समकालीन जनमत
कविताजनमत

घर की सांकल खोलता हुआ कवि हरपाल

बजरंग बिहारी

 

कविता जीवन का सृजनात्मक पुनर्कथन है। इस सृजन में यथार्थ, कल्पना, आकांक्षा, आशंका और संघर्ष के तत्व शामिल रहते हैं। रचनाकार अपनी प्रवृत्ति, समय के दबाव और सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप इन तत्वों का अनुपात तय करता है। विचार जीवन से आगे बढ़े हुए होते हैं। जीवन की गति स्वाभाविक रूप से धीमी होती है। कवि भावों के लेप से विचार और जीवन में सामंजस्य बैठाने का प्रयास करता है। यह कवि के विवेक पर निर्भर करता है कि वह जीवन और विचार में किसे प्रमुखता दे। ऐसा भी हो सकता है कि कवि इन दोनों को नेपथ्य में डालकर भावपूर्ण कविता लिखे। राजनीतिक रुझान वाले कवि विचार से आगे जाकर विचारधारा को कविता में ढालते हैं। सामाजिक ढांचे को समग्रता में समझने और उसका विकल्प तैयार करने के लिए ऐसी कविताओं की दरकार रहती है।

सच्ची कविता किसिम-किसिम के फार्मूलों से मुक्त होती है। वास्तविक कवि को अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने की आवश्यकता नहीं होती है। हरपाल का यह काव्य संग्रह पढ़ते हुए लगा कि अगर कवि का जीवनबोध विस्तृत और गहन हो तो कविता के सारे उपकरण और उपादान उसके पास स्वयमेव चले आते हैं। ‘घर की सांकल’ बड़ा अर्थगर्भित शीर्षक है। घर मानव-सभ्यता के एक पड़ाव का नाम है। यह अभी तक की मानव यात्रा का उच्चतम सोपान है। यह भी सही है कि इस सोपान को प्रश्नांकित किया जा चुका है लेकिन उसका कोई असंदिग्ध विकल्प अब तक नहीं आया है। हरपाल के काव्य संग्रह का शीर्षक इस मुद्दे की ओर बरबस हमारा ध्यान खींचता है। ऐसा लगता है कि हरपाल घर का विघटन नहीं, उसकी पुनर्रचना चाहते हैं। वे घर की सांकल स्वीकार नहीं करते। सांकल वाला घर घुटन-स्थल है। घुटन के शिकार वे होते हैं जो कमजोर हैं। कवि की प्रतिबद्धता कमजोरों के प्रति है। उसकी कविता के कमजोर पात्र संघर्षशील हैं। वे जानते हैं कि उन्हें कमजोर बनाया गया है और न्यून बनाने वाली यह व्यवस्था बदली जा सकती है। हरपाल मानवीय गरिमा के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। उनकी लेखनी उस तबके के साथ खड़ी है जिसके अधिकारों का हनन किया जाता है और जिसकी गरिमा बारंबार खंडित की जाती है।

 

‘घर की सांकल’ काव्य संग्रह कुल पाँच खंडों में विभक्त है। पहला खंड  ‘बीच सफऱ में’ समकाल पर, वैश्वीकृत दुनिया पर आधारित है। इसमें विषाद का स्वर प्रवाहित है जो आज के जनांदोलनों के स्वास्थ्य का सूचक है। वैश्वीकरण ने शब्दों के अर्थ बदल दिए हैं। व्यवस्था द्वारा पोषित कट्टरता ‘उदारीकरण’ कही जाती है, अर्थव्यवस्था को निजी हाथों में सौंपने को ‘सुधार’ कहा जाता है। ऐसे परिवेश में उदासी, थकान और उचाटपन हावी हो गए हैं। ‘लूजऱ’ कविता की ये पंक्तियाँ देखिए-

‘उसके पाँव थके हैं
हिम्मत टूट चुकी है
इक्का-दुक्का हमसफऱ जो भी हैं
वे भी उसी पर निर्भर।

उसे पीछे धकेल
उसी में से वह निकल
खड़ा हो गया सामने।’

