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वाह फ़ैज़ प्यारे , थरथरा रहे हैं हुक्मरां सुन कर गीत तुम्हारे !

वाह फ़ैज़ साहब,क्या कहने आपके. आपकी शायरी,आपकी नज़्में क्या तूफान मचाये हुए हैं. उत्तर प्रदेश में एक ऐसे बुजुर्ग को शांति भंग का नोटिस दिया गया है,जिनका इंतकाल हुए 6 बरस बीत चुके हैं. पर आप तो दुनिया से 1984 में रुख़सत हो गए थे. आपको गए तो 34 बरस बीत चुके हैं. और सुनते हैं कि अब आपका और आपकी शायरी का मजहब तलाशा जा रहा है. यह जांच की जानी है कि आपकी शायरी,हिन्दू धर्म के खिलाफ तो नहीं है. यह जाँचने का जिम्मा किसने अपने सिर लिया है ? आई.आई.टी कानपुर ने, जो न कोई मजहबी संस्थान है और न साहित्यिक ! पर आपके शायरी के हिन्दू धर्म के विरुद्ध होने-न होने की जांच इस तकनीकि, अभियांत्रिकी और विज्ञान के संस्थान ने खुद ही अपने काँधों पर ले ली है.

मुल्क, हमारा चूंकि विश्वगुरु बनने वाला है,इसलिए तकनीकि संस्थान भी इस बात से गाफ़िल रहना गवारा नहीं कर सके कि उनके मजहब के विरुद्ध कुछ लिखा-बोला-गाया जाये ! मुल्क में मनुष्यों की बहुसंख्या और मनुष्यता भले ही नेस्तनाबूद हो जाये पर बहुसंख्या के धर्म के विरुद्ध कुछ भी कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकेगा !

फ़ैज़ साहब, हमारे मुल्क में व्हाट्स एप्प वाली युनिवर्सिटी ने बीते कुछ सालों में बड़ी तरक्की की है. इस युनिवर्सिटी से दीक्षित बच्चे-बूढ़े-युवा समझते हैं कि जब देश के पास यह आला दर्जे की व्हाट्स एप्प युनिवर्सिटी है तो बाकी विश्वविद्यालयों की देश को जरूरत ही क्या है. बाकी विश्वविद्यालय तो व्हाट्स एप्प युनिवर्सिटी के स्नातक-परास्नातकों की निगाह में शैतानी जगहें हैं. इसलिए व्हाट्स एप्प युनिवर्सिटी वाले इस या उस युनिवर्सिटी के “शट डाउन” का नारा लगाते रहते हैं.

अब इस देश के विश्व गुरु बनने की मजबूत आधारशिला यानि व्हाट्स एप्प युनिवर्सिटी के स्नातक-परास्नातक यह ऐलान कर रहे हैं, फ़ैज़ साहब कि आप तो मुस्लिम कट्टरपंथी थे,कुछ मौलाना टाइप की चीज थे. क्या गजब बात है ना, आपके घर वाले आपको मौलाना बनाना चाहते थे. तीन साल की उम्र तक आपको सारी कुरान भी उन्होंने रटवा दी थी. पर जवानी में आप कम्युनिस्टों की संगत में पड़ गए और मौलाना के बजाय मार्क्सवादी बन बैठे. वैसे जो आपको मौलाना घोषित करने पर उतारू हैं, वे मार्क्सवादी होने को मौलाना होने से ज़्यादा बड़ा कुफ़्र समझते हैं. लेकिन यह जरूर है कि आपको मौलाना बनाने का जो काम आपके घर वाले न कर सके,वो ये भाई लोग करके ही मानेंगे ! तो क्या ये आपके कोई सगे नातेदार-रिश्तेदार हैं ? ये तो मनुष्य और मनुष्यता की ही सगे नहीं तो मनुष्य मात्र की पीड़ा से द्रवित होने वाले फ़ैज़ के सगे कैसे हो जाएँगे ?

फ़ैज़ साहब, आपके जीते जी पाकिस्तान की हुकूमत आपसे खौफ खाती रही,कविता-शायरी के लिए आपको जेल पहुंचाती रही. जेल की सलाखों में आप कैद हुए,लेकिन उतने ही बुलंदी से कहते रहे-

“बोल कि लब आजाद हैं तेरे,
बोल जबां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है ”.

