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विश्वविद्यालयों में काँचा इलैया की किताबों से कौन डरता है ?

लक्ष्मण यादव

विश्वविद्यालय एक लोकतान्त्रिक मुल्क में अपने समय-समाज के अंतर्विरोधों से संवाद करते हुए तार्किक-वैज्ञानिक विवेक सम्पन्न बोध से लैस नागरिक तैयार करते हैं। जिन मुल्कों में सामाजिक-सांस्कृतिक विषमता जितनी ज्यादा होगी, उन मुल्कों में ज्ञान के ऐसे प्रतिष्ठानों की ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है। आज़ाद भारत जैसे अंतर्विरोधों के मुल्क में विश्वविद्यालयों को ये बड़ी ज़िम्मेदारी निभानी थी, लेकिन वे उतने खरे न उतरे। तमाम विरोधी विचारों, मान्यताओं व सांस्कृतिक बोध को विश्वविद्यालयों में सबसे पहले जगह देनी थी, उनमें भी वंचित-शोषित दलित-पिछड़े-आदिवासी-अल्पसंख्यक-महिला तबके के लिए यह और भी ज़रूरी था कि उनको विश्वविद्यालयों की चौखट तक ले आया जा सके। लेकिन अफ़सोस कि ऐसा न हुआ। अब वंचित शोषित बहुजन यहाँ आने को हुए तो इन संस्थानों पर चौतरफ़ा हमले किए जा रहे हैं।

आइये, इसे आसान तरीके से समझते हैं। अपने आस-पास के किसी एक विश्वविद्यालय को चुनें। अभी इस असली मुद्दे को तो छोड़ ही दीजिये कि मुल्क के नब्बे फ़ीसदी से ज़्यादा विश्वविद्यालय-कॉलेज तो बर्बाद हो चुके हैं। जो बचे हैं, आइये उन्हीं से समझते हैं। एक संस्थान को चुनें, वहाँ के विज्ञान-तकनीकी, कॉमर्स, कंप्यूटर साइंस, मनोविज्ञान, मैनेजमेंट जैसे विषयों में दलित-पिछड़े-आदिवासी-अल्पसंख्यक-महिला तबके के शिक्षक व छात्र कितने हैं ? मैं कहूँगा अधिकतम 5%। अब आइये दूसरे स्तर पर चलें, नब्बे के बाद शिक्षण संस्थानों तक आने वाली वंचितों की पहली पीढ़ी में से नब्बे फ़ीसदी हिन्दी, इतिहास, राजनीति विज्ञान, भूगोल जैसे विषयों को पढ़ रही होगी। बावजूद इसके किसी एक कक्षा की सोशल ऑडिट कीजिये, आप पाएंगे कि शिक्षकों से लेकर छात्रों तक में वंचित कुल संख्या के अनुपात में बेहद कम हैं। फिर भी सत्ता असुरक्षित होने लगी।

अब तीसरी बात, ये जो दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों-महिलाओं की पहली व्यवस्थित पीढ़ी विश्वविद्यालयों तक आने लगी, उसने अपना इतिहास, अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा बोध, अपनी विषमता को खोजना-पढ़ना शुरू किया, तो सत्ता की चूलें हिलने लगीं। इन्होंने पाया कि इस मुल्क और इसके विश्वविद्यालय जैसे होने चाहिए, वैसे बिलकुल नहीं हैं। बहुसंख्यक तबका न तो कहीं पाठ्यक्रमों में है, न इतिहास में है और न पढ़ने-पढ़वाने में कहीं है। कहीं कोई सुलझा मानुष रहा तो उसने कोशिश की। लेकिन अधिकांश संस्थानों में नीति-नियंता मनुवादी, सामंती, पितृसत्ता के हिमायती ही रहे। वचित-शोषित बहुजनों ने यहाँ आकर अपना इतिहास रचना व पढ़ना-पढ़वाना शुरू किया। पूरी सत्ता-संरचना का खेल बिगड़ने लगा, तो ये इन संस्थाओं को बाहर से बर्बाद व भीतर से पाठ्यक्रम बदलकर खोखला करने लगे।

भरोसा न हो तो गूगल करके किसी एक विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम चेक कीजिये। कितना समावेशी बना होगा, वंचितों-शोषितों की आवाज़ें कहाँ होंगी। अब इसे और आसान तरीके से ऐसे समझें कि विज्ञान, गणित, कॉमर्स, तकनीकी, कंप्यूटर साइंस, मैनेजमेंट जैसे विषयों में तो वंचितों-शोषितों के नज़रिये को पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए जिनती बारीक-महीन समझ चाहिए, उससे ज्यादा समझ इन विषयों के अध्यताओं में होगी, तब जाकर वे सामाजिक-सांस्कृतिक हिस्सेदारी व सामाजिक न्याय के लिए सजग व संघर्षशील होंगे। इनकी अपेक्षा मानविकी व समाज-विज्ञान के विषयों में सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना सीधे जुड़ती है। इन्हीं के जरिये मानसिकता व सांस्कृतिक बोध को गुलाम या मालिक के बतौर ढ़ाला जाता है। वंचित-शोषित बहुजन जब यहाँ आने लगे तो उन्होने इस बारीक साजिश को पकड़ा तो अपने हिसाब से साहित्य, इतिहास, मनोविज्ञान रचने व पढ़ने-पढ़वाने लगे।

काँचा अइलैय्या या रामानुजन या नंदिनी सुंदर जैसों की किताबें तो एक उदाहरण हैं, जिन जिन विचारों, किताबों व सवालों से मनुवादी, सामंती, पितृसत्ता की नींव हिलने लगती है, उसे वे सिलेबस व विश्वविद्यालयों से बाहर करते हैं। काँचा जैसों ने शोषितों को समझाया कि तुम किन सामाजिक-सांस्कृतिक ज़ंजीरों से कैसे कैसे कैद किए गए और कैसे उन्हें तोड़कर सामाजिक न्याय पर टिका एक मुकम्मल मुल्क बना सकते हो। इसलिए इन वंचितों-शोषितों को किसी भी तरह से पढ़ने व लड़ने से रोकना दरअसल असल संविधान-विरोधी होना है, न कि ‘दलित’ जैसे एक सामाजिक-सांस्कृतिक शब्द के प्रयोग से। राष्ट्रद्रोही तो हम किसी को कहते नहीं। हाँ! इस महीन साजिश को समझ कर इसके खिलाफ़ ललकार कर खड़े होंगे। ‘दलित’ शब्द एकजुट ताक़त का परिचायक है, तुम इस एकजुट ताक़त से घबरा रहे हो। इसलिए न तो तुम वंचितों-शोषितों को पढ़ने देना चाहते हो और न उनके सवालों का जवाब देते हुए उनका हिस्सा।

तुमको बदलना होगा, वर्ना कहीं के नहीं रहोगे। अब तक तो तुमने न पढ़ने दिया और पढ़वाया भी तो अपना कुंतलों कूड़ा-कर्कट। अब हमें हमारा इतिहास, हमारा विचार, हमारा नज़रिया पढ़ने दो।

 

(लेखक इण्डिया फॉर सोशल जस्टिस से जुड़े हुए हैं )

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