समकालीन जनमत
कविता

एकांत और संवेदना की नमी में आकंठ डूबा कवि प्रभात मिलिंद

रंजना मिश्र


प्रभात मिलिंद की कविताओं से गुज़रना संवेदनशील आधुनिक मानव मन की निरी एकांत यात्रा तो है ही साथ ही परिवार समाज और देश से परे की सीमाओं से निकल कर पूरी मानवता को संवेदना गझिन दृष्टि से छूने जाँचने परखने की कोशिश भी है ।

इन कविताओं पर लिखने से पहले मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि समीक्षा, समालोचना जैसे शब्द किसी भी साहित्यिक कृति से न्याय करने का दावा नहीं कर सकते, यह महज एक कोशिश हो सकती है संवेदनात्मक रचना यात्रा की उन पगडंडियों पर कदम दर कदम जमाते हुए चलने की, जिससे होकर रचना कार अपनी विरल सम्वेदनासम्पन्न जीवन दृष्टि लेकर गुज़रा,  इस दृष्टि से इसे मैं अपना डिस्क्लेमर भी कह सकती हूँ और समीक्षा और समालोचना जैसी विधा की सीमा भी।

इमारत की ईंटों को अलग अलग करके हम ईंटों का अध्ययन तो कर सकते हैं पर वास्तु की सुंदरता को नहीं पा सकते जो इन ईंटों के जुड़ाव से संभव होकर विशेष आंतरिक सौंदर्य की सृष्टि करती हैं ।

प्रभात उस पीढ़ी के कवि हैं जिनके पास जीवनानुभवों की थाती तो है ही, सम्यक जीवन दृष्टि और भविष्य की ओर प्रत्याशा से देखने का हुनर भी है. वे अपने मौन और एकांत में जीते हुए आस पास बहते जीवन का अवलोकन करते रहते हैं . उनकी रचनाएं यहीं से अपना जीवन रस पाती हैं, फूलती फलती हैं.

उदाहरण के लिए ‘चूहे’ कविता की ये पंक्तियाँ एक निरीह, अनुपयोगी से जीव की बात करते करते कब यायावर विस्थापितों के आख्यान में बदल जाती है, पाठक समझ ही नहीं पाता. जॉन स्टीनबैक के उपन्यास ‘ग्रेप्स ऑफ़ व्रैथ’ के विस्थापित खेतिहरों के समूह अपनी जिजीविषा का हाथ थामे पाठक के मानस पटल पर अनायास ही अपनी समग्रता में उभरने लगते हैं ।

अपनी दुश्वारियों के सहोदर हैं ये…
दोनों साथ-साथ जन्मे
लिहाजा अभिशप्त हैं ज़िंदा रहने के लिए
उन्हीं दुश्वारियों के साथ ताज़िन्दगी

इनका पूरा जीवन अंतहीन
विस्थापनों की एक अर्थहीन कथा है..

इतनी बड़ी दुनिया में ज़मीन का
ऐसा कोई छोटा टुकड़ा नहीं
जहाँ ये रह सके महफूज़…
जिनको कह सकें अपना.

पर यह कविता वहीँ ख़त्म नहीं होती, यह मानवीय रिश्तों, वंचनाओं और दोहरी मानसिकता की जांच पड़ताल करती हुई वर्तमान राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक चेतनासम्पन्न आख्यान बनती नज़र आती हैं जिनसे हम गाहे बगाहे रुबरु होते रहते हैं और कई बार अनजाने इनका हिस्सा भी बनते हैं।

बहुत चुराया होगा तो भूख भर अनाज,
किसी के हक़ का निवाला तो नहीं छीना
थोड़े-बहुत कपडे-कागज़ात ही कुतरे होंगे,
किसी के रिश्तों की डोर तो नहीं काटी
चबा डाले होंगे चंद हरुफ़,
लफ़्ज़ों को बेमानी और बेआवाज़ तो नहीं किया

भुरभुरी की होंगी खेत-खलिहानों की ज़मीन..
कुछ कच्चे-पुराने मकानों की नींव
लेकिन रवायत और उसूलों पर तो
नहीं आज़माएं कभी अपने पैने दाँत!

कविताएँ कई बार निराशा की हद को छूकर लौटने सा आभास भी देती हैं, पर यह वह नैराश्य नहीं जो जीवन से विमुख कर दे, इनका नैराश्य अधिकतर आशा का पूर्वाभास सा है,  यथा:

टीन वाली छत पर स्वप्न में अनवरत
बजता है बारिश का एक जादुई संगीत
रेत की नदी में फंस जाती है मेरी नींद की डोंगी …

गंगा के तट पर यह जो देह बैठी है किसकी है
जिसके ज़ेहन में बहती रहती है कोई दूसरी नदी ?

