किसी को दिक्कत हुई तो वो पाकिस्तान की हुकूमत थी. आज यदि भारत के हुक्मरान इन सब बातों से दिक्कत महसूस करते हैं तो सोचिए कि आजादी के 70 सालों में देश कहाँ पहुँच गया है.
समझना चाहें तो शेख अब्दुल्ला की इस जीवनी से कश्मीर की नाराजगी और अलगाव की वजहों की शिनाख्त भी की जा सकती है. वे लिखते हैं कि अंग्रेजों को 75 लाख रुपये देकर महाराजा गुलाब सिंह ने समस्त झेलम घाटी को खरीद लिया. सारी जीवनी में इस स्वर को महसूस किया जा सकता है कि कश्मीर के लोगों के बारे में सारे फैसले गुलाब सिंह और अंग्रेजों के बीच हुई खरीद-बिक्री की तरह ही किए जाते रहे हैं.
कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार को लेकर वे निरंतर मुखर रहते हैं.आजादी से पहले रियासतों के भविष्य के संदर्भ में जब-जब चर्चा हुई तो शेख ने कहा कि विलय का अधिकार जनता के पास होना चाहिए,राजा के पास नहीं. उन्होंने “विलय से पहले स्वतन्त्रता” का नारा दिया.विभिन्न सम्मेलनों-सभाओं में आत्मनिर्णय के अधिकार के प्रस्ताव को शेख पारित करवाते हैं. लेकिन जैसा कि आज पेश करने की कोशिश की जाती है,यह स्वायतत्ता या आत्मनिर्णय की बात कोई विभाजनकारी बात नहीं थी,बल्कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोगों को फैसला लेने में अधिकतम भागीदारी की बात थी. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए शेख कहते हैं कि एकतबद्ध भारत ही अंग्रेजों को खदेड़ सकता है. कश्मीर के विलय के प्रश्न पर भी वे स्पष्ट हैं. जीवनी के जिस अध्याय में वे कश्मीर के विलय पर चर्चा करते हैं,उसमें पाकिस्तान में विलय के विकल्प को वे सिरे से खारिज करते हैं. कश्मीर के स्वतंत्र राष्ट्र बनने के विकल्प पर वे कहते हैं कि बड़ी शक्तियों से घिरे हुए छोटे राष्ट्र को स्वतंत्र रख पाना असंभव है. वे लिखते हैं कि भारत ही है,जहां हमारे विचार से मिलते-जुलते विचार वाले लोग हैं और जहां विलय से हम “नए कश्मीर” के अपने ख्वाब को पूरा कर सकते हैं. वे कश्मीर को धर्म के आधार वाले द्वी राष्ट्र के सिद्धान्त पर चोट बताते हैं. साथ ही कहते हैं कश्मीर की भारत में मौजूदगी ने भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को मजबूत किया है. धर्मनिरपेक्षता और कश्मीर,दोनों को ही दुश्मन समझने वालों की समझ में क्या इस बात का आना मुमकिन है ?
शेख को भारत की सरकार ने कई-कई बार गिरफ्तार किया. उनके साथियों ने कहा कि जो देश उनके साथ ऐसा सलूक कर रहा है,उसके साथ क्यूँ रहना है. शेख ने जवाब दिया कि हम कुछ आदर्शों से जुड़े हुए हैं. जबतक भारत उन आदर्शों को मानता है,हमें उसके साथ ही रहना चाहिए. पाकिस्तान में समाजवाद,धर्मनिरपेक्षता और लोकतन्त्र के लिए कोई जगह नहीं है. शेख का यह जवाब उनके विरोधियों और उनको खलनायक बनने वालों को भी सुनना चाहिए. समाजवाद,धर्मनिरपेक्षता और लोकतन्त्र का विचार, जिससे आज की सत्ता की विचारधारा का बड़ा बैर है,उसके लिए शेख का यह जवाब करारा तमाचा है. समाजवाद,धर्मनिरपेक्षता और लोकतन्त्र का ही विचार है,जो इस देश को बनाता है,जोड़ता है. जो इसको खंडित करना चाहता वह इस देश की बुनियाद ही खोद डालना चाहता है.
कश्मीर जब 6 महीने से कैद में है तो शेख की जीवनी के पहले पृष्ठ पर लिखी कल्हण की राजतरंगिणी की ये पंक्तियाँ बरबस ध्यान खींचती हैं :
“ कश्मीर – भावना की शक्ति से हाँ
कश्मीर- तलवार की शक्ति से कभी नहीं.”
देखें हुकूमत की तलवार का ज़ोर कब तक चलता है !
धड़कते कश्मीर,जीवंत कश्मीर के बारे में इक़बाल का शेर भी शेख पहले पन्ने पर दर्ज करते हैं :
“ जिस ख़ाक के ज़मीर में हो आतिश-ए-चिनार
मुमकिन नहीं कि सर्द हो वो ख़ाक-ए-अर्जुमा.”
कश्मीर की जीवंतता वापस लौटे, वह जीवंत रहे, यही कामना है.