समकालीन जनमत
कविता

लोक गीतों में चौरी चौरा विद्रोह -‘ माई रहबू ना गुलाम, न बहइबू अंसुआ ’

( ये लोकगीत कथाकार -लेखक सुभाष कुश्वाहा की पुस्तक  ‘चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन ’ से लिए गए हैं )

 

दोहा

गोरखपुर में सुना, चौरी चौरा ग्राम

बिगडी पब्लिक एक दम, रोक न सके लगाम

 

वीर छंद आल्हा

भड़के लोग गांव के सारे,

दई थाने में आग लगाय।

काट गिराया थानेदार को,

गई खबर हिंद में छाय।

लगाया कुछ लाेगों ने,

अगिन कहीं भडक न जाय

खबर सुनी जब गांधी जी ने,

दहशत गई बदन में छाय।

फैली अशांति कुछ भारत में

आंदोलन को दिया थमाय

सोचा कुछ हो शायद उनसे

गलती गए यहां पर खाय ।

मौका मिली फेरि गोरों को

दीनी यहां फूट कराय।

मची फूट फेरि भारत में,

रक्षा करें भगवती माय

खूब लडाया हम दोनों को,

मतलब अपना लिया बनाय

बने खूब हम पागल कैसे

जरा सोचना दिल में भाय ।

———

( यह लोकगीत चौरीचौरा विद्रोह के क्रांतिवीर कोमल यादव के बारे में है। वह सहुआकोल भइसहंवा के रहने वाले थे। उन्हें जिला कारागार गोरखपुर में बंद किया गया था। वह 18 जुलाई 1922 को जेल से भाग गए। 18 महीने बाद उन्हें फिर गिरफ्तार किया गया और 1924 की गर्मियों में उन्हें फांसी दे दी गई।

 

(1)

साथी गद‍्दार हो गइले, गोरा दिहले रूपइया हो,

कुसम्ही जंगल में पकड़इले कोमल भइया हो

 

(2)

सहुआकोल में काेमल तपलें, फुंकले चौरा थाना

ठीक दुपहरिया चौरा जर गईल, कोई मरम नहीं जाना

भइया कोई मरम नहीं जाना

भइया जीव हो जीव हो

 

(3)

देश में केतना गोरा अइहें, कितना कोमल झूलिहें फंसिया,

मनले ना गोरा, दिहले फंसिया झुलाई

सुन के नगरिया शोकवा में डूबी जाई

रोवे नर नारी जब मिलल बाड़ी लशिया

माई रहबू न गुलाम, न बहइबू अंसुवा

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