समकालीन जनमत
कविता

सुभाष राय की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है वाग्मिता- राजेश जोशी

डॉ संदीप कुमार सिंह

लखनऊ. कविता पर एक संजीदा बहस. सुभाष राय के कविता संग्रह ‘ सलीब पर सच ’ के बहाने. आज के समय में हिंदी कविता के दो शिखर व्यक्तित्व नरेश सक्सेना और राजेश जोशी, आलोचना की दुनिया का एक प्रखर नाम प्रो राजकुमार, अपने समय के दो बड़े कथाकार अखिलेश और देवेंद्र. साथ में हिंदी कविता और आलोचना के भविष्य रचने को तैयार दो युवा स्वर अनिल त्रिपाठी और नलिन रंजन सिंह.

26 अगस्त 2018 को ये सब साथ बैठे एक विमर्श में. लखनऊ की कैफ़ी आज़मी अकेडेमी में. हाल भरा हुआ. सुनने वालों का बड़ा जमावड़ा. वे भी सामान्य लोग नहीं. शहर के जाने-माने बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार, रंगकर्मी और सोशल ऐक्टिविस्ट. राजेश जोशी ने बहुत गम्भीरता से संग्रह की कविताओं की पड़ताल की. उन्होंने ‘ सपने हैं क्या तुम्हारे पास ’ शीर्षक कविता की चार पंक्तिया उद्धृत कीं, जिनके पास सपने नहीं होते/वही पाँवों के निशान का पीछा करते हैं/ वही ढूंढ़ते हैं आसान रास्ते/ सचमुच वे कहीं नहीं पहुँचते, और कहा कि सुभाष राय कविताओं के किसी निशान का पीछा नहीं करते, उनके पास सपने हैं और इसीलिए उनका तेवर अलग है. उनमें एक तरह की तुर्शी है, राजनीतिक तुर्शी, उनमें लयात्मकता है और उनका स्वर क्रिटिकल, आलोचनात्मक है. एक दिलचस्प बात देखी जा सकती है. इधर की बहुत सारी कविताओं में बिम्ब, प्रतीक और रूपकों के जरिए बात कही जा रही है.

उन्होंने कहा कि ख़ास तौर से आज के दौर में जब राजनीतिक संकट गहरा हो रहा है, रूपकों में बात करना आसान रहता है, इससे एक रास्ता निकलता है बात कहने का. लेकिन दूसरी ओर रिस्क उठाने वाली कविताएँ भी लिखी जा रहीं हैं. सुभाष राय की कविताएँ बिंबों की ओर नहीं रेटारिक की ओर ले जाती हैं. उनमें एक ख़ास तरह का साहस है. वे खुलकर राजनीतिक आलोचना कर सकती हैं. यह सुभाष राय की कविताओं की खूबी है.

राजेश जोशी ने संग्रह की पहली कविता मेरा परिचय का ज़िक्र करते हुए कहा कि सुभाष राय अपना परिचय देते हुए कहते हैं, मेरा परिचय उन सबका परिचय है/जो एक दूसरे को जाने बिना /आग के इस खेल में शरीक हैं. यह कहना सही नहीं होगा कि अन्याय और जुल्म के खिलाफ़ लोग खामोश रहते हैं. जनता लड़ती रहती है. अलग-अलग जगहों पर एक दूसरे को जाने बिना आंदोलन चलते रहते हैं. लेकिन लोग डिसकनेक्टेड हैं, एक दूसरे से परिचय नहीं है परन्तु एक ही तरह के काम में लगे हैं. यह एक ऐसा सच है, जो खुली आँखों से देखा जा सकता है. सुभाष राय आग बोना और अंगारे उगाना चाहते हैं. वे एक दूसरे को कनेक्ट करना चाहते हैं, अनेक तरह के प्रतिरोध को जोड़ना चाहते हैं. उनकी कविता ऐसे लोगों की तलाश करती दिखती है, जो अन्याय के विरुद्ध लड़ाई में शरीक हैं.  ये बहुत सुंदर बात है. कई बार कविता कुलीन होने लगती है, उसे तोड़ना पड़ता है. सुभाष राय प्रखरता और स्पष्टता के साथ ये काम करते हैं. उनसे यह सवाल नहीं पूछा जा सकता कि पार्टनर तुम्हारी पलिटिक्स क्या है. उनकी पालिटिक्स बिलकुल साफ है. एक कविता में वे अपनी तूलिका  से मुल्क का चेहरा बनाना चाहते हैं पर वह बनता ही नहीं. कभी कैनवस छोटा पड़ जाता है, कभी काला पड़ जाता है. उन्हें संदेह होता है कि मुल्क का चेहरा है भी या नहीं. ये हमारे समय पर बड़ा कमेंट है. कभी हिन्दू चेहरा बनता है, कभी मुस्लिम चेहरा, कभी गाय के माँस वाला, कभी बिना माँस वाला. पर ऐसा चेहरा नहीं बनता जिसमें सब अपने को निहार सकें. उनकी कविता में यह बहुत अच्छी बात लगती है.