यह ऐसा समय है जब वृद्धों की, बेसहारा बच्चों की और न्याय की आशा खो चुके मजलूमों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। गांव युवाओं से खाली हुए हैं। शहरों में आजीविका के अवसर निरंतर कम हुए हैं। वैश्वीकरण से जो उम्मीदें थीं वे बुरी तरह विफल होती गई हैं। हरपाल इन सब बदलावों का अपनी कविता में सांकेतिक उल्लेख करते हैं। उनकी ‘मुश्किलें’ शीर्षक कविता का यह अंश दृष्टव्य है- ‘एक अदद वृद्ध दम्पत्ति/ औलाद की तरफ से हो निराश/ उम्र के अंतिम पड़ाव में पहुँच/ फैसला करते हैं/ और अगले रोज/ शहतूत की टहनियों से संजो एक टोकरी में रख/ कुछ किलोग्राम फल/ बैठे मिलते हैं/ शहर के अंतिम छोर के रेलवे फाटक के पास।’ ‘चकरघिन्नी’ कविता का किशोर कवि का ध्यान कुछ यों खींचता है- ‘वय/ यही रही होगी कोई एक कम बीस/ तीन दिन पहले ही तो/ उसके पिता रोड एक्सीडेंट में चल बसे थे/ कॉमरेड नेता थे छोटे से कसबे के।’

वैश्विक पूँजीवाद ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जो मिलाप किया उससे एक व्यापक सम्मोहन की रचना हुई। दृश्य माध्यमों ने इसमें केंद्रीय भूमिका अदा की। यह यकीन दिलाया गया कि सबके दिन बहुरने ही वाले हैं। हरपाल ने अपनी परिपक्व राजनीतिक दृष्टि से सर्वग्रासी सम्मोहनी गुत्थी को इस तरह प्रस्तुत किया है- ‘बाहर शोर मच रहा है/ टेलीविजन, अख़बार और लोग/ चीख रहे हैं/ अच्छे दिन आएंगे/ अच्छे दिन आने वाले हैं। … अच्छे दिन अच्छे आदमियों के आते हैं/ तुम बुरे आदमी हो/ जब हमारे अच्छे दिन आएंगे/ तो तुम्हारे आज से भी ज्यादा/ बुरे दिन हो जाएंगे शुरू।’ (‘और हम ठठाकर हँसेंगे’)

दूसरे खंड का शीर्षक है- ‘संबंधों के भंवर’। इसमें मुख्यत: स्त्रियों की जिंदगी से जुड़े प्रश्नों पर धारदार कविताएं हैं। कवि पुरुषों की बनाई दुनिया के नियमों में उलझी स्त्रियों की सिसकियाँ सुनता है। वह पुरानी पीढ़ी की स्त्रियों की असहायता और नई पीढ़ी की युवतियों के जुझारूपन में फर्क करते हुए चलता है। वह संघर्ष की अप्रतिहत धारा से साक्षात्कार कराता है जिसकी बदौलत पुरुषवादी नागपाश से स्त्रियां बार-बार बच निकलती हैं। यह नागपाश भाषा में रचा जाता है। पाश को काटने की विधि भी भाषा में ही होती है। जरूरी नहीं कि वह शाब्दिक भाषा ही हो, वह ‘नॉन-वर्बल’ देहभाषा भी हो सकती है। रोने की क्रिया भी इसी में शामिल मानी जाए – ‘यह भाषा औरतों की/ औरतें ही जानती हैं/ ऐसे ही पार पाती हैं वे/ ऐसी निरंकुशताओं से/ और करती आई हैं उन्हें परास्त।’ (‘मर्दों की दुनियां के लोग’) आधुनिक घरेलू परिवेश में घुला-मिला पितृसत्तात्मक मानस बेटे-बेटी में बारीक फर्क करता रहता है। बेटा किसके साथ, किस जगह पर बैठेगा और बेटी कहाँ जगह पाएगी, यह अनकहे ढंग से तय रहता है। ‘अतिरेक’ कविता की बच्ची अपनी सहज प्रज्ञा से इस भेदभाव को भांप लेती है और वह परिवार के स्थापित पदानुक्रम में ‘बिना किसी हैरानी या अतिरेक के’ उलटफेर कर देती है।

