समकालीन जनमत
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विनोद विट्ठल की कविताएँ: स्मृति के कोलाज में समय का चेहरा

लीना मल्होत्रा


प्रथम दृष्टया विनोद विट्ठल की कविताएँ सूचनाओं से भरपूर दिखती हैं, किन्तु गहरे उतरने पर उन सूचनाओं से लिपटी स्मृतियाँ, स्मृतियों में छिपे घाव और चोटें, छीजते मूल्य और अवमूलयन करती शक्तियों के वीभत्स चेहरे  दिखने लगते हैं।

कई ऐसी चीज़े भी दिखने लगती हैं जो असल ज़िंदगी में दिखना बंद हो चुकी हैं मसलन ‘लेटर बॉक्स’ ।

‘लेटर बॉक्स’ सिर्फ एक लाल रंग का बक्सा नहीं था बल्कि उसकी एक दुनिया थी जिसमे प्रतीक्षा थी , डाकिया था , डाकिये के साथ पारिवारिक अंतरंगता थी । लेटर बॉक्स के जरिये मिली चिट्ठियों की एक यात्रा थी जिनका गंतवय किसी कपड़े मे लिपट कर किसी सन्दूकची मे बंद हो जाना था जो मौसम के साथ खोली जाती पुनः पुनः पढ़ी जाती ।

उन चिट्ठियों में  लिखे गए शब्दों के चुनाव का एक अतीत और मानसिकता, प्रेम सद्भाव और शिकायतें थी जो अपनी धीमी चाल से हमारे जीवन मे प्रवेश करती और उन चिट्ठियों के साथ उन बक्सों में कैद हो जातीं ।

इस कविता को पढ़ते हुए मेरी उम्र की पीढ़ी शोकग्रस्त हो सकती है । लेकिन एसएमएस वाली पीढ़ी इस दर्द को नहीं समझ पाएगी क्योंकि उन्होंने इसका स्वाद नहीं लिया :

एक दुनिया को दूसरी दुनिया के साथ खोलते थे तुम
लेकिन कभी नहीं पढ़ पाए ये दुनिया
जो लिखना नहीं चाहती
जो बिना धैर्य के सेंड कर रही है सब-कुछ
जिसे पोस्टकार्ड की साफ़गोई से डर लगता है
जिसके पास कुछ भी अपना नहीं है लिफ़ाफ़े में डालने लायक
किसी भाषा की तरह गुम हो रहे तुम; केवल एक बार दिख जाओ सड़क पर
कि दिखा सकूँ दौर को भरोसे की शक्ल और रास्ता
जिससे आएगी बेहतर दुनिया की चिट्ठी !

ये चीज़े चिर काल से हमारी और हमारे पुरखों की ज़िंदगी का हिस्सा रही।  उनसे जुड़ी अनेक चीज़े, घटनाएँ ,किस्से और स्मृतियाँ हमारी पूँजी हैं अचानक वह बिना आवाज़ किये अनावश्यक, अप्रचलित, अव्यवहत , उपेक्षित और विलुप्त हो गईं हैं। एक पीढ़ी ऐसी भी रही जिसने अपनी आत्मा पर इस बदलाव को महसूस किया।

संक्रमण उसके लिए महज़ एक शब्द नहीं है बल्कि उस शब्द में बसी पीड़ा, पुराने को खोने का संत्रास और नए को पाने का सुख और उत्साह और उसके  साथ समायोजित होने की आशा एक साथ अनुभव की।

किन्तु संक्रमण काल के दौरान पैदा हुई पीढ़ी के लिए यह चीज़े न तो उनकी ज़िंदगी का हिस्सा हैं न ही वह उनकी आवश्यकता ही समझ पाते हैं।

48  बरस का आदमी ऐसी ही एक कविता है यह दो विपरीतों के मध्य पुल का तनाव है और व्यग्र होती आकाँक्षाओं के विरुद्ध तालाब में लटके पैरों की ठंडक और लहरों की पुलक है:

उसे अपनी ही पुरानी तस्वीरें देखते हुए डर लगता है
मोटापा घिस देता है नाक-नक़्श
ज़िंदगी के थपेड़े उड़ा ले जाते हैं आत्मविश्वास
कभी जिस हौंसले से होती थी पहचान
वह खो चुका है तीसरी में साथ पढ़ी दिव्या जैन की ब्लैक एंड वाइट फ़ोटो की तरह
लगता है बाज़ारों की रौनक़ों और मन की बेरौनकों के बीच कोई सह-सम्बंध है
मोबाइल के ऐड में नितम्बों को सहलाती एक अभिनेत्री
और बोतलबंद पानी की बिक्री के लिए झूलते वक्षों को दिखाती एक पोर्नस्टार को देखने
के बाद भी
अब कुछ नहीं होता
डॉक्टर इसे मधुमेह से जोड़ते हैं
और कथाकार रघुनन्दन त्रिवेदी की कहानियाँ इसे बाज़ार से जोड़ती हैं

बाज़ार की एक विशेषता यह भी होती है की वह एक से प्रोडक्ट पैदा करता है।  यह अतिश्योक्ति नहीं होगी की इधर की कविता भी एक प्रोडक्ट में रिड्यूस हुई है।  कविता पर बाज़ारवाद का यह प्रभाव इस समय की कविताओं की एक सी भाषा , एक से विचार, शब्द, बिम्बो में दिखाई देता है  ऐसे मे विनोद विट्ठल की कविताएँ अपने एक खास चेहरे के साथ नुमायां होती हैं और अपने नए भाव और बिम्बों से अपनी खास जगह बना लेती हैं:

फलोदी के भैय्ये भाभे के गाल के लड्डू
मंडोर का चूरमा
मोहन जी के रबड़ी के लड्डू
वैष्णव का कलाकंद
दल्लूजी के पुए
अमेज़ोन पर नहीं हैं
मैं ख़ुश हूँ
कोई तो है जिसने किया है इंकार
बनने से बाज़ार

यह कविताएँ  इन मायनो में विलक्षण हैं की वह आत्मीयता के बरक्स क्रूर बाजार की आक्रामकता पर उंगली रखती हैं :

कोई तो स्कूल हो जहाँ रफ़ कॉपी के भी नम्बर मिलें
कमतर या कम सजावटी होना क्या कोई मूल्य नहीं

अंतर्मन की सहजता जो घिसी हुई टी शर्ट की तरह आरामदायक है उसमें  राजनैतिक चेतना की प्रखर अभिव्यक्ति एक विशेष प्रभाव छोडती है :

आप कुछ भी कह लो चीन ने सारी स्ट्रेटेजी टी-शर्ट से ही सीखी है-
सस्ता! सबका! सुविधाजनक! डिज़ाइनर!
चाहो तो लिखवा लो पाश की कविता या फिर करणी सेना के नारे

कविता मे रोमिला थापर चली आती हैं कुलधरा के पीले पत्थर और एक्स्ट्रा नंदिनी सिंह लाइक कविता मे यह तीनों बिम्ब अलग डिग्री की ईंटेंसिटी पैदा करते हैं जैसे कि फेसबुक पर पाया हुआ लाइक भी पाठक के लाइक के घनत्व को दर्शाता है :

फ़ेड और धूसर जो चुके उजाड़ कुलधरा के पीले पत्थरों को
पढ़ती है रोमिला थापर जैसे
डबल बस की ऊपरी मंज़िल से मिड-डे में छपी तस्वीर को देख
ख़ुश होती है एक्स्ट्रा कलाकार नंदिता सिंह जैसे
मैं तुम्हें देखता हूँ – लाइक !

उनकी कविताओं मे बिंबो की बहुतायत है किन्तु यह बिम्ब कविता पढ़ने को भटकाते नहीं है बल्कि कविताओं की गहराई मे उतरा देते हैं । बाबूजी के वीरान गाल का चुंबन और राजनैतिक बिम्ब एक साथ एक ऐसी भूमि की रचना करते हैं जहाँ राजनीति, परिवार, संघर्ष और उपलब्धियों को जीवन से विलगा नहीं सकते :

ग्रेट नेशन टु लिव – लाइक करो
गांधी गड़बड़ था – लाइक करो
अमरीका सही है – लाइक करो
मंदिर वहीं बनाएँगे – लाइक करो

देश देते हैं
आधा अम्बानी को – लाइक करो
आधा अड़ानी को – लाइक करो
आधा सुदर्शन को – लाइक करो
आधा शाह को – लाइक करो

यह कविताएँ दो ध्रुवों के मध्य घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलती है जो जीवन में कितनी ही तेज़ी से भाग ले किन्तु घड़ी  में और कविता में उसकी चाल नहीं बदलती।

 

विनोद विट्ठल की कविताएँ

[1]
अड़तालीस साल का आदमी

अड़तालीस की उम्र अस्सी प्रतिशत है ज़िंदगी का
आख़ीर के आधे घंटे की होती है फ़िल्म जैसे
चाँद के साथ रात के आसमान में टंक जाती है कुछ चिन्ताएँ
गीतों की जगह याद की डायरी में दर्ज हो जाती है कुछ गोलियाँ
रविवार नियत हो जाता है लिपिड प्रोफ़ायल जैसे कुछ परीक्षणों के लिए
हर शाम डराते हैं इन्वेस्टमेंट
उड़ते बालों की तरह कम होती रहती है एफ़डी की ब्याज दर

मेडिक्लेम के विज्ञापनों और बड़े अस्पतालों में सर्जरी के ख़र्चों की सूचनाओं को इकट्ठे करते बुदबुदाता है :
कल से तमाम देवताओं के चमत्कारिक व्हाट्सएप संदेशों को सौ लोगों को शेयर किया करूँगा
ज़रूरत पड़ी तो कर लूँगा नेहरु और सोनिया के ख़िलाफ़ ट्रोलिंग
पार्टटाइम में हैंडल कर सकता हूँ किसी पार्टी का ट्वीटर अकाउंट

ईर्ष्या हो जाती है उस दोस्त से
जिसका प्लॉट बारह गुना हो गया है पिछले बीस बरसों में
उस लड़की से भी जिसने प्रेम के एवज़ में एनआरआई चुना
और अब इंस्टाग्राम पर अपनी इतनी सुंदर तस्वीरें डालती है
गोया पैसे के फ़्रिज़ में रखी जा सकती है देह तरोताज़ा, बरसों-बरस

उसे अपनी ही पुरानी तस्वीरें देखते हुए डर लगता है
मोटापा घिस देता है नाक-नक़्श
ज़िंदगी के थपेड़े उड़ा ले जाते हैं आत्मविश्वास
कभी जिस हौंसले से होती थी पहचान
वह खो चुका है तीसरी में साथ पढ़ी दिव्या जैन की ब्लैक एंड वाइट फ़ोटो की तरह

लगता है बाज़ारों की रौनक़ों और मन की बेरौनकों के बीच कोई सह-सम्बंध है
मोबाइल के ऐड में नितम्बों को सहलाती एक अभिनेत्री
और बोतलबंद पानी की बिक्री के लिए झूलते वक्षों को दिखाती एक पोर्नस्टार को देखने के बाद भी
अब कुछ नहीं होता
डॉक्टर इसे मधुमेह से जोड़ते हैं
और कथाकार रघुनन्दन त्रिवेदी की कहानियाँ इसे बाज़ार से जोड़ती हैं
सच तो ये है बाज़ार से डरने और हारने की उम्र है ये
जिसमें बेअसर है सारी दवाइयाँ
बाल बचाने और काले रखने के तमाम नुस्ख़े
घुटनों के बढ़ते दर्द और दाँतों की संख्या के कम होने के बीच
झिंझोड़ता रहता है वट्सऐप का ज्ञान
समझना मुश्किल होता है सही और ग़लत को
नहीं कहा जा सकता : कौन किसे बेच रहा है
इलाज करने वाले बीमार हैं और बीमार इलाज कर रहे हैं

