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‘कुछ भी नहीं किया गया’: वीरेन डंगवाल की एक कविता का पाठ

नवारुण प्रकाशन ने अभी हाल में ‘कविता वीरेन’ (वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताएँ) को प्रकाशित कर जारी किया है । वीरेन को याद करते हुए और इस अमूल्य किताब की सुंदर प्रस्तुति से प्रेरित होकर इसमें शामिल पहली ही कविता का एक संवेदनशील और बेहतरीन पाठ कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने किया है । प्रस्तुत है:

बड़ा कवि वह है, जो अपने बड़े होने को बार-बार सत्यापित करता है। अच्छा कवि उसे कह सकते हैं, जिसकी रचना की सिर्फ़ कुछ पंक्तियों में नहीं, बल्कि समूची संरचना में कविता विन्यस्त हो। बड़ा कवि अधिकतर ऐसी रचनाओं को संभव करता है। “अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध / साहित्य-कला-कौशल-प्रबुद्ध, / हैं दिये हुए मेरे प्रमाण”—निराला की इन पंक्तियों में ‘प्रमाण’ की बहुवचनीयता ग़ौरतलब है।

संख्या-बल में वीरेन डंगवाल का काव्य-अवदान अपेक्षया भले कम हो, मगर श्रेष्ठ कविताओं के औसत के लिहाज़ से वह बड़े कवि हैं। यह प्रतिशत कुछ-कुछ वैसा है, जैसा रन औसत क्रिकेट की दुनिया में दिग्गज बल्लेबाज़ डॉन ब्रॅडमन ने संभव किया।

उनके पहले संग्रह की पहली कविता की शुरूआत में ही मृत्यु की परिस्थिति का विचार सहसा विचलित कर देता है। जैसे आरम्भ में ही अंत की मर्मस्पर्शी प्रस्तावना लिखी हुई है :

“एक दिन चलते-चलते
यों ही ढुलक जायेगी गरदन
सबसे ज़्यादा दुख
सिर्फ़ चश्मे को होगा,
खो जायेगा उसका चेहरा
अपनी कमानियों से ब्रह्माण्ड को जैसे-तैसे थामे
वह भी चिमटा रहेगा मगर”

एक स्तर पर देखें, तो कवि की आत्मीयता इतनी गहन है कि वह चश्मे जैसी वस्तु को भी एक सजीवता या कहें कि ‘मानवीयता’ से संवलित करने में सक्षम है, मगर उसी समय एक दूसरे स्तर पर यह आधुनिक समय में इंसान के अथाह और अप्रत्याशित अकेलेपन की भी कविता है—यों कि उसे लगता है कि उसके अवसान पर ”सबसे ज़्यादा दुख” किसी परिजन-स्वजन-मित्र-प्रिय सरीखे मनुष्य को नहीं होगा, बल्कि “सिर्फ़ चश्मे को होगा”, क्योंकि वह अपना चेहरा खो देगा ! उस विकट परिस्थिति में भी—अपने अपरिहार्य प्रेम के चलते—वह जैसे-तैसे ‘ब्रह्माण्ड’ को थामे रहेगा। एक तो वाह्य विश्व होता है और दूसरा आभ्यंतरीकृत। संवेदना, चिंतन, सौंदर्य-बोध और कल्पना के स्तर पर यह दूसरा विश्व ही—जिसे हम अपनी चेतना में धारण करते हैं—हमारा वास्तविक विश्व या ब्रह्माण्ड है। कवि का निकष या इम्तिहान भी यही होता है कि कितने बड़े विश्व को वह आत्मसात् कर सका है।

कविता आगे बढ़ती है और कवि अपनी ही ज़िंदगी को प्रश्नांकित करता है। शीर्षक के रूप में भी यही प्रश्न है : ‘कैसी ज़िंदगी जिये !’ अपने समकालीनों में वीरेन शायद सबसे सघन और तीखी आत्मालोचना के कवि हैं। यह काम कविता के अपने पूरे सफ़र में वह लगभग निरन्तर करते रहे। आत्म-औचित्य की संतुष्टि, क्रांतिकारी होने के दर्प, ख़ुशफ़हमी या आत्म-श्लाघा से दूर वह अपनी वंचना, विवशता, बेचैनी, तकलीफ़ और विफलता का एक सहज, पारदर्शी और मार्मिक वृत्तांत रचते हैं। किसी भी दूसरे आम इंसान की मानिंद जीवन में क्या नहीं करना पड़ा—इस विषमताग्रस्त सामंती और उत्तर-औपनिवेशिक सामाजिक व्यवस्था में हम किस क़दर अपमानित रहने को मजबूर होते हैं, उसका यह कितना संश्लिष्ट बिम्ब है :

“कभी म्याऊँ बोले
कभी हँसे, दुत्कारी हुई ख़ुशामदी हँसी”

और इस चित्रण का अंत एक उद्विग्न आत्म-स्वीकार में होता है : “कैसी निकम्मी ज़िंदगी जिये।” ऐसी निर्मम आत्मालोचना के लिए बहुत निश्छलता और साहस चाहिए।

वीरेन अभिजन के नहीं, जन के कवि हैं। संभ्रांत जन तो समृद्ध, सशक्त, सुख-भोग-रत और संतुष्ट हैं ही ; लेकिन उनका यह ऐश्वर्य और आह्लाद मूल्यनिष्ठा से उनकी विमुखता का नतीजा है :

“हवा तो ख़ैर भरी ही है कुलीन केशों की गन्ध से
इस उत्तम वसन्त में
मगर कहाँ जागता है एक भी शुभ विचार”

लाज़िम है कि कवि उस निष्क्रियता पर पड़ा परदा उठाता और उस पर चोट करता है, जिसमें हमारे समाज का उच्च-मध्य और मध्यवर्ग लिप्त है और थोड़ी-बहुत शर्मिंदगी को ही अपने कर्तव्य-पालन का पर्याय मानता है :

“खरखराते पत्तों में कोंपलों की ओट में
पूछते हैं पिछले दंगों में क़त्ल कर डाले गये लोग
अब तक जारी इस पशुता का अर्थ
कुछ भी नहीं किया गया
थोड़ा बहुत लज्जित होने के सिवा”

यह कविता तक़रीबन पैंतीस बरस पहले 1984 में लिखी गयी थी, लेकिन एकदम नयी और प्रासंगिक लगती है ; क्योंकि जिस विडंबना का आख्यान इसमें है, वह आज भी बदस्तूर जारी है, बल्कि अब तो और हिंसक रूप में। वीरेन निराला, नागार्जुन, शमशेर और रघुवीर सहाय जैसे पूर्वज कवियों के अलावा मुक्तिबोध की परम्परा से बहुत गहरे जुड़े हुए कवि हैं और अपने पहले संग्रह की दूसरी कविता में ही ‘अँधेरे में’ सरीखी क्लासिक कविता में आनेवाले ‘पागल के आत्मोद्बोधमय गान’ की याद दिलाते हैं :

“किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया ?”

यह सवाल है, जो वह ज़िंदगी भर करते रहे, अपने से भी और दूसरों से भी और यह भूल जाने की बात नहीं कि जवाब कमोबेश यही पाते रहे :

“कुछ भी नहीं किया गया
थोड़ा बहुत लज्जित होने के सिवा”

इसलिए मुक्तिबोध की कविता के इस बेचैन आग्रह को भी यहाँ स्मरण कर लें, तो सार्थकता का एक चक्र पूरा होता है :

“जितना भी किया गया
उससे ज़्यादा कर सकते थे।
ज़्यादा मर सकते थे।”

 

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