खंड तीन के शीर्षक ‘मासूमियत के समंदर’ का कथ्य बच्चों और माँओं की जिंदगी से उठाया गया है। परिवार यहाँ पुन: केंद्र में है। जीवन के वास्तविक दृश्यों से रची कविताएं चमत्कृत नहीं करतीं। वे बिना जाने अंतर्मन में उतर जाती हैं और अपना असर छोड़कर विलीन हो जाती हैं। ऐसी ही एक कविता ‘बच्चे भी शायद’ का अंश है-

‘तस्वीरों वाली अलबम
छिपा दी गई लोहे के संदूक में
बच्चा रोने लगा था
माँ-बाप हो गए थे आपस में मशगूल
वे झगड़ रहे थे
बहस रहे थे।’

जरूरतें लोगों को बदल देती हैं। अभाव वर्गजनित मर्यादा पर भारी पड़ता है। ‘संकोच’ कविता की स्त्री का कभी अपने मिडिल क्लास होने का बोध था और उस बोध से एक हिचक या शालीनता बोध प्रवाहित रहता था। परिस्थिति ने यह बोध तोड़ा और अब वह नि:संकोच जी रही है। ‘कविताओं के कोटर’ की स्त्रियाँ यौन हिंसा की शिकार हैं। यह हिंसा किसी बाहरी द्वारा नहीं, अपने ही ‘आदमी’ द्वारा की जाती है-

‘कुछ औरतें जो अभी-अभी आई हैं
कविताओं के घर में
कहती सुनी गई हैं
कि कई बार
अपने पति और सामूहिक बलात्कारियों में
वे नहीं कर पातीं कोई फर्क।’

चौथा खंड ‘सपने’ शीर्षक से है। इसमें मुख्यत: व्यक्ति-चित्र हैं। बेहद सामान्य लोगों के जीवनांश कविता का विषय बनकर अद्भुत व्यंजना की सृष्टि करते हैं। इन चित्रों में कुछ व्यक्ति-नाम से हैं और कुछ अनाम मगर परिचित चरित्र वाले। पेंटरों की जिंदगी से कवि की गहरी वाकफियत है। ‘सड़क छाप’ कविता का यह अंश देखिए-

‘वो दिल्ली मेट्रो में पेंटर का काम करता है
महीने के सात हज़ार रुपये
वैसे वह एक पोट्र्रेट मेकर भी है
कंप्यूटर आने से पहले
वह सिनेमा के रंगीन पोस्टर बनाता था।’

इसी तरह व्यक्तिवाची नाम से ‘गौरीशंकर’ पर लिखी लंबी कविता इस शख्स का भावपूर्ण चित्र उकेरती है। ‘दिवाली की उम्र’ कविता वैभव और चकाचौंधी समृद्धि के बीच गरीबी का चित्र पेश कर कंट्रास्ट बनाती है। बनावटी संतुष्टि का युग ‘फेसबुक’ कविता में उकेरा गया है। सबसे मार्मिक है ‘धुनिए की बेटी का सपना’ नामक कविता। सपनों की परिधि का संज्ञान लेती कविता आकांक्षा पर यथार्थ के दबाव को अमुखर तरीके से प्रस्तुत करती है-

‘उसके मन में उसके जीवनसाथी का एक चित्र है
जो काम करते उसके भाई
या पिता से मिलता-जुलता है
वह जिन हालात में रहती है
अपना भविष्य भी उसने ऐसा ही सोचा है।’

अंतिम पांचवें खंड ‘आवारगी’ में यात्राओं के चित्र हैं। ये कविताएं अकृत्रिम सादगीपूर्ण जीवन का पक्ष लेती हैं। सार्वजनिक जीवन में सक्रिय मसखरों और दयनीय हास्य अभिनेताओं को पहचानने वाला कवि उस भीड़ की भी शिनाख्त करता चलता है जो ऐसे नौटंकीबाजों को बढ़ावा देती है। ‘ऊब’ कविता का यह हिस्सा-

