समकालीन जनमत
तस्वीरनामास्मृति

तीन शोक चित्र

( प्रख्यात चित्रकार रामकुमार का  14 अप्रैल को निधन हो गया. उन्होंने मृत्यु शैया पर मुक्तिबोध का एक चित्र बनाया था. उनको नमन करते हुए विश्व चित्रकला के दो शोक चित्रों के साथ रामकुमार द्वारा बनाये गए मुक्तिबोध के चित्र के बारे में   ‘ तस्वीरनामा ’ में  बता रहे हैं प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक )

कहानी , कविता , चित्रकला और अन्य कला विधाओं में कई बार कृतियों के बीच समानताऐं हमें चकित करती हैं । पश्चिम में चित्रकला के क्षेत्र में बड़े से बड़े चित्रकारों ने अपन पूर्ववर्ती चित्रकारों की ऐतिहासिक कृतियों की अनुकृतियाँ बनाई है । कई चित्रकारों ने दूसरे चित्रकारों के चित्रों को आधार बना कर भी कई मौलिक और महत्वपूर्ण चित्र बनाए हैं । ऐसे ही , एक ही विषय पर विभिन्न चित्रकारों ने अनेक यादगार चित्र भी बनायें हैं ।

पर चित्रकला इतिहास में कई चित्र उनके उद्देश्य , विषय और संरचना की समानताओं के कारण हमें विशेष रूप से आकर्षित करतें हैं । ऐसे ही तीन विशिष्ट चित्रों को आस-पास रख कर उनके सन्दर्भों को जानने-समझने के जरिये चित्रकला के इस पहलु से हम परिचित होने की कोशिश करेंगे । यहाँ हम डॉक्टर पॉल गैशे , पिकासो और राम कुमार द्वारा बनाये गए तीन चित्रों पर बात करेंगे ।

चित्र 1 : मृत्यु शैया पर वॉन गॉग

चित्रकला में विन्सेन्ट वॉन गॉग (1853-1890) जैसा अतृप्त और अशांत जीवन शायद कम ही चित्रकारों ने जिया होगा । विन्सेन्ट वॉन गॉग ने अपने अंतिम दिनों में अनेक महत्वपूर्ण चित्र बनाये थे , उनमें ‘ गेहूँ के खेत के ऊपर कौवें ‘ चित्र विशेष रूप से चर्चित है ।  यह चित्र उनका बनाया हुआ अंतिम चित्र है और इस चित्र के बनाने के बाद , 27 जुलाई 1890 को विन्सेन्ट वॉन गॉग ने अपने को गोली मार कर आत्महत्या का प्रयास किया था । गोली लगने से विन्सेन्ट वॉन गॉग की तत्काल ही मृत्य नहीं हुई थी  बल्कि इसके 29 घंटों बाद , 29 जुलाई वॉन गॉग ने अपनी आखिरी साँस ली थी ।

विन्सेन्ट वॉन गॉग के जीवन के इन अंतिम घड़ियों में उनके चिकित्सक डॉक्टर पॉल फ़र्डीनांड गैशे उनके पास थे और उन्होंने  ‘ मृत्यु शैया पर वॉन गॉग ‘ शीर्षक से एक रेखाचित्र बनाया था ( देखें चित्र 1) । इस रेखा चित्र को देखने से लगता है कि यह एक ऐसे चिकित्सक द्वारा बनाया गया चित्र हैं , जिसके पास अब अपने मरीज को मदद करने का कोई उपाय नहीं बचा है और उन्हे अपने  मरीज के निश्चित और आसन्न मृत्यु के बारे में पूरा ज्ञान भी हैं ।  ऐसी स्थिति में यह चित्र उस चिकित्सक के असहायबोध का भी दस्तावेज है ।

 

