समकालीन जनमत
कविता

‘ अजीब समय के नए राजपत्र ’ के विरुद्ध तनकर खड़ी कविता

पंकज चतुर्वेदी बहुत ही संवेदनशील और समय-सजग रचनाकार हैं | उनकी कविताओं से गुजरते हुए जन कवि गोरख पाण्डेय की कविता पंक्तियां बार-बार मन में कौंधती है – ‘कविता युग की नब्ज धरो / आदमखोर की निगाह में खंजर सी उतरो’ | इस दृष्टि से देखें तो पंकज की कविताएँ हमारे समय व समाज की उपलब्धि हैं । दहशत भरे समय को अपनी तीक्ष्ण व्यंग्यात्मकता से चुनौती देती हुई यह कविताएँ संस्कृति के विद्रूपीकरण व उसे एक फ्रेम में ढ़ालने की साजिश के खिलाफ तन कर खड़ी हैं।

पंकज की वर्त्तमान दौर की कविताएँ सरकार द्वारा जारी ‘नए राजपत्र’ से चालित देश की दैनन्दिन डायरी की तरह हैं जिसमें आविष्कृत तथ्यों के द्वारा इतिहास, दर्शन, संस्कृति के समावेशी अर्थ को लूटने की कोशिशें सिलसिलेवार दर्ज हैं | दाभोलकर से लेकर गौरी लंकेश तक, पहलू खान से लेकर सुबोध कुमार सिंह आदि तक की हत्याएं कोई इत्तफाक नहीं हैं बल्कि वे नए राजपत्र की आज्ञाओं के परिपालन में बाकायदा घटित की जा रहीं हैं | वर्तमान समय की इस विडम्बना को दर्ज करते हुए कवि एक सामाजिक इतिहासकार की भूमिका ग्रहण कर लेता है जहाँ वह ‘बलात्कारी की हंसी’ को दर्ज करता है , ‘शासक की रुलाई’ और ‘सदिच्छा’ को दर्ज करता है , अजीब समय के ‘नया राजपत्र’ ‘नया पैकेज’ के साथ राजा के लिए प्रजा की जरूरत को भी दर्ज करता है |

वैसे एक कवि के लिए इस तरह का लेखन बहुत ही चुनौतीपूर्ण होता है क्योंकि तुरंत ही उस पर तात्कालिकता, अखबारी लेखन आदि का आरोप लगने लगता है | हिन्दी में तो कालजयी होने का इतना दबाव है कि वह वर्तमान को ख़ारिज करने की खतरनाक हद तक चला जाता है | पंकज इस कालजयिता के मोह में न पड़कर एक सक्रिय बुद्धिजीवी के रूप में अपनी पक्षधरता तय करते हैं | उनकी कविता तटस्थता जैसी किसी चीज को स्वीकार नहीं करती वह जितनी सहज, सरल है उतनी ही मुखर भी है और यह मुखरता कविता में किसी अतिकथन, भव्यता या चमत्कार के माध्यम से नहीं आती | वह आती है विडम्बनाओं को उदघाटित करती अचूक व्यंग्यात्मकता से , वह कहन के भीतर से वैसे ही फूटती है जैसे दीपक से प्रकाश | उदहारण के लिए ‘शासक की रुलाई’ कविता देखिये –

अगर शासक रोने लगे
तो जनता सोच में
पड़ जाती है
कि आख़िर
गुनहगार कौन है !

तीसरी दुनिया के तमाम देश जो पूँजी के खूनी पंजे से लहूलुहान हैं वहां साहित्य और राजनीति को कतई अलग नहीं किया जा सकता | हमारे यहाँ प्रेमचंद से लेकर नाइजीरियन लेखक केन सरो विवा तक इस बात को बहुत ही मजबूती से रेखांकित करते हैं | केन सारो विवा लिखते है ‘ बेशक, साहित्य ऐसा होना चाहिए जो राजनीति में हस्तक्षेप करते हुए समाज की सेवा कर सके और लेखकों को केवल अपने को या दूसरों को आनंदित करने के लिए ही नहीं बल्कि समाज को आलोचनात्मक ढंग से देखने के लिए लेखन करना चाहिए | उन्हें सक्रिय हस्तक्षेप वाली भूमिका निभानी चाहिए |’ इस कथन के आलोक में कहें तो पंकज चतुर्वेदी की कविताएँ राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप की कविताएँ हैं | यह एक खतरनाक काम है खुद विवा को अपने सक्रिय लेखक की भूमिका के लिए फांसी पर चढ़ना पड़ा था | हमारे देश में दाभोलकर, कलबुर्गी से लेकर गौरी लंकेश तक को इसी भूमिका के चलते अपनी जान गवानी पड़ी ऐसे में एक कवि का आगे बढ़कर इस चुनौती को स्वीकार करना यह बताता है कि वह अपने देश में गहरे पैठा है , उसे शिद्दत से प्यार करता है |

पंकज शब्दों की ताक़त को बखूबी पहचानने वाले कवि हैं | वे उन्हें बहुत ही मितव्ययिता से बरतते हैं | उनकी कविताओं में आमबोल चाल कि भाषा का बहुत ही सधा हुआ प्रयोग देखने को मिलता है जिससे कविता सहज ही ग्राह्य हो उठती है |

