समकालीन जनमत
कविता

कुमार अरुण की कविताओं की भाषा के तिलिस्म में छुपा यथार्थ 

कुमार मुकुल


माँ को समन्दर देखने की बड़ी इच्छा
कि आखिर कितना बड़ा होता होगा
अरे बड़ा कितना
जितना हमारे पैसों
और जरूरतों के बीच खाई है
जरा हँसा मैं…।(माँ और समुद्र)
कुमार अरुण उन कवियों में हैं, जिन्हें पढ़ते हुए, हर कविता के बाद उनकी अगली कविता पढ़ने की इच्छा बलवती होती जाती है कि देखें – आगे, भाषा के किस तिलस्म में कौन सा यथार्थ किस अदा के साथ अपनी जगह बनाए है!

विश्व कविता में एमिली डिकिंसन और रिल्के को पढ़ते भी लगातार ऐसा लगता रहा है, और एमिली की हजारों कविताओं से एक हद तक मेरी इस मानसिक भूख को अच्छी खुराक मिली भी। हाल के कवियों में पंखुरी सिन्हा की कविताओं ने और थोड़े सीमित ढंग से समर्थ वसिष्ठ और उर्वशी भट्ट की कविताओं ने भी मुझमें वह जिज्ञासा पैदा की।

एक कवि के अंतर्मन की तहों में विचारने की जिज्ञासा भरी यह कामना, ऐसे कवियों को सहजता से मेरा प्रिय कवि बना देती है। हालाँकि प्रिय कवि की तमाम अन्य कसौटियां भी हैं मेरी, और सैकड़ो कवि प्रिय हैं मुझे।

कुमार का पहला कविता संग्रह ‘बांतरों का घर’ अरसा पहले जब मुझे कलाकार,पत्रकार मित्र धर्मेंद्र सुशांत से प्राप्त हुआ था तभी से उनकी कविताएं मुझे प्रिय हो गईं थीं, पर आगे उनकी कविताएं कम ही उपलब्ध हुईं।

अब यह संग्रह ”यूँ ही” है और यह देख मुझे ख़ुशी हुई के इसके अंत में कवि ने पिछले संग्रह से भी कुछ कविताएं चुन कर धर्मेंद्र को समर्पित करते शामिल किया है।

वे कविताएँ आज भी एक चमक पैदा करती हैं, अंतर में। उनमे पहली ही कविता है, ‘स्कूल आई दो बच्चियां’।
बच्चों में निवास करने वाली सहज आत्मीयता के जैसे चित्र कविता प्रस्तुत करती है, वह एक सरल विह्वलता से भर देती है हमें। मैंने इससे सुन्दर कविता, बच्चों पर, आजतक नहीं पढ़ी।

वे बोर पर बैठ पढ़नेवाली दो बच्चियां हैं, जो अपना बोरा छोड़ एक दूसरे से सर जोड़े , एक दूसरे की आँखों में देखती, एक दूसरे की कमीज का कलर मिचोड़ती, उंगलियों से एक दूसरे के होंठ छूते, कुछ गुनगुन बातें करती हैं,क्षण भर को लुकाछिपी खेलती, एक दूसरे के कन्धों झूलती, उनके चेहरे हाथों में लेती बालों को समेट देती हैं।

अपनी एक बातचीत में वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति कविता में निहारने के गहरे अर्थों पर बात करते हैं, कुमार अरुण की कविताएँ, वैसी ही तन्मयता और गहरे आकलन वाली कविताएँ हैं।

इनकी कविताओं में कुछ भी वैसा नहीं है जैसा इससे पहले पढता-सुनता रहा हूं, न राजनीति जैसी राजनीति, न हिंसा जैसी हिंसा, न प्यार जैसा प्यार। हाँ, सरलता और सादगी सरलता और सादगी सी ही है,पर इस सरलता और सादगी के बारे में भी पहले आपको शायद ही पता हो। जैसे – ‘माँ और समुद्र’ कविता की पंक्तियां देख सकते हैं।

कुमार अरुण की कविताएँ

1.दूसरी दुनिया

उनकी बातचीत
दुनिया के सबसे सहज व्यापारोंं में से एक
एक पेंसिल के बदले मोर पंख
और करौंदे का फल
दांतों में उंगली फंसाकर दोस्ती और कुट्टी
उनकी नजर

