बनारस में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ पहले ही मैदान में उतर चुके बीएसएफ से बर्खास्त तेज बहादुर यादव को कल गठबंधन ने अपना प्रत्याशी बना लिया। मैंने किसी पोर्टल पर तेज बहादुर का एक इंटरव्यू कुछ दिन पहले देखा था और मेरी राय में मीडिया के प्रश्नों का उत्तर वे जितने सुलझे तरीके से दे रहे थे वैसा करने की हिम्मत पिछले पांच सालों में प्रधानमंत्री नहीं जुटा सके। यहां बाजी तेज बहादुर के पक्ष में जाती है।
तेज बहादुर के विरोध में मुख्य रूप से दो बातें कही जा रही हैं-
1. तेज बहादुर ने सेना का अनुशासन तोड़ा था। इसलिए उन्हें बर्खास्त किया गया।
तेज बहादुर ने निश्चित तौर पर अनुशासन के दायरे से बाहर निकलकर जवानों को खराब खाना मिलने की बात कही थी। लेकिन क्या उन्होंने गलत कहा ? यदि आप ईमानदारी से सोचेंगे तो पायेंगे कि सेना में भ्रष्टाचार कोई नयी बात नहीं है। जवानों के राशन से लेकर कैंटीन के सामानों तक की कालाबाजारी, हथियारों की खरीद में कमीशनखोरी के आरोप बड़े अधिकारियों पर पहले भी लगते रहे हैं।
खैर, आप सेना का अनुशासन मानो और खराब खाने के खिलाफ मत बोलो, आप अपने विभाग का अनुशासन मानो और विभाग में हो रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ मत बोलो, आप परिवार का अनुशासन मानो और परिवार के भीतर हो रहे उत्पीड़न पर मत बोलो। यही तो सिखाया जाता है कि आप सिर झुका लो, आंख, कान और मुंह बंद करके गांधी के बंदर हो जाओ। आप बदलाव मत चाहो। सरकारें यही चाहती हैं। लेकिन जब तक सही और गलत की पहचान बाकी है, अनुशासन भंग होते रहने चाहिए। तेज बहादुर ने ऐसा किया इसलिए तेज बहादुर का समर्थन किया जाना चाहिए।
2. तेज बहादुर की पुरानी फेसबुक पोस्ट से पता चलता है कि वे मुसलमानों के खिलाफ पोस्ट लगाते रहे हैं। मोदी के समर्थक रहे हैं आदि-आदि।
सबसे पहली बात तो यह कि स्वयं मोदी जी और उनके मंत्री ऐसे तमाम लोगों को ट्विटर पर फॉलो करते रहे हैं जो मुसलमानों और दलितों के खिलाफ नफरत तथा महिलाओं को बलात्कार की धमकी देते आये हैं। तेज बहादुर 2014 में गढ़े गये मोदी नैरेटिव के शिकार रहे हैं। तेजबहादुर द्वारा फेसबुक पर लिखी गई तमाम बातें दिखाती हैं कि कैसे मोदी छाप राजनीति ने सेना के सिपाहियों तक में जहर भर दिया है। अकारण नहीं रहा होगा तेज बहादुर का उत्साह। उन्हें तो लगा था कि 2014 में उनकी सरकार बन गई है। उन्हें तो लगा था कि अब वे खाने में हो रहे भ्रष्टाचार के बारे में कहेंगे तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाली सरकार उनका सम्मान करेगी। लेकिन वे गच्चा खा गये। उनकी उम्मीदें निराधार थीं। उन्होंने चोरों से रखवाली की उम्मीद पाल ली थी।
क्या तेज बहादुर का चुनाव लड़ना राजनीति का सैन्यीकरण है?
कुछ लोगों ने पूरी बौद्धिक गंभीरता ओढ़ते हुए कहा है कि तेज बहादुर के चुनाव लड़ने से राजनीति का सैन्यीकरण होगा। इसलिए तेज बहादुर का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए। क्या सच में ऐसा है ?
ऐसे में दो हालात हो सकते हैं। एक बी.के. सिंह से लेकर कैप्टन अमरिंदर सिंह तक कई सैन्य अधिकारियों के पहले चुनाव लड़ लेने और मंत्री, मुख्यमंत्री आदि बन लेने से राजनीति का पहले ही सैन्यीकरण हो चुका है। लेकिन इन चतुर सुजान बुद्धिजीवियों को इसकी खबर ही नहीं लगी है। या फिर यदि पूर्व सेनाध्यक्ष तक के चुनाव लड़ने से राजनीति का सैन्यीकरण नहीं हुआ तो तेजबहादुर जैसे पूर्व सिपाही के लड़ने से भी राजनीति का सैन्यीकरण नहीं होगा।
दरअसल तेज बहादुर ने सेना के नाम पर मांगे जा रहे वोट की पूरी राजनीति को बेनकाब कर दिया है। पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करने की जगह मोदी जी ने इसे वोट बटोरने के अवसर में तब्दील कर दिया। उन्होंने चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए पहली बार वोट देने वालों से अपील की कि वे अपना वोट जवानों को समर्पित करें।
ऐसे में मोदी के सामने एक पूर्व जवान की दावेदारी ने उनके सबसे बड़े हथियार को भोथरा कर दिया है। इसलिए जरूरी है कि बिना किसी भ्रम में पड़े तेज बहादुर के साथ खड़े हों
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