“कितनी बेवक़ूफ़ी और बेध्यानी से जिए तुम
जयपुर तो अच्छी पोस्टिंग मानी जाती है
हज़ार करोड़ के भुगतान में भी तुम खाली रहे
सॉरी, तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता”, सस्पेंशन में चल रहा एक इंजीनियर दोस्त कहता है

बच्चों को डाँटता लेकिन ख़ुद के मानकों को नीचा करता अड़तालीस का ये आदमी
अपनी जाति को कहीं पीछे फैंक चुका है
धर्म से ख़ुद को अलगा चुका है
अपनी नैतिकता और सचाई की सत्ता के भ्रम में जीता एक दयनीय, डरा हुआ और डरावना है अंकल बन कर रह गया ये आदमी
कुछ उपन्यासों के नायकों और कहानियों की नायकीय जीत में भरोसा करता हुआ

अड़तालीस के हुए किसी आदमी को ग़ौर से देखना
वह ज़िंदगी की स्लेट से अपने निष्कर्ष तेज़ी से मिटाता हुआ पाया जाएगा
इतना निरीह होगा कि डरेगा दफ़्तर जाने से
रोएगा अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोचकर
ज़िंदगी के एटीएम पर अपने पासवर्ड खो चुके दिमाग़ के साथ खड़ा होगा वह
उसका अपना ही मोबाइल फ़ोन इंकार कर देगा उसके अंगूठे के निशान को पहचानने से

लेकिन आज भी; टाइम्स ऑफ़ इंडिया के कबाड़ में पड़े किसी पेज़र की तरह
वह अपना नेटवर्क मिलते ही बीप करने के लिए तैयार है
मैथोडिस्ट चर्च के स्टोर में पड़े पियानो की तरह सोचता है
थोड़ा रिपेयर मिल जाए तो अब भी गूंजा सकते हैं सिमफ़नी

वह पूरी ताक़त से कहना चाहता है –
हम सबसे नयी, युवा और बेहतर पीढ़ी थे
बेहतर दुनिया का नक़्शा था हमारे पास
आधार कार्ड से पहले हम आए थे धरती पर
ज़ुकरबर्ग से पहले बजी थी हमारे लिए थाली
हम अड़तालीस साल बाद भले ही obsolete हो रहे हैं
पर सुनो हमें, ज़िंदगी की रिले रेस की झंडी हमसे ले लो
ये धरती फ़ेसबुक का फ़र्ज़ी अकाउंट नहीं है
जितनी मेरी है उससे ज़्यादा तुम्हारी है !

[2]
टी – शर्ट : वारेन बफ़ेट और गीत चतुर्वेदी के लिए

चाँद की तरह होता है टी-शर्ट , सबका
बिना चैन-बटन की होती है बसंत की हँसी भी

बसंत हमेशा टी-शर्ट पहन कर आता है
देखलो तुम्हारी पुरानी तस्वीरें

माँ की दाल और दीदी की चाय की तरह
ये कभी कम नहीं पड़ती
बढ़ जाती है ज़रूरत के मुताबिक़
काश ! बैंक बैलेन्स ने इससे सीखा होता
ज़रूरत मुताबिक़ बढ़ जाने का हुनर

सीपी और सरोजनी के यूएस पोलो में
कौन असली है कोई नहीं जानता,
एक से दिखते हैं अन्ना और उनके साथ तस्वीर खिंचवाने वाले लोग

फ़ूड हिस्टॉरीयन की तरह गार्मेंट के हिस्टॉरीयन भी कहाँ हैं
नहीं तो पता होता हमें : कहाँ बनी, कैसे आई, कौन लाया
इतना ज़रूर है; किसी ने भी इसे पहन युद्ध नहीं किया है
किसी सेना का गणवेश नहीं रहा ये
न रामायण में, न महाभारत में, न ही विश्वयुद्धों में

लड़ते समय शायद आदमी के कपड़े उतर जाते हैं

इसका ज़िक्र न बाबरनामा में है न आइन-ए-अकबरी में
व्हेनसांग भी चुप है
क्या तब भी चीन आज जैसा ही था ?

आप कुछ भी कह लो चीन ने सारी स्ट्रेटेजी टी-शर्ट से ही सीखी है-
सस्ता! सबका! सुविधाजनक! डिज़ाइनर!
चाहो तो लिखवा लो पाश की कविता या फिर करणी सेना के नारे

मर्दाना कमज़ोरी का इलाज करते डॉ ज़ुनैद ख़ानदानी
या हिमालयी शफ़ाख़ाना का तंबू चलाने वाले क़दीमी वैद्य कीरतराम की तरह
ये सेक्युलर है और जातिविहीन भी

क्या हमारी राजनीति को टी-शर्ट नहीं हो जाना चाहिए ?

फ़िंगर प्रिंट से खुलनेवाली चीज़ों के इस दौर में
बिना पासवर्ड वाले टाइपराइटर की तरह है टी-शर्ट
जबकि पति शेयर नहीं कर रहे हैं पासवर्ड पत्नियों के साथ भी
शेयरिंग कितना विरल मूल्य हो गई है
बावजूद इसके कि इंस्टाग्राम के मंच पर शेयर की जा रही है
हनीमून की हॉट तस्वीरें

टी से ही चीज़ें बँटती हैं,
टी-शर्ट पहन कर सैनेट्री का काम करनेवाला मेरा दोस्त टीकम बताता है
लेकिन ये बात
नेसडेक के स्क्रीन से दुनिया चलाते वारेन बफ़ेट कहाँ समझते हैं

वारेन बफ़ेट कभी टी-शर्ट पहना करो !

