समकालीन जनमत
कविताजनमत

प्रज्ञा की कविता व्यक्ति पर समाज और सत्ता के प्रभाव से उठने वाली बेचैनी है

निकिता नैथानी


‘कविताएँ  आती हैं
आने दो
थोड़ी बुरी निष्क्रिय और निरीह हो तो भी..’

इस समय जब लोग आवाज़ उठाने और स्पष्ट रूप से अपनी बात कहने से हिचकने लगे हैं। इस समय ये पंक्तियाँ किसी मज़बूत सहारे की तरह साथ खड़ी दिखाई देती हैं। प्रज्ञा सिंह की कविताएँ व्यक्ति पर समाज और सत्ता के प्रभाव से उठने वाली बेचैनी है, सवाल हैं। सवाल जिन्हें पूछते हुए, उनकी कलम न हिचकती है और न ही रूकती है।

“ये श्वेत वसन धारिणी
गौरांगी
भारत माता कौन है ?…”

जब प्रज्ञा इस तरह के कठोर सवाल करती है, तब वे औरतों के प्रति सत्ता और समाज के इस ऊपरी,दिखावटी सम्मान पर सीधे सीधे सवाल करती हैं। वास्तविकता की तरफ़ इशारा करते हुए बताती हैं कि –

“.. मैं ने तो खेतों की मेड़ों पर
डगमग कदम वाली
सांवली कत्थई औरतों को देखा है….”

स्त्री की सामाजिक-आर्थिक दशा (विशेषकर ग्रामीण) को सामने लाने का काम करते ये शब्द गहरा प्रभाव छोड़ते हैं।

या वे कहती हैं –

“…खिले सरसों सी
खिलखिलाती
तितलियों सी बहुविध
फूलों से बतियाती
चरित्रहीन नहीं होती लड़कियाँ…”

उनकी कविताएँ स्त्री का चरित्र निर्धारण करने वाले ठेकेदारों के सामने भी मज़बूती से खड़ी हो, उन्हें चुनौती देती नज़र आती है। तब वे कहती हैं –

“…तुम्हारी चौहद्दी से जरा सा
उचककर
देखतीं
डर कर लौट
आतीं
या
बाहर जाने को ही अकुलातीं
तमाम हिम्मत और साहस
के बाद भी
भोरहरी ही हरसिंगार के फूलों सी झर जाती हैं लङकियां
नहीं होतीं लड़कियाँ ‘

वे कहती हैं कि लड़कियों को घरों तक सीमित कर देना, उन्हें दकियानूसी समाज के नियमों में बाँधे रखना उनके भीतर की लड़कियों को ही खत्म कर देता है।

समाज और राजनीति पर उनकी नज़र लगातर बनी हुई है। वह कहती हैं  –

“…अब जब वक्त हुआ है
तुम्हारे बच्चों के स्कूल जाने का
बेचनी सात गैलन पानी ला चुकी है
उसके पहले ग ई थी मुन्नी आजी के साथ
तुम्हारी फेंकी हुयी पानी की बोतलें बीनने
अब थकी है पर नहीं सोयेगी
सर्व शिक्षा अभियान की
रैली में भी वह नहीं रहेगी
अदहन है खौलता हुआ
चावल डाल दीजिये वह सीझती रहेगी देर तक
बेचना के कितने बाप हैं
वह अवैध रिश्ते की वैध संतान है…”

वे कारण ढूंढ रहीं हैं । दाल और चावल निहारती आँखों के कारण, गगनचुंबी इमारतों के नीचे कूडे के ढेर में कुछ तलाश करती बचपन और जवानियों के कारण, टूटती हुई ज़िंदगियों के कारण, सरकारी योजनाओं के हवा में खो जाने के कारण। आंख मूंद कर की गई राजनीतिक घृणा के उलट फैला हुआ सच हैं प्रज्ञा की कविताएँ।