मिलूँगा अब तुमको एकबारगी
बंगाल की खाड़ी में ब्रह्मपुत्र !

प्रतीक्षा मेरे शब्दकोश में
उम्मीद से भरा अकेला शब्द है !!

अधिकतर कविताएँ स्मृतियों से ही अपना कथ्य तलाश करती नज़र आती हैं, इस तरह ये ईमानदार कविताएँ हैं।

छद्म और आरोपित विषयों की कोई जगह नहीं इन कविताओं में।हर कविता अपने आस्वाद में अकेली है चाहे उनका विषय प्रेम हो, फिलिस्त्तीन की त्रासदी हो, ब्रह्मपुत्र के किनारों पर बीता समय हो अथवा पिता हों. कविताओं के शब्द बिम्ब अनूठे हैं, एकबारगी  मौन सा तारी होता है इन्हें पढ़ते हुए। कविताओं से हुआ संवाद आहिस्ते से आत्मालाप का अंश बन जाता है, यही कुशल कवि कर्म है.

रचनाकार और पाठक की दृष्टि रचना के जिस बिंदु पर एकाकार होने के करीब पहुंचे ठीक उसी बिंदु से रचना पाठक की अपनी होने लगती है और इस तराजू पर प्रभात मिलिंद की करीब करीब सभी कविताएँ खरी उतरती हैं।

वर्तमान समय कविताओं के लिए अत्यधिक संशय और अनिश्चितता का समय  है, जहाँ कविताएँ शोर की तरह, नारों की तरह, जुमलों की तरह नेपथ्य में गूंजती हैं, प्रभात की कविताओं का स्वर मानवीय, एकान्तिक और नमी में आकंठ डूबा हुआ है। ये कविताएँ विश्वास दिलाती हैं कि कविताएँ प्रथमतः और मूलतः इंसानी संवेदना को व्यक्त करने का माध्यम थीं, हैं और हमेशा बनी रहेंगी।

 

प्रभात मिलिंद की कविताएँ

 

1. चूहे
———–

1.
भादो के काले बदराए दिन हों
कि पूस की चुभती हुई ठंढ
रातें जब एकदम निःशब्द हो जाती हैं
थक कर बेसुध औंधी गिरीं…और गहरी स्याह
जड़ता, अँधेरे और सन्नाटे के खिलाफ़
तभी किसी एकांत से
दर्ज़ होती है खड़खड़ाहट की हौली-हौली
लेकिन एक लगातार आती आवाज़.

मनुष्यों की सभ्यता में
नामालूम ये कब से शामिल हैं…

किसी भी इतिहासविद
या पुरातत्ववेत्ता के अभिलेख में
इनके विकास की क्रम-यात्रा का
सही-सही लेखाजोखा मौज़ूद नहीं
क्योंकि बेतरह और लगातार मारे जाने के
बावज़ूद इन्होंने अब तक बचाए रखा है ख़ुद को
विलुप्त होती प्रजातियों में शामिल होने से.

अपनी दुश्वारियों के सहोदर हैं ये…
दोनों साथ-साथ जन्मे
लिहाजा अभिशप्त हैं ज़िंदा रहने के लिए
उन्हीं दुश्वारियों के साथ ताज़िन्दगी

इनका पूरा जीवन अंतहीन
विस्थापनों की एक अर्थहीन कथा है..

इतनी बड़ी दुनिया में ज़मीन का
ऐसा कोई छोटा टुकड़ा नहीं
जहाँ ये रह सके महफूज़…
जिनको कह सकें अपना.

2.
इनके माथे हैं गुनाह सौ…
और हज़ार तोहमतें इनके नाम
शायद इसलिए भी ये पृथ्वी पर उपस्थित
सबसे अवांछित और हेय नस्लों में
गिने जाते रहे हमेशा

संक्रमण के जन्मना संवाहक
और मीठी नींद के चिरंतन बैरी..
शीतगृह और खलिहानों के पुरातन लुटेरे
और कपास के आदिम दुश्मन

दुनिया की एक बड़ी आबादी
इनकी वज़ह से भी खाने-कपड़ों से वंचित है
कई नामीगिरामी अर्थशास्त्रियों
और शोधकर्ताओं की ऐसी मान्यता है.