मैं डर जाता हूँ उन लोगों से जो टी-शर्ट नहीं पहनते
और प्यार करता हूँ गीत चतुर्वेदी से
जिनकी हर तस्वीर में बिना बटन-चैन की टी-शर्ट हुमगती रहती है

टी-शर्ट पर कितनी ख़ुश होती वर्जीनिया वुल्फ़
कि बंटी और बबली दोनों एक-दूसरे का पहन सकते हैं; शबनम मौसी भी
और इधर दैनिक भास्कर का शीर्षक है :
लिंग से आज़ाद होता बहुलिंगी टी-शर्ट !

[3]
लैटरबॉक्स

अल्लाउद्दीन ख़िलजी के बनाए हौज़ ख़ास की दीवारों पर खुरच कर लिखे गए एक कूट नाम की तरह अदेखे
पिता के बरसों से अचुम्बित गालों की तरह वीरान
पुराने और प्रिय इंक पेन के टूटे निब की तरह अकेले
ओछी हो गयी बेलबॉटम की तरह अप्रचलित
तस्वीर में बदल गयी बम्बईवाली मौसी की तरह अनुपस्थित
तुम कहाँ हो लैटरबॉक्स ?

any letter box nearby लिखने के बाद भी
तुम्हें ढूँढ नहीं पा रहे हैं इक्कीसवीं सदी के तमाम सर्च इंजन
जो तस्वीर और क्लिप के साथ मोबाइल नम्बर तक तुरंत दे देते हैं
निकटत्तम उपलब्ध कॉल गर्ल तक का

किसी भी स्टेशन से निकलते ही सबसे पहले तुम दिखते थे; हाथ हिलाते हुए
ICICI के एटीएम और COKE के डिस्पेंसर ने तुम्हें बेदख़ल कर दिया है
केएफ़सी और मैक-डी का अतिक्रमण कोई नहीं हटा सकता

सड़कों की चौड़ाई बढ़ाने के चलते काटे गए बरगदों की तरह तुम भी ग़ायब हुए हो
और तुम्हारे लिए कोई नेशनल ग्रीन ट्रायब्यूनल चिंता नहीं कर रहा है

कैमलिन पेन और एम्बेसेडर कार की तरह कोई शिकायत नहीं थी तुम्हारे इस्तेमाल से
अकेले, डरे हुए, सब-कुछ उलींच देना चाहने वाले हर गुमनाम का भरोसा तुम पर था
एक दुनिया को दूसरी दुनिया के साथ खोलते थे तुम
लेकिन कभी नहीं पढ़ पाए ये दुनिया
जो लिखना नहीं चाहती
जो बिना धैर्य के सेंड कर रही है सब-कुछ
जिसे पोस्टकार्ड की साफ़गोई से डर लगता है
जिसके पास कुछ भी अपना नहीं है लिफ़ाफ़े में डालने लायक

किसी भाषा की तरह गुम हो रहे तुम; केवल एक बार दिख जाओ सड़क पर
कि दिखा सकूँ दौर को भरोसे की शक्ल और रास्ता
जिससे आएगी बेहतर दुनिया की चिट्ठी !

हर समय, सबके लिए उपलब्ध रहने की तुम्हारी ज़िद ने
तुम्हें लाल रंग दिया
और इसीलिए मुझे तुमसे और लाल रंग से प्यार हुआ !

कितनी उड़ानें बचाई कबूतरों की
हज़ारों मील बचाए हरकारों के
किसी से नहीं पूछी जाति-धर्म-नागरिकता
फिर भी तुम्हारी डीपी कोई क्यों नहीं बना रहा है ?
किसी भी देश के झंडे में तुम क्यों नहीं हो ?

शेरों से ज़्यादा ज़रूरी है तुम्हें बचाया जाना,
बुदबुदाते हुए एक कवि सुबक रहा है
जिसे कोई नहीं सुन रहा है !

दर्ज़ करो इसे
कि अलीबाबा को बचा लेंगे जैकमा और माइक्रोसॉफ़्ट को बिल गेट्स
राम को अमित शाह और बाबर को असदुद्दीन ओवैसी
क़िलों को राजपूत और खेतों को जाट
टिम कुक बचा लेंगे एप्पल को जैसे ज़ुकरबर्ग फ़ेसबुक को
तुम ख़ुद उगो जंगली घास की तरह इटेलियन टाईलें तोड़ कर
और लहराओ; जेठ की लू में लहराती है लाल ओढ़नी जैसे !

[4]
लाइक

पवैलियन में बैठा दूर का चश्मा घर भूल आया कोच
देखता है रनआउट को जैसे

फ़ेड और धूसर हो चुके उजाड़ कुलधरा के पीले पत्थरों को
पढ़ती है रोमिला थापर जैसे

डबल बस की ऊपरी मंज़िल से मिड-डे में छपी तस्वीर को देख
ख़ुश होती है एक्स्ट्रा कलाकार नंदिता सिंह जैसे

मैं तुम्हें देखता हूँ – लाइक !

