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आख़िर क्यों हैं दिल्ली में शिक्षक और छात्र सड़कों पर?

राजीव कुँवर


दिल्ली की सड़कों पर पुलिस को आखिर क्यों छात्र एवं शिक्षकों के ऊपर लाठी भाँजनी पड़ रही है ? आप उन्हीं पुलिस वालों से जब व्यक्तिगत तौर पर बात करेंगे तो वे पुलिसकर्मी भी आपको बताएंगे कि इन शिक्षकों एवं छात्रों का आंदोलन कितना जरूरी है! ऐसे में जरूरी है कि हम भी जानें कि आखिर क्यों आंदोलित हैं जेएनयू और डीयू के छात्र एवं शिक्षक!

पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक आंदोलन को समझें। आखिर क्या कारण है कि 4 दिसंबर से लगातार यह आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा! कुलमिलाकर दस हजार शिक्षक दिल्ली विश्वविद्यालय में हैं। जिसका आधा हिस्सा एडहॉक है। 4 दिसंबर से आज तक कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं हुआ जिसमें हिस्सेदारी पाँच हजार से कम रही हो!

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षकों के आंदोलन का तात्कालिक कारण
इस आंदोलन का तात्कालिक कारण था दिल्ली यूनिवर्सिटी प्रिंसिपल एसोसिएशन(DUPA) की तरफ से तदर्थ शिक्षकों की पुनर्नियुक्ति पर सवाल खड़े करना। यहाँ यह बताता चलूँ कि इसके पदाधिकारियों में से अधिकांश आरएसएस-भाजपा के घोषित-अघोषित सदस्य हैं। 28 अगस्त को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा सरकार के निर्देश पर एक चिट्ठी जारी की गई जिसमें कहा गया कि अब जो भी नियुक्ति होगी वह गेस्ट के तौर पर होगी। इसका कारण यह बताया गया कि यूजीसी ने अपने नए रेगुलेशन में एडहॉक को शामिल नहीं किया है। DUPA की इस व्याख्या का अर्थ साफ था कि सालों से पढ़ा रहे एडहॉक शिक्षकों की नौकरी को या तो गेस्ट में बदल दिया जाएगा या उन्हें बाहर निकाल दिया जाएगा। इसी व्याख्या के कारण DUPA ने निर्देश देकर पुनर्नियुक्ति के बाद भी तदर्थ शिक्षकों की सैलरी को रोक दिया। यहीं से लंबे समय से जेहालत झेल रहे तदर्थ शिक्षकों में जो रोष पैदा हुआ उसका ही परिणाम था कि वे सारे लोहे की दीवारें जो अभेद्य मानी जाती थी, खुलती चली गयी। शिक्षक वाइस रीगल लॉज के अंदर और बाहर लबालब भरे हुए थे। डूटा के आह्वाहन पर क्या तो तदर्थ और क्या स्थायी – सारे के सारे शिक्षक दो दिनों तक पूरे प्रांगण को अपने कब्जे में बनाए रखा। जो विश्वविद्यालय प्रशासन सरकार पर और सरकार विश्वविद्यालय प्रशासन पर टालती जा रही थी आनन फानन में समझौते के लिए तैयार हो गई। लेकिन आज भी 4500 शिक्षकों के स्थायी नियुक्ति को लेकर एक गतिरोध बना ही हुआ है। यही कारण है कि समायोजन की माँग को लेकर आंदोलन जारी है।

क्या है शिक्षकों के इस गुस्से की वजह
डूटा का कई सालों से लगातार आंदोलन चल रहा था जिसमें तीन-चार मुख्य माँग रही थीं। एक तो सालों से पढ़ा रहे तदर्थ शिक्षकों का स्थायीकरण/समायोजन किया जाए। दिल्ली विश्वविद्यालय में 2008 के बाद स्थायी नियुक्ति हो या प्रमोशन करीब करीब बंद है। साथ ही शिक्षकों को पेंशन नहीं मिल रहा। लगातार आंदोलन किया जा रहा है, पर समाधान नहीं निकल रहा। विश्वविद्यालय प्रशासन इसके लिए भारत सरकार को जिम्मेदार ठहराते रहे और भारत सरकार इसके लिए विश्वविद्यालय प्रशासन को। तदर्थ शिक्षकों के अंदर दसियों साल से हर चार महीने में पुनर्नियुक्ति की जलालत एवं स्थायी शिक्षकों के अंदर 15-20 सालों से बिना पदोन्नति के कारण पैदा असंतोष मानो फूट पड़ा!

