समकालीन जनमत
कविता

रंजना मिश्र की कविताओं में जीवन उदासी के साये में खड़ा हुआ भी जिजीविषा से भरा रहता है।

प्रतिमा त्रिपाठी


भाषाई उठापटक, शब्दों के खेल और अर्थों के रचे हुये मायावी संसार से बोझिल होती हुई कविताओं के इस समय में रंजना मिश्रा की सहज, सुन्दर भावनाप्रबल कविताएँ आपको सुकून से भर देती हैं।

उनकी कविताओं में जीवन उदासी के साये में खड़ा हुआ भी जिजीविषा से भरा रहता है।

क्या पता तुम आओ
और इन हथेलियों में
अपने मिलने की
तारीख़ लिख जाओ।

ये कहते हुये जान पड़ता है कि समय की चौखट पे खड़ा एक लंबा इंतजार भी उम्मीद की उंगली थामे खड़ा है।

उनकी कविताएँ मैं, मेरा या मुझ तक नहीं सीमित है, उनकी कविताएँ लिपिबद्ध होते हुये हर उम्र और वर्ग से जुड़ती दिखाई देती है। रंजना की कविताओं में समाज की वो झलक मिलती है जिसे हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते और जिन्हें खुल कर कहने के लिये हमारे पास न हौसला होता है न ही शब्द।

स्त्री विमर्श करते
तुम्हारी पुरुष आंखें
छूती रहती है
मेरे वक्ष और नितम्ब

उनकी बेबाक अभिव्यक्ति इन पंक्तियों में देखने को मिलती है। वहीं दूसरी ओर प्रतीकों की आड़ में भी यही बिंदास अंदाज़ देखने को मिलता है, जब वो कहती हैं

अपने प्रतीकों को ढोते हम कितने सुरक्षित होते हैं
प्रेम की अनुपस्थिति का समाधान
प्रतीकों में ढूंढना
इंसान की शुरुआती आदतों में शुमार है।

एक आदत जो हमने न जाने कब से पाल रखी है उसके प्रति एक धिक्कार है ये शब्द, जो हमें भीतर तक झकझोर देते हैं, ख़ुद से सवाल पूछने पर मजबूर करते हैं। उनके भाषा की तरलता धीरे-धीरे ज़हन पर फैलती जाती है और उनकी कविताएँ आपके भीतर गहरा पैठ करती हैं।

जैसे एक गुलदान में हर तरह के फूल होते हैं अपने- अपने रंगत और खुशबू के साथ, कुछ उसी तरह की विविधता यहाँ देखने को मिलती है। यहाँ तक कि जड़ वस्तुयें भी बोल उठती हैं। एक ईंट- पत्थर का शहर भी आपके जीवन मे कितने तरह के रंग, कितने सबक, कितनी स्मृतियाँ लेकर बसा रहता है और उसपे उतने ही अनूठे बिम्ब का प्रयोग आपको लाजवाब कर देता है।

आशीर्वादों की शकल नहीं होती
ना ही आहट
बस खुशबू होती है
अपने भीतर रची बसी
हम ढूंढा करते हैं
बाहर कहीं

विशुद्ध भावना है ये और इससे बेहतर इसे न लिखा जा सकता,न कहा- सुना जा सकता है, न पढ़ा जा सकता है।

पिता जो एक कठोर कवच में अपनी भावनाएँ छुपा के रखते हैं, उनके चेहरे के हाव- भाव को पढ़ना, उनकी दी सीख जीवन मे उतारना, उनका प्रेम, उनकी चिंताएँ, यहाँ तक कि उनका अकेलापन भी विविध बिम्बों में उकेरा गया है।
वे कविता तक नहीं आ पाते उन दिनों’

‘सभी पिता अपने पिताओं की दुनिया से आये थे।’

कहते हैं जो जीतता है वो इतिहास लिखता है पर वो लोग जो हार गए वो कहाँ गुम हो गये, उन्हें कौन सोचता है, कौन जानना चाहता है उनके बारे में ?