कविता बेचैन है। जैसे –

“…अचानक देखा कोई उम्मीद नहीं है
अचानक देखा उम्मीद की कोई जरूरत ही नहीं
लोग जिंदा हैं बिना किसी सपने के
अचानक लगा लोग सदियों से सोये नहीं
अचानक लगा कि मुझे सपने से पहले नींद की तलाश में जाना चाहिये
फिर लगा लोगों के पास दरअसल आंख ही नहीं थी
चेहरे पर कहीं आंख रखने की जगह नहीं बची है
वहां बुरी तरह संंशय की झाड़ उगी है
अचानक लगा अचानक तो कुछ भी नही है ।”

सपनों के खोने पर उनकी चिंता ‘ पाश’ की याद दिला जाती है। सपनों का खो जाना दुखद है। सभ्यता के लिए कलम की छटपटाहट उनकी कविताओं में सहज की उभर आती है।

“पिचके गाल लिये
लौटे है सूरत से
अमुड़ी गांव के लड़के
बहुत उदास कि
जैसे झुलसी हुयी खाल
वक्त के माथे पर
फिर ताजा घाव
बेहाल बौरायी हवा
जैसे खींच लेगी प्राण
मत करो कोई सवाल
लौटे हैं सूरत से
अमुड़ी गांव के लड़के
बजती है खेत में कम
अरहर मटर की छीमियां
उससे भी कम है
जेब की औकात
सर पर कर्जे का जिन्न
हाथ मे नयी मोबाइल रात दिन
उछले है पल पल छान्ही पर
भूख का बेताल
मत करो कोई सवाल
लौटे हैं
सूरत से अमुड़ी गांव के लड़के”

ग्रामीण जीवन और उनकी समस्याएँ प्रज्ञा की कविताओं में घुली हुई है। देश का पेट भरने वाले कर्ज में डूबे किसानों के पेट की आग, उनके नौजवानों को बड़े शहरों की धूल फाँकने पर मजबूर कर ही देती है। कुछ रोटियों के बदले ये शहर,इन लड़कों से हँसी और सपने सब छीन लेता है। तब इनके पास आँखों और पेट की आग के सिवाय कुछ नही बचता। जैसे –

“नाक से लोहे के चने चबाते मशीन की तरह याद रहता है सिर्फ काम ।…………………….. नाक से लोहे के चने चबाता आदमी लोहे का हो जाता है । याद दिलाने पर भी नहीं याद आता उसे खेत में उगे चने का स्वाद”

असल  में इनकी कविताएँ बाज़ारवाद की क्रूर सच्चाई को दिखाती हैं, जो इंसान से उसकी इंसानियत चूस कर उसमें मशीनीयत भरती जा रही है।

उनके कविताओं में दुख है न बोल पाने का। इसलिए कहती हैं –

“उतने बजते रहे
मुझमें सन्नाटे
बची थीं जितनी
बोल पाने की संभावनायें…….
भाषा थी शब्द थे
विचारों की भीड. थी
रास्ते थे पैर थे
सर पीटती हूं
कि सर से गुजरा पानी
और मैं मौन थी”

प्रज्ञा की भाषा सशक्त है, सटीक है। आंचलिक शब्दों का भी अच्छा प्रयोग हुआ है। शब्द चयन में उन्हें झिझक नही है। अपनी बात मज़बूती से रखती हैं। आज के समय में बेहिचक लेखन, बेहतरी की उम्मीद को बनाए रखने में साथ देता है। निश्चित ही आप साधुवाद के हकदार हैं।

 

प्रज्ञा सिंह की कविताएँ 

 

1. कविताएँ  आती हैं

कविताएँ  आती हैं
आने दो
थोड़ी बुरी निष्क्रिय और निरीह हो तो भी
वे कराहती हैं
उनकी कराह सुनो
हो सकता है
वो रोती ही हों
हो सकता है
बहुत दिनों की दमघोंटू चुप्पी से
घबरा कर वे चिल्ला पड़ी हों
हो सकता है कई हजार साल पुरानी हो
उनकी भाषा
हो सकता है
वे गलत समय पर बोलीं हो
हो सकता है
उनकी परिष्कृत न हो बोली
हो सकता है वे सिर्फ बिलबिला रही हो
हो सकता है
हड़बडा़हट में चलीं आयीं हो
वे नंगी ही
हो सकता है वे चप्पल पहनना भूल गयीं हों
हो सकता है
आज उनसे तुम्हारा कोई काम न निकलता हो
फिर भी निकलो प्रचलित मानकों से बाहर
उनका स्वागत करो
वे आयी हैं
बस इतने के लिये
उनका शुक्रिया अदा करो