दुनिया भर की नुमाइशगाहों में रखे गए
और अब तवारीख़ बन चुके दस्तावेज़
या फिर बड़ी जतन से सहेज कर रखी हुईं
तमाम नायाब किताबों के लिए
एक लगातार ख़तरा हैं ये

अपने वजूद को बचाए रखने के लिए
इनके ही रहमोकरम के मोहताज़ हैं
स्मृतियों में शेष बचे रह गए
गिनती के कुछ लुप्तप्राय प्रेमपत्र
जबकि जीव-जगत के निहायत
कमज़ोर और लाचार प्राणी हैं ये…

युग-युगांतर से रहे हैं ये
दुर्बलता और कायरता के प्रतीक !
इनकी ही बदौलत ज़िंदा हैं भाषा-विज्ञान में
आज भी अनगिनत कहावतें और मुहावरे

जहाज़ में छेद हो जाए तो कहते हैं
कि सबसे पहले ये ही भागते हैं

अरब से कमा के लौटे चचाजात भाई की (चचाज़ाद)
नई फटफटिया और दोनाली देखकर
अक्सर चुटकी लेते थे छोटे काका
कि अगहन में तो चूहे भी
सात-सात जोरुएँ रखते हैं

पिता अक्सर नसीहत दिया करते,
जीवन में सुखी रहना है तो ‘चूहा-दौड़’ से बचो

‘पुनः मूषक भव’ वाला किस्सा
तो हमने बचपन में ही बाबा की ज़ुबानी सुनी थी.

3.
औक़ात के मुताल्लिक़ हमेशा हाथी के
बरक्स आँका हमने इनको
हमारी ताक़त के मुक़ाबिल खड़ा होता है जो
उसकी हस्ती चूहे बराबर समझते हैं हम

ज़ाहिर है, उस गजमस्तक आराध्य को
हम अक्सर भूल जाते हैं तब
जो अपने तथाकथित पराक्रम और स्थूल काया के
बावज़ूद निर्भर है इसी बेऔक़ात सी जान पर
दसों दिशाओं में कहीं भी आने-जाने के लिए..

जहाँ ये बाक़ायदा पूजे जाते हैं…
माने जाते हैं पवित्र और श्रद्धेय
इसी आर्यावर्त में ऐसा कोई मंदिर भी है एक

जनपद के सबसे बाहुबली नेता की बेटी
बेहोश पाई गई एक रोज़ अपने हम्माम में
अख़बारों की रपट के मुताबिक
उसके पांव के नीचे एक चूहा आ गया था

अपनी तुक्षता के बारे में  (तुच्छता)
ये कभी नहीं रहे किसी मुग़ालते में
ज़ारी नहीं किया अपने पक्ष में कोई बयान..
या बचाव में कोई हलफ़नामा.

उनकी हैसियत को लेकर हम ही रहे
हमेशा से संशयग्रस्त और तर्कविहीन

उन्होंने ज़्यादा किया हमारा नुक्सान
कि हमने लीं इनकी जानें बेमुरव्वती से
इस बात पर ख़ामोश है हमारी जमात
जबकि यह सवाल ज़रूर होगा उनके भी ज़ेहन में.

4.
इनकी निरीह और कातर आँखों को
ज़रा एक नज़र गौर से देखिए…
अपनी मर्ज़ी से नहीं आए ये
इस बेरहम और ज़ालिम दुनिया में
कभी नहीं चुनी होती यह ज़िन्दगी
अगर होता कोई विकल्प इनके पास
इतनी घृणा, तिरस्कार, अपमान और संघर्ष से भरी.

ये हमारी सभ्यता के सबसे घुमंतु यायावर हैं..
दुनिया के सबसे बड़े कलंदर
हमारी मनुष्यता को इनकी जिजीविषा से
अब भी सीखने की ज़रूरत है…

पृथ्वी पर कहीं नहीं इनका घर
फिर भी बना लेते हैं ये कहीं भी ठौर अपना

बार-बार उजाड़े जाने के बाद भी
हर बार बसा लेते हैं अपना कुनबा
बसर कर लेते हैं हमारी जूठन पर
अपनी मुख़्तसर ज़िंदगियाँ
बदबूदार गटर हो या सीलन भरी दुछत्ती..
कहीं भी कर लेते हैं प्रेम…

फटे-पुराने जूतों के भीतर
बढ़ाते रहते हैं अपनी पुश्तों का कारवां.

अदने से परदे पर घूमता है नुक़्ते सा कोई तीर
निकलती है ‘क्लिक’ की मद्धम सी आवाज़
और हमारे सामने खुल जाती है
विस्मयकारी सूचनाओं और संपर्कों की
एक विराट-अद्भुत दुनिया…

तब इसकी हमनाम शै ही दुबकी हुई
घूमती होती है हमारी हथेलियों के इशारों पर

कितने मौक़ापरस्त और लाचार हैं इनके बरक्स हम
कि हरेक बार पहले इनको ही भेजा
अंतरिक्ष में ख़ुद जाने की बजाए

ढाए हज़ार सितम शोधशालाओं में
टीकों और दवाओं की ईज़ाद के नाम पर
फिर भी खाली रहे इतिहास के सफे
इनकी क़ुर्बानियों के ज़िक़्र और दास्तानों से.

