हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने साथी सैनिकों से कहा -न ये हिंदुओं का झगड़ा है न मुसलमानों का. झगड़ा है कांग्रेस और अंग्रेज का. जो कांग्रेसी भाई हमारे देश की आजादी के लिये अंग्रेजों से लड़ाई लड़ रहे हैं, क्या ऐसे समय में हमें उनके ऊपर गोली चलानी चाहिये ? हमारे लिये गोली चलाने से अच्छा यही होगा कि अपने को गोली मार लें.”
23 अप्रैल 1930 को चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में अंजाम दिए गए पेशावर विद्रोह को आज 88 वर्ष पूरे हो गए हैं. अंग्रेजी फौज में रहते हुए, इन सिपाहियों ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई का एक जबरदस्त मोर्चा खोल दिया.
फौज में रहते हुए स्वतंत्रता सेनानियों पर गोली चलाने से इंकार करने की इस घटना ने अंग्रेजों को भी हतप्रभ कर दिया. इस घटना ने अंग्रेजों को इस कदर हिला कर रख दिया कि इन सिपाहियों पर जब कार्यवाही करने की नौबत आई तो अंग्रेजी ने 23 अप्रैल को आदेश नहीं मानने का मुकदमा उन पर नहीं चलाया, बल्कि 24 अप्रैल को हुक्म उदूली का मुकदमा चला कर इनका कोर्ट मार्शल किया.
दरअसल 23 अप्रैल को गोली चलवाने में असफल रहने के बाद अंग्रेजों ने कोशिश की कि 24 अप्रैल को फिर गढ़वाल राइफल की इस टुकड़ी को पेशावर की सड़कों पर उतारा जाए पर उस दिन हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ़वाली की अगुवाई में इन सिपाहियों ने बैरकों से ही निकलने से इंकार कर दिया.
यह भारत के स्वाधीनता आंदोलन का एक गौरवशाली अध्याय है, जहां बेहद कम पढ़े-लिखे साधरण सिपाहियों ने अंग्रेजों की फूट डालो-राज करो की नीति को पलीता लगा दिया. गढ़वाली फौज को पेशावर में उतारा ही इसलिए गया था ताकि इसे हिन्दू-मुसलमान का मामला बनाया जा सके. खान अब्दुल गफ्फार खान के लाल कुर्ती दल का प्रदर्शन होना था और गढ़वाली फौज से गोली चलवाई जानी थी. इसे सीधे-सीधे साम्प्रदायिक विभाजन की खाई चौड़ी होती.
पेशावर में गोली चलाने की भूमिका बनाते हुए, अंग्रेज अफसर ने इन सिपाहियों को हिन्दू-मुसलमान के झगड़े की बात ही समझाने चाही.अंग्रेज अफसर ने कहा,” पेशावर में 94 फीसदी मुसलमान हैं, दो फीसदी हिंदू हैं। मुसलमान हिंदू की दुकानों को आग लगा देते हैं, लूट लेते हैं. शायद हिन्दुओं को बचाने के लिये हमें बाजार जाना पड़े और इन बदमाशों पर गोली चलानी पड़े.”
इस वक्तव्य को आज के समय में रख कर देखिये,जब सोशल मीडिया में फैलाई गई कोई झूठी अफवाह,कहीं भी दंगों की आग भड़का दे रही है. ऐसे में तो आज से 88 वर्ष पूर्व इन सिपाहियों को तो मुसलमान के खिलाफ भड़क ही जाना चाहिए था.लेकिन ये सिपाही भड़के नहीं.बल्कि अंग्रेज अफसर के जाते ही चन्द्र सिंह गढ़वाली सिंह ने अपने साथियों को समझाया – ” इसने जो बातें कही हैं सब झूठ हैं. हिंदू-मुसलमान के झगड़े में रत्ती भर सच्चाई नहीं है. न ये हिंदुओं का झगड़ा है न मुसलमानों का.झगड़ा है कांग्रेस और अंग्रेज का.जो कांग्रेसी भाई हमारे देश की आजादी के लिये अंग्रेजों से लड़ाई लड़ रहे हैं, क्या ऐसे समय में हमें उनके ऊपर गोली चलानी चाहिये ? हमारे लिये गोली चलाने से अच्छा यही होगा कि अपने को गोली मार लें.”
पेशावर में गढ़वाल राइफल के इन सिपाहियों ने जो कारनामा अंजाम दिया,उसने इस देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब को बुलन्द किया.अंग्रेजों द्वारा इन्हें मुस्लमानों के खिलाफ घृणा के सिपाही में तब्दील करने की कोशिश को ध्वस्त कर दिया.जैसा पेशावर अंग्रेज 23 अप्रैल 1930 को जैसा पेशावर रचना चाहते थे,वैसा पेशावर रचने की कोशिश इस देश में आये दिन सोशल मीडिया के जरिये रचने की कोशिश हो रही है.आम नागरिक को साम्रदायिक घृणा से लैस सिपाही में तब्दील करने की परियोजना पर लगातार हुकूमत की सरपरस्ती में काम चल रहा है. ऐसे में चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके सैनिक साथियों के कारनामे को याद करने की जरूरत है. इन सिपाहियों ने अंग्रेजों के द्वारा एक साम्प्रदायिक कांड रचने की कोशिश के खिलाफ खड़े हो कर,उसे अंग्रेजी राज के खिलाफ एक शानदार विद्रोह में तब्दील कर दिया.
पेशावर विद्रोह की इस परम्परा को आज भी बुलन्द करने की जरूरत है.
कामरेड चंद्र सिंह गढ़वाली की समझौताविहीन संघर्षों की परंपरा जिंदाबाद.
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