सोच की सीधी रेखा पे चलने वालों से उलट कर देखने को मजबूर करती है रंजना की कविता।

उनकी कविताओं में उदास हँसी है, आँखों की भाषा को भी लिपिबद्ध करने की कला है, जीवन की गंध लेती हुई एक स्त्री है मगर निर्लिप्तता के साथ।

 

रंजना मिश्र की कविताएँ

1. पत्थर समय की सीढ़ियां
तुम्हारी अनुपस्थिति का एक सिरा थामकर
उस पत्थर समय की कई सीढ़ियां उतरती हूँ
जिनके पार
समय से टूट कर गिरा
एक लम्हा अब भी थरथराता है
एक मौन की उपस्थिति है वहां
जहाँ पुल था हमारे बीच बहते शब्दों का
अब भी वैसा का वैसा ठहरा
दूर समंदर के बीच लंगर डालकर ठहरे
किसी वीरान जहाज़ सा
सच कहूं तो तुम्हारी अनुपस्थिति की लम्बी आवाजाही में
मैंने मौन को अधिक साकार पाया है
इसी मौन में साकार होते हो
तुम भी
सुनो, इन दिनों मेरी प्रतीक्षा पककर थकती नहीं
सिर्फ रंग बदलती जाती है
बसंत का चटकीला रंग
पत्तों में ढलकर बहता है जैसे
बस यह सोचकर
क्या पता तुम आओ
और इन हथेलियों में
अपने मिलने की
तारीख़ लिख जाओ

2. समय की खूँटी से टंगी ऊब

ऐसे ही दिनों में भाग जाती होंगी लड़कियाँ
लड़के बिना प्रेम आत्महत्या कर लेते होंगे
औरतें धूप भरे दिनों को याद करतीं चुप हो जाती होंगी
बदमज़ाक़ बूढ़ियाँ अचकचा कर भूल जाती होंगी किस्से पुराने
और बिलावजह रो उठते होंगे बच्चे
थक जाती होंगी पृथ्वी की दरार मूंदती चीटियां
चिड़ियाँ अपने गीतों के अंत को जाती होंगी
वृक्ष गलते हुए लोप हो जाते होंगे धूसर आकाश में
बूढा ईश्वर छोड़ देता होगा सदियों पुरानी आशा
प्रार्थना का कोई अर्थ न रह जाता होगा
नींद उदासी और भ्रम में डूबते उतराते दिन को
तमाम हलचल के बावजूद
कोई इंतज़ार न रहता होगा
समय की खूँटी से टंगी होगी ऊब, किसी ऐसे ही दिन.

 

3. दुनिया में औरतें

(एक)
स्त्री विमर्श करते
तुम्हारी पुरुष आँखें
छूती रहती हैं
मेरे वक्ष और नितंब
और मेरी आँखें
तुम्हारे चौड़े ललाट
और पैरों के लगातार हिलने में
स्त्री विमर्श का खोखलापन
भाँप लेतीं हैं!
मुझे याद आता है
भीड़ भरी बस का वह अधेड़
जो अक्सर
लड़कियों के बगल बैठने की जगह ढूँढा करता था!

(दो)
उनमें से कुछ मौन हैं
कुछ अंजान
उनका मौन और अज्ञान
उन्हें देवी बनाता है
कुछ और भी हैं
पर वे चरित्र हीन हैं
हम यहाँ उनकी बात नहीं करेंगे!
दुनिया में बस
इतनी ही औरतें हैं!

(तीन)
मेरे शब्दों में बैठी है
एक बूढ़ी औरत
जर्जर
पके झुर्रीदार चेहरे वाली
रेखाएं जिसके चेहरे पर
उसके पैरों के नीचे की
पथरीली ज़मीन बनकर जमा हैं
आँखें जिसकी सवालों से बेख़बर,
ज़िन्दगी को ढोते जाने की जिंदा तस्वीर
जिसके हाथों ने मिटटी ढोई है
उस किले की जर्जर दीवार को बचाने के लिए
जिसमें वह खुद क़ैद है

मेरे शब्दों में छिपी है
एक दूसरी औरत
दूर कहीं, भविष्य के गर्भ में
नौजवान,
ज़िन्दगी के आदिम गीत में बहती हुई,
बाहें पसारे
जिसके भीतर उगते है कई मौसम
और वसंत जिसके जूड़े में ठहरा है
कंधे मज़बूत है जिसके,
और बाहें लचीली
यथार्थ के धरातल पर खड़ी
जो सूरज की आँखों में सीधी झांकती है
जिसका मालिक़ कोई नहीं
और दुनिया की तस्वीर में
जो पैबंद की तरह नहीं लगती

मैं-
इनके बीच खड़ी अपने शब्द तौलती हूँ
और मुस्कुराकर
नौजवान औरत की हंसी
बूढी औरत की तरफ उछाल देती हूँ
जो धीरे धीरे उठ खड़ी होती है
अपनी पोपली हंसी
और झुर्रीदार हाथ
मेरी तरफ बढाते हुए.