5.
बहुत चुराया होगा तो भूख भर अनाज,
किसी के हक़ का निवाला तो नहीं छीना
थोड़े-बहुत कपडे-कागज़ात ही कुतरे होंगे,
किसी के रिश्तों की डोर तो नहीं काटी
चबा डाले होंगे चंद हरुफ़,
लफ़्ज़ों को बेमानी और बेआवाज़ तो नहीं किया

भुरभुरी की होंगी खेत-खलिहानों की ज़मीन..
कुछ कच्चे-पुराने मकानों की नींव
लेकिन रवायत और उसूलों पर तो
नहीं आज़माएं कभी अपने पैने दाँत!

जो दिखते हैं ज़हीन और पहनते हैं नफ़ीस कपड़े
जो बोलते हैं संजीदा ज़ुबान…
और रहते हैं आलिशान कोठियों में
जो अपने ही हमज़ाद के खौफ़ से
चलते हैं बुलेटप्रूफ गाड़ियों पर
और बिस्तर से लेकर मंदिर के गर्भगृहों तक
घिरे रहते हैं सुरक्षा के अभेद्य घेरे में
जो बने बैठे हैं हमारी ज़िंदगियों के
मुख़्तार और मुंसिफ़
और अपने सख़्त जबड़ों से चबा रहे हैं
जो हमारा मुस्तक़बिल … मुसलसल
चूहों की उस प्रजाति के बारे में भी सोचिए ज़रा
सबसे ज़्यादा डर और ख़तरा है जिनसे हमें.

आदिम नफरतों और हज़ार हिकारतों के बाद भी
चूहे शामिल रहे हैं आदियुग से
हमारी सभ्यता में…और रहेंगे ये
अनंतकाल तक, अलग-अलग काया में..
बदल-बदल कर वेश…बदल-बदल कर स्वांग. ”

 

 2. फिलिस्तीन

1.
अभी तो ठीक से उसके सपनों के पंख भी नहीं उगे थे
अभी तो रंगों को पहचानना शुरू किया था उसने
अभी तो उसकी नाजुक उँगलियों ने
लम्स के मायने सीखे थे
और डगमगाते थे उनके नन्हे पांव तितली
और जुगनुओं के पीछे दौड़ते हुए
अभी तो आँख भर दुनिया तक नहीं देखी थी
कि मूँद दी गईं उसकी आँखें
और, वह भी तब जब मुब्तिला था वह
खूबसूरत परियों के साथ,
नींद की अपनी बेफ़िक्र दुनिया में.

यह एक क्षत-विक्षत, रक्तस्नात और निश्चेत देह है
बच्चा अपने पिता की गोद में है
जो उसे अपने सूखे होठों से बेतहाशा चूम रहा है
और लिए जा रहा है शफ्फाक कफ़न में लपेटे…
सुपुर्दे-खाक़ करने उसको

हवा में मुट्ठियाँ लहराते हुए
नारे लगा रहे हैं कुछ बेऔक़ात लोग
और पीछे-पीछे विलाप करतीं
औरतों का अर्थहीन समूह है

आप इस बच्चे की मासूमियत
और औरतों के स्यापे पर हरगिज़ मत जाइये
क़ौम के लिए फ़िक्रमंद निज़ामों की नज़र में
यह बच्चा चैनो-अमन के लिए
एक बड़ा ख़तरा साबित हो सकता था
ख़तरा भी खासा बड़ा कि मारना पड़ा
उसे मिसाइल के इस्तेमाल से
और आँख भर दुनिया देखने के पहले
बन्द कर दी गईं उसकी आँखें हमेशा के लिए.

यह जश्न मनाने की ज़मीन है …
ऐसे वाक़ये यहाँ रोज़मर्रा के नजारे हैं
यहाँ बारूद की शाश्वत गन्ध के बीच
बम और कारतूसों की दिवाली
और सुर्ख़-ताज़ा इंसानी लहू के साथ
होली सा खेल खेलने की रवायत है जैसे

यह एक ऐसा मुल्क है जो चंद सिरफिरे लोगों के
तसव्वुर और फ़ितूर में है फ़क़त
लेकिन क़ौम के लिए फ़िकमंद निज़ामों के
ज़ेहन और दुनिया के नक़्शे पर
तक़रीबन न होने के बराबर है …
यह फिलीस्तीन है.

