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फ़ैज़ की नज़्म गाने वाले आईआईटी कानपुर के विद्यार्थियों पर जांच कमेटी बिठायी

जनवादी लेखक संघ ने फ़ैज़ की नज़्म गाने वाले आईआईटी कानपुर के विद्यार्थियों पर साम्प्रदायिक बयानबाज़ी का आरोप लगाते हुए जांच कमेटी बिठाने के आदेश की पुरज़ोर निंदा की है. जलेस ने कहा है कि आईआईटी कानपुर का प्रशासन ऐसी ग़ैर-ज़िम्मेदाराना शिकायतों पर ध्यान देना और विद्यार्थियों को बिला वजह पूछ-ताछ के नाम पर उत्पीड़ित करना बंद करे. आईआईटी कानपुर का प्रशासन को शिकायतकर्ता पर जांच बिठानी चाहिए, क्योंकि उनकी जल्दबाज़ी और दुर्व्याख्या उनके इरादों का पता देती है. यह शिकायत प्रथम-दृष्टया साम्प्रदायिक भावना से और विद्यार्थियों को परेशान करने की मंशा से प्रेरित-संचालित है.

जलेस के महासचिव मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, संयुक्त महासचिव राजेश जोशी और संजीव कुमार द्वारा जारी बयान में कहा है कि हिंदुत्व के झंडाबरदारों ने एक बार फिर अपने अनपढ़ और कुंद-ज़ेहन होने का सबूत देते हुए फ़ैज़ की नज़्म गाने वाले आईआईटी कानपुर के विद्यार्थियों पर साम्प्रदायिक बयानबाज़ी का आरोप लगाया है और आईआईटी कानपुर के प्रशासन ने अपनी ताबेदारी का सबूत देते हुए उन विद्यार्थियों पर जांच कमेटी भी बैठा दी है.

बीते मंगलवार को आईआईटी कानपुर के परिसर में, जामिया के विद्यार्थियों पर हुई पुलिस बर्बरता के ख़िलाफ़, एक प्रदर्शन हुआ जिसमें विद्यार्थियों ने फैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ भी गायी. उसकी विडियो के आधार पर वहाँ के एक अध्यापक डॉ. वशी मंत शर्मा ने यह शिकायत दर्ज की कि चूँकि इसमें सब बुत उठवाये जाने और आख़िर में बस अल्लाह का नाम रहने का ज़िक्र है, इसलिए यह एक साम्प्रदायिक बयान है. उनकी शिकायत पर संस्थान के प्रशासन ने एक जांच कमेटी गठित कर दी है और कहा है कि उसकी रिपोर्ट के आधार पर विद्यार्थियों पर कार्रवाई की जायेगी.

विश्व-प्रसिद्ध उर्दू शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ‘हम देखेंगे’ नज़्म दक्षिण एशिया में प्रतिरोध के सबसे ताक़तवर और लोकप्रिय गीतों में शुमार है. इसकी लोकप्रियता तब आसमान छूने लगी जब जिया उल हक़ के सैनिक शासन के समय एक बड़े जलसे में मशहूर गायिका इक़बाल बानो ने मंच से इस नज़्म को गाया और हॉल से बाहर आते ही हिरासत में ले ली गयीं. इक़बाल बानो के स्वर-संयोजन में ही ‘हम देखेंगे’ दुनिया अलग-अलग मुल्कों में दुहराया जाता है. ‘बुत’ और ‘अल्लाह’ जैसे शब्द इस नज़्म में प्रतीकात्मक अर्थ (हुक्मरान और अवाम) के साथ आये हैं, इस बात में साहित्य के जानकारों के बीच कोई विवाद नहीं है. अगर ये प्रतीक न होते तो ‘सब ताज उछाले जायेंगे/सब तख़्त गिराए जायेंगे/’ और ‘तब राज करेगी खल्क़े-ख़ुदा/जो मैं भी हूँ और तुम भी हो’ जैसी बातें न होतीं, जिसका मतलब विशिष्ट जनों की सत्ता को उखाड़ कर अवाम की हुकूमत कायम करने से है.

बयान में कहा गया है कि फैज़ उन इंक़लाबी शायरों में से हैं जिन्होंने जनता में प्रचलित मिथकों, प्रतीकों, रूपकों के रचनात्मक इस्तेमाल को एक बहुत उपयोगी और असरदार हिकमत का दर्जा दिया. वे तरक्क़ीपसंद शायर थे और अपने राजनीतिक विचारों में मार्क्सवादी थे. पकिस्तान के हुक्मरान की आँखों में गड़ने वाले फ़ैज़ को तख्ता-पलट की साज़िश में शामिल होने के झूठे आरोप में सालों जेल में रखा गया. यह वही रावलपंडी कांस्पिरेसी केस था जिसका सहारा लेकर, 1954 में फ़ैसला आने के बाद, पकिस्तान की हुकूमत ने कम्युनिस्ट पार्टी और उसके तमाम जन संगठनों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया.

जनवादी लेखक संघ इस नज़्म को गाने वाले  विद्यार्थियों पर जांच कमेटी बिठाने के आदेश की पुरज़ोर निंदा करता है. आईआईटी कानपुर का प्रशासन ऐसी ग़ैर-ज़िम्मेदाराना शिकायतों पर ध्यान देना और विद्यार्थियों को बिला वजह पूछ-ताछ के नाम पर उत्पीड़ित करना बंद करे. उलटे, उसे शिकायतकर्ता पर जांच बिठानी चाहिए, क्योंकि उनकी जल्दबाज़ी और दुर्व्याख्या उनके इरादों का पता देती है. यह शिकायत प्रथम-दृष्टया साम्प्रदायिक भावना से और विद्यार्थियों को परेशान करने की मंशा से प्रेरित-संचालित है.

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