तुम अस्पष्ट होते हो अनुत्तरित प्रेमपत्र की तरह
गूढ़ होते हो जैसे अधपकी मुस्कान
विरल होते हो एक रुपए के नोट या पुरानी चवन्नी की तरह

उपस्थिति से भी पूरा समझना मुश्किल होता है
जैसे तीसरे के उठावणे में सफ़ेद कपड़ों में आई भीड़ की शोकग्रस्तता को

कभी लगता है तुम वैसे ही हो
कि खाना बहुत अच्छा बना है कहने के बाद भी
डिनर पर आया जोड़ा कुल जमा तीन के बाद
न चौथी रोटी लेता है न ही सब्ज़ी दाल

बहुत गर्मजोशी वाला आमंत्रण भी तुम नहीं होते हो
जैसे हाथ मिलने या ताली ठोककर बात करने वाली कोई लड़की

कितना भीषण है यह कि एक पार्टी कह रही है:
ग्रेट नेशन टु लिव – लाइक करो
गांधी गड़बड़ था – लाइक करो
अमरीका सही है – लाइक करो
मंदिर वहीं बनाएँगे – लाइक करो
देश देते हैं आधा अम्बानी को – लाइक करो
आधा अडानी को – लाइक करो
आधा सुदर्शन को – लाइक करो
आधा शाह को – लाइक करो

दिखते हुए भी
कभी तुम होते हो
कभी नहीं होते हो
कभी औपचारिकता में उगे
कभी बेरुख़ी से टंगे
कभी दिखावेभर के लिए
कभी बहस से बचते हुए
कभी व्यावहारिक टिप्पणी
कभी चलताऊ थपकी
तो कभी सचमुच की पसंद; पहली नज़र जैसे

इस लायक तो हो ही तुम – लाइक
कि लिखी जा सके तुम पर कविता
और कमाए जा सकें कुछ लाइक !

[5]
स्टिकी नोट
(पीले रंग के स्टिकी नोट जो सत्ता के गलियारों और कॉररपोरेट में इस्तेमाल किए जाते हैं)

पहली बार देखने पर लगे थे तुम गेंदे के फूल की तरह
सजीव, मासूम, सहज, साधारण लेकिन ज़रूरी

इतने ज़रूरी कि बिना कहे रूँध जाए गला
और कहने के बाद इतने हल्के जैसे लैंडलाइन फ़ोन पर मिस हुई कोई कॉल

कभी कहती है ये; कभी कहते हुए भी चुप रहती है
दर्ज़ होना चाहती है किसी कंडोम में तैरते पाँच अरब शुक्राणुओं की तरह

जितनी इसकी रिश्तेदारी सच के साथ है, उतनी ही असच के साथ भी
मुखौटे से अलग नहीं है यह, जिसे लगाया ही हटाने के लिए जाता है

कुछ इसका प्रयोग करना चाहते हैं बिना बदनाम हुए
पता नहीं क्यों; साहस की कमी या सुविधा के लिए
जैसे उदार आत्मीय और अधेड़ प्रेमिका का उपयोग कर लेते हैं प्रेमी बनते कुछ लम्पट

कोई इसका इस्तेमाल
अपराधी की तरह बरसों बाद कर लेते हैं
पाँचवे पैग के बाद कुछ पुरुष सुनाने लग जाते हैं जैसे
मिसेज़ एक्स या वाई या ज़ेड के ऐक्टिव होने के क़िस्से
पुरानी फ़िल्मों में प्रेम-पत्रों का किया जाता था इस्तेमाल जैसे
आज के ज़माने में स्क्रीन शॉट कह लो

कई बार
पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है
एक सड़क सत्तावन गलियाँ
कितनी नावों में कितनी बार
जैसी पंक्तियाँ इसके आस-पास भिनभिनाती हैं

बेहद हल्के और स्थाई रूप से न चिपकने के लिए बने ये पोस्टर
कभी प्रश्न की तरह लगते हैं
कभी चेतावनी में बदलते हैं
कभी कहते हैं
कभी नहीं कहते हैं
वट्सऐप पर आए किसी रोमांटिक शेर की तरह इसे अनदेखा किया जा सकता है
और लिया जा सकता है सीरीयस भी

कई बार धर्म इसकी तरह लगता है
कईयों के लिए क़ानून भी इसी की तरह होते हैं
कई अवसरों की पीठ ढूंढ़ते रहते हैं इसके लिए
कई लगे रहते हैं इसे चिपकाने और हटाने के खेल में

क्यूँ भूल जाते हैं हम
हम भी एक स्टिकी नोट ही हैं
किसी दिन हटा दिए जाएँगे, गुम हो जाएँगे
पाए जाएँगे कूड़े के ढेर में
और किसी दिसम्बर की रात जला भी दिए जाएँगे
जैसे थे ही नहीं इस सृष्टि पर !

[6]
तरीक़े
(1970 में जन्मी एक लड़की के लिए)

मैंने भाषा के सबसे सुंदर शब्द तुम्हारे लिए बचा कर रखे
मनचीते सपनों से बचने को रतजगे किए
बसंत के लिए मौसम में हेर-फ़ेर की
चाँद को देखना मुल्तवी किया
सुबह की सैर बंद की

अपने अस्तित्त्व को समेट
प्रतीक्षा के पानी से धरती को धो
तलुओं तक के निशान से बचाया

न सूँघ कर ख़ुश्बू को
न देख कर दृश्यों को बचाया
जैसे न बोल कर सन्नाटे को
एकांत को किसी से न मिल कर

समय तक को अनसुना किया
सब-कुछ बचाने के लिए

याद और प्रतीक्षा के यही तरीक़े आते हैं मुझे !

[7]
जवाब
हाथों की तरह एक थे
आँखों की तरह देखते थे एक दृश्य
बजते थे बर्तनों की तरह

रिबन और बालों की तरह गुंथे रहते थे
साथ खेलना चाहते थे दो कंचों की तरह

टंके रहना चाहते थे जैसे बटन

टूटे तारे की तरह मरना चाहते थे
गुमशुदा की तरह अमर रहना चाहते थे

किसी और नक्षत्र के वासी थे दरअसल
पृथ्वी से दीखते हुए.