2.
उनलोगों के बारे में भी सोच कर देखिए ज़रा
जिनकी कोई हस्ती नहीं, न घर अपना
न कोई आज़ादी, न कोई मुल्क और मर्ज़ी
जो कई पीढ़ियों से अपनी जड़ें तलाश रहे हैं
मुसलसल … इसी रेत और मिट्टी में…
जो बेसब्र हैं जानने के लिए अपने होने
का मतलब और मक़सद
जो बरसों-बरस से जलावतन हैं अपने पुरखों की ही ज़मीन पर

हक़ और ताक़त की इस ज़ोरआज़माइश में
जो हर रोज़ जिबह किए जा रहे हैं
बेक़सूर और बेज़ुबान जानवरों की तरह .. बेवज़ह

कभी रही होगी यह सभ्यताओं के उत्स की धरती
पैगम्बर की पैदाइश और मसीह के
वक़ार की पाकीज़ा ज़मीन
अब तो यह मनुष्यता के अवसान की ज़मीन है

इस ज़मीन पर बेवा और बेऔलाद हो चुकीं
औरतों का समवेत विलाप
अब मरघट के उदास और भयावह कोरस
की तरह गूंजता है…अनवरत

ज़मींदोज़ होती बस्तियों में कब्रगाहों
से भी कम रह गई हैं मकानों की तादात.

बेरूत हो कि बग़दाद…
काबुल, समरकंद, कश्मीर या फिर गाजा
कभी लोग इसे दुनिया की ज़ीनत और जन्नत कहा करते थे

अलादीन, सिंदबाद और मुल्ला नसीरुद्दीन
के किस्से पढ़ कर जाना था हमने भी

परीकथाओं के ये जादुई  और खूबसूरत शहर
अब किसी सल्तनत के हरम में पड़ीं उजड़ी मांगों
वाली बेकार और अधेड़ हो चुकी रखैलें हैं
जिनके पूरे जिस्म और चेहरे पर
दांत और नाखूनों के बेशुमार ज़ख्म हैं
और जिनसे रिसता रहता है खून और मवाद …
लगातार और बेहिसाब

एक अमनपरस्त और तरक्क़ीपसंद
हुक्मरान के किरदार में
नफ़ीस कपड़े पहने बैठा है जो शख़्स
अपने शुभ्रमहल में… सुदूर और सुरक्षित…
नरमुंडों के उस बर्बर सौदागर का
उद्दीपन और पौरुष आज भी दरअसल
खून और मवाद के इसी स्वाद की वजह से ज़िंदा है.

3.
बादलों और परिंदों ख़ातिर कोई जगह नहीं
अब काले-चिरायंध धुँए से भरे आसमान में.
बारूद की चिरन्तन गंध ने अगवा कर लिया है
फूलों की खुशबू…बनस्पतियों का हरापन

बच्चों का बचपन, युवाओं के प्रेमपत्र,
औरतों की अस्मत और बुज़ुर्गों की शामें
सब की सब गिरवी हैं आज जंग और
दहशतगर्दी के ज़ालिम हाथों…

जंग और फ़साद में ज़िंदा बच कर भी
जो मारे जाते हैं वे बच्चे और औरतें हैं
मासूम बच्चे…मज़लूम बच्चे…अपाहिज बच्चे…यतीम बच्चे…
बेवा औरतें…बेऔलाद औरतें…
रेज़ा-रेज़ा औरतें…हवस की शिकार औरतें.

बच्चे उस वक़्त मारे गए
जब वह खेल रहे थे अपने मेमनों के साथ
औरतें इबादत के वक़्त मारी गईं, या फिर बावर्चीखानों में
बुज़ुर्ग मसरूफ़ थे जब अमन के
ताज़ा मसौदे पर बहस में, तब मारे गए
और जवान होते लड़कों को तो मारा गया
बेसबब….सिर्फ शक़ की बिना पर.

नरमुंडों की तिज़ारत करने वाले हुक्मरानों!
इस पृथ्वी पर कुछ भी अनश्वर नहीं…
न तुम्हारी हुक़ूमत और न तुम्हारी तिज़ारत

कुछ बचे रहेंगे तो इतिहास के कुछ ज़र्द पन्ने
और उनमें दर्ज़ तुम्हारी फ़तह के टुच्चे किस्से
सोचो, जब क़ौमें ही नहीं बचेंगी
तब क्या करोगे तुम तेल के इन कुओं का
और किनके ख़िलाफ़ काम आएंगी
असले और बारूद की तुम्हारी यह बड़ी-बड़ी दुकानें!

एक सियासी नक़्शे से एक मुल्क को
बेशक़ खारिज़ किया जा सकता है
लेकिन हक़ की लड़ाई और
आज़ादी के सपनों को किसी  क़ीमत पर हरगिज़ नहीं

इसी रेत और मिट्टी में एक रोज़ फिर से बसेंगे
तंबुओं के जगमग और धड़कते डेरे
बच्चे बेफ़िक्र खेलेंगे नींद में परियों के साथ
और भागते-फिरेंगे अपने मेमनों के पीछे
औरतें पकाएंगी खुशबूदार मुर्ग रिज़ला
और खुबानी मकलुबा मेहमानों की ख़िदमत में

सर्दियों की रात काम से थके लौटे मर्द
अलाव जलाए बैठ कर गाएंगे अपने पसंद के गाने
बुज़ुक और रबाब की दिलफरेब धुनों पर
एक दिन लौट आएंगे कबूतरों के परदेशी झुंड
बचे हुए गुम्बदों और मीनारों पर…
फिर से अपने-अपने बसेरों में.

