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‘प्रतिरोध का सिनेमा’ ने मंझंनपुर में की दो दिवसीय सिनेमा कार्यशाला

पहला दिन
मंझनपुर के खण्ड शिक्षाधिकारी डॉ. अविनाश सिंह के सहयोग से प्रतिरोध का सिनेमा ने यहाँ सारस स्टेडियम में दो दिवसीय बाल फिल्मोत्सव का आयोजन किया .
सुबह दस बजे से ही फ़िल्म दिखाने की तैयारियां शुरू हो चुकी थी. बढ़िया साउंड सिस्टम, बड़ा सा हॉल, दुरुस्त प्रॉजेक्टर और सफेद पर्दे की स्क्रीन को व्यवस्थित करने के बाद ग्यारह बजे से फ़िल्म की स्क्रीनिंग शुरू हुई.
फिल्मोत्सव के पहले दिन कस्तूरबा आवासीय विद्यालय की तकरीबन सौ से अधिक छात्राओं की उपस्थिति रही, जिसमें छात्रों के सभी शिक्षक भी शामिल रहे.
 कौशांबी जिले में पहली बार एक अलग तरह का सिनेमा दिखाए जाने की खबर से ही छात्राओं में प्रसन्नता और उत्सुकता का ठिकाना नहीं था. फिल्मों को देखने की यह उत्सुकता हमारी ऊर्जा बढ़ाने का काम भी कर रही थी. सभी  के मन में सबसे रोचक बात रही कि सिनेमा के जरिए दुनिया की सैर की जा सकती है.
स्क्रीनिंग की शुरुआत नॉर्मन मैक्लोरेन की फ़िल्म ‘चेयरी टेल’ व ‘नेबर’ से की गई. यह फ़िल्म देखने के बाद बच्चों ने फ़िल्म पर बातचीत भी की. प्रतिरोध का सिनेमा की ओर से संजय जोशी ने बच्चों से सिनेमा माध्यम की भाषा पर बातचीत की और बताया कि सिनेमा में साउंड बहुत महत्वपूर्ण है. सिनेमा में बिना संवाद के भी साउंड की अपनी भाषा है जिसके जरिए भी हम सिनेमा को समझ सकते हैं.
सिर्फ साउंड ही नहीं, स्क्रीन पर दिखाई गई सभी चीजें बिना संवाद के अपना अर्थ समझाती हैं. उन्होंने बच्चों को यह भी बताया कि ‘नेबर’ में जिस फूल की लड़ाई दिखाई गई है वह दुनिया में कोई भी चीज हो सकती है, जिसके लिए दो लोग या दो देश तक लड़ जाते हैं. सिनेमा की यही खासियत है कि इसके एक दृश्य के कई मायने बनाए व समझे जा सकते हैं. इसलिए आज भी ‘नेबर’ फ़िल्म से हर कोई जुड़ पाता है.
‘नेबर’ फ़िल्म पर बातचीत के दौरान एक शिक्षिका शालिनी कुशवाहा ने फ़िल्म पर अपनी बात रखते हुए कहा कि फ़िल्म में आपस में दो पड़ोसी एक फूल को अपने हिस्से में रखने के लिए क्रूरता से लड़ते हैं. एक दूसरे का घर-परिवार और बच्चों तक को मार डालते हैं. अंत में खुद भी मर जाते है. हमें इससे सीख लेना चाहिए कि लड़ाई का अंत दोनों खेमे के नष्ट हो जाने से ही होता है, इसलिए हमें एक-दूसरे के साथ शांति बनाए रखनी चाहिए. इसी शांति के जरिए ही हम एक बेहतर दुनिया बना सकते हैं.
बातचीत के बाद नीना पाले द्वारा निर्मित म्यूजिक वीडियो ‘दिस लैंड इज़ माईन’ और सुरेश इरियात निर्मित एनिमेशन फ़िल्म ‘फिशरवूमेन एंड टुक-टुक’ दिखाई गई. संजय जोशी ने नीना पाले निर्मित वीडियो के विषय में बात रखी कि इस गाने में कितने सरल तरीके से दुनिया की सभ्यताओं के विनाश को दिखाया गया है. एक के बाद दूसरी सभ्यता पिछली सभ्यता-संस्कृति को नष्ट करते हुए आगे बढ़ रही है.
