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संघर्ष और जीवट का कवि प्रभात

चरण सिंह पथिक


हिंदी कविता की युवा पीढ़ी में कुछ ऐसे नाम हैं जो अपनी अलग कहन के लिए जाने जाते हैं। उनमें से प्रभात भी हैं।

प्रभात कविता को लिखते ही नहीं वरन उसे शिद्दत से जीते हैं । यही कारण है कि उनकी कविताओं में गांव की धूल, गोबर, पसीना और ग्रामीण स्त्रियों का संघर्ष उनके दुख, इस कदर घुल-मिल गए हैं कि आप उन्हें पढ़ते वक्त जीवंत महसूस कर सकते हैं।

उनके मुहावरे और बिंब किसानों, मजदूरों और खेतों में खटती स्त्रियों के पसीने से सराबोर हैं ।कविताओं को पढ़ते वक्त लगता है पिंडलियाँ भड़कने भड़कने को हैं ।
बकौल अरुण कमल जी-“जिस प्रेम, मार्मिकता और अश्रु सिक्त आंखों से प्रभात ने इस जीवन को रखा है वह हमारा कलेजा काढ़ लेने को काफी है। बेहद सधे हुए, संयमित, कंपन रहित स्वर में उन्होंने दुख और संताप की गाथा का गान किया है ।”

प्रभात के कवि बनने और उन कविताओं को रचे जाने का मैं शुरू से साक्षी रहा हूं । जब वह कविताएं लिख रहा होता है तो एक अजीब से तनाव से गुजरता हुआ लिखी जाने वाली कविताओं में विलीन हो जाता है ।

कविता लिखना उसके लिए कोई रोमांटिक शौक नहीं है वरन उतना संघर्ष भरा होता है जितना कि इस बाजारी युग में छीजते संबंधों के बीच जीवन जीने की उत्कट जिजीविषा होती है।

‘नींद का समुद्र’ कविता की इन पंक्तियों पर गौर करेंगे तो पता लगेगा कि इन पंक्तियों को सिर्फ प्रभात लिख सकता है –
फिर लुगड़ी का पल्ला लिया तुमने
फिर लोभी चांद ने ताका है तुम्हें
यह भोर होने के पहले का दृश्य है । नव व्याहता को भोर होने से पहले जागना होता है ।उसके जागने से पास सोए हुए पति की नींद का समुद्र हिलता है-
ओस भीगी घासों की गंध से भरी
पाटोर के अँधियार में
कैसे लहंगा सरसराते हुए
खड़ी हुई तुम बिस्तर से

महानगरीय वातानुकूलित जगमगाते बेडरूम से जब हम पोस्ट भीगी घासों की गंध से लबरेज उस अंधियारी पाटौर की तुलना करते हैं तो शरीर में सिहरन दौड़ जाती है ।

प्रभात हमें अपनी कविताओं के जरिए उन अनदेखी अछूत जगहों पर ले जाते हैं जहां कविताओं के माध्यम से अधिकांश कवि जाना नहीं चाहते वे। वे उन विषयों को उठाते हैं जो कवि कर्म के लिए अक्सर दुरूह और अछूत माने जाते हैं ।

सारस प्रेम के लिए जाना जाता है । एक के बिना दूसरा जिंदा नहीं रह सकता है । पहले सारस बहुत दिखता था । अब दुर्लभ होता जा रहा है । जैसे कि वर्तमान में प्रेम । खेतों में खरपतवार हटाती औरतें और युवतियों के माध्यम से बचे हुए प्रेम को अपने देशज अंदाज में कहती ये कविता प्रेम में पगे प्रेमी की निराशा के चरम क्षण को व्यक्त करती है ।

‘गोबर की हेल’, ‘विदा’, सांस में घुली पृथ्वी, गुम बच्चे की याद स्त्री जीवन की त्रासदियों को देशज बिम्बों और शब्दों से बयां करती हैं उसे सिर्फ प्रभात लिख सकता है ।

अंत में ‘गोबर की हेल’ कविता के साथ अपनी बात खत्म करना चाहूंगा जिसका जिक्र अरुण कमल जी ने किया है -“प्रभात की कविताओं की ऐन्द्रिकता बार-बार हमें रोक लेती है । “मैं भैंस के पेशाब के छीटों से भीग रहा था” ऐसा किसने लिखा आज तक ? जीवन से प्रेम और आसक्ति और जो भी है वह घट रहा है । उसके प्रति एकाग्र चित्त होकर ही ऐसी है ऐन्द्रिकता संभव है-जीवन के प्रत्येक कण को पवित्र जानकर ।