[8]
प्रौढ़ावस्था में प्रेम
(1)
उतर चुका होता है देह का नमक
तानपुरे की तरह बैकग्राउंड में बजता है बसंत
गुज़िश्ता तज़ुर्बों के पार झिलमिलाता है दूज का चाँद
टूटे हुए पाँव के लिग़ामेंट्स के बाद भी चढ़ी जाती है संकोच की घाटी

नगाड़े या ढोल नहीं बजते
बस सन्तूर की तरह हिलते हैं कुछ तार मद्धम-मद्धम
इतने मद्धम कि नहीं सुन पाता दाम्पत्य का दरोग़ा
इतना कुहासेदार की बच्चे तक न देख पाएँ

एक बीज को पूरा पेड़ बनाना है बिना दुनिया के देखे

दरअसल ये उलटे बरगद की तरह पनपते हैं धरती के भीतर

धरती की रसोई में रखी कोयला, तेल और तमाम धातुएँ
इन्हीं के प्रेम के जीवाश्म हैं
जिन्हें भूगर्भशास्त्री नहीं समझ पाते !

(2)
बिना बीज का नींबू
बिना मंत्र की प्रार्थना
बिना पानी की नदी

मल्लाह के इंतज़ार में खड़ी एक नाव है ।

(3)
छीजत है चाँद की
बारिश है बेमौसम

पीले गुलाब की हरी ख़ुशबू है

सफ़ेदी में पुती ।

[9]
पृथ्वी पर दिखी पाती
(बिटिया पाती के जन्म पर लिखी कविता)

फूलों ने माँगी होगी एक नयी प्रजाति
दूब रूठी होगी तलुओं के नये जोड़े के लिए
पानी ने नयी प्यास के लिए अनशन किया होगा
मुझे नयी बांसुरी दो, हवा ने कहा होगा
तभी; एक नए वाद्य-यन्त्र की तरह
पृथ्वी पर दिखी पाती

धरती के सितार पर तार की तरह
पक्षियों के कोरस में एक स्वर ज्यादा था
एक नया रंग नामकरण की प्रतीक्षा में था
बढ़ा हुआ आकार था चाँद का
गिनती से ज्यादा थे तारे
कहीं कुछ था हर जगह, नए वर्ण-सा
जिससे भाषा भरी जानी थी
तभी; एक नए प्रेम की तरह
पृथ्वी पर दिखी पाती

पौधों के पास अपना उल्लास था
पेड़ों और तितलियों की तरह
आकाश सेई धरती जो फूटी थी एक अंडे की तरह
तभी; एक नई नदी की तरह
पृथ्वी पर दिखी पाती.

[10]
फ़रवरी
सुंदर सपने जितना छोटा होता है
कम रुकता है कैलेंडर इसकी मुँडेर पर
जैसे सामराऊ स्टेशन पर दिल्ली-जैसलमेर इंटर्सिटी

फ़रवरी से शुरू जो जाती थी रंगबाज़ी; होली चाहे कितनी ही दूर हो
सीबीएसई ने सबसे पहले स्कूल से रंगों को बेदख़ल किया है

इसी महीने से शुरू होता था शीतला सप्तमी का इंतज़ार
काग़ा में भरने वाले मेले और आनेवाले मेहमानों का
अमेज़ोन के मेलों में वो बात कहाँ ?

लेकिन कॉलेज के दिनों में बहुत उदास करती थी फ़रवरी
दिनचर्या के स्क्रीन से ग़ायब हो जाती थी सीमा सुराणा की आँखें
पूरा कैम्पस पीले पत्तों से भर जाता था
घाटू के उदास पत्थरों से बनी लाइब्रेरी
बहुत ठंडी, बहुत उदास और बहुत डरावनी लगती
जैसे निकट की खिलन्दड़ी मौसी अचानक हो जाती है विधवा

नौकरी के दिनों में ये महीना
मार्च का पाँवदान होता है : बजट, पैसा और ख़र्च-बचा पैसा

इच्छा तो ये होती है
हेडफ़ोन पर कविता शर्मा की आवाज़ में
बाबुशा कोहली की प्रेम कविताएँ सुनते हुए
टापरी के फ़ॉरेस्ट गेस्ट हाउसवाली रोड पर निकल जाएँ
पर वो रोड भी तो फ़रवरी की तरह छोटी है

कई बार ये मुझे सुख का हमशक्ल लगता है
देखो, पहचानो, ग़ायब !

[11]
निवेदन
जिस सुबह नहीं आयेंगे अखबार
उस सुबह भी आयेगी ओस
जिस रात पौने नौ के नहीं आएंगे समाचार
उस रात भी आयेगा चाँद
कैलेंडरों के बिना भी मौसम आयेंगे
पक्षी पासपोर्ट के बिना
लतरें दिखेंगी पहाड़ों की सलवटों में
घास की तरह उगाये बिना
बिना अनुमति गायेंगी चिड़ियाएं
रेंगेंगी चींटियाँ
घोंसले बनायेंगे क़बूतर
रम्भायेंगी गायें और भौंकेंगे कुत्ते
आप बिना दरवाजे की चौखट हो जाएं
या फिर छत पर रखी चारपाई
2019 के महाप्रभुओं !
दुनिया सरहद और शक्ति के अलावा भी है.

