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कबीर के राम की खोज

( पिछले पंद्रह वर्षों से प्रतिरोध का  सिनेमा अभियान सार्थक सिनेमा को छोटी -बड़ी सभी जगहों पर ले जाने की कोशिश में लगा हुआ है . कोरोना की वजह से अभियान का सिनेमा दिखाने का यह सिलसिला थोड़े समय के लिए रुका लेकिन पिछली 28 जून से साप्ताहिक ऑनलाइन स्क्रीनिंग और फ़ेसबुक लाइव के मंच का इस्तेमाल करते हुए प्रतिरोध का सिनेमा ने अपने दर्शकों से फिर से नाता जोड़ लिया है . इस सिलसिले की  दूसरी  फ़िल्म  ‘हद -अनहद ‘  के बहाने हुई चर्चा को समेटती  चित्रकार  और  प्रतिरोध  का सिनेमा  अभियान , मुंबई  की  कार्यकर्त्ता  विनीता  वर्मा  की  रपट . सं . )

‘प्रतिरोध का सिनेमा’, ऑनलाइन साप्ताहिक फिल्म स्क्रीनिंग की मुहिम के जरिये हर हफ्ते एक नयी फिल्म 3-4 दिन तक आप के साथ साझा करता है और रविवार को आप की प्रतिक्रिया को सहेजते हुए फ़िल्मकार के साथ उस पर बातचीत करता है।

इस सप्ताह की फिल्म थी – ‘हद अनहद’, निर्देशक – शबनम विरमानी.

कबीर के राम कौन हैं ? ‘हद अनहद’ कबीर के माध्यम से राम को जानने की कोशिश है। यह एक सामान्य सा लगता वाक्य है लेकिन इसके मायने गहरे अर्थों में राजनीतिक हो जाते हैं जब हम देखते हैं कि फिल्म अयोध्या से शुरू होती है जहाँ ‘राम’ को भूमि के एक टुकड़े तक सीमित करके धार्मिक कट्टरता के प्रतीक में बदल दिया गया था। जो राम लोक के लिए प्रेम, त्याग और समर्पण का प्रतीक था, उसे नफरत की राजनीति ने इकहरे आख्यान तक सीमित कर घृणा और वैमनस्य की राजनीति के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।

‘हद अनहद’ धर्म, आख्यान, पूजास्थल और देशकाल की सीमाओं से परे लोक में बसे ‘राम’ की खोज का प्रयास है और इसके लिए शबनम लोक गायकों के पास जाती हैं। मालवी लोक गायकों से लेकर, राजस्थान के मांगनियारों से होते हुए फिल्म पाकिस्तान के सूफियों तक की यात्रा करती है। फिल्म के जरिये हम देख पाते हैं कि कैसे कबीर ने मंदिर-मस्जिद की सीमाओं से परे निर्गुण ‘राम’ को भीतर ढूँढने की बात कहकर पंडितों-मुल्लाओं के असमानता के विमर्श को सर के बल खड़ा कर दिया. ‘हद अनहद’ लोक में बसे इसी कबीर की खोज का प्रयास करती है. फिल्म की सबसे सुन्दर बात ये है कि इसमें धर्म, जाति, भाषा या देश किसी भी सरहद को तोड़ने और हम सबको जोड़ने वाले भक्त कवि कबीर को समझने के लिए जिस सूत्र का सहारा लिया गया है वो है संगीत.

यह फिल्म 30 जून से हमारे विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध थी और 5 जुलाई शाम 5 बजे प्रतिरोध का सिनेमा टीम की साथी डॉ. फातिमा एन के साथ हमारी मेहमान, फिल्म की निर्देशिका शबनम विरमानी के साथ फेसबुक की लाइव बातचीत से सम्पन्न हुआ।