एक घंटे के लंच ब्रेक के बाद बच्चों ने कार्यक्रम को एक अनोखा रूप दिया. कुछ छात्राओं ने मिलकर ‘नेबर’ फ़िल्म में दिखाए सभी दृश्य को एक नाटक के रूप प्रस्तुत किया. यही नाटक आज के कार्यक्रम में चर्चा का विषय भी बना रहा.
यूके की रैगडोल द्वारा शिक्षा से सम्बंधित ओपन अ डोर सीरीज़ से अफ्रीका, अर्जेंटीना और यूके की पांच-पांच मिनट की लघुफिल्म दिखाई गई. इन फिल्मों को बच्चों को केंद्र में रखकर बनाया गया है. यह फ़िल्म देखने के बाद इस सिनेमा वर्कशॉप के आयोजक खंड शिक्षाधिकारी अविनाश सिंह ने बच्चों से उनके पसंदीदा खेल के बारे में बात की. बच्चों ने खो-खो, क्रिकेट, चोर-पुलिस और बचपन में लकड़ी के खिलौने से खेलने पर अपनी-अपनी बात बताई कि किन-किन खेल में उनको मज़ा आता है.
स्क्रीनिंग के दौरान कई बार लाइट भी कट गई. जब तक जेनरेटर का इंतजाम किया जा रहा था, बच्चों और शिक्षकों ने मिलकर अंधेरे में ही खूब बढ़िया गीत भी गाए.
आज के वर्कशॉप की सबसे जबरदस्त बात यह रही कि सभी बच्चे बिलकुल अनुशासित रूप में बैठकर फ़िल्म का मज़ा लेते रहे और बीच-बीच में सभी छात्राओं ने बातचीत में भागीदारी भी की.
अंत में ‘रेड बलून’ फ़िल्म देखते हुए बच्चों की ठहाकेदार हंसी और तालियों के साथ हॉल गूँजता रहा. फ़िल्म हिंदी में न होते हुए भी छात्रों को पूरी तरह से समझ में आई और सभी को अगले दिन के लिए यह होमवर्क भी दिया गया कि सभी छात्रों को आज पूरे दिन दिखाई गई फिल्मों में क्या अच्छा लगा ? क्यों लगा ? यह एक पेज में लिखकर लाना है. साथ ही उन सभी मज़ेदार दृश्यों के बारे में भी लिखना है जो उन्हें याद रह गए.
दूसरा दिन 
फ़िल्म फेस्टिवल का पहला दिन ख़ूब सारी मज़ेदार फिल्मों व बच्चों की ऊर्जा से भरा रहा. एक दिन में छोटी-बड़ी सात फिल्में देखने के बाद भी सभी बच्चों ने ऊर्जा के साथ बातचीत में हिस्सा लिया.
उसी उत्साह से फेस्टिवल के दूसरे दिन की शुरुआत पहले दिन देखी गई फिल्मों पर चर्चा से शुरू हुई. बच्चों ने एक-एक करके सभी फिल्मों का जिक्र किया. उन्होंने बताया कि उन्हें अलग-अलग फिल्मों में क्या-क्या अच्छा लगा ?
गौर करने की बात तो यह थी कि सभी को फ़िल्म के सभी दृश्य, कहानी, संवाद व चरित्रों के नाम तक याद थे.
कक्षा छः की छात्रा महक ने “रेड बैलून” फ़िल्म के बारे में बताया कि उसे इस फ़िल्म में दिखाई गई कार, पेरिस शहर, वहाँ के मकान, लोग, विद्यालय, अध्यापक व खेलते-कूदते बच्चे बहुत पसंद आए. जब बैलून अपने आप उड़ जाता है और बच्चे के पास नीचे आ जाता है-वह दृश्य छात्रा को बहुत रोमांचित करने वाला लगा.
इसमें सबसे मज़ेदार था कि महक अपनी यह सभी बातें लिखकर भी लाई थी. सिर्फ महक ही नहीं बल्कि सभी ने अपनी बात  सुंदर राइटिंग में लिखकर दिखाया.
एक छात्रा संजू ने लिखा कि फिल्मों के जरिए हमें बहुत अच्छी सीख मिलती है. दिखाई गई सभी फिल्मों के लिए थैंक्यू और मेरा फेवरेट कलर लाल, सफेद, नीला, पीला और हरा फिल्मों में दिखाने के लिए धन्यवाद.