खुद की कैद के बावजूद आपने लबों को क़ैद नहीं होने दिया,कलम को बंदी नहीं बनने दिया. बहरहाल दुनिया से रुख़सत होने के 34 साल बाद भारत में भी आप खतरनाक करार दिये जाने के कगार पर हैं ! क्यूँ ? शायद हर हुकूमत को आपकी शायरी के ये लफ़्ज़ खतरनाक मालूम पड़ते होंगे :

“सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे”

हुक्मरान कितने ही अनपढ़, कुपढ़ या “एंटायर” नामधारी डिग्री वाले हों,इन पंक्तियों को टाइम बम की टिकटिक की तरह महसूस करते होंगे कि ताज ये उछला,तख़्त वो गिरा ! परी कथाओं में राक्षस के प्राण तोते में बसते हैं और तानाशाह हुकूमतों के सिरमौरों के प्राण,ताज और तख़्त के साथ पैबस्त होते हैं. तो तख़्त गिराने और ताज उछाले जाने की बात को वे प्राणहंता समझते हैं तो आश्चर्य भी कैसा ! लेकिन हुक्मरानों के प्राण सुखा देने वाली ये पंक्तियाँ लगता है कि फ़ैज़ साहब को अत्याधिक प्रिय थी. इसलिए “ हम देखेंगे ”,जिसका शीर्षक फ़ैज़ साहब ने तराना-2 रखा था, उसमें ये पंक्तियाँ हैं. उनकी एक अन्य रचना- “दरबारे वतन में इक दिन,सब जाने वाले जाएँगे ” में भी वे कहते हैं कि

“ऐ ख़ाकनशीनों उठ बैठो,वो वक़्त करीब आ पहुंचा है
जब तख़्त गिराए जाएँगे,जब ताज उछाले जाएँगे”

यानि वे उस भविष्य का सपना निरंतर देखते हैं,जब ख़ाकनशीन, शोषणकारी हुक्मरानों के तख़्त गिरा देंगे,ताज उछाल देंगे. उनका ख़्वाब है कि

“हम अहले सफ़ा मरदूदे हरम
मसनद पे बिठाये जाएँगे”

ख़ाकनशीनों या कि अहले सफ़ा मरदूदे हरम को मसनद पर बैठाये जाने का ख़्वाब और तख़्त गिराने, ताज उछाले जाने के नजारे को जोड़कर एक फ्रेम में ले आने पर जो तस्वीर बनती है,वो सौम्य व्यक्तित्व और नाज़ुक सी आवाज़ वाले इस शायर को हुकूमत का “महामरक दुश्मन” बना देती है.

और फ़ैज़ साहब, बात इन दो-चार लाइनों की ही होती तो अनदेखी की भी जा सकती थी. पर आपने शायरी की, अपने मुल्क के तानाशाहों के खिलाफ और मुसीबत यह कि दुनिया में कहीं भी तानाशाहों को उसमें अपना अक्स नजर आने लगता है ! आप कहते हैं :

निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

फ़ैज़ साहब,अपने को ही देश समझने वाले तानाशाहों को,हर दौर में हर देश में यह देश विरोधी न लगे तो क्या लगे ? तुर्रा ये कि आप कह दें कि

“यूं ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से खल्क
न उसकी रस्म नयी है,न अपनी रीत नयी
यूं ही खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उसकी हार नयी है,न अपनी जीत नयी”

तो जिन का शगल ही अंगारे बोना है,आग लगाना है,अंगारों में भी फूल खिल जाने,आग के बावजूद बसंत आने के ख़याल मात्र से उनका खौफ़जदा होना स्वाभाविक ही है.

फैज साहब जब यह सवाल करते हैं कि
“ये दाग-दाग उजाला ये शब-गजीदा सहर
वो इंतजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं”
तो यह सवाल सिर्फ सीमा के उस तरफ के लिए ही नहीं,इस तरफ के लिए भी मौजूं है कि आजादी के सात दशक बाद भी खुशहाली की वो सहर क्यूँ नहीं आई ?

फैज प्रेम के शायर हैं. लेकिन मनुष्यता और उसकी दुर्दशा उनकी आँखों से ओझल नहीं होती. मनुष्य की दरिद्रता,बदहाली,उन्हें इस कदर द्रवित करती है कि वे कह उठते हैं :

“मुझसे पहले सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरखशां है हयात
तेरे गम है तो गमे दहर का झगड़ा क्या है
……तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है
………और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा
…… अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
लौट जाती है उधर नजर क्या कीजे”

यह मुहब्बत के खिलाफ कोई बात नहीं पर व्यक्तिगत प्रेम के ऊपर मनुष्य और मनुष्यता का मसला है.
हुकूमत चाहे कि लोग धर्म में अटके रहें,धर्म के लिए भिड़ते रहे हैं और शायर कहे कि