2.कत्थई औरतें 

ये श्वेत वसन धारिणी
गौरांगी
भारत माता कौन है ?
मैं ने तो खेतों की मेड़ों पर
डगमग कदम वाली
सांवली कत्थई औरतों को देखा है
उनकी झुलसी पीठ पर
दोपहर के सूरज को
छोटे बच्चे सा झूलते देखा है
मैं ने देखा है
उन्हें गीतों के लय पर
धान रोपते
मैं ने उनके अधखुले सूखे स्तनो
को चूसते भूखे बच्चों को देखा है
मैं पूछती हूँ
अगर भारत माता गौरांगी हैं
तो ये सांवली कत्थई औरतें कौन है?

3. रास्ता

रास्ता मैं ने नहीं बनाया है
मेरे बाप ,
बाप के बाप ने भी नहीं
इस रास्ते को बनाने वालों से
मेरी कोई रिश्तेदारी नहीं
फिर भी इस रास्ते पर
मेरा रोज का आना जाना रहता है
मैं इस रास्ते को अपना रास्ता कहती हूं
ऐसे ही तमाम चीजों से मेरा कोई नाता नहीं है
किसी दोस्त के कंधे पर हाथ रखने से डरती हूं
क्या उसके कंधे के टिशू मेरी हथेलियों के टिशू से मैच करेंगे
एक खोमचे से चनाजोर गरम खरीदते हुये सोचती हूं
पता नहीं हिन्दू है या मुसलमान
कोई सिन्दूरी लड़की अपने काले बाल झटकती है
मुझे लगता है समुद्र मे ज्वार भाटा इन्हीं कारणों से आता है
मेरा नाम पता नहीं कितना मेरा है
मेरे तमाम रिश्तों में पता नहीं कितनी मैं हूं
मेरे कई एक सवाल छूटते ही मेरे ही गाल पीट जाते हैं
मैं किसी की ओर उंगली उठाऊं
सब उंगलियां मेरी ओर लौट आती हैं
कभी कोई पल पाल्थी मार कर बैठ जाता है
मैं सोचती हूं यह मेरा समय है
कुछ हठीले पल दुरदुराने से भी नहीं जाते
कुछ लोग प्रेम का अर्थ नहीं जानते
कई बेतुकी बातें एक तुक में सही बैठ जाती हैं
एक सही बात कहने का किसी को सलीका नहीं आता
नौ दिन चलने वाले अगर अढाई कोस भी पहुंच जायें
तो इसे उपलब्धि मानना चाहिये
पर ऐसा होता नहीं
तमाम बार किसी मोड़ किसी दृश्य में अटक जाती हूं
तनिक देर आंख बंद करूं
तो ढेरो गुलमोहर बारूद की तरह फट पड़ते है
तमाम बार माधुरी के फूल मेरे पैर पकड़ लेते हैं
और मैं किसी और के सपने में छपाक से कूद पड़ती हूं
क्षमा कि मेरा नाम मेरा नहीं है
ये रास्ता भी मेरा नहीं
मैं इस रास्ते पर रोज आती जाती हूं
इस नाते से इस रास्ते को अपना रास्ता कहती हूँ

4. मौन

उतने बजते रहे
मुझमें सन्नाटे
बची थीं जितनी
बोल पाने की संभावनायें
चुप रहीं खिड.कियां
मुंह दबाये दरवाजे
वाचाल पीपल भी चुप रहा
जेब में थी
जाने कितने सिक्कों की संभावनायें
और बाजार की चुपचाप
निगल जाने की साजिशें
भुजाओं में बल था
मुंह में जीभ थी
एनिमियाग्रस्त नहीं थी
कि हिमोग्लोबीन कम था
भाषा थी शब्द थे
विचारों की भीड. थी
रास्ते थे पैर थे
सर पीटती हूं
कि सर से गुजरा पानी
और मैं मौन थी

5. लोग नक्सली क्यों हो जाते हैं ?