जनमत पोर्टल पर हम उनकी चुनिंदा पंद्रह कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं, इन कविताओं से गुजरते हुए आप ऊपर कही गई बातों को स्वयं महसूस कर सकेंगे |

इमरजेंसी

इमरजेंसी भी लौटकर
आती है इतिहास में
कहती हुई :
मैं वह नहीं हूँ
जिसने तुम पर
अत्याचार किये थे

इस बार
मैं तुमसे
करने आयी हूँ
प्यार

नया राजपत्र
अगर आप सरकार के
तरफ़दार नहीं हैं तो
इसके तीन ही मतलब हैं

एक : आप देशद्रोही हैं
उसमें भी बहुत संभव है
कि आप पाकिस्तान-परस्त हों
(अल्पसंख्यक अधिक संदिग्ध हैं)

दूसरा : आप नक्सली हैं
या बहुत संभव है
कि आप उनके लिए
काम करते हों
(आदिवासी अधिक संदिग्ध हैं)

तीसरा : आपके पास काला धन है
और आप उसे ठिकाने
नहीं लगा पाये
या बहुत संभव है
कि आपने उसे
जन-धन ख़ातों में
जमा करवा दिया हो
(ग़रीब अधिक संदिग्ध हैं)

इसके बावजूद अगर आपको
इस देश में रहने दिया जा रहा है
तो यह सरकार की
सहिष्णुता है
आपकी नहीं !

अजीब समय है यह
अजीब समय है यह

जो जितना हिंस्र है
वह उतना ही लोकप्रिय है

समाज के बजाए
भीड़ के जत्थे हैं
और उन्हें
हत्या के लिए उकसाते
उनके नायक हैं

नास्तिक को इसलिए मार दो
कि वह सवाल उठाता है
भक्त को इसलिए कि वह
निहत्था मंदिर जाता है

कमज़ोर को इसलिए मार दो
कि वह बराबर आना चाहता है
ग़रीब को इसलिए कि उसकी
कोई सुनवाई नहीं है

हत्याएँ इस तरह होती हैं
कि लोगों को लगे :
हत्या का समाधान है
हत्या

आदमी का ख़ून
जितना बहता है
राजनीति का उतना ही
रंग रहता है

हत्यारा बढ़ता है
सिंहासन की तरफ़
भीड़ जय-जयकार करती है

अजीब है यह समय

मलबे का मालिक
शासन करने का
एक ढंग यह है :
सब कुछ मिट्टी में
मिला देना

और फिर मलबे पर
खड़े होकर कहना :
मित्रो !
हमें यह विनाश ही
मिला है
विरासत में

काजू की रोटी

काजू की रोटी के बारे में
सुनते-सुनते
कि उसे हुक्मरान खाते हैं
घर में एक दिन
स्वगत मैंने पूछा :
‘काजू की रोटी
होती कैसी है ?’

जीवन-संगिनी ने कहा :
‘थोड़ा आटा मिलाना पड़ेगा
नहीं तो उसकी रोटी बनेगी नहीं
टूट जायेगी’

राजा को प्रजा की
ज़रूरत क्यों है
समझने के लिए
इससे बेहतर
रूपक क्या होगा !

बलात्कारी की हँसी

गिरफ़्तार करके
ले जाये जा रहे
बलात्कारी की हँसी
कहती है
कि न्याय के नाम पर
जो कुछ हो रहा
एक प्रहसन है

मेरे पास धन है
रुतबा है
सत्ता का समर्थन है

जैसे मैंने अत्याचार किये
और भी करूँगा मैं

उदास वे हों
जिन्हें मैंने सताया है
या जो निरीह और
अरक्षित हैं

सभ्यता के इस मक़ाम पर
यातना का कोई मूल्य नहीं
वह सिर्फ़ आततायी की
प्रसन्नता के काम आयी

नीच को गौरव मिला
निर्लज्ज को सम्मान

बलात्कारी की हँसी में
सुन पड़ती है
एक पूरे समाज के
पराभव की कथा

हरियाणा

नेताओं और बाबाओं ने
जितना छीना है देश से
उससे कहीं अधिक दिया है
सिरसा की दो बेटियों
और शहीद पत्रकार
रामचंद्र छत्रपति ने

खेल-कूद में ही नहीं
प्रतिरोध में भी
हरियाणा
अव्वल आया

कहाँ से चला ज़हर
बैंक में एक अफ़सर से
मैंने कहा :
नोटबंदी के फ़ैसले से
देश में अब तक
पचपन लोग मर गये

उसका जवाब था :
”फ़ैसला बहुत अच्छा है
रही बात मरने की
तो इतने बड़े देश में
इतने लोगों का मरना
मामूली बात है”

मैं कुछ कह नहीं पाया
सिर्फ़ सोचता रहा :
कहाँ से चला ज़हर
कहाँ पहुँच गया !

शासक की रुलाई

अगर शासक रोने लगे
तो जनता सोच में
पड़ जाती है
कि आख़िर
गुनहगार कौन है !

