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कविता

अजय सिंह की कविताएँ अकेले पड़ जाने का खतरा उठा कर भी अपनी बात कहती हैं

उषा राय

लखनऊ. शिरोज हैंग आऊट कैफे , गोमतीनगर में प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा आयोजित कार्यक्रम में कवि और राजनीतिक विश्लेषक अजय सिंह ने अपनी कविताओं का पाठ किया.

अजय सिंह अपने विचारों में अवांगार्द हैं। उनकी कविताएँ राजनीति, विचार, प्रेम और परिवार के बीच इतमीनान से टहलती हैं। जैसे चैकन्नी आँखों वाली सफेद बिल्ली घर के कमरों में घूमती है। कविता पाठ से पूर्व अजय सिंह ने अपनी ओर से यही कहा कि, ‘‘मैं कई दुनियावों में आवा-जाही करता हूँ।’’

अजय सिंह की कविताओं को देखते हुए उन्हें नाजिम हिकमत की पंरपरा का ‘रोमांटिक कम्युनिस्ट’ कवि माना जा सकता है। अनीता सिंह, जो बच्चों के लिए सरल कविता लिखने का कठिन काम करती हैं, उन्हें ‘प्रेम एक पड़ाव’ यह कविता इसलिए अच्छी लगी क्योंकि उसमें पचास-पचपन साल की स्त्री द्वारा फिर से जीवन शुरू करने की बात कही गई है। ‘अभी तो नये सिरे से जिन्दगी शुरु की है मैंने/ समाज व संस्कृति के लिए मैंने जो थोड़ा-बहुत किया है/उस पर जब बात होती है/ उसे सुनना कितना मनमोहक।’

अनीता सिंह का कहना था कि अजय सिंह की कविता का केन्द्र ऐसी स्त्री है जिसे समाज व संस्कृति के लिए दिए गए अपने योगदान की चर्चा सुनना अच्छा लगता है। यह कविता हमारा ध्यान इस ओर खींचती है कि स्त्री की पसंद बदल रही है। उसे अपने रूप-कमनीयता की तुलना में अपने काम और योगदान के विषय में सुनना ज्यादा अच्छा लगता है।

श्रद्धा वाजपेयी की यह टिप्पणी थी कि समाज और संस्कृति के साथ आर्थिक मोर्चों पर संघर्ष करती स्त्री ‘प्रेम एक संभावना’ कविता में है।‘वह दौड़ती-दौड़ती आती है/दौड़ती-दौड़ती प्रेम करती है/ दौड़ती-दौड़ती चली जाती है।…लेकिन जब जमाने की कड़ी मार खाये/उस व्यक्ति को/सड़क पार करनी हो / या सीढ़ियाँ चढ़ानी-उतारनी हों/तब उस दौड़ती हुई औरत का प्रेम देखिए/वह आहिस्ता से हाथ पकड़/सड़क पार कराती है।’

श्रद्धा वाजपेयी का कहना था कि इस दौड़ती-भागती जिन्दगी में भी ठहराव के मानवीय पल को दर्शाती यह कविता बेहद गहरी और सूक्ष्म है। श्रद्धा ने अपना अनुभव बाँटते हुए कहा कि जिन्दगी में इतनी भाग-दौड़ है कि उसे किताबें पढ़ने का समय कम ही मिलता है। ऐसे में ये पंक्तियाँ उनके काम आएगी, ‘आपने सिर्फ किताबें पढ़ी हैं/ मैंने जिन्दगी पढ़ी है।’

आशीष सिंह को ‘कदीमी कब्रिस्तान ’ सुन कर अरुंधती राय का उपन्यास ‘अपार खुशी का घराना’ का वह दृश्य याद आया जिसमें कब्रिस्तान में बहुत सारे लोग मिलजुल कर रहने लगते हैं। यह कविता भी उजाड़ के बीच जीवन का संकेत देती है।

नाटककार राजेश कुमार का मानना था कि अजय सिंह की भाषा इतनी शार्प है कि अलोकतांत्रिक ताकतों पर नुकीले हथियार की तरह वार करती है। विचारधारा और आंदोलन से लंबे समय तक जुड़े रह कर अजय सिंह ने यह भाषा अर्जित की है। उदाहरण के रूप में उनकी ‘भाषा का सही इस्तेमाल’ कविता को लिया जा सकता है जिसमें वे कहते हैं,‘हत्यारा सिर्फ़ हत्यारा होता है/बाकी उसकी अन्य पहचान/हत्या के गुनाह को/ छिपाने के लिए होती है।’ आज का समय ही ऐसा है कि बिना लाग-लपेट के अपनी बात कही जाए। ‘हत्यारे को हत्यारा कहना/भाषा के सही इस्तेमाल की/ पहली सीढ़ी है।’ अजय सिंह की ये पंक्तियाँ बाउन्स करती है। और दूध फटने की तरह विचारों के दोफाड़ को स्पष्ट कर देती है। ‘शिवकुमारी जी’ कविता नागार्जुन की दैनन्दिन के विषयों पर लिखी जाने वाली कविताओं की याद दिलाती है।