राजेश जोशी ने सलीब की चर्चा करते हुए कहा कि इसे धार्मिक प्रतीक न समझा जाए. मिथक धर्म की प्रापर्टी  नहीं होते. मिथकों को कोई धर्म नहीं गढ़ता, वे सामूहिक चेतना के प्राडक्ट होते हैं. अगर उन्हें धर्म गढ़ता तो तीन सौ रामकथाएँ नहीं रची जातीं. एक दूसरे को कंट्राडिक्ट करती हुई. जनता की चेतना रचेगी तभी कई तरह के राम होंगें, कई तरह के कृष्ण. सुभाष राय की कविताओं में बहुत सारे विमर्श हैं, लूले लंगड़े गणतंत्र को चीरकर उगते जंगलराज की आहटें हैं. ये पंक्तियाँ आज के जंगलराज की ओर इशारा करती हैं. उनकी कविता की सबसे बड़ी ख़ासियत है उसकी वाग्मिता, उसकी रेटारिक. उनकी कविता न तो स्वप्न देखना छोड़ती है, न ही आशा का साथ छोड़ती है. उनकी पंक्ति है, चलते रहो तब भी, जब रास्ता न सूझे/ अँधेरा ही फूटेगा बनकर उजास/ मंज़िल चलकर आएगी तुम्हारे पास. जब कुछ नहीं होता तब भी कविता में आस बची रहती है. संग्रह में कुछ दार्शनिक कविताएँ हैं, प्रेम कविताएँ भी. लोग समझते हैं कि जब कोई प्रेम करेगा तो वह समाज से बाहर चला जाएगा. सुभाष राय की प्रेम कविताएँ इस बात से सजग हैं. उनकी एक पंक्ति है, प्रेम ख़ुद को मार कर सबमें जी उठना है/ प्रेम अपनी आँखों में सबका सपना है.  यह प्रेम सबको साथ लेकर चलना चाहता है. एक और अच्छी पंक्ति याद आती है, मैं मिट्टी हूँ, पृथ्वी हूँ मैं/ हर क्षण जीवन उगता, मिटता है मुझमें/ मैंने तुम्हें रचा, आओ, अब तुम/ मुझमें कुछ नया रचो. एक बराबरी का सम्बंध, जिसमें स्त्री-पुरुष एक दूसरे को रचते हैं.

जोशी जी ने कहा की सबसे अच्छी बात इस संग्रह की यह है कि  सुभाष राय की कविताएँ पूरे राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य का स्पष्टता के साथ क्रिटिक रचती हैं. विचार और संवेदना एक दूसरे से पृथक नहीं हो सकते. उन्होंने कहा कि तुम्हारा नचिकेता बहुत सुंदर कविता है. इसे पिता पर लिखी गयी श्रेष्ठ कविताओं में शामिल किया जा सकता है. मैं कह सकता हूँ कि यह संग्रह बार-बार सोचने-विचार करने के लिए उकसाता है.

 प्रो राजकुमार ने कहा कि किसी भी रचनाकार का मूल्यांकन उसकी रचना के आधार पर होना चाहिए. उसका जीवन अलग चीज़ है. लेकिन सुभाष राय से मेरा लम्बा और गहरा सम्बंध रहा है और उनके जीवन में कुछ ऐसी बातें हैं, जो मैं प्रसंग आने के नाते कहना चाहूँगा. हम सब एलाहाबाद में अस्सी के दशक के सहचर रहे हैं. उस दौर का जो जीवन था, उसमें पता नहीं था कि और कितने साल जिएँगे. लगता था कि ४०-४५ साल तक भी जी गए तो बड़ी बात होगी. लगता था कि मौत शायद एक क़दम आगे है. ऐसा जीवन जिसने जिया हो, उसके भीतर न तो जीवन को लेकर कोई मोह रह जाता है, न ही जीवन की उपलब्धियों को लेकर कोई आसक्ति रह जाती है. यह अनासक्ति, यह निस्पृहता सुभाष राय के जीवन में भी है और उनकी कविता में भी. जीवन से कुछ मिलेगा, ऐसी इच्छा कभी नहीं रही लेकिन अक्सर जब कुछ भी पाने की इच्छा नहीं रहती, बहुत कुछ मिल जाता है. न चाहते हुए भी बहुत कुछ मिल गया, इसका मतलब यह नहीं कि उसने उसके लिए कोशिश की. जैसे मुक्तिबोध ने भी कहा, इस सब कुछ के बाद भी लगता है कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया. यह एक ऐसी मनोभूमि है, जहाँ लगता है कि जीवन में कोई चाह नहीं है. यह भी तभी होता है, जब किसी विरल क्षण में अपने विराट का स्वाद चख लिया हो.