उदारवादी नीति के तहत शैक्षणिक संस्थानों में बदलाव का एजेंडा
इस बीच लोगों ने आरक्षण को खत्म करने की सरकार की मंशा को भी देखा। आंदोलन जारी रहा। लगातार सरकार की तरफ से हमले भी जारी रहे। हमला चाहे वर्कलोड को बढ़ाकर किया गया या फिर फीस में बढ़ोत्तरी के लिए 70:30 का प्रस्ताव लाकर। डूटा ने जबरदस्त आंदोलन किया तो अन्ततः उसे वापस लिया गया। लेकिन मामला ‘जहाँ के तहाँ’ वाली हालत ही बनी रही। फिर रोस्टर के 200 पॉइंट को 13 पॉइंट में बदलने की साजिश की गई। इसे भी लड़कर वापिस करवाया गया।

ध्यान रहे कि इस सबसे पहले सेमेस्टर सिस्टम, रूसा, सीबीसीएस, और फिर चार साला कार्यक्रम FYUP को भी लाया गया था। ये सभी सरकार के द्वारा प्रस्तावित नवउदारवादी नीति के तहत शैक्षणिक सुधार का ही एक के बाद दूसरा हमला था। कहीं शिक्षक आंदोलन को आंशिक जीत मिली तो कहीं पूर्णतः हार। सेमेस्टर में हार का सामना करना पड़ा तो FYUP में जीत मिली और फिर से तीन साल का ग्रेज्युएशन कार्यक्रम लागू हुआ। लेकिन एक बात साफ था कि इन तथाकथित शैक्षणिक सुधारों में वे सभी बातें थीं जो अटल बिहारी वाजपेयी के समय शिक्षा में सुधार के लिए जो बिड़ला-अम्बानी कमेटी बनायी गयी थी उसके ही दिए गए सुझाओं को एक के बाद एक अमली जामा पहनाया जाता रहा।

क्या है जेएनयू के छात्रों के आंदोलन की वजह?
याद होगा आपको ऑक्युपाई यूजीसी! आरएसएस की भाजपा-मोदी सरकार के आने के बाद यह पहला हमला था जिसमें छात्रों के फैलोशिप को ही खत्म करने की कोशिश की गई थी। तब जब वह अपने छात्र संगठन ABVP के जरिए इस आंदोलन को खत्म नहीं कर सकी तो उसने जेएनयू को देशभर में बदनाम करने का मास्टर प्लान तैयार किया। फेलोशिप का आंदोलन देश व्यापी होता गया तो देशद्रोही का डिस्कोर्स जेएनयू पर थोप दिया गया।

आज फिर से फीस बढ़ोत्तरी का मसला सामने आया है। जो बात बतायी जा रही है कि यह मात्र हॉस्टल के रूम रेंट का मसला है और उसे रेशनलाईज किया जा रहा है। लेकिन इसके पीछे जो छिपाया जा रहा है वह है यूजर्स चार्जेज एवं यूटिलिटी चार्जेज।

क्या है यह यूजर चार्जेज एवं यूटिलिटी चार्जेज?
साधारण भाषा में कहें तो हॉस्टल में जो कर्मचारी खाना बनाने का काम करते हैं उनकी तनख्वाह एवं बिजली और पानी आदि पर होने वाला खर्चा। विश्वविद्यालय प्रशासन केंद्र सरकार की नीतियों एवं निर्देश के आधार पर इन सभी मदों पर हो रहे खर्च को छात्रों के कंधों पर डाल रहा है। आज यह हॉस्टल के लिए है जो कल विश्वविद्यालय के कर्मचारियों एवं अन्य सुविधाओं पर होने वाले खर्च के लिए भी सामान्य छात्रों के फीस में बढ़ोत्तरी के रूप में सामने आएगा। इसी की तैयारी है विश्वविद्यालय प्रशासन की। यही कारण है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्र संघ के चुनाव पर कोर्ट की मुहर लग जाने के बाद भी उसे मान्यता नहीं दे रही है। उसे पता है कि छात्र संघ इन नीतियों को लागू करने में सबसे बड़ी बाधा है। खास यह कि इस सबके पीछे आरएसएस का पूर्ण समर्थन है। पिछला पांचजन्य जो आरएसएस का मुखपत्र है इसी पर केंद्रित है। इस कारण ABVP ने खुद को जेएनयूएसयू से बाहर कर लिया। वे फीस बढ़ोत्तरी के खिलाफ चल रहे आंदोलन जिसमें एकेडमिक सस्पेंशन अभी जारी है – के खिलाफ अपना पक्ष रखा है। यही कारण है कि उनके समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा आज एकेडमिक सस्पेंशन के साथ खड़ा है।

