गोपाल प्रधान
गैब्रिएल गार्शिया मार्खेज का नाम लैटिन अमेरिकी साहित्य के लिए गर्व का विषय है । उनका उपन्यास ‘सौ सालों का एकांत’ समूचे जादुई यथार्थवादी धारा का उदाहरण बनकर उभरा । असल में उन्हें जादुई यथार्थवाद तक सीमित करने के पीछे हिंदी की साहित्यिक दुनिया की राजनीतिक मानसिकता का निर्णायक योगदान था । यदि उन्हें उपन्यास लेखन की एक कला का जनक बना दिया जाए तो उसके अनुकरण में लिखा ढेर सारा फर्जी लेखन भी प्रयोगधर्मी साबित किया जा सकता था । तब वे केवल तकनीक के खिलाड़ी बनकर रह जाते और उनके लेखन में अभिव्यक्त कठोर यथार्थ के समक्ष शर्मिंदा होने से हिंदी के सभी कथाकार आराम से बच सकते थे । सभी लोग जादू दिखा देते और इस नए फैशन में शरीक हो लेते । कोई न कहता कि तीसरी दुनिया के एक गरीब देश का लेखक जिस समय लोकतंत्र के पक्ष में खड़ा होकर जनता के दुर्भाग्य का चित्रण कर रहा है उसी समय हम हिंदी के कथाकार रेशमी भाषा में मध्यवर्ग का दुखड़ा क्यों रो रहे थे । ऐसा योजना बनाकर तो नहीं हुआ लेकिन जिस तरह जादुई यथार्थवाद का हल्ला मचाया गया उसमें मनोहर श्याम जोशी कथा कहने के शिल्प की नकल करने लगे । न केवल इतना बल्कि आलोचक गण के हाथों नागार्जुन और मुक्तिबोध जैसे प्रगतिशील लेखकों को भी इसी खित्ते में खींच लाया गया। जादुई यथार्थवाद के इर्द गिर्द बुना हुआ यह समूचा माहौल बौद्धिक दरिद्रता का प्रमाण तो था ही हिंदी के साहित्यिकों की नजाकत भरी पसंद का भी द्योतक था । उसे जादुई कह देने से उसके यथार्थ होने के मानसिक दबाव से कुछ हद तक मुक्ति मिल जाती थी ।
अगर लैटिन अमेरिका के ही थोड़ा पुराने जमाने के प्रख्यात कवि पाब्लो नेरुदा के संस्मरण देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि जिसे जादुई कहा जाता है वह असल में लैटिन अमेरिका का यथार्थ है । आश्चर्य नहीं कि नेरुदा की कविता के कलात्मक गुणगान के बीच उनके संस्मरणों की इस किताब का जिक्र ही नहीं होता । इन संस्मरणों में व्याप्त राजनीति के सहारे ही नेरुदा की कविता में निहित राजनीतिक प्रतिरोध को समझा जा सकता है । समूचे लैटिन अमेरिका में दीर्घकालीन साम्राज्यवादी हस्तक्षेप ने उस महाद्वीप के यथार्थ का निर्माण किया है । पुराने साम्राज्यवाद से लड़कर जब इन मुल्कों ने मुक्ति हासिल की तो बगल के देश अमेरिका के नए साम्राज्यवाद से सामना हुआ । उस महाद्वीप का शायद ही कोई देश होगा जिसे अमेरिका ने चैन से जीने दिया हो । लगभग प्रत्येक देश में कठपुतली सरकारों को स्थानीय आबादी के माथे पर बिठा दिया गया । इन शासकों को अपने देश की आम जनता के कल्याण की चिंता करने के मुकाबले अमेरिकी कंपनियों के व्यापारिक हितों की देखभाल करनी होती है । इसी इतिहास और वर्तमान ने लैटिन अमेरिकी देशों के उस यथार्थ को जन्म दिया है जिसमें स्थानीय मूलवासियों की हजारों साल पुरानी जीवन पद्धति और समाज व्यवस्था के साथ सभी प्राकृतिक संसाधनों को भकोसकर मुनाफा पैदा करनेवाली अत्याधुनिक सर्वभक्षी जीवन पद्धति और समाज व्यवस्था मौजूद है । कहना न होगा कि इनके बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व नहीं होता । इनमें आपस में हिंसक टकराव होते हैं । जिसे जादुई यथार्थवाद की तकनीक समझा जाता है वह इसी बहुस्तरीय यथार्थ की अभिव्यक्ति है ।