बातचीत की शुरुआत 10 साल पहले बने फिल्म के आज के संदर्भ मे उसकी ज़रूरत और प्रामाणिकता के प्रश्न से शुरू हुई। शबनम ने कहा कि एक व्यक्ति और समाज में भय और प्रेम का खेल चलता रहता है। जब भी भय का पलड़ा भारी होता है इंसान व समाज बहुत संकीर्ण होता जाता है। ये बहुत दुखद है कि आज समाज मे भय का माहौल बहुत हावी है। ऐसे माहौल मे संत कबीर की लेखनी उतनी ही ज़रूरी और प्रामाणिक है जितनी 600 साल पहले थी।

“ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होय” जो इस बात को समझ गया वो या तो समाज के लिए कुछ कर जाएगा या फिर समाज को एक अच्छा इंसान दे जाएगा।

शबनम ने पूरे दक्षिण एशिया की आध्यात्मिक छवि के धूमिल होने और एक कट्टरवादी समाज के रूप मे उभरने के संदर्भ मे कबीर के विचारों को लोगो तक पहुंचाने और उसे प्रसारित करने पर ज़ोर दिया। उन्होने कहा कि आज भी संत कबीर, सूफी, योगी और अध्यात्म ही पूरे दक्षिण एशिया की अंतरात्मा है। अध्यात्म अनुभूति का विषय है भीड़ का नहीं और और यही भावना हम सब को और सरहदों को जोड़ती है। हर धर्म और देश मे ऐसे लोग हैं जो कबीर की इस धारा को फैलाना चाहते हैं क्योकि उनके आध्यात्म और प्रेम का रंग पक्का है जो कभी फीका नहीं होगा।

उन्होने कहा कि इस करोना काल मे अगर आप मजदूर नहीं है और आप की आमदनी का संकट गहरा नहीं है तो यही मौका है कबीर और सूफियों को आत्मसात करने का और अपने आप को खोजने का क्योकि अध्यात्म एक अंदरूनी सफर का विषय है।

“यह तथ वो तथ एक है

एक प्राण दुई बात

अपने जिया से जा नीचे , अपने दिल की बात

जिसे मै ढूँढता फिरता

सो ही पाया ठोर, सो ही फिर अपना भार”

कबीर एक ही समय मे जितने सरल हैं, उतने ही कठिन भी हैं। उनकी बातें जितनी सरल है उनका अर्थ उतना ही गहरा होता है।

‘हद –अनहद’ डाक्यूमेंटरी बनाने की यात्रा और अनुभव को साझा करते हुए उन्होने कहा कि डाक्यूमेंटरी बनाना उनके लिए हमेशा एक यात्रा वृत्तान्त जैसा रहा है। इसे बनाने के छ्ह साल की यात्रा के दौरान उन्होने खुद को भी खोजा है। वो खुद मे लगातार बदलती रही। कबीर के राम की खोज के साथ साथ उनकी जिज्ञासा फिल्म बनाने से कहीं आगे निकल गयी और संगीत व कबीर की बानी की व्यापक खोज उनका मिशन बन गया। इसी दौरान उन्होने संगीत सीखा। एक प्रेस जरनलिस्ट से फ़िल्मकार, संगीतकार औए एक लेखक की यात्रा। इस फिल्म की शूटिग के साथ साथ ही उन्होने सोच लिया था कि इन कविताओ और इस परंपरा के रिसर्च को संग्रहीत करना है। इसी योजना के तहत ‘एक अजब शहर’ नामक डिजिटल लेखागार (Archive) शुरू किया जिसमे 10-15 साल का जो भी दस्तावेज़ है उसको सहेज के रखा है। अब एक वैबसाइट भी तैयार है।

फ़िल्म को बनाने से लेकर उसके रिलीज़ करने तक की यात्रा भी संघर्षपूर्ण रही। उन्होने कहा कि शूटिंग के दौरान पंथो के साथ, सरहद के लिए वीज़ा के साथ, फिल्म बनाने के बाद सेंसर बोर्ड के साथ और फ़िल्म दिखाने के दौरान लोगो के साथ झड़पें होती रही। लेकिन जिस कबीर की धारा के साथ हम फिल्म बना रहे थे उसने इन उतार चढ़ाव मे बहुत मदद की, वो कहते हैं न जब -जब प्रश्न उठेंगे तो उत्तर भी मिलेंगे।

