समकालीन जनमत
शख्सियत

क्रान्ति आती नहीं, ले आयी जाती है बरक्स कर्तार सिंह सराभा

रविरंजन

 

आज के हमारे दौर में – जिसमें बस ‘उत्तर’ जोड़कर ‘उत्तर आधुनिकतावाद’, ‘उत्तर संरचनावाद’ और न जाने क्या-क्या ‘उत्तर’ यानी ‘अतीत ’ बना देने की जो प्रचलन बढ़ी है दरअसल वह ‘नव पूँजीवाद’ की जातीय चेतना की उपज है। यह सब विचार के स्तर पर हो रहा है और व्यवहारिक रूप से भी। पर यहाँ यह मान बैठना जरूरी नहीं कि इसका प्रभाव जीवन, समाज और संस्कृति पर भी शत-प्रतिशत हो और हम अपने इस ‘नव पूँजीवादी’ युग को ‘सार्वजनीन युग’ मान लें! अगर वाकई यह होता तो हम अपने स्वाधीनता आंदोलन की 71वीं वर्षगाँठ नहीं मना रहे होते। बल्कि सबकुछ भूलकर इस ‘सार्वजनीन युग’ की आगवानी में लगे रहते।

यह ठीक है कि इस युग की आगवानी करने वाले लोगों की संख्या भी बहुतायत में है बावजूद सबकुछ ग़ायब नहीं हुआ है। अल्लामा इक़बाल कहते हैं न-

“जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में,
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।’’

आज हम याद कर रहे हैं भगतसिंह के आदर्श और श्रद्धेय वीर सेनानी कर्तार सिंह सराभा (1896-1915) को जिन्हें बहुत कम लोग जानते हैं कि इन्हें महज़ उन्नीस साल की उम्र में लाहौर सेन्ट्रल जेल में अंग्रेज़ी हुक़ूमत का तख्ता उलटने की साजिश में फाँसी पर लटका दिया गया था।

कर्तार सिंह सराभा खुदीराम बोस के बाद भारत के सबसे कम आयु के शहीद थे। खुद भगत सिंह हर साल लाहौर में सराभा का 16 नवम्बर को शहीदी दिवस मनाते थे। वे शहीद कर्तार सिंह सराभा का चित्र अपने पास रखते थे और कहा करते थे, “यह मेरा गुरु, साथी व भाई है।’’ (भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़; पृ.105)

अपने हिन्दी में लिखे लेख ‘बागी कर्तारसिंह’ में भगत सिंह ने लिखा है, “रणचण्डी के उस परमभक्त बागी कर्तारसिंह की आयु उस समय बीस वर्ष की भी न हो पाई थी, जब उन्होंने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर निज रक्तांजली भेंट कर दी। आँधी की तरह वे एकाएक कहीं से आये, आग भड़काई, सुषुप्त रणचण्डी को जगाने की चेष्टा की, विप्लव यज्ञ रचा और उसी में स्वाहा हो गये। वह क्या थे, किस लोक से एकाएक आये थे और फिर झट से किधर चले गये, हम कुछ भी न समझ सके।’’

इन शब्दों में सराभा के प्रति भगतसिंह का प्रेमभाव को हम देख सकते हैं। कर्तार सिंह सराभा की यह गज़ल भगत सिंह को बेहद प्रिय थी वे इसे अपने पास हमेशा रखते थे और अकेले में अक्सर गुनगुनाया करते थे:

“यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा;
मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,
यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा;
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,
यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशाँ मेरा;
मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत!
कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा;
तेरी खिदमत में अय भारत! ये सर जाये ये जाँ जाये,
तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा।”

कर्तार सिंह पंजाब के ‘सराभा’ गाँव के रहवासी थे। लुधियाना से मैट्रिक करने के बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए लाहौर में दाखिला ले लिया था। तभी उनके जीवन में एक नया मोड़ आया। उनके गाँव के कुछ लोग ‘ग़दर आन्दोलन’ के सदस्य थे। वे अमरीका की हिन्दुस्तानी ग़दर पार्टी के निमंत्रण पर सानफ्रांसिस्को जा रहे थे। कर्तारसिंह अपनी शिक्षा अधूरी छोड़कर उनके साथ हो लिये। वहाँ उन्हें ग़दर पार्टी के प्रेस का इंचार्ज बना दिया गया। प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था और ग़दर पार्टी बड़ी तेजी से काम कर रही थी।

एक मीटिंग में कर्तारसिंह ने पार्टी के सामने यह प्रस्ताव रखा कि अंग्रेजों की मुश्किल का फायदा उठाया जाये और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध शुरू कर दिया जाये। उस समय ग़दर पार्टी के सबसे बड़े नेता सरदार सोहनसिंह पख्खना थे और सचिव लाला हरदयाल, जिनकी पुस्तकों ने हर भारतीय के दिल में देशभक्ति की भावना जगा दी थी।

ग़दर आन्दोलन और भारतीय राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार के लिए कर्तारसिंह ने ‘ग़दर’ नाम से एक पत्रिका निकालना प्रारम्भ किया, जिसके सम्पादक वह स्वयं बने। यह पत्रिका चार भाषाओं में प्रकाशित होती थी – अंग्रेज़ी, उर्दू, हिन्दी और पंजाबी। पत्रिका साप्ताहिक निकलती थी और इसकी छपाई रात्रि समय गोपनीय प्रेस में की जाती थी। कर्तारसिंह रात के समय इसकी देखभाल करते थे। अमरीका में छपी यह पत्रिका भारत पहुँचती थी और फौरन फौजियों में बाँट दी जाती थी। इससे भारतीय सिपाहियों में बेचैनी फैल गई और वे अपनी मातृभूमि के लिए मर-मिटने को तैयार हो गये। अब अंग्रेज सरकार ने इस पत्रिका पर प्रतिबन्ध लगा दिया। बावजूद पत्रिका छावनियों तक पहुँचता रहा। कई छावनियों से इसकी कापियाँ ज़ब्त की जाती रहीं फिर भी यह सिलसिला क़रीब दो साल तक जारी रहा।