याद दिलाने की जरूरत नहीं कि जो यथार्थ लैटिन अमेरिका का है, हमारे देश का भी अधिकाधिक वही यथार्थ बनता चला जा रहा है । हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति की पुत्री की भारत यात्रा के दौरान भारत सरकार के रुख को गुलामी के अतिरिक्त किस मानसिक ढांचे में समझा जा सकता है ! इसका मतलब कि मार्खेज ने जिस यथार्थ का चित्रण किया है उस यथार्थ के निर्माण में उपनिवेशवाद का योगदान है । और उसकी पैदाइश के इसी स्रोत के चलते उपनिवेशित देशों में उस यथार्थ का विस्तार होता जा रहा है । इस राजनीतिक संदर्भ से काटकर देखने से मार्खेज केवल जादू-टोना का बखान करने वाले उपन्यासकार नजर आएंगे और उनके वर्णित यथार्थ को वास्तविक संसार और समय में समझने की जरूरत नहीं रह जाएगी । क्रीतदास बौद्धिक समुदाय की ओर से यह रणनीति सोच समझकर अपनाई गई थी । जिस राजनीतिक संदर्भ में उस उपन्यास को देखा जाना अपेक्षित है उसे फ़िदेल कास्त्रो, मार्खेज और माराडोना की एक संयुक्त तस्वीर अच्छी तरह बता देती है । ये तीनों व्यक्ति लैटिन अमेरिका के औपनिवेशिक हालात के विरोध के कीर्तिस्तम्भ रहे हैं और इसलिए उनकी निकटता अचरज की बात न थी । इससे यह भी पता चलता है कि लैटिन अमेरिका में विकसित उपनिवेशवाद का यह वाम विपक्ष एकांगी नहीं था वरन उस भूभाग की सम्पूर्ण रचनात्मकता को समेटे हुए था ।
अगर आप उपन्यास के महाकाव्यात्मक स्वरूप का आनंद उठाने की प्रतिभा रखते हैं तो यह उपन्यास गहरे और दीर्घकाल तक टिकने वाले नशे जैसा प्रभाव डालता है । इस महाकाव्यात्मक उपन्यास की ढेर सारी व्याख्या की गई है । उसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि खुद लेखक के मुताबिक ढेर सारे दोस्तों ने आपस में चंदा करके उसकी एक प्रति पढ़ने के लिए खरीदी थी । पढ़े जाने के बाद उस प्रति की हालत खस्ता हो चुकी थी । मार्खेज ने उन सबके हस्ताक्षर लेकर वह प्रति अपने पास यादगार के बतौर रख ली और उन सबको एक एक प्रति अपनी ओर से भेंट की । यह उपन्यास उनको एकाधिक असफल कोशिशों के बाद साहित्य की दुनिया में स्थापित करने में सफल रहा ।
उपन्यास मनुष्य की लोकतांत्रिक और नियंत्रणकारी चाहतों की टकराहट का भव्य चित्र प्रस्तुत करता है । मकोंदो नामक कल्पित जगह पर जब एक नया अधिकारी नियुक्त होता है तो उसे नगर की सभी इमारतों को एक ही रंग में रंगवाने की सनक सवार होती है । आश्चर्य नहीं कि वहां से लेकर यहां तक सभी तानाशाहों की सामान्य प्रवृत्ति एकरूपता से उन्मादी प्रेम है । विविधता उन्हें उलझन में डालती है । इसके बरक्स एक स्थानीय व्यक्ति बुएन्दिया साहब अड़ जाते हैं कि उनकी इमारत जिस रंग की है उसे नहीं बदलेंगे । रुचियों का यह मासूम सा विरोध मूल्यों के बड़े विरोध में बदल जाता है और आखिरकार बुएन्दिया साहब उस अधिकारी को मार डालते हैं । यहीं से बुएन्दिया द्वारा विद्रोहियों के नेतृत्व की कहानी शुरू होती है और वे तानाशाही के विरोध में लड़ाई के प्रतीक बन जाते हैं ।