 

4. संभावित लड़ाइयों का अंत

लम्बे समय तक मैं उसकी
तर्जनी और हथेली की तरफ देखती रही
उन चार उँगलियों की तरफ जो
भीतर की ओर मुड़े थे
वे मेरी दिशा और दशा का पता देते थे
सड़क पर खड़े उस लाल डाक के डब्बे की तरह
जिससे रास्ता पहचानती थी मैं
सोचती थी यह ख़तम हो जाएगा एक दिन
तनी हुई ऊँगली ढीली पड़ जाएगी
धनुष पर चढ़ी प्रत्यंचा उतर जाती है जैसे
और ढीले पड़ जाते हैं तने हुए रबर
मैंने कोई बचाव नहीं किया
सोचा यह हम दोनों के लिए अच्छा है
बीत ही जाएगा यह एक रोज़
देखें तो यह आसान भी था
भूमिका चुनना हमेशा आसान होता है
बदलते रहना मुश्किल
जगह देना बचे रहना नहीं
न ही हाथ बाँध लेना संभावित लड़ाइयों का अंत
किसी न किसी दिन हम समझ ही जाते हैं
उसका निश्चय मेरे निर्णय का कारण था
जवाब खुद की भाषा में ही समझ आए उसे !

5. एक शहर कलकत्ता

किसी पुरानी याद की टीस सा उभरता है शहर
हुगली के तट से
गरीबी और ताजा लूची की गंध घाट की सीढ़ियों पर एक दूसरे से घुली लिपटी
अक्सर मेरी नींदों में घुसपैठ करती है
इसी शहर का दिया हौसला अपनी मुट्ठी में समेटे
भटका करते थे हम आवारा गलियों नुक्कड़ चौराहों में
शहर हमारी आँखों में आखें डाल मुस्कराता
‘दुनिया इतनी भी बुरी नहीं ‘
सिखाया था इसी शहर ने प्रेम जितना भी असंगत दिखाई दे
इसकी ताल बराबर सम पर आ पड़नी चाहिए
जब देखा था अपने से बड़ी उम्र की प्रेमिका का हाथ थामे उस नौजवान को
बड़ी उम्र की औरत से प्रेम पर बॉलीवुड ने सेंध नहीं मारी थी उन दिनों
बैंडेल चर्च के गूंजते मौन ने धीमे से हाथ थाम अपनी गोद में बिठाया था
कोलाहल भरी सड़कों पर अक्सर
हम ऊपर खिड़कियों से आती रियाज़ की कच्ची आवाज़ें तका करते
केवड़ा तल्ला का श्मशान ज़िन्दगी का अंतिम अड्डा है
मज़ाक ही मज़ाक में जान गए थे हम
मेरा कलकत्ता बचा रहेगा क्या समय की मार से ?
बची रही जैसे वह ट्राम जो जीवनानन्द की मौत का कारण थी
क्या बनलता सेन और ऋतुपर्णों घोष की आत्मा
भटकती फिरेगी सड़कों पर विलाप करती ?
सत्यजीत राय की पाइप गुड़गुड़ करेगी उनकी बैठक में
खेपामाथा ऋत्विक बोलबे ना किछु ?
सुना है दोराहे पर खड़ा है मेरा शहर
मैं रोज़ नींद से चौंककर जाग जाती हूँ
अचकचाकर पुकारने लगती हूँ कई पुराने नाम
क्या पता कल मेरी स्मृति साथ न दे
या शहर बदल दे अपनी रंगत अपना नाम
कौन आ खड़ा हुआ मेरे प्यारे शहर और मेरे बीच ?

6. प्रतीकों की आड़ में

दो थे उनके शरीर
दो मन दो दिमाग
दो आत्माएं भी थी ऐसा मान सकते हैं
दो अलग रास्तों से गुज़रते आए थे वे उस घर
उस बिस्तर तक आश्वस्ति की तलाश में
रात गहरी नींद से जागकर
वे एक दूसरे की सपाट साँसें सुन लिया करते
शरीरों की महक जानी पहचानी थी
आश्वस्त करती थी
हालांकि पसंद थी उन्हें अपने हिस्से की नींद
उसके नन्हे उबड़ खाबड़ सपने
और अपने क़दमों का बंजारापन
कैदी थे वे उस बिस्तर के
उपहार में मिला था उन्हें
सबसे महत्वपूर्ण गवाह
प्रतीक उनके साथ का
जहाँ आकर वे हर रोज़ सुरक्षित हो जाते
अपने प्रतीकों को ढोते हम कितने सुरक्षित होते हैं
प्रेम की अनुपस्थिति का समाधान
प्रतीकों में ढूंढना
इंसान की शुरूआती आदतों में शुमार है