[12]
माँ और गुम होता काजल
भले ही शुरू करते हैं स्मृति की वर्णमाला उससे
बाद के दिनों में किसी पर्फ़्यूम की तरह वह धीरे-धीरे उड़ती है
लेकिन दर्द के क्षणों में वह अचानक आ जाती है
जैसे लंच में अचार की गंध से खाने की इच्छा

कहीं भी हो उसकी आँखें हमें देख रही होती है
उसकी प्रार्थना और प्रतीक्षा में वैसे ही शामिल रहते हैं हम
जैसे उसके सपनों और डरों में

माँ बड़ियाँ बनाती है
बाजरे की खीर
और कुछ ऐसी सब्ज़ियाँ जिन्हें खाते हुए हम पूछते हैं उनके नाम

कुछ रिश्तेदारों के बारे में भी केवल वही जानती है
वैसे ही जैसे कुछ फूलों, फलों और फ़सलों के बारे में
बीमारियों, कीटों, जानवरों और उपचारों के बारे में

उसे सपनों के कूट अर्थ पता हैं
शगुन वह जानती है

बक़ौल उसी के –
कि जिस रात सपने में दिखेगी सूखी नाडी
अगली सुबह वह नहीं होगी
और हमारे स्वाद और ज्ञान का एक बड़ा हिस्सा
उस काजल की तरह गुम होगा
जो वह मेरी बिटिया के रोज़ सुबह आँजती है

[13]
माँ के बिना पिता की एक शाम

किसी एक रंग की कमी
या बिना झूलों के मेले की-सी स्थिति है यहाँ माँ
इस समय, जबकि दूज के इस एक ही चाँद को देखते
तुम हज़ारों मील दूर हो
गोया तुम माँ नहीं, चाँद हो घर की परात में हिलती, दिखती, हुड़काती

पिता अगर कविता लिखते तो ऐसी ही कुछ:
तुम्हारे बिना आधी है
रोटी की हंसी
नमक की मुस्कान
दरवाजों की प्रतीक्षा
सब-कुछ आधा है
मसलन चाँद, रात, सपने
सिरहाने का तकिया
पीठ की खाज
दाढ़ का दर्द
आज की कमाई

मुझे नहीं पता
तुम्हारे होने से
ज़िन्दगी की रस्सी पर नट की तरह नाचते पिता
तुम्हारा नहीं होना किसे कहते हैं
रात से, परींडे से, या तुम्हारी तम्बाकू की ख़ाली डिब्बी से
तुम्हारा वह नाम लेते हुए
जो मैंने कभी नहीं सुना
तुम्हें उस रूप में याद करते हुए
जब तुम पल्लू से वहीदा रहमान और हंसी से मधुबाला लगती थीं
और पिता, दादी से छिपा कर चमेली का गज़रा
आधी रात तुम्हारे बालों में रोपते थे
और थोड़े समय के लिए चाँद गुम हो जाता था

माँ; चौतरी जिस पर तुम बैठती हो
उदास है
घर के बुलावे पर भगवान् भी चले आते हैं
चली आओ तुम
नहीं तो पिता की डायरी में एक मौसम कम हो जाएगा

[14]
बसंत : 2019
जब से बादशाह ने शुरू की है
मन की बात कहनी
बसंत
सरोजनी नगर के फुटपाथिया बाज़ार में आते
एमसीडी स्कवाड की तरह लगता है !

[15]
रफ़ कॉपी पर दर्जन भर रफ़ कविताएँ

(1)
हर कॉपी रफ़ कॉपी नहीं होती शुरू में
बन जाती है बाद में
जैसे कुछ बच्चे बन जाते हैं चोर या भिखारी

(2)
हर कॉपी फ़ेयर बने रहना चाहती है
सम्भाली जाना चाहती है किसी प्रेम-पत्र की तरह
वो क्या होता है नागरिक की तरह जो उसे बेबस कर देता है

(3)
शुरुआत ठीक होती है हर कॉपी की रिश्तों की तरह ही
पर गर्मियों में अचानक गंध छोड़ती आलू की सब्ज़ी की तरह कुछ बिगड़ जाता है

और रफ़ हो जाती है कोई कॉपी जैसे गंधा जाते हैं रिश्ते

(4)
नयी कोपियों को नए रिश्तों की तरह ही
नहीं पता होता है हमारी फ़ितरत के बारे में
और इस तरह वे भी रफ़ कोपियों में बदल जाती हैं

(5)
कटी पतंग और अमर प्रेम के गीत
सुषमा पालीवाल के लैंडलाइन नम्बर
मधु गहलोत और कविता शर्मा के जन्मदिन
सितार बजाती खुले बालोंवाली प्रेरणा शर्मा का एक स्केच
इतनी ज़रूरी चीज़ें हम ग़ैर ज़रूरी समझ रफ़ कॉपी में लिखते हैं
और फिर पूरी ज़िंदगी उदास रहते हैं

(6)
पाँच साल में एक बार डालते हैं वोट
फ़ेयर कॉपी की तरह
सरकारें उसे रफ़ कॉपी बना देती हैं

(7)
जब रफ़ कोपियाँ नहीं होंगी हम किसमें अभ्यास करेंगे
बड़े होने पर क्या ज़िंदगी ही रफ़ कॉपी हो जाती है

(8)
फ़ेयर कोपियों के बचे पन्नों की कुछ बनाते हैं रफ़ कोपियाँ
कुछ के लिए ये ही फ़ेयर होती हैं
फिर भी, उन्हें पकड़ो जो देश की कॉपी को रफ़ कॉपी में बदल रहे हैं

(9)
रफ़ कॉपी का कोई एक विषय नहीं होता
एक भाषा भी नहीं
फिर दुनिया को इकरंगा क्यूँ बनाया जा रहा है
देश को कुछ लोग बना रहे हैं जैसे

(10)
कुछ तुकें होती है इनमें कुछ रेखाएँ भी
रफ़ कॉपी के साथ इस तरह खो जाते हैं कुछ कवि और चित्रकार

(11)
कोई तो स्कूल हो जहाँ रफ़ कॉपी के भी नम्बर मिलें
कमतर या कम सजावटी होना क्या कोई मूल्य नहीं

 

