समकालीन जनमत
जनमत

जोगी ध्यावे परम पद, जहां देहुरा न मसीत

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने छह मार्च को विधानसभा में कहा-‘ मै हिंदू हूं, ईद नहीं मनाता। इसका मुझे गर्व है। मै जनेऊ धारण कर सिर पर टोपी डालकर कहीं मत्था नहीं टेकता। ’
योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ नाथ सम्प्रदाय के सबसे बड़े मठ गोरखनाथ मंदिर के महंत भी हैं। गोरखपुर में स्थित इस मठ में ही योगी आदित्यनाथ, नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित हुए और 15 फरवरी 1994 में मठ के उत्तराधिकारी बने। नाथ सम्प्रदाय की स्थापना गुरू गोरखनाथ ने की थी। योगी आदित्यनाथ हिंदू होने के कारण ईद नहीं मनाने की बात कर रहे हैं लेकिन नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरू गोरखनाथ ने योगियों को मंदिर-मस्जिद, हिन्दू-मुसलमान विवाद से दूर रहने और तटस्थ रहने की बात कही है। गोरखनाथ की एक सबदी है-
हिंदू ध्यावे देहुरा, मुसलमान मसीत
जोगी ध्यावे परम पद, जहां देहुरा न मसीत
( योगी मंदिर-मस्जिद का ध्यान नहीं करता। वह परम पद का ध्यान करता है। यह परम पद क्या है, कहां है ? यह परम पद तुम्हारे भीतर है )
गोरखनाथ लोगों में भेद न करने की भी नसीहत देते हैं। साथ ही मीठा बोलने और सदैव शांत रहने की बात कहते हैं-
मन में रहिणां, भेद न कहिणां
बोलिबा अमृत वाणी
अगिला अगनी होइबा
हे अवधू तौ आपण होइबा पाणीं

( किसी से भेद न करो, मीठा बानी बोलो। यदि सामने वाला आग बनकर जला रहा है तो हे योगी तुम पानी बनकर उसे शांत करो)

गोरखनाथ की कुछ सबदियां गोरखनाथ मंदिर की दीवारों पर भी लिखी है। डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने गोरखनाथ द्वारा रचित 40 पुस्तकों की खोज की जिसमें अधिकतर संस्कृत में है। कुछ पुस्तकें हिन्दी में हैं। डा. बड़थ्वाल ने गोरखनाथ की सबदियों को ‘ गोरखबानी ’ में संग्रहीत और सम्पादित किया। ‘ गोरखबानी’  में 275 सबदियां और 62 पद हैं।
गोरखनाथ के संस्कृत ग्रन्थ जहां साधना मार्ग की व्याख्या है वहीं उनके पद और सबदी में साधना मार्ग की व्याख्या के साथ-साथ धार्मिक विश्वास, दार्शनिक मत हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार गोरखनाथ की हिन्दी की रचनाएं दो संतों के संवाद के रूप में है जो नाथपंथियों की अपनी खोज है। ‘ मछिन्द्र गोरख बोध ’ में गोरखनाथ के सवाल हैं जिसका जवाब उनके गुरू मत्स्येन्द्रनाथ ने दिया है।
गोरखबानी की सबदियों में आडम्बरों का जबर्दस्त विरोध है। इसमें योगियों और सामान्य जन के लिए नीति विषयक उपदेश हैं।
गोरखनाथ नाथ सम्प्रदाय को जग जगत से तटस्थ और उदासीन रहने वाला कहा है। उन्होंने अपनी एक सबदी में इसे स्पष्ट किया है-
कोई न्यंदै कोई ब्यंदै कोई करै हमारी आसा
गोरख कहे सुनौ रे अवधू यहु पंथ खरा उदासा

( कोई हमारी निंदा करता है, कोई प्रशंसा, कोई हमसे वरदान, सिद्धि चाहता है किंतु मेरा रास्ता तटस्थता, अनासक्ति और वैराग्य मार्ग का है )
उन्होंने एक और सबदी में यूं कहा है-
गोरख कहै सुन रे अवधू जग में ऐसा रहना
आखें देखिबा कानै सुनिबा मुख थै कछू न कहणां

