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अपने समय से सार्थक संवाद हैं सुस्मिता पाठक की कविताएँ

रमण कुमार सिंह


समकालीन मैथिली कविता में सुस्मिता पाठक एक सुपरिचित और सम्मानित नाम है। मैथिली में स्त्री लेखन को आधुनिक चेतना और नया तेवर प्रदान करने के लिए सुस्मिता को जाना जाता है लेकिन सुस्मिता नारीवादी आंदोलनों और स्त्री विमर्श के नाम पर रूढ़ हो चुके मुहावरों से अलग स्त्री चेतना का नया वितान रचती हैं।

उनका काव्य स्वर न तो बहुत ज्यादा उग्र है और न ही दबा हुआ। वह स्त्री के संघर्ष, उसकी यातना, उसकी हंसी-खुशी, उसकी आकांक्षाएं और सपने तथा उसके समक्ष मौजूद चुनौतियों को भी अपनी कविता में रेखांकित करती चलती हैं।

सुस्मिता की कविताएं प्रेम, गृहस्थी और मातृत्व के इर्द गिर्द बुने गए स्त्री कविता के रूढ़ मिथक को तोड़ती हैं और प्रेम को भी प्रश्नचिह्नों के घेरे में लाना जरूरी समझती हैं।

कहा जाता है कि मिथिला की स्त्रियों का जीवन पिता के घर से डोली में विदा होकर पति के घर से अर्थी उठने के साथ खत्म हो जाता है, यानी पति और पिता नामक के दो पुरुषवादी सामंती स्तंभों के बीच स्त्री जीवन पेंडुलम की तरह डोलता रहता है।

पति को परमेश्वर मानकर मैथिल स्त्रियां गहन दुख की घड़ी में भी नकली मुस्कराहट ओढ़कर पति के आगे-पीछे डोलती रहती है। लेकिन सुस्मिता की कविता कहती है-

‘मुस्कराहट फेंककर
कभी
थोड़ा सा
उदास भी रहा करो
चंपा।’

सामाजिक हकीकत यह है कि सभ्यता निर्माण की इतनी शताब्दियां बीतने के बावजूद स्त्रियों का अपना घर कहां है, यह कोई बताने वाला नहीं है।

जिस घर में उसका जन्म होता है, वहां वह पराया धन समझी जाती है और जिस घर में विवाह करके उसे डोली में लाया जाता है, वहां भी निर्णय लेने में उसकी हिस्सेदारी नहीं होती है। मायके और ससुराल के बीच अगर उसके लिए कोई जगह होती है, तो वह है अस्पताल या श्मशान, इसलिए सुस्मिता की कविता सवाल उठाती है-
‘तुम्हीं बताओ
बटोही
उसके घर की
क्या है पहचान।’

स्त्री जीवन की यातना को बहुत ही मार्मिकता के साथ कवयित्री सुस्मिता पाठक अपनी कविताओं में उकेरती हैं। उनकी कविताएं स्त्री विमर्श का नया मुहावरा रचती हैं।

‘मेरी पीठ पर
लिखी है आज की यातना
गोदा हुआ है
मेरी छाती पर
कल की प्रतीक्षा।’

घरेलू हिंसा भारतीय समाज ही नहीं, अन्य समाज की भी एक तल्ख हकीकत है, जिसे कवयित्री ने कविता का विषय बनाया है और बहुत ही गंभीरता से उसे रेखांकित किया है-
‘यह अपरिचित नहीं
मेरे पांच बच्चों का पिता है
जो शायद अपनी सुरक्षा में
अपनी बर्बरता से
बना रहा है एक कवच

बहुत डरा हुआ है वह
मेरी चोटिल आंखों की आग से
मेरी इस लपट
इस ज्वाला को बुझा देने के लिए
वह हर तरह की जुगत में लगा है।’

सुस्मिता मानती हैं कि सिर्फ जयगान या स्तुति वाचन ही कविता नहीं है, फूल, चिड़िया और सुगंध से हमेशा सजाकर नहीं रखा जा सकता कविता को, बल्कि रोजमर्रा के दुख, आतंक, हिंसा आदि भी कविता का हिस्सा है-
‘अब भी पसरा हुआ है आतंक
अब भी जुल्म का जोर है
फूल, चिड़िया और सुगंध से सजाकर
कविता को नहीं रखा जा सकता हमेशा
इसके भीतर है सभ्यता की बदबू

यही कारण है
कि मिटता नहीं है
कविता का अस्तित्व
बताते हैं कि
मरी नहीं है कविता
जिस दिन उतरेगा
कविता की देह से ये सारा बोझ
उसी दिन मैं लिखूंगी कविता
नहीं लिखूंगी अन्यथा।’