7. आशीर्वादों की शक्ल

आशीर्वादों की शक्ल नहीं होती
ना ही आहट,
बस खुशबू होती है
मुंडेर पे बैठी चिड़िया की तरह
चुपचाप तकती हैं हमें
पता भी नहीं देती
अपने होने का
बाल्कनी के कोने में
पड़े किसी नामालूम पौधे की तरह
हरियाली बनकर जीती हैं.
और एक दिन
चिड़िया की मीठी बोली
और पौधे की इकलौती डाली में खिल उठती हैं
फूल बनकर
आशीर्वादों की शकल नहीं होती
ना ही आहट
बस खुश्बू होती है
अपने भीतर रची बसी
हम ढूँढा करते हैं
बाहर कहीं

8. निर्द्वन्द

ईश्वर को
हमने ठीक उसी समय सूली पर चढ़ाया
जब उनके साथ चहलकदमी करते, बतियाते
हमें गढ़ने थे शब्दों के नए अर्थ.
सुकरात को ज़हर का प्याला
ठीक उसी वक़्त भेंट किया
जब ईश्वर के साथ हुई अधूरी चर्चा
हमें आगे बढ़ानी थी
इतिहास के प्याले को भविष्य की शराब से भरकर
धरती और अपनी स्त्रियाँ
ठीक उसी वक़्त
योद्धाओं और उनकी सेनाओं के हवाले की
जब धरती वसंत के आगमन की प्रतीक्षा में थी
और स्त्री गर्भ के पाँचवे महीने में
गर्भ के शिशु ने
अभी करवट बदलना शुरू ही किया था

हमने
प्रेम और शब्दों के अर्थ
अपनी लालसा और भय की भेंट चढ़ाई
और अपनी आत्मा की
कालिख भरी सीढ़ियाँ
उतरते चले गए
ईश्वर के साथ हुए अपने सारे विमर्श भूलकर
हमने इतिहास में योद्धाओं के नाम अमर कर दिए
हमने इंसान शब्द के अर्थ को
ठीक उसी वक़्त अपशब्द में बदला
जब सूली पर चढ़े ईश्वर ने
अपनी आख़िरी सात पंक्तियों में से
पाँचवी पंक्ति में कहा
‘ मैं प्यासा हूँ’ *
और छठी पंक्ति में ईश्वर ने विलाप किया
‘यह ख़त्म हुआ’ *
ईश्वर की मृत्यु को तीन दिन बीत चुके हैं

अब हम निर्द्वन्द हैं.

*ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाने के बाद उनकी कही गई पंक्तियों में से पाँचवी और छठी पंक्ति.

 

9. पिता (१)
क्या सोचते थे पिता
उन दिनों जब वह देर रात गए घर आते और
बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठ सिगरेट के धुएँ से घिर जाया करते
क्या वे दिन भर के कामों का लेखा जोखा करते
और महीने के तमाम खर्चों का हिसाब?
अपने बॉस से झड़प की बात सोचते
या उनकी चिंताएँ दार्शनिक किस्म की थीं
वह आनेवाले दिनों से डरते
या उनसे लोहा लेने जीत जाने के स्वप्न देखा करते
क्या वे अपनी उन प्रेमिकाओं को याद करते
जो दूर किसी और के बच्चे पाल रही थीं
या गुरुदत्त, पाथेर पांचाली और इमरजेंसी की बात सोचते
अपने गुज़रे दिनों को याद करते
अपनी ग़लतियों को विचारते मौन हो जाया करते
छोटे संघर्ष थे उनके या बड़ी चिंताएँ
कितने स्तरों का संवाद वे खुद से करते थे ?

अपनी इन्हीं चिंताओं को साथ लिए
वे हर सुबह रूपये की तरह दुनिया में जाते
और शाम खर्च होकर रेजगारियों सा वापस आते रहे
महीने की पहली तारीख को वे मिठाइयाँ लाते और हमें कहानियाँ भी सुनाते रहे
उन्होने मुझे जूते पॉलिश करना कपड़े प्रेस करना और बैडमिंटन खेलना सिखाया
मेहनत से जी न चुराना, अपनी फ़िक्र करना और खुश रहना भी इन्हीं दिनों सीखा हमने
पिता ने इस तरह जीवन दिया हमें.