सुभाष राय की एक कविता जीने की समझ की महत्वपूर्ण पंक्ति है, मैं समझ रहा हूँ यह सबक कठिन है बहुत / जिस दिन मुझे मरना आ जायेगा / उसी दिन से समझने लगूंगा जीना भी / मैंने पूछा, यह कोई कविता है ?/ उसने कहा…/ यह कविता हो न हो/ पर इसके होने से जीवन कविता में बदल सकता है. यह मूल स्वर है सुभाष राय की कविता का, उनके रचना कर्म का, जिसको केंद्र में रखकर उनकी कविताओं को समझा जा सकता है. कविता को लेकर उनके भीतर कोई आग्रह नहीं लेकिन इतना आग्रह ज़रूर है की जीवन कविता की तरह हो.

प्रो राजकुमार ने कहा कि सुभाष राय की रचनाओं में जीवन में कविता और कविता में जीवन, यह द्वंद्व बनता है, जिसमें वे संचरण करते हैं. कभी जीवन से कविता की ओर और कभी कविता से जीवन की ओर. एक बिंदु पर टिककर रहना मुश्किल हो जाता है. यह तभी हो पाता है जब आप जीवन के सामान्य स्तर से ऊपर उठ जाएँ. इसीलिए सुभाष राय की कविता में एक बहुत महत्वपूर्ण बात दिखती है. एक तरह के आत्म विसर्जन, आत्मोत्सर्ग का भाव. बहुत गहरी धर्मिकता भी मुक्तिकारी हो सकती है, उसे आज की साम्प्रदायिकता की तरह नहीं देख सकते. उनकी संवेदना, उनका मुहावरा बहुत महत्वपूर्ण है. ऊपर से देखने पर सुभाष राय की कविताएँ भले इकहरी लगती हों पर भीतर धँसने पर उसकी कई-कई परतें खुलती जाती हैं. उनके यहाँ मृत्यु के अनेक संदर्भ हैं तो जीवन के भी तमाम संदर्भ हैं. जीवन और मृत्यु के ये संदर्भ बहुत स्थूल अर्थ में नहीं हैं, गहरे अर्थ में हैं. कुल मिलाकर सुभाष रायकी कविताएँ समकालीन कविता में एक विशिष्ट स्थान देने का आग्रह करतीं हैं और इस आग्रह को स्वीकार किया जाना चाहिए.

अखिलेश ने कहा कि संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए जो सबसे बड़ी बात है, उनकी भूमिका है। उनका मूल प्रयोजन उसमें देखा जा सकता है. उसे पढ़ कर साफ लगता है कि वे समकालीन कविता में अपनी कोई प्रस्तावना नहीं देते. उसे पढ़ते हुए कविता को लेकर जो अवधारणा बनती है, वह यह कि साहित्य दुनिया को, मनुष्य को बेहतर बनाता है. कविता कवि को भी सँवारती है, उसे भी शुद्ध करती है. ये कविताएँ कोई क्लेम करती हुई कविताएँ नहीं हैं, कोई झंडा नहीं गाड़ना चाहती हैं. ये नहीं बतातीं कि वे इस कुल की हैं और उस कुल के ख़िलाफ़ हैं. वे पूरे इन्नोसेंस के साथ समय से मुठभेड़ करतीं हैं. इन पर समकालीन कविता के मुहावरे का कोई दबाव नहीं है. ये कविताएँ अपने को शुद्ध करने की प्रक्रिया में लिखी कविताएँ हैं. सुभाष राय जब देखते हैं कि अराजक ताक़तें जब बदलाव की कोशिशों को नष्ट करने के लिए हमले करतीं हैं तो उनका कवि प्रतिक्रिया करता है, उसे लगता है कि उन ताक़तों पर हमला करना चाहिए. उनकी शुरुआती कविताओं में एक आह्वान है, एक तलाश है, दुनिया को बदलने वाली ताक़तों को एकजुट करने की. यहाँ एक दिक़्क़त भी है. जब वे कहते हैं कि मुझे उन कायरों की दरकार नहीं है तो वे बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को अपनी लड़ाई से अलग कर लेते हैं, जो बदलाव तो चाहते हैं पर किसी मजबूरी में सामने नहीं आते. जब वे देखते हैं कि वे जैसा चाहते हैं, वैसा बदलाव नहीं हो रहा है, तो वे गाँव की ओर रूख करते हैं. सोचता हूँ कि की बोर्ड तोड़ डालूँ और निकल जाऊँ खेतों की ओर. वहाँ वे निचले पायदान पर खड़े लोगों से, श्रम से जुड़े लोगों से जुड़ते हैं. गाँव की तलाश कविता में रमबिरछा बढ़ई है, रामरतन कुम्हार हैं, सहदेव क़हार हैं. इसी कविता में वे कहते हैं कि गाँव की चमारिनें श्रम के गीत गाते हुए अच्छी लगतीं हैं और उनके स्पर्श के बिना अनाज घर नहीं आता. बहुत सुंदर कविता है पर इसमें अगर यह बात भी होती की उनके श्रम के उत्पाद में उनका कितना हिस्सा है, उनका कितना शोषण है, तो यह कविता और भी सुंदर और अविस्मरणीय बन जाती.

