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प्रेमचंद ने ‘अछूत की शिकायत’ को कथा-कहानी में ढाला

 

1914 में हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका सरस्वती में हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत प्रकाशित हुई थी,जिसमे कवि ने अछूतों के साथ होने वाले अन्याय और उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अत्याचार का वर्णन किया है।

वे अपना दुःख बताते हुए कहते हैं कि हम कुएं के पास नहीं जा सकते,हम कीचड़ में से पानी निकाल कर पीते हैं और अगर कभी कुएं को छू भी लिया तो सवर्ण लोग हमारे हाथ पैर तोड़ देते हैं।

यह कविता अंग्रेज़ शासकों के समक्ष शिकायत की शक्ल में लिखी गई है।कवि कहता है भगवान भी उनकी विनती नहीं सुनता,इसलिए अब हम साहब से ही यानी अंग्रेज़ से अपना दुख बताएंगे।

सरस्वती पत्रिका में छपने के बाद भी हिंदी साहित्य में अछूत की यह शिकायत अनसुनी ही रही है। दलित साहित्य के सामने आने से पहले समूचे हिंदी आधुनिक हिंदी साहित्य में दलितों की पीड़ा उनका जीवन अलक्षित और उपेक्षित ही रहा।

भक्ति काल मे कबीर और रैदास की बानियों में जात पात और छुआछूत के विरुद्ध आवाज उठी थी जो उनके बाद लगभग समाप्त ही हो गई।

उसके बाद के लगभग तीन सौ साल से भी ज्यादा समय तक हिंदी साहित्य मूलतः सवर्ण हिन्दू जीवन की अभिरुचियों से ही संचालित रहा है।

प्रेमचंद इस परंपरा में एक अवरोध की तरह सामने आते हैं।हिंदी कथा साहित्य के क्षितिज पर प्रेमचंद के उदय ने अभिजन हिन्दू अभिरुचियों और साहित्यिक संस्कारों पर जबरदस्त कुठाराघात किया।

प्रेमचंद ने अपने कहानियों और उपन्यासों में भारतीय समाज के उन अंतर्विरोधों पर से मखमली पर्दा उठा दिया जिसे कबीर और रैदास के बाद बड़े ही जतन से डाला गया था।मुक्तिबोध ने अपने मशहूर लेख ‘मेरी माँ ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया’ में लिखा है-“प्रेमचन्द उत्थानशील भारतीय सामाजिक क्रान्ति के प्रथम और अन्तिम महान कलाकार थे. प्रेमचन्द की भाव-धारा वस्तुत: अग्रसर होती रही, किन्तु उसके शक्तिशाली आविर्भाव के रूप में कोई लेखक सामने नहीं आया ।”

यह बात पूरी तरह सच है कि प्रेमचंद के बाद हिंदी में कोई भी ऐसा साहित्यिक व्यक्तित्व नहीं आया जो भारतीय समाज के सबसे बड़े अभिशाप जाति व्यवस्था पर इतने बेबाक और क्रांतिकारी ढंग से लिख पाता।

प्रेमचंद ने अपने विषय और पात्रों के चयन तथा लेखकीय दृष्टिकोण में अपना पक्ष शुरू से ही स्पष्ट कर दिया था।जाति की समस्या समाज मे पहले भी थी लेकिन पहले के और प्रेमचंद के समकालीन अन्य लेखकों ने इस ‘गंदगी’ में अपने हाथ मैले करने के बजाय नैतिक मूल्यों के परिमार्जन,राष्ट्रीय चेतना के विकास और धर्म की रक्षा में अपने आपको व्यस्त रखा।लेकिन प्रेमचंद ने सबसे अलग रास्ता अपनाते हुए समाज का एक मुक्कम्मल चित्र बनाया।

इस चित्र में समाज के दो पक्ष बिल्कुल स्पष्ट हैं।शोषक और शोषित,जमींदार और किसान,ब्राह्मण और अछूत स्त्री-पुरुष।उनकी कहानियां इन्हीं वर्गीय विरोधों से निकलती हैं।

समाज के इन विरोधी वर्गीय शक्तियों की स्पष्ट पहचान प्रेमचंद को थी।प्रेमचंद की अपनी अवस्थिति शोषक और शोषित वर्ग के बीच मे है इसलिए इन दोनों ही वर्गों के मनोविज्ञान और सोचने समझने के तरीके और वर्गीय विचारधारा की अचूक समझ उन्हें थी।लेकिन उनकी सहानुभूति और उनका पक्ष हमेशा ही दलित और शोषित वर्ग, किसान और स्त्री की ओर ही रहा।

ऊपर हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ में वयक्त शिकायत किसी ने सुनी हो या न सुनी हो ऐसा लगता है कि प्रेमचंद ने वह शिकायत सुन भी ली थी और समझ भी ली थी। उनकी कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ में हीरा डोम की आवाज गूंजती हुई सुनाई देती है।

“ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा ? दूर से लोग डाँट बतायेंगे । साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परंतु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा ? कोई तीसरा कुआँ गाँव में है नहीं।जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता । ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ ।
गंगी ने पानी न दिया । खराब पानी से बीमारी बढ़ जायगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती हैं । बोली- यह पानी कैसे पियोगे ? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाये देती हूँ।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- पानी कहाँ से लायेगी ?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?
‘हाथ-पाँव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा । बैठ चुपके से । ब्रह्म-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे । गरीबों का दर्द कौन समझता है ! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे ?’
इन शब्दों में कड़वा सत्य था । गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया ।”
इस कहानी में बीमार जोखू कीचड़ का बदबूदार पानी पीने को मजबूर है।गंगी जो जोखू को साफ पानी पिलाने के लिए रात के अंधेरे में ठाकुर के कुएं पर चुपके से जाती है लेकिन वह वहां पानी भरने में सफल नहीं हो पाती और प्यास से तड़पता हुआ जोखू कीचड़ का पानी पीने को विवश हो जाता है।

जाति व्यवस्था का कोढ़ मनुष्य को किस कदर अमानवीय बना देता है वह इस कहानी में उभर आया है।और एक बाल्टी पानी ठाकुर के कुएं से भर लेने की गंगी की कोशिशें पीड़ा का महाकाव्य हैं।
प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में ब्राह्मणवाद पर जिस तरह से हमला किया है वह मुख्यधारा के हिंदी साहित्य में दुर्लभ है।

सदगति,सवा सेर गेंहू,मोटेराम शास्त्री जैसी कहानियों में उन्होंने ब्राह्मणवादी पाखण्ड और धूर्तता को बेनकाब किया है।ऐसा नही है कि ऐसा करने में उन्होंने कोई सचेत कल्पनाशीलता या फैंटेसी का सहारा लिया बल्कि आमफहम जीवन मे रोज घटित होने वाली घटनाओं और सामाजिक व्यवहार को उन्होंने अपने अलोचनात्मक विवेक के साथ कलमबंद किया।

वस्तुतः प्रेमचंद ने भारतीय समाज की जीवन व्यापार की ईमानदार और बेलाग चित्रण किया है,और जाति व्यवस्था भारतीय समाज की मुख्य संचालक तत्व है इसलिए उन्होंने जातियों के आपसी संबंध,वर्चस्वशाली जातियों की शोषणकारी प्रविधि,चालाकियां और किसान जातियों और दलित जातियों के खिलाफ खुली व छिपी साजिशें सब कुछ प्रेमचंद के कथासाहित्य में आता है।

प्रेमचंद के लगभग सभी उपन्यासों में दलित पात्र मौजूद हैं।गोदान,गबन,कर्मभूमि, प्रेमाश्रम और रंगभूमि सभी में दलित जीवन उपन्यास के अनिवार्य पक्ष की तरह उपस्थित है।रंगभूमि में उन्होंने सूरदास को उपन्यास का नायक बनाया जो हिंदी साहित्य की एक अभूतपूर्व घटना थी।इसमें सूरदास गांधीवादी आदर्श का प्रतिनिधि है,जो एक साथ सामंती ब्राह्मणवादी और ब्रिटिश पूंजीवादी सत्ता से अकेले लड़ता है।

रंगभूमि उपन्यास में प्रेमचंद ने यह दिखाया कि निर्णायक मौके पर हमेशा की सामंतवाद और पूंजीवाद एक दूसरे के सहयोगी के रूप में खड़े होते हैं।पूंजीवाद हर स्थिति में सामन्तवाद का नाश करके ही आगे नहीं बढ़ता, जरूरत पड़ने पर उसका साथ भी लेता है। इसीलिए उपन्यास के अंत मे सूरदास कहता है कि ‘तुम जीत गए क्योंकि तुम मिल कर खेले हम इसलिए हार गए क्योंकि हम अपने साथियों को मिला नहीं पाए।’

यह मिलकर खेलना सामाजिक शक्तियों के गठजोड़ की वही मांग है जो आज भी समाज की अग्रगति के लिए जरूरी है।

यह सही है कि प्रेमचंद का वैचारिक दॄष्टिकोण गांधीवाद से प्रेरित है।दलित समस्या का हल भी उन्हें गांधीवाद की विचारधारा में दिखता है।सूरदास,देवीदीन खटीक जैसे पात्र गांधीवाद के अछूतोद्धार कार्यक्रम से प्रभावित लगते हैं। लेकिन गांधीवाद के सिद्धांत और व्यवहार की फांक हमेशा ही ईमानदार गांधीवादी को विचलित करती है।प्रेमचंद के साथ भी ऐसा हुआ।