ग्रामीण जन-जीवन की विडंबनाओं, त्रासदियों को प्रभात जिस तरह से अपनी कविताओं के माध्यम से हमें बताते हैं वह किसी महाकाव्य या महाकथा से कम तो नहीं है।

कवि प्रभात की कविताएँ

 

1. दुख

दुख मेरे भीतर टहल रहा है

संकट की तरह एकाएक नहीं आया है यह
बरसों चलने के बाद पहुँचा है मुझ तक
इसके आने की आहट थी मुझे

अब जब आ ही गया है
बस ही गया है मुझमें
मेरे साथ रहने के लिए

एक ही जगह रहते हैं तो
सजल आँखें चार भी होती हैं

जीवन में मेरे हिस्से के आकाश की तरह
हटा नहीं सकता इसे मैं
बदल नहीं सकता इसकी शक्ल-सूरत
कम अधिक नहीं कर सकता इसका ताप

निवेदन नहीं कर सकता इससे
सहनीय होने के लिए

2. नीरव

सूखी पीली घासों की गंध
हवा में हिलते फूल और खूँटों से बँधे पशुओं की साँसों के सिवा
कोई शब्द नहीं गाँव में

कृषक पिता और पुत्र
आए हैं गाँव के अपने सूने घर में
खेतों से थके हारे आए हैं वे
रोटी तलाश रहे हैं
पत्थर के बर्तन के नीचे
चार रोटियाँ हैं

पता था कि भाजी नहीं होगी
आते हुए मूँगफली उखाड़ लाए थे रास्ते के खेत से
पिता छील रहा है कच्ची मूँगफली
पुत्र को मिल गई है जाँवणी के तल में एक खौंच छाछ

पिता मूँगफली के दाने और दो सूखी लाल मिर्च पीसता है सिलबट्टे पर
पुत्र एक खौंच छाछ मिलाता है उसमें
दोनों दो-दो रोटी खाते हैं इस लगावन से

सुस्ताते नीम तले की खाटों में अगर फुर्सत होती
चऴु की और चल दिए पैरों में जूतियाँ डालते हुए खेतों की ओर

3. इतना नहीं

इतना मीठा मत फुसफुसाओ ओ हवा
कि लगे जैसे कान की लवों पर होंठ रख दिए हों
इतना करीब मत दिखो ओ चाँद
कि हाथ बढ़ाकर छूने का जी करे
इतना मुझमें मत गहराओ ओ रात
कि लगे जैसे खून में बह रही हो
इतना पास मत आओ ओ पृथ्वी कि टकरा जाओ
कि तुम कोई और ग्रह हो, मैं कोई और ग्रह हूँ

4. सारस

सारस का जोड़ा
डोल रहा है खेतों में
औरतें लगी हैं खरपतवार हटाने में
युवतियाँ भी हैं कई इनमें
जो होंगी ही किसी न किसी के प्यार में
उनकी यह उम्र ही ऐसी है
बार-बार खड़ी रह-रह कर
देखती है दूर-दूर तक

थोड़ी ही दूरी पर
चरागाह में चरती भेड़ों के बीच खड़े
गड़रिए से बातों में लगने की कोषिष करता
जाने किसका प्रेमी है यह
जाने कौन है
जो आयी नहीं है

5. नींद का समुद्र

ओस भीगी घासों की गंध से भरी
पाटोर के अँधियार में
कैसे लहँगा सरसराते हुए
खड़ी हुई तुम बिस्तर से

फिर लूगड़ी का पल्ला लिया तुमने
फिर लोभी चाँद ने ताका तुम्हें

हिल गया मेरी नींद का समुद्र
जाग गया मैं
तुम्हारे जागने के अमर दृष्य को
देखते हुए
देखता रहा तुम्हें
अँधियार में पाँव धरते हुए
जाते हुए

6. विदा

यादों को भी विदा कहने का वक्त आएगा
इच्छा और उदासी जैसे पक्के रंग भी छूट जाएँगे
पानी से खाली घासों की तरह सूख जाएँगी जब याद
करुणा के जल को भी विदा कहने का वक्त आएगा