‘वह सिर्फ एक ही है
जो बोलता दिखाई देता है इन चैनलों पर
बड़ी-बड़ी भीड़ों वाले जन समूहों के मंचों पर
और उसके बोले को सही ठहराने के लिए
उससे भी बड़बोले खड़े हैं हज़ारों की भीड़ में
बैठते हैं संभ्रांत लोगों के बीच।’

मुझे पूरी उम्मीद है कि हरपाल का यह कविता संग्रह कविता प्रेमी जनता द्वारा पढ़ा और सराहा जाएगा।

 

कवि हरपाल की कविताएँ

 

बीच सफ़र में

लूज़र
उसके जीवन में ऐसे अवसर कई बार आए
जब उसने स्वयं को पाया निपट अकेला
और वो भी संकट की घड़ियों में
कभी कोई नहीं आया
जिसने आगे बढ़ कर
थाम लिया हो हाथ
आज फिर वह घिरा है
और यह ऐसा समय भी नहीं है
कुछ नया कर पाने को
सांझ ढलने को है
और मजेे की बात
सफर अभी शुरु ही हुआ है
अन्तहीन धूल भरी पगडन्डी
उसके सामने बिछी है
एक बिसात की तरह
उसके पांव थके हैं
हिम्मत टूट चुकी है
इक्का-दुक्का हमसफर जो भी हैं
वो भी उसी पर निर्भर
ठंड बढ़ रही है
कुछ सुझाई नहीं दे रहा
वह स्तब्ध् था
रूका खड़ा था
न चलने का निर्णय लेने पर
बजिद
उसे पीछे धकेल
उसी में से वह निकल
खड़ा हो गया सामने
आ ! थाम ले मेरा हाथ
मैं ले चलूंगा तुझे तेरे गन्तव्य तक
मैं तुम्हें बताऊंगा
तुम्हारी विजय के गूढ़ रहस्य
मैं हर लूंगा तुम्हारी समग्र
नपुंसकता
तुम्हारी नाकाफी हो चुकी
फरमाबरदारियों को
नहीं-नहीं
नहीं मरने दूंगा
तुम्हारी इन्सानियत को
यह संकट यथार्थ में रहेगा
पूर्ववत
सिर्फ तुम्हें ही मालूम होगा
कि तुम्हारे नुकसान की भरपाई
की जा चुकी है
तुम्हारी अधर में अटकी
सांसे
तुम्हारी नींदे
पल-पल तुम्हारे दिल का डूबना
ये सब कुछ नहीं रहेगा
जब भी तुम चाहो
मुझे अपने पास
बुला सकते हो
मैं तुम्हारे लिए दुनिया का
सबसे विश्वसनीय शक्तिशाली आदमी हूँगा
मुझे कस के पकड़े रखो
जब तक मैं हूँ
तुम सुरक्षित हो
और जब तक तुम हो
तभी तक मैं भी जीवित हूँ

ऊल-जलूल चेहरे
वह
जो ऊल-जलूल कपड़े पहने
और बगलोल-सी शक्ल लिए
आ रहा है
उस से बचो
तुम्हारे चेहरे पर तैरती कविताएं
देखते-देखते चुरा ली जाएंगी
और उसकी एक फटीचर-सी डायरी के पन्नों से
चिपक जाएंगी
वह ऐसा ही है
वह क्षण भर को देखता है
किसी के चेहरे पर टंकी आंखें
और उतर जाता है
अतल गहराईयों में
ले जाता है
वहां जो भी पड़ा मिलता
जमा हुआ या पिघला
दुःख या हंसी
वह तुम्हारे घर नहीं जाएगा
यहीं से सब जांच लेगा
अन्दाजे लगाएगा
तुम्हारे पापा ने
तुम्हारा कसूर न होते हुए भी
छोटे ‘इ’ की बजाए
बड़े ‘ई’ का इस्तेमाल करने भर से
बुरी तरह डांटा

वह तुम्हारे माध्यम से ही पहुंचेगा
तुम्हारे पापा के चेहरे पर उगते
मजबूरियों के जंगल में