शैक्षणिक सुधार के मूल में है निजीकरण एवं व्यवसायीकरण की राष्ट्रीय शिक्षा नीति(NEP)
शिक्षकों के ठेकाकरण का मसला हो या फिर छात्रों के फीस में जबरदस्त बढ़ोत्तरी का – इसके मूल में शिक्षा को पूरी तरह से निजीकरण एवं व्यवसायीकरण करने की ही नीति है। व्यवसायीकरण का अर्थ ही है ऐसा व्यवसाय जिसमें मुनाफा कमाया जा सके। स्वाभाविक है कि सरकार के अनुदान को लगातार कम किया जाए एवं उसकी जगह कर्ज एवं फीस बढ़ोत्तरी का विकल्प अपनाया जाए। यही नीति आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति(NEP) के नाम से फाइनल किया जा चुका है। जिसके राह का सबसे बड़ा रोड़ा है दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ एवं जेएनयू के छात्र एवं शिक्षक संघ। इसी संघ पर आज हमला जारी है।

शिक्षा को स्वाधीनता के बाद से लेकर बीसवीं सदी के अंत तक कभी भी व्यवसाय नहीं माना गया। लेकिन बिड़ला-अम्बानी कमेटी के रिपोर्ट के बाद उच्च शिक्षा के व्यवसायीकरण की तैयारी जो शुरू हुई वह मोदी सरकार के पूर्ण बहुमत के बाद आज जबरदस्त तरीके से लागू किया जा रहा है। इसके पहले किसी भी सरकार को दोनों सदनों में इस तरह का बहुमत प्राप्त नहीं था। कांग्रेस ने कई बार उच्च शिक्षा के बदलाव के लिए बिल लाने की कोशिश की मगर उसे कामयाबी नहीं मिली। आरएसएस की भाजपा-मोदी सरकार अपने इसी बहुमत का फायदा अम्बानी-अडानी जैसे पूंजीपति घरानों को पहुंचाने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति लेकर आयी है। उसे किसी भी दिन संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक (CAB) की तरह पास करवा लिया जा सकता है। लेकिन उन्हें भी पता है जबतक शिक्षकों एवं छात्रों का यह आंदोलन है – सरकार की बड़ी बदनामी होगी।

सरकार को मात्र स्किल चाहिए शिक्षा नहीं।
सरकार की सक्रियता से यह सुनिश्चित लग रहा है कि उसने सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों को खत्म करने का फैसला ले लिया है। लोगों के पास अब दो ही विकल्प बचे हैं – एक या तो वह मौन भाव से इस प्रदत्त मृत्यु का वरण कर ले या फिर इस सुनिश्चित मृत्यु को लड़कर इसे टालते हुए लड़ते-लड़ते मर जाए! दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने एवं जेएनयू के छात्रों ने दूसरा विकल्प चुना है। इतना तय है कि शिक्षा न तो शिक्षकों का मसला है और न ही छात्रों का- शिक्षा तो जनता एवं देश के भविष्य का मसला है। इसे अगर बचाना है तो जनता को देश बचाने की लड़ाई लड़नी होगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के नाम पर कंपनी राज को दोबारा देश में लाया जा रहा है। तब उसका लक्ष्य था अंग्रेज बहादुर की सरकार के लिए मुलाजिम बनाना और अब उन्हें स्किल्ड लेबर बनाने की तैयारी है। शिक्षा तो मात्र पैसे वाले लोगों को ही मिलेगा! भारतीय संस्कृति की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था लागू किया जा रहा है। ब्राह्मण/क्षत्रिय जो शस्त्र एवं शास्त्र का ज्ञान गुरुकुल में प्राप्त करते थे। बाकी लोग वैश्य एवं शूद्र की तरह स्किल यानी लोहार का बेटा लोहार और कुम्हार का बेटा कुम्हार बने रहने के लिए अभिशप्त होंगे। जबकि शिक्षा का मतलब तो तार्किक-बौद्धिक-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसे ज्ञान का अर्जन है जो समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व पर आधारित हो। आरएसएस की भाजपा मोदी-सरकार की वर्तमान शिक्षा विरोधी नीति को तभी पीछे धकेला जा सकता है जब जन-आंदोलन खड़ा किया जा सकेगा। ऐसे साझा जन-आंदोलन को बनाने की जिम्मेदारी सभी जन-संगठनों के ऊपर है। इसलिए दूर से छात्र-शिक्षक आंदोलन को देखकर आस्वस्त होकर चैन से बैठने का वक़्त नहीं है।

(डॉ. राजीव कुँवर, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं और DUTA के कर्मठ कार्यकर्ता हैं।)

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