हम मेहनतकश जग वालों से अपना हिस्सा मांगेंगे
इक खेत नहीं इक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे
यां परबत,परबत हीरे हैं,यां सागर,सागर मोती है
ये सारा माल हमारा है,हम सारा खजाना मांगेंगे
जिन चीजों पर कब्जा कायम रखने के लिए हुक्मरान आवाम को धर्म में उलझा रहा है,उन्हीं संसाधनों के बारे में शायर ऐलान कर दे कि “हम सारा खजाना मांगेंगे” तो वह शायर क्यूँ कर खतरनाक न समझा जाएगा ? वह तो “इंतिसाब” यानि समर्पण भी करता है तो उन हाशिये के लोगों के नाम करता है,दुनिया चलाने और बनाने में जिनकी मेहनत तो निचोड़ देने की हद तक पूरी है,लेकिन हासिल जिनको सिफ़र है.
फ़ैज़ साहब जो बेचारे अभी-अभी नाम सुन कर आपको फकत कोई मौलाना समझे बैठे हैं,उन बेचारों को क्या मालूम कि आप दुनिया में मजलूमों और इंसानियत के हक में खड़े कलमकार हैं. आपने ईरान,फिलिस्तीन से लेकर अफ्रीका तक के बारे में,वहाँ के दर्द,पीड़ा,शोषण पर कविताएं लिखी हैं.

वैसे इस दौर में सिर्फ फ़ैज़ ही नहीं सीमा के आरपार आ-जा रहे हैं. यहाँ का “हम क्या चाहते-आजादी,हक हमारा आजादी” नारा भी सीमा पार करके उस तरफ पहुँच गया है. बिस्मिल अजीमबादी का वह गीत जो फांसी चढ़ने तक राम प्रसाद बिस्मिल के होंठों पर रहा-“सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में,देखना है जोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में है”- वह भी उस पार जा पहुंचा है. भगत सिंह का परचम लोग वहाँ उठाए हुए हैं और हबीब जालिब को यहाँ गुनगुना रहे हैं. निश्चित ही स्वेच्छाचारी हुकूमतों के लिए यह अच्छा संकेत नहीं.

यहाँ जो फ़ैज़ साहब के गुजरने के तीन दशक बाद उन पर हिन्दू विरोधी होने का लेबल लगाना चाहते हैं,वे क्या जाने कि पाकिस्तान में वे जीते जी इस्लाम विरोधी घोषित किए गए. पाकिस्तान की पहली हुकूमत ने 1951 में जो उनकी गिरफ्तारी का सिलसिला शुरू किया,वह जीवन भर चलता ही रहा. जेल ने फ़ैज़ साहब के हौसले को और मजबूत किया. खुद वे लिखते हैं “….जेलखाना आशिक़ी की तरह खुद एक बुनियादी तजुर्बा है,जिसमें फिक्र-ओ-नज़र का एक आध नया दरीच खुदबख़ुद खुल जाता है.” जो जेलखाने का ऐसा रोमानी वर्णन करे,जीते जी अपने मुल्क में तानाशाहों के सामने धर्म विरोधी घोषित किए जाने पर भी मुट्ठी तान कर खड़ा रहा हो,उसका तुम क्या बिगाड़ लोगे ?

कविता-शायरी-साहित्य का फतवों से कुछ बिगड़ता है भला ! पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल जिया ने काले रंग,साड़ी और मौसिकी पर पाबंदी लगा दी. फ़ैज़ के इंतकाल के बाद उनकी पहली बरसी थी. इकबाल बानो ने काली साड़ी पहन कर-हम देखेंगे-गा दिया और इस तरह जिया की सैनिक हुकूमत को मरहूम फ़ैज़ के तराने ने धूल छटा दी. जनरल जिया की पाबंदी के बाद ही यह तराना दुनिया भर में पहुंचा.
गीत-कविता-शायरी-साहित्य हवा का झोंका हैं,इनके रचयिताओं को कैद कर सकते हैं,रचनाओं को नहीं. कवियों-शायरों-लेखकों का क़त्ल किया जा सकता है पर कविता-शायरी का क़त्ल नामुमकिन है. लेकिन उनके क़त्ल की यह कोशिश,उनके विरुद्ध फ़तवेबाजी बताती है कि निर्जीव कागज पर लिखे हुए हर्फ़ किस कदर जीवंत और मारक हैं.ये रह-रह कर नए अर्थों में प्रकट होते हैं,सड़क पर खड़े लोगों को ताकत देते हैं,महल-चौबारे,टैंक-तोप धारियों को थरथरा देते हैं.यही साहित्य की ताकत है और यही उद्देश्य भी. जिंदाबाद फ़ैज़ साहब !

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