( गोरखनाथ कहते हैं कि जीव जगत में योगी अपनी आंख से सब देखे और कान से सुने लेकिन क्या सही है क्या गलत इसके विवाद में न पड़े और इसके बारे में अपना मत न व्यक्त करे। योगी को द्रष्टा बनना चाहिए )
योगी आदित्यनाथ अपने बयानों से लगातार विवाद में रहते हैं जबकि गुरू गोरखनाथ ने कहा है-
कोई वादी कोई विवादी, जोगी कौ वाद न करना
अठसठि तीरथ समंदि समावैं, यूं जोगी को गुरूमखि जरनां

(जोगी को बेवजह विवाद में नहीं रहना चाहिए। जैसे चौसठ तीर्थों का जल समुद्र में मिल जाता है उसी तरह परम ज्ञान की प्राप्ति ही योगी की सिद्धि है)

गोरखनाथ का समय वह समय है जब भारत में मुसलमानों का आगमन हो रहा था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-गोरखनाथ के समय में समाज में बड़ी उथल-पुथल थी। मुसलमानों का आगमन हो रहा था। बौद्ध साधना मंत्र-तंत्र, टोने-टोटके की ओर अग्रसर हो रही थी। ब्राह्मण धर्म की प्रधानता स्थापित हो गई थी फिर भी बौद्धों, शाक्तों और शैवों का एक भारी सम्प्रदाय था जो ब्राह्मण और वेद की प्रधानता को नहीं मानता था। गोरखनाथ के योग मार्ग में ऐसे अनेक मार्गों का संघटन हुआ। इन सम्प्रदायों में मुसलमान जोगी अधिक थे। ’
गोरखनाथ के समय हिन्दू-मुसलमान के झगड़े उतने प्रबल नहीं थे जितने कि कबीर के समय। फिर भी गोरखनाथ ने दोनो धर्मो के लोगों से कहा कि उनके धर्म का मूल उद्देश्य एक ही है।
हिन्दू आषै अलष कौ तहां राम अछै न खुदाई
( हिन्दू , परमात्मा को राम कहते हैं। इसी तरह इस्लाम में विश्वास करने वाले मुसलमान अपने परमात्मा को खुदा कहते हैं। राम और खुदा घट-घट में व्याप्त हैं )

गोरखनाथ ने हिंदुओं और मुसलमानों को प्रेम से रहने और धर्म ग्रन्थों में लिखी बातों को रटने के बजाय उसे जीवन में उतारने को कहा-
नाथ कहता सब जग नाथ्या, गोरख कहता गोई
कलमा का गुर महंमद होता, पहलै मूवा सोई
( ‘ नाथ ’ मात्र के उच्चारण से कोई बन्धन मुक्त नहीं होता। इसी तरह ‘ कलमा ’ का सिर्फ उच्चारण से काम नहीं चलता। मुहम्मद साहेब ने कलमा में अन्तरजीवन का सूत्र दिया है। आज उनका शरीर नहीं है पर उनका कलमा अमर है जो परमतत्व का प्रकाशक है )
उन्होंने धर्म का मर्म समझने पर जोर दिया-
सबदै मारी सबदै जिलाई ऐसा महंमद पीरं
ताकै भरमि न भूलौ काजी सो बल नहीं शरीर

( मुहम्मद साहब ने जो उपदेश दिया है, जो कहा है उससे आत्मा को शक्ति मिलती है। हे काजी ! उनके कही बातों को सही अर्थाे मेें लो और भ्रम न उत्पन्न करों नहीं तो तुम्हारी बातों में बल खत्म हो जाएगा।
एक और सबदी में उन्होंने यही बात पंडितों के लिए इस तरह से कही –
पढ़ि पढि पढ़ि केता मुवा, कथि कथि कहा कीन्ह
बढि बढि बढि बहु घट गया पार ब्रह्म नहीं चीन्ह