‘गोदान’ तक आते आते उनका नजरिया बदलता हुआ लगने लगता है।मातादीन और सिलिया प्रकरण इस बदलाव का संकेत है।यहां एक दलित स्त्री अपने प्रेम पर दावा जताने के लिए अपने ब्राह्मण प्रेमी को दलित बना कर,उसका ‘धर्म भ्रष्ट’ कर खुद को खुल कर सबके सामने स्वीकार किये जाने का रास्ता निकालती है।

“हम आज या तो मातादीन को चमार बनाके छोड़ेंगें, या उनका और अपना रकत एक कर देंगें . सिलिया कन्या जात है ,किसी–न-किसी के घर जायेगी ही .इस पर हमें कुछ नहीं कहना है; मगर उसे जो कोई भी रखे हमारा होकर रहे .तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते ,मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं. हमें ब्राह्मण बना दो ,हमारी सारी बिरादरी बनने को तैयार है .जब यह समरथ नही है ,तो फिर तुम भी चमार बनो .हमारे साथ खाओ-पियो ,हमारे साथ उठो -बैठो . हमारी इज्ज़त लेते हो, तो अपना धरम हमें दो.”

मातादीन को दलित बनाने के लिए चमार टोले के दलित मातादीन के मुंह मे हड्डी डाल कर उसका धर्म भ्रष्ट करते हैं।यह प्रकरण दलित आंदोलन की उग्रता और आक्रामकता को प्रदर्शित करता है।निश्चित तौर पर इसके पीछे डॉ. अम्बेडकर के दलित आंदोलन का प्रभाव दिखता है।
इसी तरह कफन कहानी अपने विवादास्पद कथावस्तु और दलित पात्रों के अमानवीय चित्रण के बावजूद एक महान कहानी है।वह अपने समय से बहुत आगे की कहानी है।एक तरह से देखें तो इस कहानी के मायने आज कहीं ज्यादा स्पष्ट हैं।

बेगार और श्रम की लूट के कारण घीसू और माधव जैसे पात्र समाज में पैदा होते हैं।अभाव और भूख उन्हें मानवीय गरिमा से नीचे जाने को मजबूर करते हैं।यह कहना गलत नहीं होगा आज भी लाखों दलित अपनी जीवन स्थितियों के कारण अमानवीय जीवन जीने को विवश हैं,उनके दुःख को जातीय अस्मिता के पर्दे में छिपाया नहीं जा सकता।

दलित अस्मिता के साहित्यिक विमर्श ने प्रेमचंद को ‘सामन्त का मुंशी’ और दिखावटी सहानुभूति रखने वाले और जातिवाद के पोषक के रूप में प्रस्तुत किया।यह सोच अपनी परंपरा और इतिहासबोध से आंखे चुराने के समान है।भले ही वह सहानुभूति का साहित्य हो पर कथित हिंदी नवजागरण के साहित्य के परिदृश्य में प्रेमचंद का साहित्य एक क्रांतिकारी साहित्य था।

जिस समय भारतीय समाज के करोड़ों दलितों का जीवन और उनकी पीड़ा सहित्य के हाशिये से बाहर था।जब दलितों के दुःखों का कोई रचनात्मक मोल नहीं था उस समय प्रेमचंद ने उन्हें अपनी कहानियों और उपन्यासों का न सिर्फ विषय बनाया वल्कि उन्हें नायकत्व सौंपा।

प्रेमचंद के बाद के कथा साहित्य से यह नायकत्व और समग्रतः दलित जीवन ही नदारद दिखाई देता है।दलित साहित्यकारों ने जब अपना दुःख लिखना शुरू किया तो यह एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा का वास्तविक विकास था।लेकिन आज के जटिल समय मे दलित साहित्य की संवेदना को और घनीभूत होना है। मुक्तिबोध ने अपने लेख में लिखा था- “किन्तु, कुल मिलाकर मुझे ऐसा लगता है कि प्रेमचन्द की जरूरत आज पहले से भी ज्यादा बढ़ी हुई है ।

प्रेमचन्द के पात्र आज भी हमारे समाज में जीवित हैं। किन्तु वे अब भिन्न स्थिति में रह रहे हैं । किसी के चरित्र का कदाचित् अध:पतन हो गया है । किसी का शायद पुनर्जन्म हो गया है । बहुतेरे पात्र अपने सृजनकर्त्ता लेखक की खोज में भटक रहे है । उन्हें अवश्य ऐसा कोई-न-कोई लेखक शीघ्र ही प्राप्त होगा ।”

नए समय की त्रासदियों के बीच क्या प्रेमचंद के पात्रों को क्या नए लेखक प्राप्त होंगे?

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