वह मन ही मन
कर रहा है सरगोशियां
स्वयं से
क्यों तुम्हारे ब्वाॅय-फ्रेंड ने
किसी और के चक्कर में पड़
दिया तुम्हें आज बड़ा ही ठण्डा
रिस्पोंस
वह हर चेहरे पर
देखता है
पढ़ता है
बहुत-सी कविताएं
कई बार खिलखिला कर
कई बार बिलबिला कर
हंस पड़ता है
ये सभी कविताएं
ये सभी चेहरे दरअसल उसके अपने ही हैं
वह
ये कभी जान नहीं पाता
और
नित इतराता है
एक नई इबारत गढ़

मुश्किलें
एक अदद वृद्ध दम्पत्ति
औलाद की तरफ से हो निराश
उम्र के अन्तिम पड़ाव में पहुंच
फैसला करते हैं
और अगले रोज
शहतूत की टहनियों से सजी एक टोकरी में रख
कुछ किलो ग्राम फल
बैठे मिलते हैं
शहर के अन्तिम छौर के रेलवे फाटक के पास
वह
उन्हें कई दिनों से देख रहा था
चाह रहा था उनसे कुछ खरीदारी करना
बिना किसी विशेष जरूरत के
फिर वह सोचता और हिसाब लगाता
उनके हिस्से में आने वाले फायदे को लेकर
और जब फायदे की रकम को घटाता
उनके रोज के घर के खर्च से
तो डूब जाता
गहरे विक्षोभ में
लेकिन वह जाता
उसके वहां पहुँचने पर
उनके चेहरे खिल जाते
आंखों में चमक आ जाती
हाथों का कम्पन दिख ही जाता
दोनों का इस लेन-देन की प्रक्रिया में
शामिल होना
अनावश्यक तो था ही
लेकिन ग्राहक को यह स्थितियां
सम्मानजनक लगती
सामान सामान्य श्रेणी का था
घर आकर उसे न जाने क्यों लगा
कि वह उनकी मुश्किलें
बढ़ा कर ही आया है

संवेदनाओं के द्वीप
कुछ लोगों का जीवन
रामलीला-मंचन में दिये गये पार्ट जितना ही होता है
उसके बाद वे सभी हकलाने लगते हैं
जैसे उनका, उन संवादों, मुखौटों व अदाकारी से
न रहा हो कभी कोई वास्ता
हांपने लगते हैं और हो जाते हैं बौने भी
आज का समय वैसा ही है
और इसे धता बताते हुए
कुछ बहुत ही थोड़े मुट्ठी भर लोग
कर रहे हैं रिहर्सल
उनका पार्ट न तो अभी मुकम्मल हुआ है
बल्कि खेला जाना भी अभी बाकी है
कई बार तो उनमें से कुछ-युग्ल
हो जाते है ऐसी जगहों पर विस्थापित
जहां के वासी बोलते हैं
उनसे जुदा जुबानें
उनसे जुदा लब्बो-लुबाब
सिरे से गुम होती हैं जहां
सभ्यता की बस्तियां
और सदा हरी-भरी रहती है जहां
स्वार्थाें की गलियां, आंगन-बेहड़े
कुछ दिनों बाद
न जाने कहां-कहां से
खिंच खिंचा कर
पहुँच ही जाते हैं
उन तक
संवेदनाओं को पोषित करते द्वीप
करते उन्हें आश्वस्त
वे रहने को
जमे रहने को होकर निर्भय
प्रलय के दिन के बाद भी
और होते रहते हैं एक-एक कर विदा
और वे हैं कि
हो ही नही पाते अस्थिर
पाते ही नही स्वयं को निर्जन
इतना विश्वास, इतनी ऊर्जा सोख लेते हैं
वे कागज के निर्जीव पन्नों और उन्हीं जैसे लोगों से
कि आम-जन हो भयभीत
उनकी इन भीष्म प्रतिज्ञाओं से
बंद कर लेता है अपनी आंखें
और खोलता है
उनके परिदृश्य से गायब हो जाने के बाद
और रोता है ज़ार-ज़ार
वे ये कभी नहीं जान पाते कि
उनके रोने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण था
वो जो उन्होंने ग्रहण नहीं किया
यह सिलसिला आज तक कायम है