( शास्त्र पढ़ते-पढते और कहते-कहते कितने मर गए लेकिन उसका मर्म नहीं समझ सके इसलिए उनका परब्रह्म से साक्षात्कार भी नहीं हो पाया )
गुरू गोरखनाथ ने अपने वक्त में हिंदूओं और मुसलमानों को आडम्बरों से बचने और धर्म के मूल तत्व को समझने की बात कही-
काजी मुल्ला कुरांण लगाया, ब्रह्म लगाया बेदं
कापड़ी सन्यासी तीरथ भ्रमाया, न पाया नृबांण पद का भेवं

( काजी और मुल्ला कुरान को सब कुछ मानते हैं। ब्राहण वेद को सब कुछ मानते है। कापड़ी ( गंगोत्री से गंगा लेकर चलने वाले तीर्थ यात्री )  तीर्थ यात्रा को महत्व देते हैं। गुरू गोरखनाथ का मत है कि इनमें से किसी ने परमत्त्व का रहस्य नहीं समझा परमपद का निर्वाण मात्र पुस्तक पढ़ने या तीर्थ भ्रमण से नहीं होता। यह साधना से होता है )
गोरखनाथ ने कहनी-करनी में एकता की बात की। उन्होंने साफ कहा कि कोरा उपदेश किसी काम का नहीं है जब तक उसे जीवन में उतारा न जाय। उन्होंने दोहरे आचारण वालों की  खूब मजम्मत की है।
कहणि सुहेली रहणि दुहेली , कहणि रहणि बिन थोथी
पढ्या गुंण्या सूबा बिलाई खाया, पंडित के हाथि रई गई पोथी

( कोरा उपदेश देना या ज्ञान की बात करना आसान है। उसे जीवन में उतारना कठिन है। यदि कहनी के अनुरूप करनी नहीं है तो वह सिर्फ थोथी बात है। यह ऐसे ही है जैसे पिंजड़े में बंद तोता बहुत ज्ञान की बात करता है लेकिन पिंजड़ा खुलते ही ज्ञान का उपयोग जीवन में न करने के कारण बिल्ली का शिकार हो जाता है। उसी तरह पंडित के हाथ में ज्ञान की पोथी है, वह उसका उच्चारण करता रहता है लेकिन जीवन में उसका कोई उपयोग नहीं करता )
कहणि सुहेली रहणि दुहेली , बिन खाया गुड़ मीठा
खाई हींग कपूर बषाणें, गोरख कहे सब झूठा
( जिनके जीवन में कथनी-करनी की संगति नहीं है, वे ऐसे ही हैं जैसे कोई बिना गुड़ खाए उसके स्वाद की बखान करता है और हींग खाने वाला कपूर के स्वाद की बात करता है )
गोरखनाथ को शब्दों की सत्ता पर जबर्दस्त विश्वास था। वह उसे तेज तलवार कहते हैं तो हमारे अज्ञान, भ्रम को को काट देता है।
सबद हमारा षरतर  षांडा, रहणि हमारी सांची
लेखे लिखी न कागद माडी, सो पत्री हम बांची

( मैने शब्द जो तेज तलवार की भांति है, उससे अपने भीतर के अंधकार को काट दिया है। मेरी कथनी और करनी में संगति है। इसी का मैने पाठ किया है और इसे ही मै जीता हूं। मैने न कुछ लिखा है न उसे किताब में संग्रहीत किया है )
एक और सबदी में उन्होंने शब्द कर्म के प्रभाव का बखान किया है –
सबदहिं ताला सबदहिं कुंजी, सबदहिं सबद जगाया
सबदहिं सबद सूं परचा हुआ, सबदहिं सबद समाया।

गोरखनाथ ने योगियों और सामान्य जन को संयमित रहने, वाद-विवाद से दूर रहने और समझ-बूझ कर काम करने की सलाह दी। उन्होंने कहा-
नाथ कहै तुम आपा राखौ हठ करि वाद न करणां
यह जुग है कांटेे की बाड़ी देखि देखि पग धरणां

उनकी अधिकतर सबदियों में लोगों और विशेष कर योगी के जीवन के लिए आदर्श निर्धारित है –
जोगी सो जो राखे जोग, जिभ्या यंद्री न करै भोग
अंजन छोड़ निरंजन रहे, ताकू गोरख जोगी कहे

