समकालीन जनमत
कहानी

शरतचंद्र का कथा-साहित्य

जीवन का विष सभी को पीना पड़ता है और जो विष पिएगा, उसका असर भी उसे भोगना होगा| क्या सुख इसी में है कि जीवन के विष से भरसक प्रयास करके जितना हो सके बचा जाए? बिना राग-द्वेष के विष नहीं, लेकिन बिना राग-द्वेष के जीवन भी नहीं|

राग-द्वेष से युक्त जीवन की सलिला का प्रवाह होता है समाज में| जहाँ समाज नहीं, वहां राग-द्वेष नहीं| इसीलिये शायद पशु ‘जीवै जीवाहार’ की बाध्यता से बंधा रहकर भी राग-द्वेष को महसूस नहीं करता| लेकिन, अरस्तू के शब्दों में कहें तो, मनुष्य सामाजिक पशु है| उसके समस्त राग-द्वेष, उसका जीवन, यहां तक कि उसका वैराग्य भी इसी समाज के चलते है| इसलिए जीवन का विष सभी को पीना पडेगा, इसके बिना काम नहीं चलता| शरतचंद्र के कथा-साहित्य में आज जो कुछ भी श्रेष्ठ है, वह पूरी मार्मिकता के साथ मानव जीवन के इस गूढ़ यथार्थ का भावप्रवण चित्रण करता है|

 लेकिन भावप्रवणता और भावुकता में अंतर है| जीवन की विडंबनाओं और विसंगतियों में उलझे मनुष्य को ढाल बनाकर पाठक या श्रोता की अश्रुग्रंथी पर प्रहार करना भावुकता है| लेकिन इस जीवन की विडंबनाओं और विसंगतियों में उलझते और जूझते मनुष्य की, उसके संघर्ष से निखरते इसी मनुष्य की आत्मिक उदात्तता को महसूस कराकर पाठक या श्रोता को बेचैन कर देने की क्षमता रखने वाला कलाकार ही भावप्रवण कलाकार है|

एक कथाशिल्पी के रूप में शरतचंद्र जहां तक और जिस हद तक भावप्रवण हैं, वहां तक उनका साहित्य आज भी श्रेष्ठ बना हुआ है| लेकिन आज उनके यहां जो कुछ भी श्रेष्ठ है, वह ज़्यादा लोकप्रिय नहीं है और जो आज उनके यहां लोकप्रिय है, वह श्रेष्ठ नहीं है| ‘देवदास’, ‘परिणीता’, ‘रामेर सुमति’, ‘स्वामी’, ‘बड-दिदी’, ‘बिन्दुर छेले’ जैसी अत्यंत लोकप्रिय रचनाओं में हमें राग-द्वेष, भलाई-बुराई, इंसानियत-हैवानियत इत्यादि के मनोवेगों का अद्भुत चित्रण भले मिलता हो, परन्तु इन रचनाओं की संगति आज के जीवन-यथार्थ से नहीं बैठती| जिन रचनाओं का जीवन-यथार्थ, जिनकी रागात्मकता आज के जीवन-यथार्थ से संगत बैठती है, दुर्भाग्य से वह आज उतनी लोकप्रिय नहीं हैं, भले ही इन रचनाओं के शीर्षक पाठक के मनोमस्तिष्क के भीतर अपार लोकप्रियता अर्जित कर चुके हों| ऐसी रचनाओं में ‘चरित्रहीन’, ‘अरक्षणीया’, ‘श्रीकांत’, ‘गृह-दाह’ और ‘पथ के दावेदार’ प्रमुख हैं।

 जैसा कि पहले कह चुके हैं कि जीवन का विष सबको पीना पड़ता है। लेकिन जब भारतीय समाज की जीवन स्थितियों पर दृष्टिपात करते हैं तो यह पाते हैं कि हमारे समाज में दलितों और स्त्रियों ने यह ज़हर अधिक पिया है। बल्कि स्त्रियों ने यह ज़हर सर्वाधिक पिया है। क्योंकि स्त्री – चाहे सवर्ण हो या दलित, जाति के भीतर हो या बाहर – सर्वाधिक अत्याचार उसी ने सहा है। दोहराने की ज़रूरत नहीं कि शरत का संपूर्ण साहित्य अत्याचार और त्रासदी में विगलित भारतीय स्त्री ( जो शरत के यहाँ बंगाली स्त्री है) के उद्दाम मनोवेगों एवं उसके भावनात्मक औदात्य और दुख के संताप से परिपक्व हुई उसकी बोधात्मकता की गहन अभिव्यंजना करता है। शरततचंद्र ने अपने साहित्य में नारी हृदय और उसके मन-मस्तिष्क से जिस एकात्मकता का परिचय दिया है, उसके चलते उन्हें तत्कालीन रूढिग्रस्त बंगाली हिंदू समाज में काफी बदनामी का सामना करना पड़ा।

विष्णु प्रभाकर ने ‘आवारा मसीहा’ नाम से शरत की जो जीवनी लिखी है, उसकी भूमिका में यह याद किया है कि जब उन्होंने (विष्णु जी ने) अपने कुछ भद्र मित्रों से यह ज़ाहिर किया कि वे शरत की जीवनी लिखने की इच्छा रखते हैं तो उन्हें एक यह सलाह भी दी गयी थी कि इसमें कोई मुश्किल नहीं है क्योंकि कुछ आवारा, लुच्चों और लंपट लोगों के सनसनीखेज जीवन प्रसंगों को मिलाकर लिख देने से शरततचंद्र की जीवनी तैयार हो जाएगी।