इस विद्रोही के प्रति सामान्य जन में ऐसी चाहत पैदा होती है कि माताएं अपनी पुत्रियों को उनके पास गर्भधारण के लिए कारागार में भेजती हैं । इन संसर्गों से उन्हें जो बच्चे पैदा होते हैं उनका बपतिस्मा कराते समय माथे पर पादरी जो निशान लगाता है वह निशान उनकी स्थायी पहचान बन जाता है । बीच में बुएन्दिया साहब घरबारी हो जाते हैं लेकिन कुछ दिनों बाद जब फिर से विद्रोह का निश्चय करते हैं तो उनके पुत्रों को माथे के निशान के आधार पर पहचानकर भिन्न भिन्न जगहों पर एक साथ मार डाला जाता है । यह हत्याकांड बहुत कुछ हमारे देश में पिछले दिनों अलग अलग जगहों पर एक ही तरीके से मारे जाने वाले बुद्धिजीवियों की हत्याओं की याद ताजा कर देता है । यदि इस उपन्यास को लैटिन अमेरिका के एक देश में सीमित करके देखा जाएगा तो इसकी सार्वभौमिक लोकप्रियता को समझने में कठिनाई होगी । तीसरी दुनिया के उपनिवेशित देशों की साझा समस्या के बतौर समझे जाने के कारण ही हमारे देश में भी इस उपन्यास का अनुवाद विभिन्न भाषाओं में हुआ और पढ़ा भी गया ।
इसी तरह का प्रसंग उस कस्बे के पास स्थापित किसी केले के कारखाने का है जिसके मालिकान मजदूरों की मजदूरी का पैसा हजम करके गायब हो जाते हैं । मजदूर अपना पैसा वापस पाने के लिए लम्बा मुकदमा लड़ते हैं । मुकदमे के दौरान पहले तो मालिकान की पहचान स्थापित होने में समस्या आती है । वे साबित करना चाहते हैं कि उनके नाम तो वही हैं जो कारखाने के मालिकान के थे लेकिन वे लोग कोई और मनुष्य हैं । बहरहाल उनकी पहचान साबित होने के बाद कारखाने के अस्तित्व के सिलसिले में विवाद पैदा हो जाता है । इसके भी निपटने के बाद मजदूरों की पहचान की समस्या आती है । हमारे अपने देश या इसी जैसे तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में कारखानों और कामगारों के बीच विवाद की स्थिति में ऐसे हालात पैदा होना कोई अनजानी बात नहीं । इसी विवाद के चलते कस्बे में सबसे भीषण नरमेध होता है । इस नरमेध का भीषण दृश्य भी मार्खेज ने बहुत संवेदनशील तरीके से बुना है ।
केले के कारखाने के मालिकान मजदूरी के सवाल पर समझौता वार्ता के लिए आनेवाले हैं । रेल स्टेशन पर उनकी ट्रेन आने से पहले ही स्ट्शन के बाहर मजदूरों का हुजूम एकत्र हो जाता है । भीड़ नीचे मैदान में फैली हुई है और ऊपर छतों पर सैनिक मशीनगन तानकर निशाने के घेरे में समूची भीड़ को लिए हुए हैं । ट्रेन के आने के साठ भगदड़ होती है और मशीनगनों से गोलियों की बारिश होने लगती है । अपार जन समुद्र पर बरसती गोलियों के चलते मारे गए लोगों को ट्रेन के डिब्बों में भरकर ले जाया जाता है । लाशों के बीच से लुढ़ककर एक सज्जन बाहर गिर पड़ते हैं । पैदल चलकर वे जब वापस कस्बे पहुंचते हैं तो उनकी बातों पर कोई विश्वास करने को तैयार नहीं होता । सरकारी कागजों में न तो उस कारखाने की मौजूदगी दर्ज है और न ही ऐसी किसी घटना का विवरण ही लिखा मिलता है । यह बताने की कोई खास जरूरत नहीं कि मजदूरों के साथ कारखानों के मालिकों के ऐसे विवाद हमारे देश सहित न केवल दक्षिण एशिया के देशों में कई बार घटित हुए हैं बल्कि उनका भुलाया जाना भी कोई नई बात नहीं । हम सबकी आंखों के सामने देश की राजधानी दिल्ली के बगल में मारुति और हीरो होंडा के मजदूरों के साथ जो हुआ उस तरह के व्यवहार की एक झलक इस पूरे घटनाक्रम के चित्रण में मिलती है ।