7. साँझ में घुली पृथ्वी

भादौ की साँझ के सीले अँधियार में
घुल-मिल गई थी वह स्त्री
ग्वार के सीझते खेत में धँसे हुए चारा काटते हुए
खेत की मेड़ पर लगाए चारे का ढेर
बाँध रही थी वह
उमसी हुई धरती की समूची हवा पिया आसमान
बँधे हुए मेघों से बरसती हुई घाम
पसीने से लथपथ शरीर पर
आ बैठते साँझ के कीट-पतंगों को हटाते हुए हँसिए से
सुनते हुए सियारों का बोलना
टोह रही थी आसपास
कोई हो जो बोझा उठाने में लगा दे हाथ
मगर अब तो साँझ का अंतिम पक्षी भी
जा बैठा था नीड़ में अण्डों के पास
वहीं छोड़ अधूरे काम का ढेर
तेज-तेज कदमों से जाने लगी घर
पसीना उतरने लगा टखनों से बहकर
टिड्डे अभी भी उसकी लूगड़ी और बाँह से लिपटते चल रहे थे
घर पर कोई भी आतुर नहीं था उसे लेकर
कुछ कर रहे थे ब्यालू
कुछ पी रहे थे तमाखू
उसके आने की गंध पा
खरैड़े खटौले में अकुलाता शिशु लगा रोने
वह परात में पानी ले
लगी जल्दी-जल्दी हाथ-पाँव धोने

8. सुख दुख

कोई बहुत दुखों के साथ चलता है सड़क पर
उसे कोई नहीं जानता है, अपनी वही जानता है
कोई बहुत सुखों के साथ चलता है सड़क पर
उसे सब जानते हैं, वह किसी को नहीं जानता है
बेघर, किसान, मजदूरों को काम ने ही इतना तोड़ रखा है
दुख तो इन्हें जानते हैं लेकिन ये दुख को नहीं जानते हैं
काम करते बतियाते हँसते हैं ठठाकर जब तब
इसका मतलब ये नहीं कि ये सुखी हैं
यह सुख से बड़ी कोई मार्मिक हरकत है
जो प्राणियों में केवल इन्हीं में होती है और किसी में नहीं

9. बच्चे की भाषा

रेस्त्राँ में सामने की मेज पर
एक यूरोपियन जोड़ा
खाना और पीना सजाए हुए था
मैं चौंक गया जब उनका छह महीने का बच्चा
हिन्दी में रोने लगा
उसका युवा पिता उसे अंग्रेजी में चुप कराने लगा
उसे बहलाते-खिलाते हुए बाहर ले गया
बाहर खुली हवा में बच्चा
दिल्ली की फिज़ा में मिर्जा गालिब के
सब्जा-ओ-गुल औ अब्र देखते हुए
उर्दू में चुप हुआ

तब वह युवा फिर से रेस्त्राँ में भीतर आया
मैं एक बारगी फिर चौंक गया
जब वह बच्चा उराँवों की भाषा बोलते हुए
चम्मच गिलासों से खेलने लगा

10. गुम बच्चे की याद

मेरी गरीब चचेरी बहन
शादी भी जिसकी ठीक से की नहीं जा सकी
बस भेज दी गई
कुछ औरतों के गाए गीतों के साथ हुई उसकी विदाई

दो-एक ही साल बाद विवाह के गीतों के शब्द निष्प्रभ हो गए
उनकी ध्वनियों की चिडि़याएँ सदा के लिए सो गईं
उसके पति ने एक हत्यारे की हत्या कर दी
वह भारत की जेलों के उन लाखों अभिशप्त कैदियों के बीच जा बैठा
जिनकी जामानत नहीं होती
टलती जाती है जिनकी सुनवाई

ससुराल में वह रहने नहीं दी गई
गोद के बच्चे के साथ वह लाचार आ गई यहीं
उसे रहने के लिए एक पाटोर बता दी गई
हल्ला-मजूरी करके अपना और बच्चे का पेट पालने लगी

ऐसी मेरी गरीब चचेरी बहन का बच्चा था वो
सात साल का हो गया था
बड़ी उम्मीद से बड़ा कर रही थी उसको
पढ़ने भेज रही थी
स्कूल नाम के सरकारी बाड़े में रोज बैठता था जाकर
बच्चों के साथ खेलता था स्कूल से आकर
उस खेलते हुए को
मुर्गी के चूजे की तरह गायब कर ले गया कोई

लिखने में भी तकलीफ होती है कि पुलिस,
सरपंच, विधायक, देवी-देवता
सबके दरवाजों पर ढोक दे चुकी है
सबके पैरों में सर पटक चुकी है

अब तो यही सोचने-बिचारने को रह गया है
आखिर कौन था वह जो ले गया खेलते बच्चे को
क्या वह खुद दरिद्रता, भूख और कुशिक्षा का शिकार था कोई
क्या उसने कहीं सुनसान में ले जाकर बलि या कुर्बानी दे दी बच्चे की
या उसने खाये पिये अघाये सभ्य-बर्बरों को बेच दिया उसे