शरततचंद्र के समय में जिन स्त्रियों को कुल्टा और पापिनी ( बंगाली विधवायें, वैश्यायें इत्यादि) माना गया, वही स्त्रियाँ शरत के उपन्यास पढ़ लेने के बाद “बंगाली रेनेसाँ” के प्रवाह में बह रहे भावुक एवं आदर्शवादी लोगों को पूजनीय लगने लगीं। तथाकथित यथार्थवादियों ने शरत पर यह आरोप लगाया कि वे ऐसी कुल्टाओं के साथ स्वच्छंद संसर्ग में लीन रहते है, इसलिये उनकी पूजा करते हैं और चाहते हैं कि समूचा हिंदू समाज भी उन्हें पूजे, इसीलिये वे ऐसा साहित्य रचते हैं। उस दौर में और उसके बाद तक भी बांग्ला के कई बड़े लेखकों के स्नेह का भागी शरतचंद्र न बन सके। रवींद्रनाथ टैगोर भी उन्हें वह स्नेह न दे सके, जिसके कि वे उमीदवार थे। जबकि शरत रवींद्रनाथ को अपना गुरू मानते रहे।

             नारी चरित्रों की दृष्टि से देखें तो शरत के संपूर्ण साहित्य में ‘चरित्रहीन’ को एक अलग पड़ाव के रूप में देखा जा सकता है। इससे पहले के उपन्यासों में उन्होंने जो नारी चरित्र रचे उनमें बौद्धिकता नहीं थी, वे स्नेह और ममता की शुद्ध वैष्णव भावनाओं से संचालित और परंपराओं से ज़रा विचलित होकर पुन: परंपरा के वृत्त के भीतर वापस लौट आने वाली दुख भोगती स्त्रियाँ थी। ‘चरित्रहीन’ में हमें पहली बार सावित्री और किरणमयी जैसे स्त्री-पात्र मिलते हैं जो अपने भावोद्रेक में जितने उदात्त हैं, अपनी बौद्धिकता में वे उतने ही विराट हैं। स्त्री ही नहीं, पुरूष की भी चारित्रिक दुर्बलताओं का तीक्ष्ण अंकन शरत ने अपने साहित्य में पहली बार यहाँ किया है। इस उपन्यास में शरत ने हिंदू समाज की उस आदर्शवादी और पारंपरिक सोच पर पहली बार जोर से प्रहार करने का साहस किया है, जो यह मानती है कि चारित्रिक सबलता को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब समस्त चारित्रिक दुर्बलताओं को अपने पास फटकने भी न दिया जाए।

‘चरित्रहीन’ के चरित्रहीन सतीश, सावित्री, किरणमयी और दिवाकर हमें यह बताते हैं कि चारित्रिक दुर्बलताओं में गहरे डूबने के बाद भी मनुष्य अपनी चारित्रिक सबलताओं को उदात्ततापूर्वक निखार सकता है। सबलता का ऐसा निखार, उसके उस निखार से हज़ार गुना शक्तिशाली है जो दुर्बलताओं के प्रति शास्त्रों में वर्णित तमाम किस्म के तिरस्कारों और विधि-विधानों के अनुसरण से प्राप्त होता है। इसीलिये शरत के चरित्रहीन, चरित्रहीन होकर भी चरित्रहीन नहीं हैं, जो चारित्रिक रूप से दुर्बल है, वह भी मनुष्य है और जो चारित्रिक रूप में वास्तव में सबल है, तो सिर्फ इसलिये कि वह मनुष्य है, पंडित या मुल्ला नहीं है।

शरततचंद्र फक्कड़ थे, उनकी विचारधारा क्या थी हम नहीं जानते, गाँधीवादी वे नहीं थे, बल्कि गाँधी के वे कट्टर विरोधी थे, बावजूद इसके कि हिंदी में लिखी गयी उनकी एकमात्र प्रामाणिक जीवनी ‘आवारा मसीहा’ के परिशिष्ट में एक लेख मिलता है जिसके बारे में लेखक विष्णु प्रभाकर ने यह स्पष्ट किया है – “लेख में शरत बाबू ने उनका (गाँधी का) जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है, उनके प्रति विरोध के रहते भी जो गहरी आस्था प्रकट की है, वह अद्भुत है।”

 ठीक है, यह आस्था अद्भुत हो सकती है, लेकिन इससे इस बात का निराकरण नहीं होता कि शरततचंद्र गाँधी के विरोधी थे, क्योंकि विष्णु जी भी यह स्वीकार करते हैं कि विरोध के रहते भी आस्था प्रकट की। यहाँ भले ही गाँधी का झण्डा विष्णु जी ने बुलंद किया हो, शरत के गाँधी विरोध का झण्डा भी स्वत: बुलंद हो गया है।

         खैर, शरत का किसी भी वाद से कोई रिश्ता नहीं रहा। लेकिन विवादों से रिश्ता अत्याधिक रहा। इसका कारण उनकी यह मान्यता रही, जिससे वह कभी नहीं डिगे और जिसे शरत का समग्र-साहित्य अपनी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करता है – इस स्रष्टि में जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ है, उसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति मनुष्य है !

 

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