डाक्टर पॉल गैशे पेशे से कोई चित्रकार नहीं थे , पर विन्सेन्ट वॉन गॉग जैसे , बेहद कठिन और जिद्दी स्वाभाव के प्रतिभाशाली चित्रकार का लंबे समय से इलाज करते हुए उनके और चित्रकार के बीच एक सहज मैत्री का भाव पैदा हो गया था ।  यह चित्र उस मैत्री की स्वीकृति भी हैं । विन्सेन्ट वॉन गॉग ने उसी वर्ष (1890), डाक्टर पॉल गैशे के दो बेहद भावपूर्ण चित्र (पोर्ट्रेट ऑफ़ डाक्टर गैशे) बनाये थे । क्या डाक्टर गैशे ने ‘ मृत्यु शैया पर वॉन गॉग ‘ बना कर अपने दिवंगत मित्र को शुक्रिया कहने की कोशिश की थी !

यह चित्र वॉन गॉग के जीवन के अंतिम क्षणों का एक ऐतिहासिक दास्तवेज़ है और जिसका मूल्यांकन महज़ चित्रकला के स्थापित मानकों पर नहीं किया जा सकता । पर फिर भी इस चित्र की शैली स्वयं वॉन गॉग के रेखांकन के शैली से प्रभावित लगती है। इस चित्र में छोटी छोटी समानांतर रेखाऐं कई स्थानों पर दिखाई देती हैं , जो वॉन गॉग की अपनी विशिष्ट शैली थी ।

चित्र 2 :  मोम बत्ती की रौशनी में केसाखेमस की मौत

पाबलो पिकासो के चित्रकार रूप में अपने को प्रतिष्ठित करने का संघर्ष तब शुरू हो ही रहा था , तभी उनकी मुलाक़ात बार्सिलोना  शहर में कार्लोस केसाखेमस (1880 -1901) से हुई थी । कार्लोस , पिकासो के हमउम्र थे और उन्हें चित्रकला के साथ साथ कविता में भी रूचि थी । पिकासो और कार्लोस के बीच एक गहरी दोस्ती पनप रही थी और उन दोनों ने , 1900 में पहली बार स्पेन से पेरिस जाकर अपनी किस्मत आजमाने की सोची । पेरिस में कार्लोस केसाखेमस की मुलाक़ात जेरमाइन पिशो नामकी एक लड़की से हुई और कार्लोस, पिशो से एकतरफा प्रेम करने लगे ।

पिकासो 1901 के शुरू में कुछ समय के लिए स्पेन लौट गए थे और इसी बीच पिशो और जेरोमाइन के बीच रिश्ते ने एक अलग मोड़ ले लिया , जिसके नतीजे के रूप में कार्लोस केसाखेमस ने आत्महत्या कर ली। अभिन्न मित्र के इस अस्वाभाविक मृत्यु ने पिकासो को अंदर से बेहद विचलित किया था , और कला इतिहासकारों का मानना है कि पिकासो के जीवन का ‘ नीला काल ‘ इसी दुर्घटना से प्रभावित था । पिकासो ने अपने नीले काल के चित्रों में मृत्यु और मृत्यु पूर्व के असहाय मुहूर्तों को कई-कई रूपों में चित्रित किया हैं । नीले काल के उनके चित्रों में दरिद्र , निराश, शारीरिक रूप से अक्षम , वृद्ध , रोगग्रस्त और समाज के हाशिये पर जीते-मरते उपेक्षित लोगों की उपस्थिति को देखा जा सकता है ।

पिकासो की चित्रकला यात्रा के इस शोक-सिक्त काल की शुरुआत कार्लोस केसाखेमस की मृत्यु के बाद ही हुई थी । कार्लोस केसाखेमस ने 1901 के 17 फ़रवरी को आत्महत्या की थी, जब पिकासो पेरिस में अपने मित्र के साथ नहीं थे ।  पेरिस लौट कर उन्होंने अपने मित्र कार्लोस केसाखेमस को याद करते हुए एक काल्पनिक चित्र बनाया था , ‘ मोम बत्ती की रौशनी में केसाखेमस की मौत ‘( देखें चित्र 2 )।