सभ्यतागत विकास की इन तमाम विसंगतियों के बावजूद कवयित्री भरोसे और उम्मीद की कविता रचती हैं। प्रेम की एक करुण धारा सुस्मिता की कविताओं की एक खास विशिष्टता है। सुस्मिता की कविताएं अपने समय से सार्थक संवाद करती हैं।

‘संघर्ष के बाद
विजय का उल्लास लिए
पत्तों पर मुस्कराते
दुर्गंध और सड़ांध से लड़ते
इतराते पौधे

प्रतिकूल स्थिति में
सृजन के इस सुख को
भोगा मैंने।’

सुस्मिता की कविताओं में निरंतर एक आंतरिक एकालाप, स्त्री और प्रकृति के बीच का गहरा और कमनीय संबंध भी दृष्टिगोचर होता है।

बेशक आज के समय में स्त्री और पुरुष, दोनों का संघर्ष जटिल है, लेकिन सुस्मिता की कविताएं बताती हैं कि स्त्री की घुटन, संत्रास और यातनाएं पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं। ये कविताएं अपने समय की स्त्री-स्वतंत्रता की रूढ़िगत और घिसी-पिटी सीमाओं से अलग एक ईमानदार स्वर रचती हैं।

प्रस्तुत है सुस्मिता पाठक की मैथिली कविताओं का हिंदी अनुवाद

1-चंपा
————-

तुम हर मौसम में
तर कैसे रहती हो
चंपा
जबकि तुम्हारा मालिक
मक्खी की तरह भिनभिनाता रहता है
दारू के बोतल पर
और सूंघता है तुम्हें
एक अंधे
भंवरे की तरह

तुम मुस्कराती हो
हर शाम
डोलती रहती हो
मालिक की आगवानी में
और भी उज्ज्वल हो जाता है
तुम्हारा चेहरा

मुस्कराहट फेंककर
कभी
थोड़ा सा
उदास भी रहा करो
चंपा।

2-पहचान
————-
बटोही
रुको
मेरी बेटी के घर की तरफ
कौन सा रास्ता जाता है
बताओ मुझे

जहां तक मैं जानती हूं
एक रास्ता
पूरब दिशा में है
जहां उसका मायका है
एक रास्ता पश्चिम की ओर
जहां उसकी ससुराल है
एक रास्ता
जाता है
अस्पताल की तरफ
एक रास्ते में पड़ता है
श्मशान

तुम्हीं बताओ
बटोही
उसके घर की
क्या है पहचान।

3-दीक्षा
————

आजकल इस मौसम में
जब देह से फूटती है गंध
निर्बंध
मैं तुम्हें पता नहीं बार-बार
क्यों करती हूं याद

सुबह होते ही
जैसे शिशु-सूर्य को देखने की इच्छा
मन में यूं ही जाग उठती है
उसी तरह मैं कई बार
किसी समय तुम्हें
देखना चाहती हूं

मेरी यह इच्छा और मेरी यह कामना
बार-बार कविता में
जीवन में
अपने स्वभाव और व्यवहार में
उतर आती है

मैं कार्तिक की इस उदास दोपहर में
वह भी इस त्वरा के संग
करती रहती हूं तुम्हारी प्रतीक्षा
जैसे पृथ्वी के सारे मौसम
देते हों मुझे यही दीक्षा।

4-कौन है वह
————

कौन है वह
चेतना की पालकी पर
जो मुझे ले उड़ेगा
यंत्रणा की दाह को
जो शीत प्रेषित कर सकेगा

मैं विकल हूं
मैं विवश
मैं अकिंचन हूं परवश
इस गजब की कालिमा में
खो गई इस आत्मा में
गुम है
सृष्टि का सब सौंदर्य

कौन है वह
उस अनंत नीलाभ पट पर
एक अर्जित विनयशीलता का
दीप लेकर
आ रहा है।

5-यातना
————–

मेरे पीछे भागती भीड़ को
पता नहीं है कि
क्या लिखा है
मेरी पीठ पर

मेरे आगे
चलती आ रही भीड़ को
पता नहीं है कि
मेरी छाती पर क्या गोदा हुआ है

मैं अपने इस
लिखे और गोदे गए
शब्दों और अक्षरों के
बोझ से दबी
ठहरी हूं बीच में
न तो पीठ पीछे भागती जुलूस का
दे पाती हूं साथ
न ही सामने से आती भीड़ को
दे पाती हूं बाट

