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गांव की साझी सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन गति और उसके संकट को केन्द्र में रखती है हेमंत कुमार की कहानी ‘रज्जब अली’

(हाल ही में ‘पल-प्रतिपल’ में प्रकाशित हेमंत कुमार की कहानी ‘रज्जब अली’ को हमने समकालीन जनमत पोर्टल पर प्रकाशित किया , जिस पर पिछले दिनों पोर्टल पर काफी चर्चा हुई और बहसें भी आयीं। बहस को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत है कहानी पर युवा आलोचक और ‘कथा’ के संपादक दुर्गा सिंह की टिप्पणी: सं)

कहानी गांव की साझी सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन गति और उसके संकट को केन्द्र में रखती है।यह संकट विभाजनकारी साम्प्रदायिक राजनीति द्वारा पैदा किया गया है। यह संकट पहले भी मौजूद था, लेकिन वह गांवों के सामूहिक ताने-बाने को तोड़ने में इस कदर तीव्र और प्रभावी नहीं हो पाया था, जैसा कि अभी हुआ। 2013 में मुजफ्फरनगर में साम्प्रदायिक विभाजनकारी राजनीतिक शक्तियों ने यही किया।और तब से लगातार यह हुआ कि गांवों को ही लक्ष्य किया गया।

उत्तर प्रदेश में छोटी-बड़ी सैकड़ों घटनाओं को इस बीच सचेतन और सुनियोजित ढंग से अंजाम दिया गया।
‘रज्जब अली’ कहानी में इसी नयी वास्तविकता का रचाव है।
कहानी के शीर्षक से ही यह बात साफ हो जाती है कि सारी बातें रज्जब अली के चरित्र से हो कर आती हैं।रज्जब अली किसान नहीं है, न ही किसी जमीन के टुकड़े या खेत के मालिक लेकिन शुरुआत में खेत आते हैं और इसलिए कि वे खेत रज्जब अली की बीबी की कब्र की राह में पड़ते हैं।रज्जब अली इससे निस्संग भी हो सकता है, क्योंकि वह भूमिहीन है, फिर भी वह खेती-किसानी से आसंग है।यह आस्संगता उस ग्रामीण सामाजिकता से है, जो भू-आधारित सामाजिक सम्बंधों से बने हैं।लेकिन रज्जब अली सिर्फ इसी सामाजिकता से नहीं बने हैं, उनकी सामाजिकता में हजार वर्ष में विकसित हुए साझे सांस्कृतिक तत्वों का मेल भी है।यह तत्व मध्यकालीन संत और सूफी उदार मानवीय मूल्यों और आदर्शों से निर्मित हुआ है।समाज के सबसे निचले तबके- चाहे वह हिन्दू समाज का रहा हो, चाहे मुस्लिम समाज का- इस मूल्य और आदर्श को अपने जीवन में अपनाने में आगे आया। उनके सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार में वह पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता रहा।आज भी कबीर समेत जितने मध्यकालीन संत-सूफी हैं, उनके नाम पर लगने वाले मेले-उर्स आदि में शामिल सामाजिक तबकों में हिन्दू-मुस्लिम दलित-वंचित तबका ही सबसे अधिक होता है।दलित समाज में प्रचलित लोकगीतों में संत-सूफी मत अंतर्भुक्त मिलते हैं। निर्गुण आज भी इसी तबके के सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में शामिल मिलता है।
तो रज्जब अली इसी साझेपन से निर्मित चरित्र है। रज्जब कब्र से लौटकर दलित बस्ती में पहली बैठकी करते हैं।वहां उनसे जो लगाव व्यक्त होता है दलित समाज का वह बेहद स्वाभाविक लगाव है।साम्प्रदायिक राजनीतिक शक्तियों या नौरंगिया दल के मंसूबों को यह लगाव ही विफल करता रहा है।नौरंगिया दल की बैठक में हार का जो विश्लेषण है, उसमें साफ ढंग से यही बात आती है।उससे अब सिर्फ लाठी या ताकत के भरोसे नहीं रोका जा सकता, इसलिए साम्प्रदायिक विलगाव, आतंक आदि सारे हथकंडे नौरंगिया दल अपनाता है।उत्तर भारत में इधर एक साथ साम्प्रदायिक दंगों में जहां दलित को मुसलमान से लड़ाने, विरोध में ले जाने की सुनियोजित कोशिशें हुई, वही दलितों और मुसलमानों पर अलग-अलग, हमलों में भी बेतहासा वृद्धि हुई।
कहानी के भीतर से जो वास्तविकता अभिव्यक्त होती है, उसमें नौरंगिया दल के सामने ग्रामीण समाज की वह बुनावट अभी भी चुनौती की तरह सामने आती है, जिसमें साझापन एक ऐसे तार की तरह है जो टूट कर भी नहीं टूटता। उदारता और मनुष्यता इस कदर कमजोर नहीं हुए हैं कि गांव के भीतर से नौरंगिया दल अपने नफरत से संचालित हमलों के लिए कोई समर्थन पा सके। श्याम नौरंगिया दल का सदस्य है, लेकिन वह साझेपन के तार को तोड़ नहीं पाता।वह द्वन्द्व में है।नौरंगिया दल उसे बाहर कर के ही मुस्लिम बस्ती पर हमले को अंजाम दे पाता है।श्याम समाज के सवर्ण हिस्से से आता है।हालांकि सवर्ण समाज के यहां जो साझापन है, वह रज्जब अली और दलित बस्ती के साझेपन से भिन्न है। वह प्रजा के साथ अभिभावकत्व वाले सम्बंध से बना है।हालांकि पूंजी के प्रवाह और दबाव ने इस संबंध को पहले ही बहुत कमजोर और अनिर्णायक बना दिया है।श्याम और अरिमर्दन की स्थिति अब सिर्फ देखते रहने की है, या अपने घर की छत से ही शक्ति प्रदर्शित करने की है। याद करें नौरंगिया दल जब हमला करता है मुस्लिम दलित बुनकर मोहल्ले पर तो अरिमर्दन अपनी छत से ही बन्दूक से हवाई फायर करते हैं।नौरंगिया दल के इस नये उभार के सापेक्ष पुराने भू- वर्चस्व वाले सामाजिक वर्गों की यही वास्तविक तस्वीर है। अब वे नये राजनीतिक वर्ग नौरंगिया दल के या तो अधीन हैं या उसके प्रभाव में या उसके सामने परास्त। अब वे अपने ही सामंती पितृवत उदार मूल्यों को भी बचा पाने में असमर्थ हैं। रज्जब अली के लिए भी अब वहां कोई सुरक्षा नहीं, भले ही रज्जब अली मानवीय मूल्यों और संबंधों को पकड़ कर श्याम के घर में बैठे हैं और गाय पालने का निर्णय करते हैं।खुद श्याम के लिए ही अब वहां कोई राह नहीं।