सिकुड़ती संख्याएं
वह अपनी विद्वता झाड़ते बोला
यह लिखावट एक ऐसे आदमी की होनी चाहिए
जिसका चेहरा अब्राहिम-लिंकन से मिलता जुलता हो
दाढ़ी और मूछें हो मार्क्स जैसी
जांघों से ऊपर का हिस्सा
जांघों के नीचे के हिस्से की बनिस्वत
छोटा हो
जो बिल्कुल गलत था
और बल्कि उसके कथन का विलोम ही था
हम हर बार हर समय और हर स्थान पर
ऐसे ही अति यथार्थपूर्ण ब्यान देते हैं
और फूल कर कुप्पा हो रहे होते हैं
हम अपनी इस महान मूर्खता पर
रत्ती भर भी ध्यान नहीं देते
और न ही इस पर शर्मिंदा होते हैं
और न ही इसके झुठलाये जाने पर
पछताते हैं
दरअसल ये हमारी विकास करने की
सभ्यतापूर्ण सामाजिक परिस्थितियां हैं
इन सबके बरअक्स
जो लोग उछल-कूद मचाये रहते हैं
उनके चेहरे इन सबके चेहरों से
ज्यादा रूखे ज्यादा पीले और ज्यादा भूखे होते हैं
जो कभी-कभी हँस भी लेते हैं
वह अपनी दिन दोगुनी और रात चौगुनी
संख्या को बढ़ती देख
उन्हें निरंतर
हेकड़ी भरी निगाहों से देखता है
और उनकी सिकुड़ती संख्या को निहार
अट्टहास करता है

बड़े हादसे
वह
चलती ट्रेन में देख रहा था
कहीं दूर अवचेतन में
थाली पीटने की आवाज
चैंक कर गर्दन घुमाई
एक बच्ची थी
करतब दिखाने को तैयार
करबत ही कहेंगे
क्योंकि
वह अनाथ और अनपढ़ भी थी
वह योगा कैसे हो सकता है
क्योंकि
ऐसा योगा
राम-देव का बाप भी नहीं कर सकता था
वह तमाशा कर रही थी
वह रबड़ का एक अढ़ाई फीट लम्बा टुकड़ा था
जो कहीं से और कैसे भी
मोड़ा जा सकता था
अपने ही बाजुओं से बनाए रिंग के अन्दर से भी
शरीर के निकल जाने के बाद
सीधे होते हाथ
उफ़!
उम्र मात्रा पांच से सात के बीच
एक सुन्न कर देने वाली मासूमियत
गायब थी
वहां
पेशेवराना
खामोशी भी नहीं थी
लेकिन
था ऐसा ही कुछ
जो घट रहा था
धीरे धीरे
चेहरे पर न तो मार्मिक अपील के ही
न तो किसी चालाक व्यापारी के ही
भाव थे
वह निपट अकेली ट्रेन में
कोई नही था
वही थाली अब उसके हाथों में थी
कोई उसमें डाल रहा था
एक रूपया पांच रूपया
या दस रूपये का नोट भी
कुछ डपट कर भगा भी रहे थे
वह क्षण भर के लिए भी
खुश या अचम्भित
नहीं हो रही थी
किसी के लिए भी
उसके पास कोई कमेंट
या भाव नहीं थे
लग रहा था
शायद वह
आने वाले किसी बड़े हादसे के लिए
कर रही थी
स्वयं को तैयार

(कवि हरपाल का जनम, 31 दिसंबर,1950, शिक्षा, स्नातक, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से उप अधिक्षक के पद से सेवानिवृत्त , तीन काव्यसंग्रह प्रकाशित, एक टुकड़ा धूप, जंगल की कविता, और घर की सांकल , कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं  और अखबारों मे प्रकाशित.  कुछ काम पेंटिंग(कोलाज )में किया है जो अमरीका के शहरों (शिकागो और वाशिंगटन डीसी ) मे ऐग्जिबिट हुआ है. टिप्पणीकार बजरंग बिहारी तिवारी जी अस्मिता विमर्श और आलोचना के क्षेत्र का चर्चित और स्थापित नाम हैं और समकालीन जनमत के नियमित लेखक भी हैं.)

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