देखिए तो सिर्फ एक अंधी सुरंग का नाम है यह

सोचिए तो उम्मीद और मुख़ालफ़त की
एक लौ है फिलीस्तीन!!

3. बारिश के दिनों में नदी का स्मृति-गीत

1.
स्वप्न में बहती है चौड़े पाट की एक नदी
बेआवाज़ याद का कंकड़ चुभता है
नदी के जिगर में बेइख़्तियार …

दो बेतरतीब किनारों के बीच
थरथराती है सांस की एक झीनी सी सतह.

लाल-नीली धारियों वाला
एक पीला-सुनहरा मेखला नीमनींद में कौंधता है..
और,  दृश्य में एक रामनामी की तरह
झिलमिलाता है कोई रेशम बार-बार

आगत में सीली हुई लकड़ियों के
चटखने की टीस सुनाई पड़ती है
आग की लपटें जहाँ पर ख़त्म होती हैं
वहाँ से धुएँ की महीन-स्याह लकीरें उठती हैं
थोड़ी दूर तलक सीधी जाती हैं,
फिर बिखर जाती हैं … कहीं नहीं जाने के लिए.

एक चिरायंध गन्ध मस्तिष्क के
अंतरतम-सूक्ष्म रन्ध्रों से टकराती है ..

अभी-अभी तो बरसात बाद की उगी
हरी दूब पर थोड़ी दूर चला था …
अभी तो आधी पढ़ी थी
एक प्रिय कवि की किताब

पसन्द की कमीज़ें क्या इसलिए खरीदी थीं
कि उनको पहन नहीं सकूँ एक भी बार !

सुख बेच कर दुःख ख़रीदने का
व्यापार कभी किया है आपने ..?
फिर,  क्लांत पानी की ख़लिश का
अनुवाद आप कैसे कर सकेंगे !

2.
आपको पता है,
माघ में आइजोंग चावल के पके भात के साथ
चपिला माछ का झोर कैसा जायकेदार लगता है!
और चीनी मिट्टी की कटोरी में
लाउपानी की घूँट का वह दुर्लभ उन्माद ..!!

दुनिया की सबसे अक्षुण्ण गन्ध
दुनिया का सबसे अद्भुत स्वाद
दुनिया का सबसे  जीवंत दृश्य
दुनिया का सबसे कोमल स्वप्न
एक रोज़ देखते ही देखते
हमारी स्मृतियों के कैदी बन जाते हैं !

वे क्षण इसी जनम का हिस्सा होते हैं
मगर हम चाहें भी तो
उनतक लौट नहीं सकते दोबारा !

कौन सा काला जादू है जो हर बार
मेरा पता बताने से मुझको रोक देता है …

वैसे भी एक बार जो कोई गया उस देस, वह
हमेशा के लिए पिंजरे का सुग्गा बन जाता है ..

बचपन की किसी किताब में ऐसा पढ़ा था मैंने.

तुमने तो कामरूप देस !
निर्वासित करने से पहले, मेरीआँखों के
बादल तक छीन लिए मुझसे !!

कविताओं के मुहावरे हमेशा जीवन के
संताप और फ़रेब का विकल्प नहीं होते …

दुःख पीले पन्नों पर दर्ज़ आधे-अधूरे हर्फ़ हैं
उनको उंगलियों के पोरों से भी पढ़ा जा सकता है

3.
बासुगाँव की वह दुबली सी लड़की
घर में बुने शॉल-मफ़लर का गट्ठर उठाए
क्या अब भी आती होगी हाट वाले दिन?

अब तो उसका बच्चा बेक़ाबू दौड़ता होगा!

छोटी सी छतरी के नीचे
गोद भर रखा कपास का वह फाहा !

हाट में बिकती तमाम चीजों के बीच,
उसकी निष्कलुष हँसी
कैसा धवल दृश्य रचती थी !!

दुनिया अनुपमा दैमारी की
पुरानी कमानियों वाली फूलदार छतरी की
तरह महफूज़ और भरोसेमंद होती
तो कितना सुंदर होता !

लौट आने का अर्थ
ख़ुद को साथ लाना कब होता है ?
हम हथेली में रखी मामूली रकम भर बचते हैं,
ब्याज काटने के बाद जो लौटाता है प्रेम …

टीन वाली छत पर स्वप्न में अनवरत
बजता है बारिश का एक जादुई संगीत
रेत की नदी में फंस जाती है मेरी नींद की डोंगी …

गंगा के तट पर यह जो देह बैठी है किसकी है
जिसके ज़ेहन में बहती रहती है कोई दूसरी नदी ?