दोनों बांह पसारे गंगा कहती है
मैं मर रही हूं
आओ तुम भी मुझ में डूब मरो
हवा कहती है हवा हो जाओ
मिट्टी की काया मिट्टी में रहती है
अब जब वक्त हुआ है
तुम्हारे बच्चों के स्कूल जाने का
बेचनी सात गैलन पानी ला चुकी है
उसके पहले ग ई थी मुन्नी आजी के साथ
तुम्हारी फेंकी हुयी पानी की बोतलें बीनने
अब थकी है पर नहीं सोयेगी
सर्व शिक्षा अभियान की
रैली में भी वह नहीं रहेगी
अदहन है खौलता हुआ
चावल डाल दीजिये वह सीझती रहेगी देर तक
बेचना के कितने बाप हैं
वह अवैध रिश्ते की वैध संतान है
कुल्हाडी ठोंकता हुआ
वह कौन सा मंत्र बुदबुदाता है
मंत्रद्रष्टा ऋषि नाक पर रुमाल रख लेता है
कान में रूई ठूंस लेता है
बेचैन घूम रही मंतसा उसका आदमी
ये ई वी यम का क्या चक्कर है भाई
रात के एक बजे आती है बुलैरो
पूरा शहर वीर्य से भरा बजबजा रहा है
हमारी लडकियों के पांव फिसल रहे हैं
डूब रहा है चन्द्रमा
लाओ दियासलाई
सूरज की लौ तेज करो
सीने पर भारी पत्थर है
हटाओ हटाओ

6. अचानक कुछ नहीं

अचानक देखा सब कुंओं में
भांग पडी थी
अचानक देखा सब पार्टियों के झंडे का रंग उडा है
अचानक देखा है सिर्फ जिंदबाद बोला जा रहा है
इंकलाब को लोग पूरा चबा गये हैं
अचानक देखा वह कोई शातिर बूढा है
जिसे लोग लोकतंत्र का देवता समझ कर जल चढा रहे थे
अचानक समझ में आया कि लोग दरअसव बकरी हैं शेर की खाल ओढे
अचानक देखा कोई उम्मीद नहीं है
अचानक देखा उम्मीद की कोई जरूरत ही नहीं
लोग जिंदा हैं बिना किसी सपने के
अचानक लगा लोग सदियों से सोये नहीं
अचानक लगा कि मुझे सपने से पहले नींद की तलाश में जाना चाहिये
फिर लगा लोगों के पास दरअसल आंख ही नहीं थी
चेहरे पर कहीं आंख रखने की जगह नहीं बची है
वहां बुरी तरह संशय की झाड़ उगी है
अचानक लगा अचानक तो कुछ भी नही है ।

7. आवाज़

एक आवाज के पैर थे
भागती थी सरपट
नदी पहाड़ पेड़ लांघती हुई
एक आवाज की जीभ थी आग की
चाट जाती थी कई एक चुप्पियां सिसकियां सिहरनें
एक आवाज थी
कि बोलती ही नहीं
पलटकर देखो तो दिखती थी
किसी की आंख मे सिसकियां भरती हुई
एक आवाज थी
कि कोई आवाज ही नहीं थी
सन्नाटों की कतरनें थी लटकी हुई
सूखे पेड़ों की टहनियों पर
फटे कपड़ों की झंडियां
ये किस की आवाज है
मेरे कंधे पर हाथ धरे दोस्ताना
ये किसकी आवाज है
मेरे ही भीतर चीखती विक्षिप्त सी
ये आवाज है कि आह है निःशब्द सी
मेरी नीरवता के दोनों हाथ झकझोरती

8. अमुड़ी गाँव के लड़के

पिचके गाल लिये
लौटे है सूरत से
अमुड़ी गांव के लड़के
बहुत उदास कि
जैसे झुलसी हुयी खाल
वक्त के माथे पर
फिर ताजा घाव
बेहाल बौरायी हवा
जैसे खींच लेगी प्राण
मत करो कोई सवाल
लौटे हैं सूरत से
अमुड़ी गांव के लड़के
बजती है खेत में कम
अरहर मटर की छीमियां
उससे भी कम है
जेब की औकात
सर पर कर्जे का जिन्न
हाथ मे नयी मोबाइल रात दिन
उछले है पल पल छान्ही पर
भूख का बेताल
मत करो कोई सवाल
लौटे हैं
सूरत से अमुड़ी गांव के लड़के