स्मृतिभ्रंश का ऐसा ही एक और दृश्य उपन्यास में आया है और वह पूरा दृश्य इस स्मृतिभ्रंश के ऐतिहासिक कारकों की ओर इंगित करता है । होता यह है कि एक यात्री उस कस्बे में आता है और लेमनजूस जैसी मीठी गोलियों की बिक्री करता है । कस्बे के लोगों को तत्काल लाभ के लिए यह धंधा आकर्षक प्रतीत होता है और वे भी इन गोलियों को बनाना शुरू कर देते हैं । नींद आ जाने पर यदि वे सो गए तो उनका मुनाफा कम हो जाएगा इसलिए पूरा कस्बा रात दिन जागकर वे मीठी गोलियां बनाता रहता है । नतीजतन कस्बे में अनिद्रा की बीमारी फैल जाती है । नींद न पूरी होने के चलते लोगों की याददाश्त कमजोर पड़ने लगती है । पहले जब उन्हें चीजों के नाम भूलने लगते हैं तो वे वस्तुओं पर नाम लिखकर चिपकाना शुरू करते हैं । फिर उन्हें इन वस्तुओं के काम भी भूलने लगते हैं । इनके बारे में भी लिखकर रख लेने के बाद शब्दों के अर्थ भी भूलने लगते हैं । औपनिवेशिक हस्तक्षेप से लैटिन अमेरिका की स्थानीय भाषाओं के लुप्त होने का ऐसा प्रतीकात्मक आख्यान शायद ही कहीं और मिलेगा । मार्खेज इस वृत्तांत के जरिए कहना चाहते हैं कि तीसरी दुनिया के देशों में उपनिवेशवादी हस्तक्षेप से जो स्मृतिभ्रंश हुआ है उसकी मूल वजह लाभ पर आधारित पूंजीवादी समाज व्यवस्था की स्थापना है । अब भी बहुतेरे बौद्धिकजन इस स्मृतिभ्रंश का कारण संस्कृति के क्षेत्र में खोजते रहते हैं । उनकी तुलना में इस उपन्यासकार की यह सूझ न केवल अधिक मौलिक है बल्कि एक हद तक यथार्थ को समझने में अधिक कारगर भी है ।
लगभग तीस साल पहले पढ़े गए इस उपन्यास का नशा उपर्युक्त कारणों से तारी हुआ था । उसके बाद से निरंतर उनके लिखे को खोजकर पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ जो अब तक जारी है । ‘क्रानिकल आफ़ ए डेथ फ़ोरटोल्ड’ में हत्या के सहज हो जाने का जैसा हाहाकारी चित्रण है उसे हम सभी आजकल देश के विभिन्न कोनों में होने वाली पूर्वघोषित हत्याओं में देख रहे हैं । लेखक को इस अमानवीय वातावरण में उम्मीद मनुष्य के भीतर मौजूद अपराध बोध से है जिसने उस हत्या के चश्मदीदों को ताउम्र बेचैन बनाए रखा । उपन्यास में होने वाली उस हत्या के वर्णन की कला के बीच हम उपनिवेशित समाजों में व्याप्त हिंसा के बारे में जताए गए नैतिक विरोध की आंच को ओझल कर बैठते हैं । फिर से दुहराने की जरूरत नहीं कि हिंसा की वैसी ही व्याप्ति हमारे भी देश समाज में होती जा रही है ।
मार्खेज के अध्ययन के इसी क्रम में उनके पत्रकारीय लेखन की महानता का भी अंदाजा लगा । फ़िदेल कास्त्रो और शकीरा के बारे में लिखे उनके लेखों से हमें लैटिन अमेरिकी जनता और समाज की रचनात्मकता के बहुरंगी फलक की जानकारी मिलती है जिसमें राजनीति से लेकर नृत्य तक का विस्तार है । किसी भी बड़े साहित्यकार की तरह उन्होंने कुछ परदे रचे हैं । जादू जैसी घटनाओं की मौजूदगी इसी तरह का परदा है । अगर आप धोखे के इन परदों में ही अपना पूरा ध्यान केंद्रित रखते हैं तो उस परदे के पीछे व्यक्त सच्चाई तक पहुंचने से वंचित रह जाते हैं । यदि ऐसा हुआ तो यही मानना होगा कि इस महान लेखक की साधना और लैटिन अमेरिका नामक उस महाद्वीप की साहित्यिक परंपरा में उसके योगदान का समुचित विवेचन मूल्यांकन करने में हम अक्षम हो चुके हैं । तीसरी दुनिया की साहित्यिक बिरादरी के साथ हमारी साझेदारी समझ के स्तर पर खतरे में है । इससे संकेत मिलेगा कि हमने प्रगतिशील साहित्य के वैश्विक परिप्रेक्ष्य को भी भुला दिया है । दुनिया के सभी बड़े साहित्यकारों की तरह मार्खेज ने यथार्थ का केवल चित्रण नहीं किया है बल्कि उसे समझने के कुछ अत्यंत कारगर उपकरण भी मुहैया कराए हैं ।
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