उड़ते बगुलों की डार की मंथर गति पर
और उंगलियों के नाखून पर नाखून रगड़ते मांगते जाते हैं
दौड़ते दूर तक पीछे पीछे उनसे
धान दे
धान दे

 

2. घर के देवता

घर के देवता की स्थापना के लिए जगह
घर का कोना ही तय करती है
जहां अपने सारे प्रतीकों के साथ
सबसे ज्यादा मूर्त रहता है घर
जहां बिन दिए के दिन में भी नहीं दिखते देवता

दूसरे देवताओं के आगे जिसे करते संकोच होता है
अपने देवता को गोपन से गोपन बातों में भी साक्षी रखती हैं स्त्रियां

अपने देवता के साथ कैसा भी बर्ताव करती हैं वे
कि पति के भाई के साथ बंटवारे में
देवता को भी खोदकर खुरपी से
ले जाती हैं आधा
और देवता भी कोई उतना बुरा नहीं मानते इसका

 

3. माँ और समुद्र
————
मां को समंदर देखने की बड़ी इच्छा
कि आखिर कितना बड़ा होता होगा

अरे बड़ा कितना
जितना हमारे पैसों
और जरूरतों के बीच खाई है
जरा हंसा मैं

शायद ठीक समझी नहीं माई व्यंजना को
और बीच में खाई पड़ गई
जिसे ही जो फलांगती आई है भर उमर

इसलिए अपने कहे को फिर से कहा
कि जितना बड़ा है हमारा दुःख
समंदर उतना बड़ा

लेकिन शायद दुख की आदी हो आई माई
को विस्मय भी नहीं हुआ – कि बस

जितने तेरी आंखों में सपने
आखिर कुछ कयास लगाने थे

लेकिन अब क्या सपने धुंधली आंखों के
और स्मृतियां क्षीण हुईं

और कुछ न सूझा तो कहा – जितना बड़ा तेरा प्यार
हंसी माई पुराने चावल की तरह
मां तो समंदर देखना चाहती है

 

4. तंत्र : एक

नागरिकों को
उतर कर सड़क पर ही
जगाना होता है
बाश्शा
चाहे कहीं भी सोता है

 

5. कबाड़खाना
———–
आदमी में भीतर कितना कचरा जमा है
यह उसके कुर्सी पर पहुंचने के बाद पता चलता है

मनसबदारों के इर्द-गिर्द
कबाड़ी वाले सबसे पहले पहुंचते हैं

राजा को यह हुनर ना हो
कि कचरों को कैसे ठिकाना लगाते हैं
तो देश एक दिन कबाड़ी की दुकान में तब्दील हो जाता है

 

6. तानाशाह

(i)
तानाशाह पहले गिरे हुए को बचाने केलिए
सड़क की दाहिनी तरफ दौड़ता है
फिर आगे जो गिरते हैं दायीं ओर
वे सब प्रायोजित होते हैं

तानाशाह इस तरह अपने दाहिनी तरफ होने का
बचाव करता है

(ii)
तानाशाह नियमों को सबसे ज्यादा तोड़ता है
तो तानाशाह सबसे ज्यादा भयभीत रहता है

तो तानाशाह सबसे ज्यादा आक्रामक रहता है

(iii)
तानाशाह हमेशा अकलीयतों में से ही
अपना शत्रु चुनता है

(iv)
तानाशाह को इतिहास मदद नहीं करता है
न गणित और विज्ञान भी नहीं
तानाशाह के पास तर्क का हमेशा अभाव रहता है
इसलिए वह हमेशा चुभता हुआ शब्द चुनता है

वह शब्दों को कमान पर रखकर तीर की तरह
चलाता है

(v)
तानाशाह अपने भीतर अधकचरी चीजें रखता है
तानाशाह हमेशा खामखयाली में जीता है
तानाशाह अपने शब्दों से हमेशा
अंधेरे की रचना करता है

(vi)
तानाशाह को व्यवस्था पसंद नहीं
ताकि कोई आगे की बात कर सके ..