प्रलेस, लखनऊ ईकाई की सचिव उषा राय ने कविताओं में प्रयुक्त व्यंग्य की भाषा और शैली की पर बात की। उन्होंने अजय सिंह के इस कथन से अपनी सहमति जताई कि प्रलेस लखनऊ इकाई ने नये विषयों, बहसों, प्रतिबद्ध बुद्धिजीवियों और सम्भावनाशील युवाओं पर अपने कायक्रमों को केन्द्रित रखा है। वे कार्यक्रम भले बहुत बड़े स्तर पर न रहे हों लेकिन सार्थक रहे हैं। उषा राय ने अजय सिंह  की कविता के इन पंक्तियों को पंसद किया जहाँ वे कहते हैं, ‘लेकिन ध्यान रहे/घिसा-पिटा पंख टूटा/थका-हारा पुराना राग अलापने वाला/लोकतंत्र मानवाधिकार असहमति की अवहेलना करने वाला/ मशीनी वामपंथ/ हमें क़तई मंज़ूर नहीं!/हमें त्येनआनमेन चैक सिंगूर नंदीग्राम वाला/वामपंथ हरगिज़ मंजूर नहीं!’

कवि उमेश पंकज ने इस तरह की प्रभावी कविताओं के संपादकों द्वारा लौटा दिए जाने पर चिंता व्यक्त की। उनका कहना था कि आज कोई भी अभिव्यक्ति का खतरा नहीं उठाना चाहता क्योंकि उसमें मनुष्य के अकेले पड़ जाने का डर रहता है। बीच में बात काट कर अजय सिंह ने अपनी प्रिय पंक्ति दुहराई,‘ अकेले पड़ जाने का खतरा उठा कर भी अपनी बात कहनी चाहिए।’

कथाकार किरण सिंह की टिप्पणी थी कि ये कविताएँ कला के स्तर पर कविता होने की शर्त को भी पूरी करती हैं। जैसे कितने सरल शब्दों मगर कितने मारक ढंग से यह कहा गया है, ‘एक हत्यारा/चुन कर आया है/ दोबारा।’अजय सिंह लगातार अनुशासित ढंग से फोकस रह कर काम कर रहे हैं। कविता के साथ उनके सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर विश्लेषणात्मक स्ंतभ भी आ रहे हैं। ‘दो हत्यारे संविधान-सम्मत ,और वामपंथ’ कविता को वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में वामपंथ की भूमिका को समझने के वामपंथी बुद्धिजीवियों को जरुर पढ़ना चाहिए। नौकरीपेशा और घरेलू कामगार स्त्री की संवेदना और जुझारुपन को समझाने के लिए ‘शिवकुमारी जी’ एक बेहतरीन कविता है।

युवा आलोचक अजित प्रियदर्शी अन्त में और बहुत देर तक अजय सिंह की कविताओं पर बोले। उनके कहन में अजय सिंह की कविताओं के लिए कुछ नई अलोचकीय शब्दावलियाँ थीं। जैसे, ‘अजय सिंह की कवितओं के बिम्ब ऐंठे हुए हैं।’ या ‘अजय सिंह की कवितओं को समझाने के लिए उनके क्रियापदों को समझाना होगा।’ अजय सिंह की कविताएँ वास्तव में किसी क्रिया बदलाव के उद्देश्य से लिखी गई हैं। इसलिए क्रियापदों की बहुलता है। ये क्रियापद व्यक्तियों के साथ जुड़ कर आए हैं और शिल्प के सधाव के साथ हैं। ये कविताएँ वामपंथ का घोषणपत्र हैं। अजय सिंह की कविता से सीखना चाहिए कि शब्दों से भीे शत्रु को डराया जा सकता है। इनकी कविताएँ परंपरागत तरीके से आस-पास की वस्तुओं और घटनाओं को नहीं देखती हैं और न आपको सहलाती-बहलाती हैं बल्कि चैतन्य बनाती हैं। इन कविताओं को पाठकों के बीच फैलाया जाना चाहिए।

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