मेरी पीठ पर
लिखी है आज की यातना
गोदा हुआ है
मेरी छाती पर
कल की प्रतीक्षा।

6-होड़
————-

दूब का बिछाया गया है
गद्दा
फूलों की क्यारी-क्यारी
इधर से उधर
दौड़ रही है
बेटी
रंग-बिरंगे पंखों में लपेटकर
अपनी कोमल देह
लेने लगी है होड़
उड़ती तितली और पतंगों से
बूढ़े कनेर की
मजबूत डाल से
तोड़ती है
पीला और ताजा फूल
अपने बालों में
सजाती है
एक-एक कर
और फिर
शब्दों के कितने ही गुच्छे
स्वरों में लपेटकर
गा रही है
अपनी मुक्ति का गीत।

7-इस भीड़ के बीच
——————–

समय की सीढ़ी पर
बढ़ते रहेंगे
दो कदम साथ-साथ
साथ ही चलेगी अपनी छाया
चांद की रोशनी
उड़ा देगी अंधेरे की चादर
सूर्य के ताप से गरमाकर
सुगबुगा कर
उड़ेंगे पक्षी-समूह
चलेगी हवा साथ ही
साफ करेगी रास्ते की धूल
साथ ही रहेगी दोनों हाथों की ताकत
दोनों आंखों की पुतली में
पलती रहेगी बहुत सी उम्मीदें
इस भीड़ के बीच
कभी न बोलिए
कि कोई नहीं अपना है पास
कोई नहीं है साथ
जब किसी तक नहीं पहुंचे तुम्हारी आवाज
थकना नहीं, नहीं होना चुप
तब तक करना चित्कार
जब तक निकले नहीं कंठ से
कोई सुरविहीन राग
सुरविहीन राह की पहुंच
होती है अतल तल तक निर्विरोध।

8-तिनके
————–

कहीं यदि दिखे
बिखरे तिनके
तो उसमें से एक
नजर से चुन लेना
अपने लिए

लू बरसती दोपहर मे
कहीं से परेशान हांफती
उड़ती-फिरती
कोई चिड़िया
ठहरकर चुन न ले
सभी

मांग लेना एक
अपने लिए
उसी से सीखना
तिनके से तिनका जोड़ना
और आंधी में टूटते
घोंसले को देखना

नहीं पछताना
और न
रोना।

9-निस्तब्धता
————–

निस्तब्धता
ओढ़ती रही
निस्तब्धता
बिछाती रही
पहनती रही
निस्तब्धता

जब किसी कोने मे
हो रहा था
हो-हंगामा
कांय-किचकिच
मैं चुनती रही
निस्तब्धता।

10-गंतव्य
—————

अंततः हम सब पहुंच ही गए
उस गंतव्य तक
जिसकी सीढ़ी पर चढ़ते
अनगिनत सपने की
डाल पर झुल रहे थे

अथाह सुख की
इच्छा दबाए
किसी कल्पतरु की
कल्पना में तल्लीन
भीड़ के साथ मनाते रहे उत्सव
अपनी विकास-यात्रा का

प्रतीक्षा के अंत
और प्रसन्नता के प्रारंभ में
मिला मेगा फूड पार्क
और न जाने कितनी फैक्ट्रियां
जहां ऐश-आराम के साथ-साथ
मलबे के ढेर के संग
मशीन से निकल रही है
लाश के रूप में
कई निर्दोष-निश्छल जिंदगियां।

11-कविता का सपना
——————

बताते हैं
बची हैं बहुत सी चीजें
खत्म नहीं हुई है बात
कविता की

यही दुर्घटना है
यही विडंबना
यही सदमा है
यही सपना

बहुत दिनों से बोझ है
इन सबका कविता पर
इससे अलग
आज तक कुछ नहीं दिखा
अब भी बचा है
वर्ग में सबसे ज्यादा
अकारण दंडित होने वाला महरी का बेटा
अब भी बची है
स्कूल से निकाले जाने के लिए
अकारण मजबूर शिक्षिका

अब भी पसरा हुआ है आतंक
अब भी जुल्म का जोर है
फूल, चिड़िया और सुगंध से सजाकर
कविता को नहीं रखा जा सकता हमेशा
इसके भीतर है सभ्यता की बदबू

यही कारण है
कि मिटता नहीं है
कविता का अस्तित्व
बताते हैं कि
मरी नहीं है कविता
जिस दिन उतरेगा
कविता की देह से ये सारा बोझ
उसी दिन मैं लिखूंगी कविता
नहीं लिखूंगी अन्यथा।

12-यह क्षण
————-

किसी सघन वन में
बनाकर
एक छोटा सा घर
चंचल सहेली
हवा के साथ
पेड़-पौधों और
टहनियों से बातें करूं
फूल-पत्ते को छू-छूकर हंसती रहूं
पेड़ को बांहों में भर रो लूं जी भर
लता-गुल्म को पकड़
झूमती जाऊं इधर-उधर
चिड़ियों और शशक शावकों से
बातें करूं
ठहर-ठहर
रसहीन यह बचा हुआ पल
यूं ही बस जाए गुजर।