(vii)
तानाशाह को हंसी आती है
कि लोग उसके अमुक .. और अमुक .. और
अमुक बातों में ही उलझे रह जाते हैं

 

7. आख़िर किस काम आएंगे शब्द मेरे
——————————————-

उतना सहज न हूं मैं
कि मेरे वचन आपके किसी काम आ सकें

मैं जितना भी रहता हूं
उससे भिन्न आते हैं उससे होकर भी शब्द
मुझको ही जरा दरेरा देते हुए

आपके किस काम आएंगे

कोई एक सहज स्फुरण भी
जो मेरी आदत है
जिधर मेरा बहाव है उधर से आता हुआ
जरा वक्र जरा अजीब ..अजनबी-सा हो जाता है

शब्द जिन्हें चुनता हूं मैं
अपने आप तो उनके आभास आते हैं महज
कहीं धुंध में उजबुजाते हुए
मेरे प्रशिक्षण में से गुजर कर पहुंचते हैं
मेरे शब्द मुझ तक भी

आखिर किस काम आएंगे ऐसे शब्द मेरे

 

8. लौटकर आने के बाद

लौटकर आने के बाद
कुछ और समझदार हुआ रहूंगा

संबंधों की नजदीकियां
और बंधनों से मुक्ति के ठीक बीच में
रहने की कोशिश के दौरान
कुछ और सहज हुआ रहूंगा

तब भी बोलने नहीं आया रहेगा
शब्दों की आवक और कम हुई रहेगी
सुनने का रियाज
कुछ और पक्का हुआ रहेगा
करने में आगा-पीछा करता मिजाज
धोए कपड़े की तरह महकता हुआ
मुसा हुआ
हुआ रहेगा

पत्ते कुछ और झड़े हुए रहेंगे
लोग कुछ और कम हुए रहेंगे
हाथ कुछ और खाली हुआ रहेगा

क’ई बार लौटकर आने के बाद
एक गीत के बार-बार लौटते टेक की तरह
हुआ जाता रहूंगा..

9. नजीब

नजीब कहीं – न – कहीं तो होगा
उत्सव मनाने वालों को पता होगा
ऐसी कोई जगह नहीं जहां से मां
उसे ढूंढ न निकाले

मेरे भीतर के थर्मामीटर का पारा
ऊंचा रहने लगा है तो मुझे लगता है
कि त्यौरियां भले न चढ़ी हों
जनता की बाहुओं की पेशियों में ऐंठन रहने लगी है..

मतलब कि जनता स्वस्थ है

 

10. तब कोई दुख भी नहीं रहेगा

हमें सही-सही पता नहीं है
कि धरती में से सारा कोयला
और पेट्रोलियम निकाल लें तो पृथ्वी कैसी हो जाएगी
कैसा बरताव करेगी

तुम्हें लगता होगा कि सिर्फ परिमाण
की वजह से है इसमें गुरुत्वाकर्षण
हो सकता है कि धरित्री में संस्थापित स्थैतिक ऊर्जा
ओज़ोन को पकड़े हुए हो

वगरना
इतनी सी धूप
वनस्पतियों को जलाकर राख कर देगी

समंदर उबलने लगेगा
सारे बंधन टूटने – चरमराने लगेंगे

सबसे अंत में
आदमी का डीएनए टूटेगा
स्मृतियाँ भुरभुरी होकर झरने लगेंगी

तब कोई समय नहीं रहेगा
तब कोई दुख भी नहीं रहेगा …

11. जैसे कहांरों की भाषा

सच के करीब से होकर बोला जाए
लगभग उसे छूते हुए
तलत की तरह कांपती आवाज में
एक साथ ठोस और तरल

सीधे अनुभवों में से आए शब्द
जितना भर हूं मैं

लोगों के साथ काम करते हुए वाक्य
अपना हासिल करे विन्यास
जैसे जांते पर अनाज पीसती स्त्रियों के कंठ-सुर
जैसे कंधे पर आदमी का भार उठाए कहांरों की भाषा

(कवि कुमार अरुण का जन्म 25 दिसम्बर 1956 को बिहार के सारण जिले के दिघवारा गाँव मे हुआ। इनकी शिक्षा गाँव के ही स्कूल तथा कॉलेज में हुई।  कविता संग्रह ‘बाँतरो का घर’ और ‘यूँ ही’ एवं पत्र-पत्रिकाओं में कुछ कविताएँ और गद्य प्रकाशित।
संपर्क: 8789578790
ई-मेल: ak.arun1256@gmail.com

टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं. राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध हैं.)

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