( जो व्यक्ति इन्द्रियों की तुप्ति के लिए भोग नहीं करता, माया से मुक्त हो गया है और जो हमेशा परमपद मे जोग लगाए रहता है, गोरखनाथ उसे ही योगी कहते हैं )

हबकि न बोलिबा, ठबकि न चालिबा, धीरे धरिबा पांव
गरब न करिबा, सहजै रहिबा, भरत गोरख रांव

( ऐसे गुजर जाओ की किसी को पता नहीं चले। अनुपस्थित रहो। सबकी आंखों के केन्द्र में न रहो। ऐसे गुजरो कि कोई देखे नहीं। गर्व न करो, सहज रहो, ध्यान से बोलो )

गोरखनाथ ने जीवन में आंनद से रहने की शिक्षा दी। उनका कहना था कि किसी भी धर्म का यह आदेश नहीं है कि दुखी होकर रहो। हंसते-खेलते-गाते हुए जीवन जीएं, यही ब्रह्मज्ञान की अभिव्यक्ति है।
हसिबा खेलिबा रहिबा रंग
काम क्रोध न करिबा संग
हसिबा खेलिबा गाइबा गीत
दिढ करि राखि अपना चीत
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं
अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियांन
हसै-खेलै न करै मन भंग
ते निहचल सदा नाथ के संग

योगी ईद नहीं मनाने की बात कर रहे हैं लेकिन नाथ योगियों के बारे में एक मुसलमान कवि ने बहुत ही सुन्दर कविता लिखी हैं। यह कवि है मुगल सम्राट जहांगीर के समय के उस्मान। उनके द्वार 1613 में यानि चार सौ साल पहले लिखी ‘ चित्रावली ’ में गोरखपुर और नाथ योगियों का वर्णन देखिए-
आगे गोरखपुर भल देसू , निबहै सोई जो गोरख भेसू
जहं तहं मढ़ी गुफा बहु अहही जोगी , जती सनासी रहहीं
चारिहूं ओर जाप नित होई, चरचा आन करै नहिं कोई
कोउ दुहुं दिसि डोलै बिकरारा, कोउ बैठि रह आसन मारा
काहू पंच अगिनि तप सारा, कोउ लटकई रूखन डारा
कोउ बैठि धूम तन डाढे,  कोउ विपरीत रहे होई ठाढे
फल उठि खाहिं पियहिं चलि पानी, जां चाहि एक विधाता दानी
परब सबद गुरू देई तहं, जेहि चेला सिर भाग
नित जेहिं ड्योढी लावई, रहे सो ड्योढी लाग

( गोरखपुर एक भला देश है। वहां गोरखनाथ का वेश धारण करने वाले नाथपंथियों का निर्वाह होता है। वहां जगह-जगह मठ और गुफाएं हैं जहां योगी, जती व सन्यासी निवास करते हैं। चारो ओर जाप होता है और कोई चर्चा नहीं होती। कोई इधर-उधर डोलता है तो कोई आसन लगाकर ध्यान में मग्न है। कोई पंचाग्नि तापता है तो कोई पेड़ की डाली पर उल्टा लटका है। कोई सिर नीचे पैर उपर कर तपस्या कर रहा है तो कोई धूप में अपने तन को जला रहा है। भूख लगने पर तपस्वी फल खा लेते हैं, प्यास लगने पर पानी पी लेते हैं लेकिन कोई किसी से याचना नहीं करता। सब ईश्वर से ही याचना करते हैं। गुरू, शिष्यों को ब्रह्म का ज्ञान कराता है। कोई भाग्यशाली शिष्य ही इस ज्ञान को ग्रहण कर पाता है। जो नित्य गुरू की ड्योढ़ी पर पड़ा रहता है वही ब्रह्म ज्ञान पाता है )
नाथ सम्प्रदाय और गोरखबानी के दर्शन को यदि कोई सच्चे अर्थ में ग्रहण करता है तो वह होली-ईद, हिन्दू-मुसलमान में भेद न करेगा न करने की बात कहेगा चाहे वह कोई सामान्य व्यक्ति हो या नाथ सम्प्रदाय का योगी।

(मीडिया विजिल से साभार )

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