13-कथा रचती चिचोहिया
——————–

शायद ही आपने सोचा होगा
पेड़ की डाल पर उल्टा लटक
घोंसला बनाती चिचोहिया के बारे में
खेत में दिन भर खटते बैल
चाबुक खाते घोड़े
आ डंडे से पिटते गदहे के बारे में
ये तो तब भी मालिक के इशारे पर
करते हैं काम

लेकिन चिचोहिया को
इशारे की जरूरत नहीं होती
अपने लघु जीवन में
अथाह जिजीविषा लिए
अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति पर
जरूरत की मुहर लगा
परिश्रम करती है वह उम्र भर
अपने कौशल से आत्ममुग्ध
इतराती है चिचोहिया
उस दारुण भविष्य की कल्पना से निरपेक्ष
कि कभी आंधी-तूफान का एक झोंका
होगा पर्याप्त
उसे घोंसले सहित उड़ा ले जाने के लिए

लेकिन जीवन की क्षणभंगुरता में भी
चिचोहिया
हिम्मत और बुलंदी की
एक श्रेष्ठ कथा
रच जाती है।

14-मेरी आंखों की आग
—————–

कोई आतंकी नही
अपहरणकर्ता भी नहीं
नहीं कह सकते उसे लुटेरा
जिसने पहले खींचा मुट्ठी में केश
फाड़ दिए कपड़े
वह बलात्कारी भी नहीं था
जिसने उठाकर पटक दिया सड़क पर
फोड़ दी मेरी चूड़ियां

कभी सबके सामने कभी चुपचाप
कभी आंखों से कभी बातों से
कभी मुखर कभी मौन
खेलता-तोड़ता पैरों से कुचलता मुझे

यह अपरिचित नहीं
मेरे पांच बच्चों का पिता है
जो शायद अपनी सुरक्षा में
अपनी बर्बरता से
बना रहा है एक कवच

बहुत डरा हुआ है वह
मेरी चोटिल आंखों की आग से
मेरी इस लपट
इस ज्वाला को बुझा देने के लिए
वह हर तरह की जुगत में लगा है।

15-चौकीदार
————-
गंदगी और कूड़े के
ढेर पर देखा है मैंने
सड़क के किनारे
छोटे, मंझले और नाटे पौधे
ताजा, हरा और चमकदार
जैसे सीना ताने
खड़ा हो चौकीदार

संघर्ष के बाद
विजय का उल्लास लिए
पत्तों पर मुस्कराते
दुर्गंध और सड़ांध से लड़ते
इतराते पौधे

प्रतिकूल स्थिति में
सृजन के इस सुख को
भोगा मैंने।

16-वितान
————–

आज चारों तरफ व्याप्त है
एक अपरिचित स्तब्धता
पीछे छूट गए हैं संबंध
संवेदना और अपनत्व के रास्ते
सूख गया है रस देने वाली
रस लेने वाली जड़
और भयभीत कर रहा है
उसका उर्ध्वमुखी वितान

इस आकारहीन
स्पंदनहीन
सूखे पेड़ को
एक रूपाकृति देने के लिए
जरूरी है
हाथ में रंदा और रूखान।

17-एक बार रोई मैं
—————–

एक बार रोई मैं
जब
आपकी छाया तक नहीं थी

एक बार रोई मैं
जब
आप साकार हुए

एक बार फिर रोई मैं
जब लोगों ने मुझे भरमाया
कि आपने मुझे झूठा घोषित कर दिया है।

—————–

कीर्त्तिनारायण मिश्र साहित्य सम्मान, किरण पुरस्कार और विदेह साहित्य सम्मान से सम्मानित कवयित्री सुस्मिता पाठक (25 जनवरी, 1962) सुपौल, बिहार की रहने वाली हैं। इनके दो कविता संग्रह और एक कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनके हिंदी अनुवाद की एक पुस्तक साहित्य अकादेमी से शीघ्र प्रकाशित होने वाली है। हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी, बांग्ला, असमिया और पंजाबी में उनकी कविताओं का अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। 

संपर्क-किसुन कुटीर, गुदरी बाजार, सुपौल-852131 (बिहार)

टिप्पणीकार एवं अनुवादक रमण कुमार सिंह गणपति मिश्र साहित्य साधना सम्मान से सम्मानित हैं, हिंदी तथा मैथिली कविता में एक चर्चित नाम हैं और अमर उजाला अख़बार में उप-संपादक के पद पर कार्यरत हैं.)

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