इस चित्र के अलावा भी पिकासो ने एक और चित्र है – ‘कार्लोस केसाखेमस की मौत ‘, जिसमे हम जलती ही मोमबत्ती को अनुपस्थित पाते है । यह चित्र एक ऐसे प्रखर , मेधावी और युगांतकारी चित्रकार के उस दौर का बनाया हुआ चित्र है , जब उन्हें कोई पहचानता भी नहीं था । पर इस चित्र में निस्संदेह उस महान चित्रकार के पदचाप सुने जा सकते हैं ।

चित्र में पिकासो को हम , कूँची से कैनवास पर रंग चढ़ाने की विन्सेन्ट वॉन गॉग की अति विशिष्ट शैली का अनुकरण करते पाते हैं । पिकासो निश्चय ही डॉक्टर गैशे के बनाये ‘ मृत्यु शैया पर वॉन गॉग ‘ के बारे में अपरिचित नहीं थे । इसलिए जहाँ चित्र की संरचना डॉक्टर गैशे के चित्र से प्रभावित लगती है वहीं चित्र रचना की शैली, वॉन गॉग से !

चित्र में हमें सबसे आकर्षित करता है वह युवक , जो मानों सुख निद्रा में कोई सुंदर सपना देख रहा हो ।  यहाँ मृत्यु की वह परछाई अनुपस्थित है ,  जो पॉल गैशे के चित्र में साफ़ दिखती है । चित्र में मोमबत्ती की लौ एक मशाल की लौ के मानिंद केवल बड़ी ही नहीं है बल्कि कमरे के अंदर को एक ऐसी रौशनी से भर रहा है , जहाँ सोये रहना आसान नहीं ! इस रौशनी ने , निद्रामग्न उस युवक के माथे से लेकर नाक , ओंठ और ठुड्डी के नीचे के हिस्से तक पीली रेखा से बनी एक सुस्पष्ट हाईलाइट का निर्माण किया है । लेटे हुए युवक के शरीर को ढँके चादर पर भी समान रौशनी पड़ रही हैं , जहाँ सफ़ेद चादर की सिलवटों को स्पष्ट करती चौड़ी पीली और पतली काली रेखाऐं हैं ।

चित्र के सन्दर्भ से हम जान पाते हैं कि यह चित्र पिकासो के अभिन्न मित्र रहे कार्लोस केसाखेमस का है और गौर से देखने से हम लेटे हुए कार्लोस के दाहिने कनपटी पर गोली के निशान भी देख पाते है , जहाँ खून सूख कर जम चुका है ।

इस चित्र के तमाम सन्दर्भों को जो नहीं जानेंगे, उन्हें शायद यह समझने में कठिनाई होगी , कि यह एक मृत व्यक्ति का चित्र है । निस्संदेह , चित्र का यह पक्ष चित्र और चित्रकार को महान बनाता है !

चित्र 3 : कवि की छवि

भारतीय कविता में जिन कवियों ने कविता को एक नया स्वर देने की क्षमता का सार्थक प्रदर्शन किया , गजानन माधव मुक्तिबोध उनमें अन्यतम थे । उनकी मृत्यु के पचास वर्षों से भी ज्यादा का वक्त बीत चुका है , पर आज भी उनकी कविता पाठकों को आकर्षित करती है । उसी प्रकार कविता के शोधार्थियों को उनकी कविता आज भी , नयी और प्रासंगिक व्याख्याओं के लिए प्रेरित करती रहती है ।

मुक्तिबोध को 7 फ़रवरी 1964  को पक्षाघात हो गया था । उनका आरंभिक इलाज भोपाल के हमीदिया अस्पताल में चलता रहा , लेकिन कोई सुधार न होने के कारण  उन्हें 26 जून को दिल्ली ले आया गया और ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़  में भर्ती कराया गया । इसी अस्पताल के 208 नम्बर कमरे में मुक्तिबोध लगभग बेहोशी की हालात में तीन महीने रहे । इस दौरान उनके कवि मित्र बराबर उनके पास आते रहे , साथ ही कई चित्रकार साथी भी उनसे मिलने आते थे । मुक्तिबोध की मृत्यु ११ सितम्बर 1964 में हुई थी । सुप्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन ने अपने संस्मरणों में उनकी अंतिम यात्रा में शरीक होने का जिक्र किया हैं ।

