समकालीन जनमत
कविता

विनय सौरभ लोक की धड़कती हुई ज़मीन के कवि हैं

प्रभात मिलिंद


कवि अपनी कविता की यात्रा पर अकेला ही निकलता है. जब इस यात्रा के क्रम में पाठक उसके सहयात्री हो जाएँ तो समझिए कवि की यात्रा पूरी और सार्थक हो गई.

विनय सौरभ एक ऐसे ही कवि हैं जिनकी कविताएँ आपकी उंगलियाँ थामे अपनी कविता-यात्रा पर साथ लिए चलने का आग्रह करती हैं. ऐसे भी पुरस्कार और संग्रह की उथली महत्वाकांक्षाओं में अपनी पूरी निर्लिप्तता के साथ तल में जो शेष बचती हैं, सच्ची कविताएँ शायद वही हैं.

यह दीगर बात है कि रचने और पढ़ने के इस कृत्रिम समय में तल में थिरने की फ़ुर्सत अब न तो ज़्यादातर कवियों के पास बची है और न पाठकों के पास ही.

विनय सौरभ हमारे समय के उन गिने-चुने कवियों में एक हैं जिन्होंने न सिर्फ़ अपने नेपथ्य का चुनाव ख़ुद किया है बल्कि इस नेपथ्य को अपने रचनात्मक और मानवीय सुख और तुष्टि का औज़ार भी बनाया है. यह नेपथ्य ही वस्तुतः उनके कवि का निजी स्पेस है.

_तुलसी की पत्तियाँ बन जाऊँगा तुम्हारे आंगन में_
_तुम खाँसी की तकलीफ़ में उबाल कर मुझे पीना !_

_देखना मैं लौटूँगा कुछ ऐसे ही_
_और वह लौटना दिखाई नहीं देगा !

विनय सौरभ को पढ़ना मुझे इसलिए भी प्रिय है कि मैंने उनके लेखन और जीवन के बीच न्यूनतम विचलन महसूस किया है.

वे स्मृतियों के संभवतः सबसे बेहतरीन युवा कवि हैं, और स्मृतियाँ चूंकि कभी स्थानापन्न नहीं हो सकतीं इसलिए मेरी दृष्टि में वे अतीत-मोह के बजाय छूटते हुए समय के साथ छूट चुके सामाजिक परिदृश्य और उससे संबद्ध संवेदना की पीड़ा के कवि हैं.

इसलिए इन कविताओं में मुझे स्मृतियों की प्रबलता अपनी सकारात्मकता के साथ दिखती है, न कि सिर्फ एक अभिजात्य नास्टैल्जिया के रूप में.

_’अच्छे दोस्त बचपन की याद की तरह होते हैं_
_वे मृत्युपर्यन्त हमारी स्मृतियों में बने रहते हैं_
_पुरानी गठिया की पीड़ा की तरह_

_उनकी अच्छाई गड़ती है नींद में_
_स्वप्न तक की यात्रा में करते हैं बेचैन_

_इस जहान में_
_सुंदर कविताओं की तरह_
_मिलते नहीं अब अच्छे दोस्त_’

इसी लिए इन कविताओं का यदि ध्यान से डिसाइफर किया जाय तो उनमें एक मद्धिम खिन्नता की स्थायी अंतर्ध्वनि उपस्थित मिलती है.

_’कितनी आसानी से कह देते हैं कि यह मकान_
_बेच कर किसी दूसरे शहर में चले जाएंगे_
_और मामला सिर्फ दो बच्चों की लड़ाई का होता है’_

कवि का यह गिल्ट ही दरअसल उसके भीतर के मनुष्य को बचाए भी रखता है.

जीवन में जो कुछ भी परिघटित हो चुका है उसके गतावलोकन की परिपक्वता और निरपेक्षता का साहस भी उसे तभी प्राप्त होना संभव बनाता है.

_’हमदोनों को कॉलेज में एक ही लड़की पसंद थी_
_हम झगड़ते थे उसके लिए_
_एक अजब रूमानियत से भरा जज़्बा था_
_कि घर से आए पैसों के बल पर उस लड़की की_
_पसंद पर हम बहस करते थे_’

इन कविताओं में दृश्य और अनुभूतियों दोनों की जीवंतता दिखती है.

“Poetry is not a expression of the party line. It’s that time of night, lying in bed, thinking what you really think, making the private world public, that’s what the poet does.”

विनय सौरभ के कविता लोक में चहलक़दमी करते हुए एलन गिन्सबर्ग का यह कथन अनायास याद आता है. उनकी कविताओं में उनका लोक और उस लोक की जड़ें और ज़मीन धड़कती हैं. साथ-साथ वे इस लोक के बाज़ार द्वारा एक रोज़ निगल जाने के ख़तरों से भी आक्रांत हैं. ‘और अंत में’ कविता इसकी एक छोटी सी बानगी हैं.

