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महावीर प्रसाद द्विवेदी का स्मरण आज भी क्यों ज़रूरी है

 महावीर प्रसाद द्विवेदी (जन्म दिन विशेष)

 

राजेन्द्र  कुमार

 

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को हम प्रायः खड़ी बोली के मानक रूप का जनक होने का श्रेय देकर रह जाते हैं. पर, यह तो उनके सरोकारों का एक पक्ष मात्र है. दरअसल, द्विवेदी जी अपने युग की चेतना को एक ऐसी साहित्यिक लय में उतारना चाहते थे, जो पूरे समाज को उद्वेलित कर सके.

एक चिन्तक, लेखक, सम्पादक के रूप में उन्हें अपने ठहर से गए और बिखरे हुए-से समाज के प्रति गहरी चिंता थी. वे अपने समाज को खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से प्राप्त कराने के लिए कृत-संकल्प थे. वे समाज को इस आकांक्षा से भर देना चाहते थे कि वह एक बाहरी(विदेशी) समाज की गतिशीलता के हो-हल्ले में गुम हो रहे अपने खुद के स्पंदन को एक बार फिर से अपनी सामूहिक चेतना में रूपांतरित कर सके. इस कार्य में हिंदी भाषा और साहित्य को अपनी सार्थक भूमिका तलाशने की प्रेरणा देना द्विवेदी जी अपना प्राथमिक कर्तव्य मानते थे.

जो लोग द्विवेदी जी के सारे किये-धरे को मात्र पुनरुत्थानवादी प्रयास कह कर सीमित कर देना चाहते हैं, उन्हें द्विवेदी जी के समकालीन-बोध की झलक इन पंक्तियों में देखनी चाहिए-

“ योरोप के कुछ मदांध मनुष्य यह समझते हैं कि
परमेश्वर ने एशिया के निवासियों पर आधिपत्य
करने के लिए ही उनकी सृष्टि की है. जिस
एशिया ने बुद्ध, राम, कृष्ण, ईसा और कन्फुसस,
रवींद्रनाथ और जगदीश चन्द्र बसु को उत्पन्न किया है,
उसने दूसरों की गुलामी का ठेका नहीं ले रखा है.”

डा. राम विलास शर्मा ने इन पंक्तियों को उद्धृत करते हुए ठीक ही लिखा कि ‘ यह मदांध साम्राज्यवादी यूरुप के लिए नवजाग्रत एशिया की ललकार ’ थी.

द्विवेदी युग मूलतः समाज-सुधार का युग था और राष्ट्रीय चेतना के उठान का भी. इसलिए कामना की गयी कि भाषा और साहित्य भी मूलतः इन दो प्रयोजनों के अनुसार अपना परिष्कार करे. खड़ी बोली के परिष्कार का प्रश्न भारतीय समाज के परिष्कार के अभियान का ही अंग था. इसी तरह, साहित्य में अपने देश के प्रति गौरव का भाव जगाने वाले आख्यान आयें, इसके लिए अपेक्षित था कि भारतीय मनीषा चरित्रों को भी यथावत नहीं, बल्कि अपने समय के लिए अपेक्षित कई उद्भावनाओं में ढाल कर चित्रित करने को प्रेरित करे.

आज की तरह का दलित-विमर्श या स्त्री-विमर्श द्विवेदी जी के दौर में नहीं था. लेकिन, उनके कई लेखों में आगे आने वाली चेतना की आहटें सुनी जा सकती हैं. एक उदाहरण देखिये-

“ दुनिया की सृष्टि एक ऐसे ईश्वर ने की है, जिसकी कोई जाति नहीं, जो ऊँच-नीच का कायल नहीं . ”

द्विवेदी जी उस ईश्वर को ‘भ्रष्ट ईश्वर’ कहते हैं, जिसकी दुहाई छुआ-छूत मानने वाले देते हैं. द्विवेदी जी का निर्भीक आह्वाहन है- ‘ऐसे भ्रष्ट ईश्वर का संसार छोड़ देना चाहिए.’ द्विवेदी जी ने ही सरस्वती में हीरा डोम की कविता छापी. इसी तरह स्त्री-अस्मिता के सवाल को द्विवेदी जी ने उठाया, ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ शीर्षक लेख लिखकर. यही लेख मैथली शरण गुप्त की महा काव्यात्मक रचना ‘साकेत’ की मूल प्रेरणा बना.