पिता (२)
पिता के कंधों में दर्द रहता था उन दिनों
वे अक्सर झुक कर चलते और चलते चलते रुक जाते
इस्त्री किए कुर्ते के काज में कोई बटन न होता
होता भी तो वे उसे लगाना भूल जाते
वे शादियों में, मिलने जुलने वाले में, सिनेमा पिकनिक भी नहीं जाते
अगर जाते तो अपना सबसे चमकता सुलझा चेहरा लिए जाते
वापस आकर फिर उसे उतारकर तह लगाकर रख देते

बेटियाँ ब्याहनी थीं उन्हें

बेटियों की चिंता उन्हें दूसरे पिताओं की दुनिया में ले गई
जहाँ झुकी कंधों वाले हर तरह के कई पिता थे
वे पिता जिनकी आवाज़ों की कड़क अब मुलायम होकर क्षीण होने लगी थी
कई और जो अपनी बेटियों को पलकों में थामे रहते
और वे भी जिनकी बेटियाँ उन्हें शर्म सार करती थीं
अपने घरों से निर्वासित वे सारे पिता
बेटियों की छाया लिए कई सीढ़ियों तक जाते और लौट आते

वे कविता तक नहीं आ पाते उन दिनों
सभी पिता अपने पिताओं की दुनिया से आए थे
जहाँ बेटियाँ अक्सर भीतरी कमरों में रहती
उनकी आवाज़ दालान तक नहीं आती

पिता उन दिनों पिता नहीं रह जाते
वे कमज़ोर और अकेले इंसान में तब्दील हो जाते
जिनके चेहरे पर कई दरवाज़े बंद हो जाया करते
वे बेटियों की दुनिया में भी न रह पाते न माँओं की तरह ऊँचे
माँओं का दुख तो सब जानते
नारीवादी जलसों में पिता पीछे रह जाते बहसों में उनके बदले कोई बयान न देता
उन दिनों मैं अक्सर सोचती पिता को बस इंसान हो जाना चाहिए
अपने पिताओं की दुनिया से निकल बेटियों की दुनिया देखनी चाहिए उन्हें
सिर्फ इसी तरह वे अपने पिताओं की गिरफ्त से निकल सकते थे
पिता को पिताओं की तरह ही क्यों जीना चाहिए भला !

10. गुम हुए लोग

लोग जो लड़े, हारे और बचे रहे
कहाँ गुम हुए
इतिहास कथा उनकी
जो जीते या खेत हुए
विजेता निकल गए घोड़े दौड़ाते
जो खेत रहे उनके स्मारक बने शिलालेख लगे
आसान था उन्हें परिभाषित करना

शेष क्या अब भी जीते हैं अपनी हार के साथ
शिविरों में घायल आत्मा लिए
या उन्होने फिर से निकाले कुदाल और मटके
शिशुओं को पीठ में बाँधा
मेड़ की मरम्मत में जुट गए
कि उन्होने फिर चूल्हा सुलगाया बस्तियाँ बसाई
ये हारे हुए गुमशुदा लोग
इतिहास की आँखों से बचकर फिर इतिहास लिखते हैं
कोई कुछ नहीं कहता
कवि मौन हैं
इतिहास बैठा है मृत क़ब्रगाहों में या पीछा कर रहा
विजय की तुमुल ध्वनियों का.

***

(पुणे, महाराष्ट्र निवासी कवयित्री रंजना मिश्र, 1970 के दशक में जन्म, शिक्षा वाणिज्य और शास्त्रीय संगीत में.आकाशवाणी, पुणे से संबद्ध. 
‘देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाएँ में कविताएँ, कहानी, और लेख। शास्त्रीय संगीत और कलाओं से संबंधित ई पत्रिका – ‘क्लासिकल क्लैप’ के लिए संगीत पर लेखन.
चार्ल्स बुकोव्स्की , तारा पटेल और कमला दास की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित.
साहित्य अकादमी की पत्रिका में कविताओं के अनुवाद प्रकाशित। भारत भवन, भोपाल में आयोजित युवा – ७ में कवितापाठ. सत्यजीत राय की फिल्मों पर लेखन और कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.
कथादेश में यात्रा संस्मरण, कवितायेँ, इंडिया मैग, बिंदी बॉटम (अँग्रेज़ी) में निबंध/रचनाएँ प्रकाशित,
प्रतिलिपि कविता सम्मान (समीक्षकों की पसंद) 2017.

टिप्पणीकार प्रतिमा त्रिपाठी की कविता व कहानियाँ विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। आकाशवाणी से भी कवितापाठ कर चुकी हैं। साझा-कविता संग्रह व कहानियों के अतिरिक्त इनकी ‘काग़ज़ सींचा मैंने’ नामक नज़्म संग्रह भी दो वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ है।)

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