मिलूँगा अब तुमको एकबारगी
बंगाल की खाड़ी में ब्रह्मपुत्र !

प्रतीक्षा मेरे शब्दकोश में
उम्मीद से भरा अकेला शब्द है !!

4. किस्से से बाहर होने का दुःख

जो कभी व्यक्त नहीं हो पाया
दुःख से बड़ा दुःख, यही दुःख था

अब तलक दिखने से जो बची रही थीं,
वे तमाम चीज़ें बरसात में धुली पत्तियों की तरह
कितनी ज़हीन और सब्ज़ नज़र आने लगी थीं

यह भी तो एक दुःख ही था.

अकेलेपन का यह नीमरोशन अंधेरा
कितना भव्य और दूधिया दुःख था !

कैसा पार्थिव, कैसा पवित्र, कैसा नम दुःख !!

रोज़-रोज़ कितना कुछ कहना चाहता था मन
रोज़-रोज़ किस तरह रोकती रही यह  ज़िन्दगी !

और, यह दुःख तो हमेशा से अनकहा ही रहा ..
कि बाहर का शोर मन में आकर
कब और कैसे ठहर गया था

वह क्या था ज़ेहन में फंसा हुआ सा
जो एक ऐंठन की तरह उमड़ता-घुमड़ता
और मथता रहता था लगातार !

सांसों के ज़िंदा बचे होने की
शर्त भी एक बेज़ुबान दुःख थी …

और, अदाकारी को दुनियादार होने के
इकलौता सबूत होने के दुःख का क्या करता !

कुछ स्मृतियों के दुःख थे
फीकी पड़ती गन्धों के
कुछ पुराने इंद्रधनुष सरीखे…

कुछ दुःख दृश्यों में थे
जिनमें रेत पर औंधी पड़ी एक नाव थी
और अरसे से बुझे हुए लैंपपोस्ट की लंबी क़तारें.

ख़तों के अपने दुःख थे…
प्रेम पर लिपटे हुए खुशबुओं के हर्फ़
सफ़ेद चादर की तरह तो पूरे पड़ते थे,
लेकिन सच को छुपा पाने के लिए
अब कितने छोटे पड़ने लगे थे !

घृणा का स्वांग प्रेम की सबसे बड़ी विवशता थी ..
व्यापार की विवशता, प्रेम में होने का स्वांग थी !

कितनी हैरतअंगेज़ बात थी !
कि जिसकी लिखी हुई कविताएँ
प्रार्थनाओं की तरह पढ़ता रहा था,
अब उस स्त्री को भूल जाने की
एक तवील कशमकश से
होकर गुज़रना था मुझको !

दूभर था इस नशे के बिना जीना!
यह एक अफ़ीम दुःख था !!

5. पृथ्वी पर प्रेम के चुनिंदा दावेदार हैं

1.

मनुष्य को घृणा नहीं, प्रेम मारता है
घृणा करते हुए हम चौकन्ने रहते हैं

लोग पानी मे डूब कर ज़्यादा मरे हैं
प्यास ने कम आदमियों की जानें ली हैं

हमें धोखे ने कम, भरोसे ने बार-बार मारा है …

सूखी ज़मीनों में दरारें पड़ जाती हैं
फिर भी धरे जा सकते हैं पांव उन पर

गीली मिट्टी में धँसते हैं पैर
बमुश्किल कदम आगे बढ़ पाते हैं

2.
ऐसे बिदूषक समय में जबकि आदमी
पहाड़ों पर सैर की फोटुएं अपलोड करने
और मनुष्य होने के दुःख और संताप पर
अफ़सोस ज़ाहिर करने का काम
बड़ी सहूलियत से साथ-साथ कर सकता है

और, कार की किस्तों और कुत्तों की नस्लों
पर बहस करना बारिश, संगीत,
दोस्ती और प्रेम से कहीं बड़ा शग़ल है,

वसंत का हरापन और पलाश के दहकते फूल
क्या फ़क़त हमारी नज़्मों की ख़ब्त भर हैं ?

3.
उस शाम तोहफ़े का रिबन खोलती
उस औरत की आँखें कैसी बुझ गई थीं !

उस पल मुझे एहसास हुआ था
हम अब प्रेम के एकांत-नागरिक नहीं थे

अपनी जरूरतों और उम्मीदों के बरास्ते
हम एक बाज़ार से गुज़र रहे थे

हमारी जेबों में पड़े सिक्के
दरअसल हमारे रिश्तों की सराय थे !

 

6.  इन दिनों पिता की याद
पिता जब थे
तब कितनी छोटी थी हमारी दुनिया
पिता की बड़ी दुनिया के बीचोबीच
इस तरह महफूज़
घने जंगल में जैसे गुनगुनी धूप का टुकड़ा

फिर एक दिन देखते ही देखते
धूप को खा गया जंगल.