[16]
अनपढ़ी किताबें
गुमशुदा की तस्वीरों की तरह सामने खड़ी चुनौती देती हैं
किसी थीम सॉंग की तरह धीमे और लगातार बजते हुए

वे फुसफुसाती रहती हैं व्यावहारिक गृहिणी की तरह बिना लाउड हुए

याद करती रहती हैं ख़रीदे जाने के क्षण को जब किसी दुल्हन की तरह आई थी घर में
अबोली बैठी विधवा की तरह
वे बुनती हैं बेआवाज़ इन्तेज़ार कि कोई आए, उठाए

वेंटिलेटर पर लेटे बुज़ुर्ग की तरह उम्मीद से होती है :
किसी भी क्षण हो सकता है चमत्कार, झड़ सकती है धूल
और किसी स्पर्श के साथ वे शुरू कर सकती है अपना गाना महफ़िल में

उपेक्षित माँओं की तरह अपने बच्चों के बारें में बात करती होंगी
ज़मीन में दबी नदी या पेट्रोल की तरह इन्तेज़ार करती है देखे जाने का

अनपढ़ी किताबें उम्रदराज़ कुँवारी लड़कियाँ होती है
छुअन का जोड़ा उन्हें कभी भी दुल्हन बना सकता है

बेचारी सुंदर साध्वियाँ !

 

[17]
अच्छे दोस्त

चोर जब
पिता की जेब से चवन्नी भर पिता
माँ की रोटी से कौर भर माँ
भाई के हाथ से मुट्ठी भर भाई
बहन के धागे से गांठ भर बहन
प्रेमिका के पर्स से झपकी भर प्रेमिका
और
पत्नी की सिंदूरदानी से चुटकी भर पति चुरा
अपने-अपने घरों में सुस्ता रहे होते है
तब इन सबको
ब्रह्मा चुरा
कुछ प्राणियों में डाल देते हैं
चुराई चीज़ों से बने
ये पारदर्शी लोग होते हैं
अच्छे दोस्त.

अच्छे दोस्त
उपेक्षा और लापरवाही के बावजूद
छातों और स्वेटरों की तरह
बुरे मौसमों में साथ देते हैं

घास की तरह बिछे
तमाम मौसमों से बेअसर ये लोग
हमें हमारे हर अच्छे बुरे के साथ
केवल हिचकियों में सताते हैं

रात गए जब सो चुकी होती है पत्नी
किसी पुराने प्रेमी के साथ
या पिता उलट रहे होते हैं
या माँ मन में पिता से पहले जाने की कामना कर रही होती है
या घर जब नौकरशाह चौकीदार की तरह सुस्ता रहा होता है
तब
बहुत बेतकल्लुफ़ी से
पीठ पर घूंसा मर
हमें अपनी नींद से बेदखल कर
पेशेवर अपहर्ताओं की तरह
उठा ले जाते हैं
अच्छे दोस्त

ईमानदार प्यार की तरह
तर्कों से ऊपर
बेईमान बच्चों की तरह
पलंग के नीचे
और तटस्थ दिनों की तरह
कैलेंडर पर छप कर
ये हमेशा हमारे पास रहते हैं, बिना किराया दिए
किरायेदारों की कमसिन और ख़ूबसूरत पत्नियों की तरह
पहली ही नज़र में अच्छे लग कर

ये लोग
आपके इतिहास को नहीं पढना चाहते
आपके भूगोल से भी इन्हें कत्तई दिलचस्पी नहीं हैं
ये तो आपको सिन्धु सभ्यता के सिक्के मान
पुराविदों की तरह प्यार कहते हैं
इनकी गणित हमेशा कमज़ोर होती है

ये कुशल फोटोग्राफरों की तरह
आपके चेहरे को हमेशा अच्छा पाते हैं
इनके सारे प्रयास होते हैं :
आपकी एक अदद मुस्कुराती फोटो

पुरानी प्रेमिकाएं
पहले प्यार के संकोच भरे दिन
मनचाहे सपनों से सजी नींद
इन सबको
हर रोज़
डाकिये-सी निश्छलता के साथ दे जाते हैं
अच्छे दोस्त.

 

[18]
बाज़ार
एक ही घर में थीं कई घड़ियाँ
अलग था सबका समय

एक ही समय में थे कई कलेंडर

मौसम भी एक नहीं थे दुनियाभर में

मैं सबसे ज़्यादा दुखी हुआ:
एक होने की शुरुआत बाज़ार से हो रही थी

(कवि विनोद विट्ठल 10 अप्रैल, 1970 को जोधपुर में जन्म । विधि में स्नातक और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तरऔर नेट । अंग्रेज़ी की पत्रकारिता छोड़ पिछले एक दशक से जेएसडबल्यू एनर्जी के कॉरपोरेट अफ़ेयर्स विभाग में सहायक महाप्रबंधक । अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों में लेखन । साहित्य के अलावा समाज विज्ञान,
संस्कृति, सिनेमा और मीडिया अध्ययन में गहरी रुचि । “भेड़, ऊन और आदमी की सर्दी का गणित”,
“लोकशाही का अभिषेक”, “Consecration of Democracy” और “पृथ्वी पर दिखी पाती” समेत आधा दर्ज़न किताबें । 2018 में बनास जन द्वारा प्रकाशित “पृथ्वी पर दिखी पाती” के लिए युवा शिखर साहित्य
सम्मान से समादृत । नौकरी के सिलसिले में इन दिनों हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले में रहते हैं।
vinod.vithall@gmail.com
Mobile – 8094005345

टिप्पणीकार लीना मल्होत्रा समकालीन हिंदी कविता का चर्चित नाम हैं, इनके दो कविता संग्रह  ‘मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान’, ‘नाव डूबने से नहीं डरती’ प्रकाशित हो चुके हैं)

 

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