क्या उसे अरब भेज दिया ऊँट पर बाँधकर मारे जाने के लिए
क्या किसी आधुनिक साधु या पर्यटक को बेच आया वह उसे
क्या किसी मेज पर तश्तरी में रखा गया उसे

इतने बच्चे गायब होते हैं हर साल
लेकिन बिजली-पानी की माँग जैसा
छोटा-मोटा मुद्दा भी नहीं बनती यह बात

तीन महीने भी याद नहीं रखा गया एक बच्चे का गायब होना
जिस दिन से गुम हुआ है वह
मेरी चचेरी बहन भी गुम है
वह नहीं जानती कि न मरे न जीवित
बच्चे के साथ कैसे जीना चाहिए
इसी दुनिया में कहीं
और कहीं भी नहीं बच्चे की सुध कैसे रखनी चाहिए
कैसे उसे सुलाना चाहिए
कैसे उसे जगाना चाहिए
कैसे उसे समझाना चाहिए अपना ध्यान रखने के लिए
लापरवाही करने पर कैसे सख्त हिदायत दी जानी चाहिए

अगर उसके अंगों को खोलकर
अलग-अलग शरीरों में नहीं लगा दिया गया है
अगर स्त्री-लोथों से ऊबे विकृतों ने उसे रिहा कर दिया है
अगर दासों की तरह उसके पुट्ठों पर थाप दे-देकर
उसे कई बार बेच और खरीद लिया गया है
तो अब वह कहाँ और क्या कर रहा है
कैसा दिखने लगा है वह हाड़ मांस पुतला सालों बाद

क्या वह ब्रेड पर आयोडेक्स लगाकर खा चुका है
क्या दुनिया की सभी लड़कियों के लिए डरावना हो चुका है
क्या वह किसी महानगर की बत्ती गुल करने निकल पड़ा है
क्या वह टेलिफोन लाइन काटने गया है
क्या वह किसी भीड़ भरे इलाके में बम रख रहा है
क्या वह रस्सों से बँधा है
क्या वह अपना फटा-टूटा शरीर लिए न्यायालय में उपस्थित है
क्या उसे जेल में ही फाँसी दे दी गई है
क्या उसे वहीं मिट्टी में मिट्टी, राख में राख कर दिया गया है

मेरी चचेरी बहन
दो पीढ़ी पीछे जायें तो
हम एक ही दम्पत्ति की संतान हैं
एकाध पीढ़ीऔर पीछे जायें तो
पूरा कबीला ही एक दम्पत्ति की संतान है
अंततः जैसे दुनिया ही एक दम्पत्ति की संतान हैं
इस तरह देखो तो
कोई भी दूर का नहीं है
कोई भी पराया नहीं है
सभी अपने हैं कोई भी शत्रु नहीं है
वास्तव में देखो तो कैसे-कैसे शत्रु हैं चारों तरफ

मेरी चचेरी बहन
उसके कपड़े जिनमें से झाँकते हैं उसके धूल के बने हाथ पैर
उसके फूस के केश झाँकते हैं
गोली खायी हिरनी की करुण कजल आँखें झाँकती है
मैं पूछता हूँ कभी-कभी उससे
जीजी तुम्हें इस ब्रह्माण्ड की किस हाट पर मिलते हैं इतने फीके
इतना अधिक रंग उड़े कपड़े
क्या तुम आकाश गंगा से लाती हो इन्हें

पागल है तू
कहकर हँस देती है
जीवन की धनी मेरी चचेरी बहन

11. गोबर की हेल

क्योंकि स्त्रियां इतना ही बताती हैं
इसके आगे पीछे वह क्या था
जिसकी वजह से माँ ने ऐसा किया
क्या ऐसा था कि खून की कमी की वजह से
वह अपना ही वजन नहीं उठा पा रही थी कि उसे
गाय-भैसों का गोबर उठाना पड़ रहा था
बाड़े के गोबर-मूत में घुटनों घुटनों उसका पीछा करते हुए मैं
बहुत रो रहा था और घर के सभी पुरुष बैठे हुक्का पी रहे थे
और मैं भैंस के पेशाब के छींटों में भीग रहा था
वह गोबर फेंकने जाती तो उसके लंहगे से लिपटता मैं भी जाता
उसे जल्दी-जल्दी काम सकेलना होता और मैं घिसटता जाता
या घर के किसी पुरुष ने उसे जेवड़े के सड़ाकों से मारा
कि वह खेत में पहुँचने में बेवजह देर कर रही है
हुआ क्या था आखिर वे स्त्रियाँ नहीं बताती
वे कहती हैं-जब तू एक डेढ़ साल का था
गुस्से में तेरी माँ ने तेरे ऊपर गोबर की हेल पटक दी थी