चित्रकार-साहित्यकार रामकुमार ने ,  मृत्यु शैया पर मुक्तिबोध का एक चित्र बनाया था (देखें चित्र 3 )।

इस चित्र में हम चित्रकार के आतंरिक आवेग द्वारा संचालित सीमित रेखाओं में एक चित्रकार की उस विरल मनोदशा को समझ सकते हैं , जहाँ रचनाकार अपने आप को एक असामान्य घटना के रु-ब-रु खड़ा पाता है । यह चित्र रामकुमार की विशिष्ट शैली का प्रतिनिधित्व करती तो है ही , साथ ही यह चित्र मृत्यु के साथ युद्धरत कवि की दुर्दमनीय जिजीविषा को भी दर्शाती है ।

कवि के चेहरे के चारों ओर मोटी , काली , तेज, गतिवान और सघन लकीरों से एक वलय का निर्माण किया गया  है , जिसके विपरीत उनके चेहरे को बहुत कम रेखाओं से चित्रित  किया गया है। इस तकनीक के प्रयोग के कारण , रामकुमार के इस चित्र को देखते हुए हम इसके मूल विषय पर से अपना ध्यान नहीं हटा पाते और बार बार मुक्तिबोध के चहरे पर ही हम लौट कर आते है।

इसके अतिरिक्त इस चित्र की दो रेखायें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । एक , जो चित्र के शीर्ष पर बाएं से दाहिने जाती हुई चित्र की ऊपरी सीमा निर्धारित करती है , वास्तव में वह अस्पताल के बिस्तर के सिरहाने को चिन्हित करती है ।  दूसरी रेखा कवि के गर्दन के नीचे से बाये से दाहिने जाती दिखती हैं , जो उनके शरीर पर ढँके चादर का ऊपरी छोर है । रामकुमार के इस चित्र पर पश्चिम की घनवादी कला का असर भी दिखता हैं , जिसके चलते मुक्तिबोध की दोनों नासिका-छिद्रों को एक साथ चित्र में दिखाया है , जो चित्रकला के आम नियम से असंभव है ।

यह चित्र 1964 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित , मुक्तिबोध के कविता संग्रह ‘ चाँद का मुँह टेढ़ा है ‘ के पहले संस्करण में ‘ कवि की छवि ‘ शीर्षक से छपा था ।

डाक्टर गैशे द्वारा बनाया गया वॉन गॉग का चित्र (1890) , पिकासो द्वारा बनाया गया कार्लोस केसाखेमस का चित्र (1901) और रामकुमार द्वारा बनाया गए मुक्तिबोध के चित्र (1964) के रचना-समय के बीच युगों का अंतराल है, पर इनके विषय और संरचना में हमें अद्भुत समानता दिखती हैं .

इन चित्रों का महत्व इनके निर्माण के मुहूर्तों की समानता में हैं और इसीलिये इन्हें एक दुसरे के आस-पास रख कर देखने से इन तीनों चित्रों के सबसे महत्वपूर्ण अर्थात इनका भावनात्मक पक्ष हमारे सामने विविध वर्णों में उपस्थित होता है. इन चित्रों में हम चित्रकार और उनके विषय के बीच सघन आत्मीय संबंध के साथ साथ मृत्यु जैसे कठिन मुहूर्त में तीनों चित्रकारों के अपने अपने ढंग की प्रतिक्रियाओं को उनके चित्रों में देख सकते हैं.

वैसे ये तीनों चित्र अपने सन्दर्भ-कथाओं के बगैर भी कम दिलचस्प नहीं है.

 

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