कहानी एक विदायी गीत की तरह है रज्जब अली के लिए भी, श्याम के लिए भी।आगन्तुक की कोई आहट, कोई संकेत कहानी के भीतर नहीं, जबकि कहानी के भीतर से ही उसके टाइम को पहचान कर देखें तो ठीक इसी टाइम में साम्प्रदायिक वर्णवादी हमले के खिलाफ कोई खुल कर सामने आया है, तो वह दलित वर्ग है।हैदराबाद, उना, सहारनपुर समेत पूरे देश में।जबकि ठीक इसी समय में दलित को हिंदू सेंटीमेंट के साथ मुस्लिम विरोध में ले जाने की साम्प्रदायिक कोशिशें भी हुईं। यानि जो श्याम का द्वन्द्व है उससे कहीं ज्यादा स्वाभाविक द्वन्द्व में तो दलित समाज गया या जाएगा। क्योंकि जिन साझे संत-सूफी मानवीय मूल्यों और जीवन आदर्श की बात हो आयी है, जिसका प्रतिनधित्व रज्जब अली करता है और जिसका वहन, निभाव, पालन, जीवन से जोड़ने का काम सबसे अधिक मुस्लिम समाज के निचले तबके ने किया, ठीक इसी अनुपात में यही दलितों में भी सम्पन्न हुआ।
उस साझे मूल्य को बचाने की किसी भी लड़ाई के स्वाभाविक हिस्सेदार ये तबके, हिस्से या सामाजिक वर्ग बन सकते हैं/बनेंगे।उना आंदोलन में यह प्रकट हो चुका है।यह श्रम की सामाजिकता की भी एक स्वाभाविक एकता है, जो पूंजी के दबाव या विकास के विध्वंशक माॅडल में सर्वाधिक प्रभावित और विनष्ट हुई/की गयी।
कहानी नौरंगिया दल की ताकत के पीछे पूंजी की छिपी ताकत को पहचान न पायी और शायद देख ही न पायी।कहानी रज्जब अली को विदा करते उस दलित टोले के भीतर छिपे भाव को भी पहचान न सकी और न तो वाणी दे पायी।याद करें कहानी के उस अंश को जब दलित टोला रज्जब अली के ओझल होने तक उन्हें देखती है।रज्जब अली के भीतर उनका अपना कुछ है, जो जा रहा है। यह कहानी का सबसे मार्मिक हिस्सा है, सबसे मानीखेज हिस्सा है।
फिर भी कहानी में एक बात का संकेत पाया जा सकता है, कि नौरंगिया दल के द्वारा बस्ती जलाने जैसे गुनाह के पक्ष में गांव का एक भी सदस्य नहीं आता।सभी रज्जब अली को खोजते हैं, उनका हाल जानने को धाते हैं।मनुष्यता की सांस्कृतिक निर्मितियां अभी मानवद्रोही नौरंगिया दल के लिए चुनौती हैं। रज्जब अली के लिए गांव के सभी जन की चिंता का प्रकट होना, मुस्लिमों के पलायन को लेकर गांव की एक औरत की टिप्पणी आदि ऐसे संकेत हैं जिनके सहारे यह बात कही जा सकती है।
अर्थात नौरंगिया दल अभी गांवों में अपने गुनाह के लिए कोई विभाजन तैयार करने में या पक्ष बनाने में सफल नहीं हो पा रहा।