9. चरित्रहीन नहीं होती लड़कियाँ 

हवा के संग झूमती
इठलाती
पेंगें मारती
प्रेम गीत गाती
चरित्रहीन नहीं होती लड़कियाँ
खिले सरसों सी
खिलखिलाती
तितलियों सी बहुविध
फूलों से बतियाती
चरित्रहीन नहीं होती लड़कियाँ
ठठा के हंसती
भरसांई मे भूने जाते
मकई के दाने सी
या मान लो बिलावजह ही
मुस्काती
उङती पंखों से नहीं
ढोती आसमान कंधों पर
वो नीर भरी
दुख की बदली सी
चूल्हे की लकङी
बन कैसे जल जाती हैं
लड़कियाँ
चरित्रहीन नहीं होती हैं लड़कियाँ
तुम्हारी चौहद्दी से जरा सा
उचककर
देखतीं
डर कर लौट
आतीं
या
बाहर जाने को ही अकुलातीं
तमाम हिम्मत और साहस
के बाद भी
भोरहरी ही हरसिंगार के फूलों सी झर जाती हैं लड़कियाँ
नहीं होतीं लड़कियाँ

10. उसका कोई नहीं

उसे कहना चाहिये
माननीय प्रधानमन्त्री जी
वो कहती है न मोदिया न योगिया
भाषाई तमीज ?
मैं किसी से पंगा नहीं लेना चाहती
आपसे भी नहीं
बहुत सर दर्द हो तो आदमी को
बाम लगा लेना चाहिये
चार पैसे खर्च कर के
आप सौ तरह का आराम खरीद सकते हैं
लोकतंत्र भी न्याय भी
फिर हर बात आपके लिये
बेकार की बात हो जाती है
बकवास वाहियात फिजूल
कविता में इस बतकही का क्या मतलब है
कि आप मुझसे अच्छा लिखते हैं
एक दियासलाई भर आग
न आपके पास है न मेरे पास
वह फिर कहती है
न मोदिया न योगिया
और तेज हो रहा है तूफान
बस्ती में आग
ऐंठती हैं अतडियां
आदमी सहारे के लिये
जिस किसी संस्था का हाथ पकड़ता है
वही हाथ झटक देती है
धूल धूसरित आदमी
संविधान की प्रतियां बांचे या गीता की
चाटने तो उसे
इनके उनके तलवे ही हैं
यहां वहां बिखरे पड़े महामहिम भगवान
बड़े बड़े पत्थर ट्रकों में लदे आते हैं
या फिर एसी गाडियों में
बोरे की तरह लदे आते हैं अधिकारी
ऊंचे दाम बिकते हैं
न मोदिया न योगिया
गरीबन क केहू नाहीं
वह फिर कहती है
बार बार कहती है
भाषिक तमीज ?
मैं अगर किसी तरह का
जोखिम उठा पाती तो कहती
भले तुम्हें हस्पताल से दवाई नहीं
मिली
आठ सौ तिरपन की खरीदनी पड़ी
दो सौ दलाल दिखाने के नाम पर ले गया
तुम्हारे गोलुआ को बैठने के लिये
स्कूल में फटा टाट भी नहीं मिले
कोटे की दुकान पर राशन न मिले
कांशीराम आवास की बिल न जमा पर करने पर काट दी जाये लाइट
भले ही सीवर की सारी गंदगी से भठ जाये
तुम्हारा घर
तुम्हें अपनी औकात में रहना चाहिये
तमीज से कहना चाहिये
माननीय प्रधानमन्त्री जी

11. ओ उदास रौशनी के देवता

ओ उदास रौशनी के देवता
उजालों के देवता
उम्मीद के
नैराश्य के देवता
स्थगित वैराग्य के देवता
निष्फल चेष्टा के देवता
संकुचित विस्तार के देवता
मनुष्य के
उड़ान के देवता
अर्ध पूर्ण विराम के देवता
काम के
आराम के देवता
बूंद बूंद नफरतें संजोता कौन है
जिन्दगी विष है
बोता कौन है
आकाश उम्मीद है
छूता कौन है
रास्ते बोझ हैं
ढोता कौन है
एक अपाहिज किरदार ही
चीखता चिल्लाता
सच की धूप ओढे
सोता कौन है
ओ उदास रौशनी के देवता