बातचीत के बाद संजय जोशी ने शिक्षकों से भी बच्चों को नए तरीके से सीखने-सिखाने के नए तरीके अपनाने पर जोर दिया. उन्होंने सरल तरीके से बच्चों को फ़िल्म के जरिए भी दुनिया दिखाए जाने की बात कही.
और बच्चों को बिना कुछ निर्देश दिए फिल्मों के जरिए बहुत कुछ सिखाने और किसी भी सन्देश को फिल्मों के जरिए बच्चों तक पहुँचाने के तरीको को अपनाने के लिए प्रेरित किया.
शिक्षकों व बच्चों से बातचीत के बाद दूसरे दिन की स्क्रीनिंग फ़िल्म “गाड़ी लोहरदगा मेल” से शुरू हुई. यह फ़िल्म बीजू टोपो और मेघनाथ द्वारा निर्मित है.
इस फ़िल्म की भाषा हिंदी नहीं है इसलिए संजय जोशी बच्चों के लिए संवादों का अनुवाद भी करते रहे.
फ़िल्म देखने के बाद संजय जोशी ने बच्चों से पूछा कि उन्होंने फ़िल्म में क्या-क्या देखा समझा ?
बच्चों ने कहा कि उन्होंने फ़िल्म में ट्रेन देखी, गांव में बने कच्चे घर, पीली जमीन देखी, आदिवासियों की भाषा व उनके बोलचाल का तरीका देखा. यहां तक कि बच्चों को उन स्टेशनों के नाम भी याद रहे जहां-जहां से ट्रेन गुजरी थी.
यह कहा जा सकता है कि सभी ने फिल्मों के जरिए झारखंड की सैर की.
अगली फ़िल्म मोहम्मद गनी द्वारा निर्देशित ‘गुब्बारे’ दिखाई गई. दस मिनट की यह फ़िल्म बच्चों को बहुत पसंद आई, साथ ही फ़िल्म में दिखाया गया सन्देश भी उन्होंने बखूबी समझा. एक छात्रा ने फ़िल्म के सन्देश को समझते हुए कहा कि छोटी सी लड़की पढ़ने-खेलने की उम्र में गुब्बारे बेच रही है जिसमें उसका बचपन कहीं खो गया है इसलिए वह उदास है. हमें बचपन में पढ़ाई करनी चाहिए और खेलकूद के साथ मस्ती भी करनी चाहिए.
फेस्टिवल में आखिरी फ़िल्म ‘फरडीनैंड’ दिखाई गई. यह फ़िल्म मुनरो लीफ द्वारा निर्देशित है. यह एक सौ आठ मिनट की एनिमेशन फ़िल्म है. इसकी कहानी एक ऐसे सांड के बारे में है जिसको फूल पसंद है.
सांड एक ऐसा जीव है जिसका चित्रण हमेशा खूंखार जानवर के रूप में ही किया जाता है, लेकिन फ़िल्म में वह मारधाड़ नहीं बल्कि फूलों से प्यार करता है.
बच्चों को यह फ़िल्म बहुत मज़ेदार लगी. फ़िल्म हिंदी भाषा में होने के कारण बच्चे कहानी के रस में घुल गए.
फ़िल्म खत्म होने के बाद जब बच्चों से पूछा गया कि बताओ फ़िल्म कैसी लगी..?
खुशी नाम की छात्रा ने कहा कि जिस तरह हम फूलों को पसंद करते हैं उसी तरह फरडीनैंड भी करता है.
फ़िल्म में जैसे फरडीनैंड किसी से लड़ाई नहीं करता बल्कि अपने दोस्तों को भी मुसीबत से बचाता है और प्यार की बात करता है. उसी तरह हम लोगों को भी मिलजुल कर रहना चाहिए और सबकी मदद करनी चाहिए.
कस्तूरबा आवासीय विद्यालय की लेखाकार विभा पांडे ने प्रतिरोध का सिनेमा अभियान की सराहना करते हुए कहा कि उन्होंने पहली बार एक नए तरह का सिनेमा देखा, जिसमें सन्देश, मनोरंजन, शिक्षा, आम लोगों की बात, सामाजिक विषय शामिल हैं. यह अनुभव उनके लिए बहुत नया व रोचक रहा और वह चाहती हैं कि हर साल इस प्रकार का फ़िल्म फेस्टिवल उनके विद्यालय में होता रहे.
(अतुल अंबेडकर विश्वविद्यालय में सिनेमा के छात्र हैं और ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के सक्रिय कार्यकर्ता हैं ।)

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