इन कविताओं में एक बात और ग़ौरतलब है. हर्मन हेस और सिल्विया प्लाथ की तरह इनमें भी ‘फादर फिक्सेशन’ से ग्रस्तता का पता मिलता है, जबकि स्त्री, पृथ्वी और माँ भी उनकी कविताओं में सतत उपस्थित रही हैं.

_’पिता की कमीज खूंटी पर टँगी है_
_बरसों से पसीने से भींगी और पहाड़ों की तरफ से_
_हवा लगातार कमरे में आ रही है_’

‘बख्तियारपुर’ कविता में उनका पिता-प्रेम और स्मृति-प्रेम अपने उरूज पर दिखता है. यह विनय सौरभ की सिग्नेचर कविताओं में एक है.

_’हमें इस बात का पता नहीं था_
_सच तो यह भी है मित्रों कि पिता की ज़िंदगी के_
_बहुत से ज़रूरी हिस्सों के बारे हम अनजान थे_

_पिता दिल्ली की इस यात्रा में कहीं नहीं थे_’

यह कविताक एक रेलयात्रा के बहाने पिता के जीवन के अंतिम दिनों का अवलोकन करते हुए उनकी स्मृतियों में एक विरल परकाया प्रवेश है.

पत्रकारिता के देश के शीर्षस्थ संस्थान से निकले विनय सौरभ ने पसंद का जीवन जीना चुना है. कविता लेखन में आत्म-प्रक्षेपण और मौकापरस्ती की इस आपाधापी में आत्ममुक्त होना आसान नहीं. नोनीहाट के हाट-बाज़ार, लोक कलाओं, कस्बाई जीवन और खुली हवाओं के बरअक्स महानगरों का वातानुकूलित शीश-गृह के मोहपाश से बचे रहना उनकी मनुष्यता और कविता कर्म को एक नई दृष्टि से देखे-परखे जाने की अपेक्षा करता है.

क्योंकि अपने विचारों और पद्धति में वे मूलतः रिबेल ही हैं इसलिए मैं उन्हें संथाल परगना का बॉब डिलन भी कहता हूँ.

विनय सौरभ की कविताएँ

1. मैं लौटूँगा

तबादले का मतलब
एक शहर के जीवन से
सभी चीजों का छूटना नहीं है

एक शहर से विदा होने का मतलब स्मृतियों और यादों का समाप्त हो जाना नहीं है

मैं कमान से निकला हुआ तीर नहीं हूँ
जो नहीं लौटूंगा फिर !

मैं लौटूँगा तुम्हारे पास
पर उस तरह से नहीं
जैसे लौटकर आते हैं
हर बरसात में इस देश के कुछ हिस्सों में
प्रवासी पक्षियों के समूह

या जैसे लौट आते हैं
बसंत के महीने में पेड़ों पर नए पत्ते
या शाम आती है जैसे !

नहीं लौटूँगा उस तरह से !

जीवन में उम्मीद और
किनारों पर लहरों की तरह लौटूँगा

मैं तुम्हारी नींद में लौटूँगा
किसी सुंदर सपने की तरह

लौटूँगा तुम्हारी त्वचा और साँस में
हवाओं के साथ

शायद लौटूँ पंछी बनकर और तुम्हारे कमरे के रोशनदान पर बसेरा करूँ ….
बहूँ तुम्हारे रक्त में तुम्हारे कुँए का जल बनकर

बिखरूँ …
गुनगुनी धूप का टुकड़ा बनकर
सर्दियों के दिनों में तुम्हारी छत पर

देखना, तुम्हारे घर की ख़ाली ज़मीन पर
बनस्पति बनकर उगूँगा
और चौके में आऊँगा तुम्हारे पास

तुलसी की पत्तियाँ बन जाऊँगा तुम्हारे आंगन में
तुम खाँसी की तकलीफ में उबालकर मुझे पीना !

देखना मैं लौटूँगा कुछ ऐसे ही
और वह लौटना दिखाई नहीं देगा !

2. यह कमरा

बेशक यह किराए का ही है
पर है अभी मेरा !

मेरे कुछ पुराने दिन जो शख्त थे
और मेरे उड़े हुए चेहरे पर हंसते थे
तब इस कमरे ने मुझसे बातें की थीं
मेरे जलते हुए तलवे सहलाए थे

शुरू के दिन थे –
इस पर बहुत प्यार आया था
छीजते हुए आत्मविश्वास और श्राप से भरे हुए दिनों में पूरे विश्वास से इसमें लौटता था मैं !

सर्दियों की एक कठिन रात में
एक बार बस अड्डे पर उतरा था
तो इस पराये शहर में मेरे पास एक कमरा था
इस विश्वास ने कितना बल दिया था !