द्विवेदी जी ने पहली बार साहित्य की एक व्यापक परिभाषा की. ‘ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है.’ उन्होंने अपने लेखन और सम्पादन-कर्म को इसी परिभाषा से चरितार्थ किया. उन्होंने अपने संपादन में ‘सरस्वती’(१९०३-१९२०) को केवल कविता-कहानी तक ही सीमित नहीं रखा. बल्कि, ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों (दर्शन, राजनीति, अर्थशाश्त्र, विज्ञान वगैरह) में हो रहे चिंतन-मनन को बराबर निगाह में रखा.

सरस्वती को उन्होंने सचमुच ‘ज्ञान-राशि का संचित कोश’ बना दिया. इस ऐतिहासिक महत्त्व की भूमिका में द्विवेदी जी का आना आज भी प्रेरणादायक है. हिंदी को ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में समर्थ मानने में आज भी हिंदी का बौद्धिक-वर्ग संकोच करता है. उसे इस संकोच से उबरने के लिए एक सार्थक दिशा सुझाने में द्विवेदी जी की वह भूमिका आज पहले से भी अधिक स्मरणीय है.

द्विवेदी जी की प्रेरणा से हिंदी में यह आकांक्षा बलवती हुई थी कि ज्ञान-विज्ञान, विचार और संवेदना के स्तर पर वह विश्व से कट कर न रह जाये. इसके लिए उन्होंने अपने हिंदी-प्रेम का परिचय केवल संस्कृत की ओर पीछे मुड़कर ही नहीं, बल्कि आगे बढ़कर अंग्रेजी के प्रति भी अपनी ग्रहणशीलता को खुला रख कर दिया. उन्होंने गुहार लगाई कि अंग्रेजी और संस्कृत- दोनों स्रोतों से ‘अर्थ-रत्न’ लेकर हिंदी को प्रेम-पूर्वक अर्पित किये जायें-

अंग्रेजी ग्रन्थ-समूह बहुत भारी है.
अति विस्तृत जलधि समान देहधारी है.
संस्कृत भी सबके लिए सौख्यकारी है
उसका भी ज्ञानाधार हृदयहारी है.
इन दोनों में से अर्थ-रत्न ले लीजै
हिंदी के अर्पण उन्हें प्रेमयुत कीजै.

आज के दीनानाथ बत्रा जैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवादी शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी को संकीर्ण बनाने पर तुले हैं. उनका प्रस्ताव है कि हिंदी ऐसी हो, जिसमें से अंग्रेजी और उर्दू जैसी भाषाओं के शब्दों का सर्वथा बहिष्कार कर दिया जाए. ऐसे में आचार्य द्विवेदी की उपर्युक्त गुहार को आज के संकीर्णतावादी हिंदी-प्रेमी दीनानाथ बत्रा जैसों के प्रस्ताव के प्रतिपक्ष के रूप में याद करना बहुत ज़रूरी है.

आचार्य द्विवेदी ने साहित्य की भाषा के साथ-साथ साहित्य की विषयवस्तु में भी ‘साधारणता’ और ‘समानता’ का पक्ष लिया. यह एक प्रकार से लोकतांत्रिक चेतना के पक्ष में आलोचना की नयी दिशा तलाशने का प्रयत्न था.

द्विवेदी जी किसी प्रकार की निरंकुशता के पक्षपाती नहीं थे. हमारे एक प्राचीन काव्यशास्त्री ने कभी निरंकुशता को कवि का अधिकार ही घोषित कर दिया था- ‘कवयः निरंकुशयः’. लेकिन हमारे द्विवेदी जी थे, जिन्होंने संस्कृत के महाकवि कालिदास के हवाले से ‘निंकुशता’ का प्रश्नांकित किया, ‘कालिदास की निरंकुशता’ शीर्षक लेख लिख कर.

द्विवेदी जी को याद करना हमें अपने समय में इसलिए भी प्रासंगिक लगना चाहिए कि आज विभिन्न रूपों में ‘निरंकुशता’ फिर सिर उठा रही है.

( प्रो राजेन्द्र कुमार जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष हैं )

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