फ़िल्म को लोगों तक पहुंचाने के लिए 2010 मे मालवा कबीर यात्रा और राजस्थान कबीर यात्रा की शुरुआत की और जिस जिस गावों मे फिल्म शूट किया था वहाँ वहाँ दिखाया गया। इस तरह से कबीर की बानी और धारा का लोगो के बीच बहुत विस्तार हुआ। इस मायने मे भी ये शो बहुत सफल रहे। लेकिन गुजरात के गोधरा शहर मे जब कुछ मित्रो के संपर्क से फ़िल्म को दिखाया गया तो बहुत ही बुरी प्रतिक्रिया मिली। देशद्रोही से लेकर मुस्लिम रुझान वाली तक कहा गया। उसी भीड़ मे एक महिला भी मिली जिसकी बात ने बहुत हौसला और हिम्मत दी। उसने कहा की अंधों की नागरी मे आईना बेचना मुश्किल होता है।

इसी तरह एक बार काठमांडू मे दक्षिण एशियाई महिलावादी समूह के साथ कमला जी के ट्राइंग के कार्यक्रम मे एक पाकिस्तानी लड़की से बातचीत के दौरान पता चला कि वो वामपंथी धारा से है और उसने कई दफ़ा ‘हद –अनहद’ देखी है और उन लोगो ने पाकिस्तान मे कई जगह फिल्म दिखाई भी है जिसे लोगो ने बहुत सराहा है। तो भारत की तरह पाकिस्तान मे भी तरह तरह के विचार के लोग हैं और वहाँ भी यह फिल्म कई जगहो पर दिखाई जा रही है। वहाँ भी सरहदों के पार लोगो के दिल जुड़े हुए हैं।

कबीर पंथ की धारा मे स्त्रियो की भूमिका पर उन्होने कहा कि ‘हद अनहद’ के साथ की बाकी तीन और फिल्मों मे महिला सूफी गायिकाएं भी है। आप शुभा मुद्गल, विद्या राव, प्रतीक्षा शर्मा और शांति जी को इनमे सुन सकते हैं। निश्चित ही हमारे पितृसत्तात्मक समाज मे महिलाओ को बहुत कम मौके मिलते हैं लेकिन कुछ महिलाएं हैं ज़रूर और पंथ की बात करें तो महिलाओ का भी अपना आध्यात्मिक पक्ष होता है लेकिन वो छुपा रहता है।

अपनी भविष्य की योजनाओं पर बात करते हुए उन्होने कहा कि अभी के लिए जिस काम मे उन्हे रस आता है वो है उनके पास जो कुछ भी है उसे लोगो के साथ बांटना। नफरत के इस दौर मे अपनी रिसर्च के साथ, फिल्मों, यात्रा, कार्यशालाओं, सोच और साहित्य के जरिये लोगो तक इस पंथ और इस धारा को पहुचाना ही नफरत का काट है। नारों से कुछ नही करना बस कबीर बानी को अपना काम करने देना है। बाकी हमेशा नया करने की लिए उत्साहित उनका मन हमेशा नए की खोज मे है।

अंत मे शबनम ने लोगो के आग्रह पर समकालीन कवि ध्रुव भट्ट के लिखे को गाया….

“प्याली भर कर पी ले साधू

बस प्याली भर जी ले साधू”

अगले हफ्ते हम मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और मशहूर वकील के कन्नाबिरन पर बनी दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘द एडवोकेट’ पूरे सप्ताह देखेंगे और फिर रविवार 12 जुलाई को फ़िल्म की निर्देशिका दीपा धनराज और के कन्नाबिरन की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली वकील करुना कन्नाबिरन के साथ फ़ेसबुक लाइव के जरिये संवाद करेंगे. यह बातचीत प्रतिरोध का सिनेमा के फ़ेसबुक पेज Pratirodh Ka Cinema पर शाम 5 बजे से सुनी जा सकेगी.

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