उनकी कविताओं में एक और ख़ास बात है. गहरे अर्थों में जीवन और मृत्यु का खेल इन कविताओं में आता है. जीवन का आख्यान तो अनेक कवि करते हैं परसुभाष राय जीवन के लिए मृत्यु को बार-बार अपने ढंग से रचते हैं. वे मर कर बार-बार नये सिरे से उगना चाहते हैं. मृत्यु में जीवन की तरह उपस्थित रहना सुभाष  राय की उपलब्धि है. इस संग्रह में एक नए तरह की गर्माहट है. इसमें मंज़ुनाथ और सत्येंद्र जैसे नायक हैं तो आज के समय की, आज की राजनीति की भी पूरी झलक है. एक साथ इतने स्तरों पर काम कर रहीं कविताएँ फिर भी कोई दावा नहीं करतीं, यह बड़ी बात है.

 देवेंद्र ने कहा कि विचार के बिना कोई रचना नहीं होती लेकिन विचार अगर दिखायी देने लगे तो वह बहुत ख़राब लगता है. समकालीन कविता में विचार बहुत प्रमुख हो गया है लेकिन इन सबसे अलग मुझे सुभाष राय की कविताएँ आत्मविश्वास से भरी कविताएँ लगती हैं. मुझे यह तय करना बहुत कठिन हो जाता है कि उनका व्यक्तित्व बड़ा है या उनकी कविता. मैं संदेह में पड़ जाता हूँ. मरजीवा अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए लोगों के मिथक की तरह है. आम आदमी जब लड़ते हुए सच की तलाश करता है तो पाता है की सच सलीब पर है. उनकी कविता में आता है की मरजीवा तो लड़ते हुए मर गया पर सच ज़िंदा है लेकिन कई बार मुझे लगता है कि आज चीज़ें उलट हैं. भगत सिंह तो जिंदा हैं लेकिन उनका सच मार दिया गया है. अब यह बहस का विषय है लेकिन इतना साफ है कि उनकी कविताएँ आम आदमी के पक्ष में खड़ीं कवितायें हैं.

 अनिल त्रिपाठी ने नामदेव ढसाल का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी भी व्यक्ति को व्यक्तिगत जीवन के संघर्ष से जीवन को समझने की अंतर्दृष्टि मिलती है और एक बार यह अंतर्दृष्टि हासिल हो गयी तो व्यक्ति के भीतर समाज और समय को समझने की शक्ति आ जाती है. सुभाष राय की कविताओं में यह अंतर्दृष्टि बहुत स्पष्ट तरीक़े से दिखायी पड़ती है. गद्य में बदलती जा रही कविताओं के दौर मेंसुभाष राय की सहज, सरल और दृष्टिसम्पन्न कविताएँ बहुत महत्वपूर्ण हैं.

नलिन रंजन सिंह ने कहा कि सुभाष राय की कविताएँ झूठ के, पोस्ट ट्रूथ के इस दौर में समय के सच को बयान करने वाली कविताएँ हैं. इस संग्रह के आरम्भ में वे कविता के बारे में जो कुछ कहते हैं, वह उनकी कविताओं को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण उपकरण है. कविता उनके भीतर प्राण की तरह बसती है. वे जो भी हैं कविता के कारण ही हैं. कविता नहीं होती तो वे ऐसे नहीं होते, जैसे आज हैं. उनका यह कहना एक बड़ी बात है और यह वह सूत्र भी है जो सुभाष राय की कविता को समझने में मदद करता है. सुभाष राय को सत्येंद्र  की, मंजुनाथ  की तलाश है. उनकी कविताओं में अनेक रंग हैं और इस संग्रह की ज़्यादातर कविताएँ समय से मुक़ाबिल हैं, काल से होड़ करती कविताएँ हैं.