सदिच्छा

शासक को अपने
राज्य में हुई
मौतों पर
अफ़सोस नहीं था

बल्कि आश्चर्य था
कि लोग उसके विरोध का
साहस कर पा रहे हैं

अंत में उसने
विचलित होकर कहा :
जो कुछ हुआ
मेरी सदिच्छा के
चलते हुआ

नया पैकेज

अब राष्ट्रीय ध्वज नहीं
भगवा ध्वज थामो

राष्ट्र-गान नहीं
वंदे मातरम् गाओ

शिव को महादेव नहीं
राष्ट्र-पिता मानो

और जब इतना साफ़ है
तो संविधान के पालन को
अपना धर्म नहीं
धर्म-ग्रंथों को
संविधान समझो

भूल जाओ कि इस देश को
गाँधी, टैगोर, अम्बेडकर,
भगत सिंह और उनके
असंख्य समर्थकों ने बनाया है

और जब तुम्हारा दिमाग़
इस क़दर रिक्त हो जाय
तो ज़ोर से नारा लगाओ :
‘भारतमाता की जय’

देश-भक्ति का यह
नया पैकेज है
जो नव-पूँजीवादी
सैन्य साम्राज्यवादियों के
देशी साम्प्रदायिक
सिपहसालारों ने
जारी किया है

मुग़लसराय सिर्फ़ किसी स्टेशन का नाम नहीं

कई बार रेलवे स्टेशन का
प्रतीक्षालय भी
मुझे घर जैसा लगा है
बेशक कम सुविधा
कम इतमीनान
कम समय के लिए
कुछ लोगों का साथ
रहता है

अगर हम वहाँ
रह नहीं सकते
तो घर भी बार-बार
लौट आने के लिए है
रह जाने के लिए नहीं

घर एक सराय है
और दुनिया भी

आराम की जगह
सफ़र में पड़नेवाला
मक़ाम है

इसलिए मुग़लसराय
सिर्फ़ किसी स्टेशन का
नाम नहीं
भारतीय इतिहास की
महान यादगार है

उस नाम को
मिटाने का मतलब है
तुम नहीं चाहते
कि लोग जानें :
कोई यहाँ
कभी आया था
ठहरा था
उसने भी इस देश से
मुहब्बत की थी
इसे बनाया था

तुमको यह भी लगता है
कि तुम इस दुनिया में
रह जाओगे
और जो चले गये
वे कम समझदार थे

जो इस सर्किट में शामिल नहीं
एक मिश्र जी
दूसरे मिश्र से
क्या चाहते हैं
यह स्पष्ट है

तीसरे मिश्र
इस चाहत का
जिस तरह
समर्थन कर रहे हैं
लाज़िम है

चौथे मिश्र
लोकतंत्र को
मिश्रों के बीच का
आपसी मामला
बना दे रहे हैं

बाक़ी जो इस सर्किट में
शामिल नहीं
ताज्जुब करने के लिए हैं
कि वे इस देश में
कर क्या रहे हैं

अपवाद नहीं

संविधान बदला न जाय
और उसका अपमान भी
होता रहे
तो इन स्थितियों का
निराकरण कैसे होगा

इस बाबत
संविधान में
विशेष उल्लेख नहीं है

शायद हमारे
संविधान-निर्माताओं को
लगता था
कि यह अपवाद होगा

वे कल्पना नहीं कर पाये
कि एक दिन
यही
मुख्य परिस्थिति होगी

साथ-साथ यह बताया जाय

मंदिर में आरती के बाद
सुनता हूँ प्रार्थना का
उत्साहित सिंहनाद :
‘धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !’

अगर धर्म का मतलब
मनुष्यता है तो
ज़रूर उसकी जय हो

लेकिन उसका अर्थ
धर्म की राजनीति है
तो साथ-साथ
यह बताया जाय
कि जब उसकी जय हो
तो संविधान का क्या हो ?

इसी तरह
अधर्म का आशय
अमानुषिकता है तो
निश्चय ही
उसका नाश हो

लेकिन उसका अभिप्राय
असहमति है
तो साथ-साथ
यह बताया जाय
कि जब उसका नाश हो
तो लोकतंत्र का क्या हो

(भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1994) , देवीशंकर अवस्थी सम्मान (2003) से सम्मानित कवि पंकज चतुर्वेदी, जन्म 24 अगस्त 1971, इटावा, उत्तर प्रदेश। विधाएँ : कविता, आलोचना। कविता संग्रह : एक संपूर्णता के लिए, एक ही चेहरा। आलोचना : आत्मकथा की संस्कृति , निराशा में भी सामर्थ्य । सम्प्रति – वी.एस.एस.डी.पी.जी. कॉलेज, कानपुर में अध्यापन। टिप्पणीकार दीपक सिंह, जन संस्कृति मंच के सक्रिय सदस्य और फ़िलवक्त हिंदी विभाग शासकीय एम . एम. महाविद्यालय कोरिया (छत्तीसगढ़) में सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं . संपर्क : पंकज चतुर्वेदी
ईमेल : cidrpankaj@gmail.com)

प्रस्तुति: उमा राग

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