12. लोहे के चने चबाता आदमी

नाक से लोहे के चने चबाते मशीन की तरह याद रहता है सिर्फ काम । नहीं दिखता नीम की पत्तियों का रोज ब रोज झड़ना । पड़ोसियों का बेबात लड़ना । खिड़कियों से झांकना । जोर जोर से बोलना । जब सीख लेते हैं बहुत एटिकेट भूल जाते हैं दिल खोलकर छींकना । दुपहरिया में आये बैना को झपट कर मुंह में ठूसना । हडबडाकर उठना और छत पर भागना । नाक से लोहे के चने चबाते भूल जाते हैं रुकना और हांफना । बगल वाले से सुर्ती मांगना । सुस्ताना । सहारे के लिये किसी का हाथ मांगना । मैं तुम्हारे घर आऊंगा । तुम भी मेरे घर आना । कभी अधिकार से डपट कर बोलना । रोना और चीखना । देर तक सोना । जगाने से भी न जागना । आसमान छूती आग में हाथ पैर तापना । फेंक देना कपड़े इधर उधर । सलीके से न रहना ।तीन दिन की पहनी शर्ट फिर पहनकर स्कूल भागना । भर लेना मुट्ठी भर करौंदे । इनकी उनकी कापियों में झांकना । पापा के पैसे चुरा गुल्लक में डालना । नाक से चने चबाते याद रहता है चबाना ही भूल जाता है खटास और मिठास । अपनेपन का आभास । डूबता है विश्वास । खोता है आस्वाद । नाक से लोहे के चने चबाता आदमी लोहे का हो जाता है । याद दिलाने पर भी नहीं याद आता उसे खेत में उगे चने का स्वाद

13. लौट आना गाँव

आसमान के गाल पर ठहरा हुआ
एक कतरा आंसू है रात
कुत्तों को मिली हड्डियां
तारों की परछाईयां
तुम्हारी आंख में
संतरे के छिलके के रस सी
उतरेगी नींद
कई एक ख्वाब जाग उठेंगे सोते हुये
मछलियां हैं तिरती हुयी हवायें
फूल के सिरहाने जैसे कोई तितली
मन्नत कि ऐसी नाजुक मौत आये
यहीं आस पास तुम्हारी डूबती हुयी आवाज
तुम्हारे पद चिह्न मिटते हैं
संभल कर रखती हूं पैर
दूर दूर से आती है आवाज
लौट आयी हैं सब बसें गाड़ियां
ट्रेन के आखिरी डिब्बे से भी नहीं उतरे तुम
बार बार बांची चिट्ठियां
कबूतरों के संदेश
पुरानी कही बातें
दूर न जाने के वादे
लौट आने के सौ जतन
कि एक पर्चा गांव के पते का
हमेशा रखना जेब में
चाहे जितना खर्चना
पर किराये भर बचा कर रखना
चाहे कितने भी हो सख्त जान
एक दिन बेसाख्ता बरस पड़ेगी बरसात
कटे तो कट जाये तनख्वाह
लौट आना गांव

 

(कवयित्री  प्रज्ञा सिंह, जन्म तिथि – 20 ।08 ।1972
सम्प्रति – इंटर कालेज आज़मगढ़ में अध्यापन,   हंस, कथादेश व परिकथा में कवितायें प्रकाशित
प्रथम कहानी हंस में प्रकाशित व रमाकांत कथा पुरस्कार के लिए चयनित
आशंका समिति नामक साहित्यिक संस्था का संचालन
ई मेल – prsingh2109@gmail.com

टिप्पणीकार निकिता ने 8 वीं कक्षा तक गांव (उत्तराखंड) में पढ़ाई की उसके बाद दिल्ली में दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान में ग्रेजुएशन किया। ग्रेजुएशन के दौरान छात्र राजनीति में सक्रिय भागीदारी एवं थियेटर का अनुभव भी किया। )

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