अब सानफ्रांसिस्को में ग़दर पार्टी की हाईकमान ने सराभा को भारत भेजने का फैसला किया ताकि वह भारत में राजनीतिक स्थिति का जायजा ले सकें और एक रिपोर्ट तैयार करें। एक और काम जो सराभा को सौंपा गया वह यह था कि भारतीय फौज को विद्रोह के लिए तैयार की जाए और अंग्रेजों के शासन को समाप्त कर दिया जाए। रासबिहारी बोस की योजना थी कि भारत की सभी छावनियों में एक ही समय में 21 फरवरी 1915 को विद्रोह किया जाए। अंग्रेज अफसरों को ख़त्म करके भारत को आज़ाद करा लिया जाए। सच में अगर यह योजना सफल हो जाती तो भारत 1915 में ही आजाद हो जाता। लेकिन अंग्रेजों ने भारतीय क्रांतिकारियों के बीच अपना एक जासूस भेजकर सारी योजना की एक नकल हासिल कर ली और रासबिहारी बोस की यह योजना इस प्रकार असफल हो गई। क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए, बहुतों को सख्त सजाएँ दी गईं और कइयों को फाँसी पर लटका दिया गया।

कर्तारसिंह गिरफ्तारी से बचते-बचाते काबुल होते हुए भारत पहुँचते हैं और फिर आगरा, मेरठ, बनारस और इलाहाबाद की छावनियों का दौरा करते हुए जब एक दिन अचानक जब सरगोधा (पंजाब) छावनी में मीटिंग करने को पहुँचे तो अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें लाहौर फौजी साज़िश का लीडर क़रार देकर गिरफ्तार कर लिया। सराभा पर अंग्रेज सरकार का तख्ता उलटने की साज़िश का मुक़दमा चलाया गया। मुक़दमा क्या था, सिर्फ़ ढोंग था। मुकदमे के दौरान, सराभा ने साफ़ शब्दों में कहा कि उसकी पार्टी का लक्ष्य अंग्रेज हुक़ूमत को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करना, क्योंकि अंग्रेजों की हुक़ूमत हिंसा, अन्याय और शोषण पर खड़ी है। मुठ्ठी भर अंग्रेजों को इतने बड़े देश में शासन करने का कोई हक नहीं। अंग्रेज मैजिस्ट्रेट सराभा के इस बयान से बहुत प्रभावित हुआ। कर्तारसिंह की उम्र इस समय सिर्फ़ 18 साल की थी। मैजिस्ट्रेट को सराभा की उम्र देख उसपर तरस आई और उसने उन्हें अपना बयान बदलने को कहा ताकि वह सजा कम कर सके। लेकिन सराभा ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। तब मैजिस्ट्रेट ने सराभा को मौत की सजा सुनाई और उनकी जायदाद भी ज़ब्त कर ली गई।

कर्तारसिंह के दादा और दूसरे रिश्तेदारों ने रहम की अपील की। कई अंग्रेज अफसरों ने भी इनको यक़ीन दिलाया कि सराभा की फाँसी उम्रकैद में बदल सकती है अगर कर्तारसिंह माफी माँग ले। लेकिन कर्तारसिंह टस-से-मस न हुआ। जब रिश्तेदारों ने बार-बार कहा कि ‘कर्तारसिंह अपनी जिंदगी बचा लो’ तो कर्तारसिंह ने अपने दादा से पूछा कि मेरे पिताजी कैसे मरे थे? दादा ने कहा कि हैजे से। फिर कर्तारसिंह ने किसी और रिश्तेदार का नाम लेते हुए पूछा कि वह कैसे मरे थे? जबाब मिला प्लेग से। “हैजे और प्लेग से क्या फाँसी बेहतर नहीं है? ” कर्तारसिंह सराभा ने लोगों से यह पूछा, और 16 नवम्बर, 1915 को फाँसी पर झूल गये।

सराभा का सबसे ज़्यादा प्रभाव भगतसिंह पर पड़ा था। जितेन्द्रनाथ सान्याल अपनी पुस्तक ‘अमर शहीद’ में लिखते हैं, “पंजाब में क्रांतिकारियों की ग़दर पार्टी में अनेक निःस्वार्थ देशभक्त नवयुवक थे। उनके वीरोचित कार्य, धीरोदत व्यवहार, उत्कट त्याग-भावना और हँसते-हँसते फाँसी पर लटकने की निर्भीकता आदि बातों ने सरदार भगतसिंह को अत्यधिक प्रभावित किया। इनमें से दो की तो भगतसिंह के मन पर अमिट छाप पड़ी। इसमें एक था विद्यार्थी कर्तारसिंह तथा दूसरा भाई प्यारा सिंह। दोनों को फाँसी की सजा हुई। इन नवयुवकों ने देशभक्ति, त्याग, बलिदान एवं प्राणोत्सर्ग से ज्योति जगाई। उसको सँजोकर भगतसिंह अपनी पार्टी के सदस्यों में ले गए, जिन्होंने उसे और प्रज्ज्वलित कर तेजस्वी बनाया।

हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ तथा हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ के रूप में ये संगठन पूर्व के ‘ग़दर आंदोलन’ के ऐतिहासिक विकास की ही मंज़िलें हैं। भगतसिंह एवं उनके साथियों ने कर्तारसिंह और उनके सहयोगियों से जो संदेश एवं ज्योति पाई, उसे और भी आगे बढ़ाने का कार्य किया।’’

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