यह बात उन्होंने मुझे बहुत बार बता दी है
जबकि एक बार बताना काफी था
पर चूँकि इसमें वे एक क्रूर रस लेती हैं
बार बार बता कर बार बार मेरी माँ को अपमानित करती हैं
जबकि उनकी बकवास का जवाब देने के लिए
वह तेईस साला स्त्री अब इस दुनिया में नहीं है

एक तेईस साल की जिस स्त्री के
एक एक करके तीनों बच्चे दबे पड़ें हों
शमसान में बच्चों को दफनाए जाने वाले गढ्ढों में
वह अपने एक जीवित पर
कैसे औंधा सकती है गोबर की हेल
मगर वह ऐसा करती है
तो उसकी मानसिक यातना का
वह कौनसा चरम रहा होगा
और उस चरम पर उसके प्राण में
कितना विवेक शेष रहा होगा
ऐसी डगमग मानसिक दशा में भी एक वही तो रही होगी
जो न जाने कहां से लौटा कर ले आयी होगी अपनी बिलखती ममता को
और मुझ गोबर में लिथड़े को उठा कर छाती से चिपका लिया होगा
फिर मेरे अमरत्व के लिए मुझे दूध दिया होगा

मेरे गालों पर अभी भी हैं मेरी माँ के चुम्बनों के अदृष्य निशान
मैं अभी भी उस पानी को अपने शरीर पर बहता देख सकता हूं
जिसमें माँ ने मुझे नहलाया
मां के वस्त्रों की गंध आज भी मेरे नथुनों में भर जाती है
जिनमें लिपट कर मैं चैन से सोया
ये विवरण इतने ममत्व से भरे इतने मार्मिक और इतने सारे हैं
कि इन्हें ही जीवन भर लिखते रहना मैं अपने जीने का मकसद बना सकता हूँ
बुखार में आज भी माँ के आँसू की बूँद मेरे ललाट पर आकर गिरती है

मुझे ढाई तीन साल बड़ा करने के बाद माँ नहीं रही
वह शमसान में अपने उन तीन बच्चों के पास चली गई
जिन्होंने सोचा न होगा कि माँ मृत्यु का भी पीछा करते हुए
उनके पास आ सकती है किसी दिन
माँ को तो अपने सारे ही बच्चों का ध्यान रखना होता है
वे जीवित हों या मृत
अपनी चेतनाविहीनता में माँ को पता नहीं रहा होगा
कि ऐसा होने पर वह मेरे पास कभी नहीं लौट पाएगी

12. कोई भी चीज लम्बी नहीं चलती

कोई भी चीज इतनी लम्बी नहीं चलती
न खामोशी लम्बी चलती है
न आँसूओं की झड़ी
न अट्टहास
न हँसी
न उम्मीद न बेबसी

गरीबी को लम्बा चलाने की साजिश
रची जाती है दिनरात
मगर समृद्ध करते रहते हैं लोग अपना जीवन
और-और तरीकों से
पूँजी के बिना भी जीते हैं लोग
गाते हुए गीत और लोरियाँ

 

‘युवा कविता समय सम्मान, 2012 और सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार, 2010 से सम्मानित कवि प्रभात।
राजस्थान में करौली जिले के रायसना गाँव में जन्म। बीते बीस वर्षों में समय-समय पर शिक्षा के क्षेत्र में स्वतंत्र कार्य। ‘अपनों में नहीं रह
पाने का गीत’ (कविता संग्रह) साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से प्रकाशित।
बच्चों के लिए गीत,कविता,कहानियों की बीस से अधिक किताबें प्रकाशित। लोक
साहित्य संकलन, दस्तावेजीकरण में रुचि। विभिन्न लोक भाषाओं में बच्चों के
लिए बीस से अधिक किताबों का सम्पादन।

टिप्पणीकार चरण सिंह ‘पथिक’समकालीन हिंदी कहानी का चर्चित नाम हैं। ग्रामीण जीवन की प्रामाणिक कंटेंट रिच कहानियों के लिए जाने जाते हैं, इनकी दो कहानियों पर फिल्में भी बन चुकीं हैं और कुछ फिल्में अभी निर्माणाधीन हैं। इनकी एक चर्चित कहानी ‘दो बहनें’ जिस पर विशाल भारद्वाज निर्देशित फ़िल्म ‘पटाका’ भी बन चुकी है।)

 

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