पिता थे
तो जर्जर समय भी निरापद लगता था
कुछ भी नहीं था इस धरती पर कल्पनातीत

फिर एक दिन अचानक
सबकुछ हो गया समय-सापेक्ष
और जीवन संशय पर पाँव धर चलने लगा.

पिता के अंतस में
एक नदी प्रवाहित होती थी
जिजीविषा और अदम्य विश्वास से भरी हुई…
आप्लावित होते रहते थे उस नदी में
हमारे छोटे-बड़े सपने.

इतने विरल होते हैं
दो व्यक्तियों के अंतर्संबंध,
यह तब जाना मैंने
पिता के भीतर बहती वह नदी
जब सूख गई माँ के मन में
एक रोज़ अचानक ही.

माँ के मन से गुज़रती हुई
बरामदे में पड़ी ख़ाली कुर्सी तक
फैलती है सालों-साल लंबी रेत की एक नदी

इस अगम नदी को माँ
तुलसी और कबीर के सहारे
पार करना चाहती है
जिनके दोहे और पद पढ़ाए थे पिता ने
मृत्यु के एक दिन पहले तक.

पिता के पास ढ़ेर सारी किताबें थीं
उन किताबों में ढ़ेर सारे क़िस्से थे
उन क़िस्सों में कुछ फंतासियां थीं
और ढेर सारी पहेलियाँ.
अफसोस लेकिन,
पन्ने कुछ ग़ायब थे आख़िर के
दर्ज़ थे जिन पन्नों पर उन पहेलियों के हल…

उन खोए हुए पन्नों की तलाश में
भटकता फिरता हूँ दोस्त!

क्षमा करना,
इसलिए फ़ुर्सत नहीं मिलती इनदिनों. ●●●

7. एक कॉमरेड का बयान 
  (गोरख पांडेय के लिए)

हम ऐसे शातिर न थे
कि इस तरह मार दिए जाते.

हमारे मंसूबे ख़तरनाक तरीक़े से बुलंद थे
इसलिए हमारा मारा जाना तय था…

हमें कुछ ख़्वाब को अंजाम देना था
बचे हुए वक़्त में बची हुई ईंट-मिट्टी से
हमें बनानी थी एक मुख़्तलिफ़ दुनिया

हम इसलिए भी मारे गए
कि हमने उन फ़रेबियों का एतबार किया
जिन्होंने खींच कर पकड़ रखी थी रस्सी
और उकसाया हमको बारम्बार
उसपर पाँव रख कर चलने के लिए

लेकिन वे तो तमाशबीन लोग थे..
उनको क्या ख़बर होती
कि नटों के इस खेल में
धीरे-धीरे किस तरह दरकता जाता है
आदमी के भीतर का हौसला
और बाहर जुम्बिश तक नहीं होती.

मारे जाने के वक़्त
जिनकी आँखों में खौफ़ नहीं होता
वे नामाकूल किस्म के लोग माने जाते हैं

वे मारे जाने के बाद भी
संशय की नज़र से देखे जाते हैं.

इसके बावज़ूद अगर हम चाहते
तो मारे जाने से शर्तिया बच सकते थे…

अगर हम नहीं होते इतना निर्द्वन्द्व और भयमुक्त
अगर हम नहीं करते इस विपन्न समय में प्रेम
अगर हम नहीं खड़े होते वक़्त के मुख़ालिफ़
अगर हम खुरच फेंकते आँखों के ख़्वाब
अगर हम ढीली छोड़ देते अपनी मुट्ठियाँ
और गुज़र जाते पूरे दृश्य से…नि:शब्द
नेपथ्य से बोले गए उन जुमलों पर
होंठ हिलाने का उपक्रम करते हुए
जो दरअसल किसी और के बोले हुए थे
तब शायद हम मारे जाने से बच सकते थे!

***

 

(कवि प्रभात मिलिंद का पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. की अधूरी पढ़ाई। हिंदी की सभी शीर्ष पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, डायरी अंश, समीक्षाएँ और अनुवाद प्रकाशित।स्वतंत्र लेखन।
संपर्क: prabhatmilind777@gmail.com

टिप्पणीकार रंजना मिश्र 2017 के प्रतिलिपि कविता सम्मान से सम्मानित कवयित्री। आकाशवाणी पुणे से सम्बद्ध। कथादेश, पहल, समालोचन, बिजूका में कविताएँ। यात्रा संस्मरण, आलेख, कहानी का प्रकाशन। शास्त्रीय कलाओं की पत्रिका, classical claps के लिए शास्त्रीय संगीत पर लेखन, इंडिया मैग में आलेख, बिन्दी बॉटम में आलेख। )

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