पहचान के अध्यक्ष और कवि, चिंतक डा सीपी राय ने अपनी संस्था का परिचय देते हुए सुभाष राय के अपने लम्बे साथ और उनके सिद्धांतनिष्ठ जीवन का उल्लेख किया. युवा कथाकार किरण सिंह के कलात्मक और मेधावी संचालन का जादू लम्बे समय तक लोगों के सिर पर छाया रहेगा.

समूचे कार्यक्रम को समेटते हुए समारोह के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि जितनी अच्छी बातें हुईं, उनका श्रेय सुभाष राय की कविताओं से छीना नहीं जा सकता. उन्होंने राजेश जोशी की बातों का जिक्र करते हुए कहा कि यह सच है कि सलीब एक मिथक है और मिथक किसी धर्म की प्रापर्टी नहीं होता. सवाल यह है कि कवि ने कहाँ से प्रेरणा पायीं, उसने प्रेरणा पायी है एक ऐसे आदमी से जो ग़रीबों के लिए लड़ता है, उनके पापों के प्रायश्चित के लिए सूली पर चढ़ जाता है. ये कोई धार्मिक प्रतीक नहीं है, ये तो क्रांतिकारी प्रतीक है. एक गाना है, तस्वीर बनाता हूँ, तस्वीर नहीं बनती, इक ख़्वाब सा देखा है, ताबीर नहीं बनतीइक रंगे-वफ़ा और है, लाऊँ मैं कहाँ से.

उन्होंने कहा कि सुभाष राय मुल्क का चेहरा बनाना चाहते हैं पर बनता ही नहीं. अब रंगे-वफ़ा की ज़रूरत है, वो कहाँ से आए, वो आए तब तो तस्वीर बने. बात हुई कि उनका व्यक्तित्व बड़ा है या कविता. कविता का मूल्यांकन तो कविता के आधार पर ही किया जाएगा. पर उनके व्यक्तित्व का आकलन तो इस बात से होगा की उनके कहने और करने में एकरूपता है या नहीं. तो सच ये है कि वे अपने कर्म से भी अपने को प्रमाणित करते हैं. देश में अकेला अख़बार है उनका, जिसके मुख्य पृष्ठ पर, कई-कई बार आधे-आधे पेज साहित्य या उससे जुड़ी ख़बरें होतीं है. उनके यहाँ अशोक वाजपेयी छपते हैं, रविभूषण छपते हैं, उनका विचार का पेज देखिए कितना समृद्ध है, वहाँ सभी तरह के विचार मौजूद रहते हैं, एकतरफ़ा नहीं. जहाँ तक सुभाष राय की कविता का सवाल है, वे कहते हैं कि मुझे तो कविता ही बार-बार रचती है. लोग तो लागी कवित्त बनावत, मोहि तो म्हारो कवित्त बनावत.  वे कवित्व से बने हुए हैं. कविता क्या है. कविता मनुष्यता का पर्याय है, उसका नाभिक है, सृजनात्मक है. कविता में आवेग होता है, उनके व्यक्तित्व में भी आवेग है. वे लिखते हैं, हे राम तुम तो पत्थर के बने हो. कभी तुमने अहल्या को तार दिया था. पर अब तो तुम ख़ुद ही पत्थर के हो गए हो. पत्थर के हो इसलिए मुड़कर ख़ुद को स्पर्श नहीं कर सकते. राम का व्यक्तित्व बहुत जकड़ा हुआ है. तुलसी की इसीलिए आलोचना होती है कि  उनके राम पथरा गए हैं. एक पंक्ति सुभाष राय की कविता की है, मुझे शब्दों के चुप हो जाने की वजह पता है. क्या वजह है? वजह साफ है, आप सबने बोलना बंद कर दिया है. एक कविता है, आना हो तो मिटकर आओ. यह खाला का घर नहीं है की जब चाहा, चले आए. स्त्रियों के बारे में उनकी कविता है. स्त्रियाँ आत्मघात नहीं करना चाहतीं, वे लड़ने को तैयार हैं. इस संग्रह के बाद सुभाष राय जो लिख रहे हैं, उससे भी मेरा थोड़ा परिचय है, इसलिए मैं कहूँगा कि वे तो आगे जा रहे हैं और उन्हें तो जाना ही था.

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