कहानी की भाषा और कथावस्तु को ले कर कुछ बहसें सोशल साइट पर आयीं, समकालीन जनमत के पोर्टल पर कहानी शाया होने के बाद रामायण राम, जगन्नाथ और राजन विरूप की टिप्पणी भी आयी।कहानी ने खूब चर्चा भी पायी।दरअसल ग्लोबलाइजेशन की जद में आने के बाद भारत के गांव तेजी से बदले।इसमें जो भू-सम्पत्ति में मालिकाना रखते थे, शुरुआती विघटन के बावजूद वे केन्द्रीय शक्तियों से तालमेल बनाने में सफल रहे, लेकिन लघु-सीमांत किसान और खेती की पूरी उपज से सम्बद्ध शिल्पी, कारीगर, सेवक, मजदूर संकटग्रस्त हुए। उनकी सुध लेने वाला कोई न रहा। अब वे फिल्म, कथा-कहानी से भी गायब होने लगे। ऐसे में रज्जब अली उन सारे गायब हुए लोगों का प्रतिनिधि बन कर आता है।और यही कहानी का खास आकर्षण बन जाता है।हर गांव की स्मृति में एक रज्जब अली हैं।
कुछ बात भाषा की।समाज की संरचनागत विशेषता भाषा में भी आती है।समाज अगर वर्णवादी है, तो भाषा, पद प्रचलन, मुहावरे, भाषागत शिष्टाचार आदि वर्ण सापेक्ष होंगे।कहानी में ‘बबुआन’ और ‘चमटोली’ जैसे पदों पर रामायण राम की टिप्पणी को इसी संदर्भ में देखना चाहिए।बबुआन पद का प्रचलन पुरोहितों द्वारा हुआ है।पुरोहित के साथ ही यह प्रजा जातियों में प्रचलित हुआ।दलित कभी भी प्रजा जाति नहीं रहे, बल्कि उनका श्रम बिना कोई मूल्य चुकाए बलात लिया जाता रहा।दलितों के लिए कोई भी सम्मानजनक शब्दावली प्रायः वर्णवादी भू-वर्चस्व वाली जातियों के यहां नहीं मिलती।इसी के सापेक्ष दलितों के यहां भी अपने उत्पीड़कों के प्रति सम्मान का शब्द नहीं है।संत साहित्य को इस लिहाज से देखना चाहिए।इसके अलावा मतों, सम्प्रदायों को अपनाने में इसे वे व्यक्त करते हैं।संतों के यहां यही तो है कि अपना मालिक ही बदल लेते हैं।मालिक थे भूमि पर काबिज अनुत्पादक मध्यस्थ वर्ग।
किसी भी सचेत कहानीकार को यह जानना चाहिए, कि वैसे भी, यथातथ्यता यथार्थ नहीं होती, भाषा को ले कर तो और नहीं।भाषा को ले कर सबसे ज्यादा गड़बड़ी वर्णवादी पुरोहित वर्ग ने की है, जिसको ले कर सतर्क होने की जरूरत है, उसमें फंसने की नहीं।एक आखिरी बात कि राजनीतिक कहानी में विचारतत्व ही सबसे प्रमुख होता है।उसमें थोड़ी सी कमजोरी कहानी को कहीं का कहीं पहुंचा देती है।खैर!

कुल मिलाकर कहानी ने ग्रामीण समाज के भीतर की नयी वास्तविकता, उसमें प्रविष्ट करते नये तत्वों, नये राजनीतिक प्रभावों को खास कर नौरंगिया दल की गतिकी को तो प्रकट कर ही दिया है। और, इस रूप में शायद यह हिन्दी की पहली कहानी होगी।

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