खराब दिनों में उम्मीद से भरे होने का साक्षी सिर्फ यह कमरा है

सपनों से भरे एक आदमी को धीरे-धीरे खाली होते देखा है इसने
कुछ लिखते देर- देर रात तक और सुबह उसे चिंदियों में बदलते हुए
धीमी गति से जिंदगी में रखी चीजों को उदास और बेरंग होते देखा है

और कविता की नब्ज को डूबते हुए … !

अब तो एक पराये शहर में
एक अनजान आदमी के लिए हौसला दिलाने वाले हाथ भी नहीं दिखते

शुक्र है
इस कमरे में सुबह-सुबह
अब हरि प्रसाद चौरसिया की बांसुरी गूँजती है …
और दीवार पर लगी तस्वीर में वह प्यारा बच्चा
शाम को कमरे में लौटने पर मुस्कुराता है !

 

3. पिता की कमीज़

पिता की कमीज़
खूंटी पर टंगी है बरसों से पसीने से भीगी
और पहाड़ों की तरफ से
हवा लगातार कमरे में आ रही है

पिता बरसों से इस मकान में नहीं हैं

हम इस कमीज़ को देखकर ऊर्जा और विश्वास से भर उठते हैं.

 

4. खाट

अब वैसी ऊँची नक्काशीदार खाट
तो आज किसी हाट में न मिलेगी

ढूँढो-ढूँढो जाकर नगरों के बाज़ार-बाज़ार
सच कहता हूँ –
कोई उसकी जोड़ी लगा दे तो ऊपर से पाँच हज़ार

कहते हैं धूप के रंग तक
बदले हैं अब
आँगन बदला
इस मकान के दरो-दीवार बदले
हवा तक बदली है हमारी आँखों में

पर जिसे संभाल कर रखा गया तीन पीढ़ियों से
सौ से भी ज़्यादा बार जिसकी बदली गई रस्सी
और चूलें जिसकी ज़रा भी ना हुईं कमज़ोर

और सात जन पूरे हुए इस आँगन से
मगर बची रही खाट !

एक बार की बात –
बस अब कि तब !
……कि खाट से उतार ली गई दादी

समझो, डोम के यहाँ जाने से बचा ली गई खाट !
खाट पर छूटेगी देह तो खाट को भी ले जाएगा डोम श्मशान में

पर हाय !
किसी को भी ना आया ध्यान
और पिता ऐसे भी निकल जाएँगे खेत से लौटकर चुपके से….!!

खाट पर बैठकर सुस्ताया
पिया पतालगंगे का लोटा भर पानी
सीधा किए थकान से भरे दोनों गोड़

और….पता भी न हुआ हमें कि कब निकल गये चुपचाप इस माया की नगरी से !

अब यह खाट दुमका के हिज़ला मेले में बिकेगी या लकड़ी का कोई क़द्रदान इसे पहुँचा आएगा दिल्ली कोलकाता के बाज़ार में

चीज़ों का सत्त जानता है अब डोम भी

अब तो कोई हुनरमंद बढ़ई
इस नक्काशीदार ऊँची खाट पर वार्निश की बढ़िया चमक भरेगा

महीनों की मेहनत से बनाया है हुज़ूर
……..यह झूठ गढ़ेगा !

यह झोलंगी खाट नहीं है
कि शमशान में फेंक आएगा डोम !

 

5. और अंत में

जिसके पास विज्ञापन की सबसे अच्छी भाषा थी
………वह बचा
………वह औरत बची, जिसके पास सुंदर देह थी
और जो दूसरों के इशारे पर
रात-रात भर नाचती रही

कुछ औरतें और मर्द
जिनमें ख़रीदने की हैसियत थी

और वे सारे लोग बचे
जो बेचने की कला जानते थे

 

6. इस तरह रचते हैं हम दुख का तिलिस्म

हम गुस्से में होते हैं
और अपने भीतर कितना कुछ नष्ट कर डालते हैं

सबसे पहले हम नष्ट करते हैं
अपना विवेक फिर नष्ट होती है मानवीय उष्मा

कितनी आसानी से कह देते हैं कि हम यह मकान बेचकर
किसी दूसरे शहर में चले जाएँगे
और मामला सिर्फ दो बच्चों की लड़ाई का होता है

ऐसे में थोड़ी देर के लिए आँखों के सामने से
हट जाते हैं पिता के मेहनतकश कंधे
और उनका पसीना से भरा चेहरा धुंधला जाता है

पाई -पाई जमा कर हमारे ही लिए बना था
यह घर, हम भूल जाते हैं !

पत्नी के पेट पर सिर रखकर नौ महीने जिसके आने का इंतजार किया था इस पृथ्वी पर
उसे बिना विचारे ही कह देते हैं कई बार –
तुम पैदा होते ही क्यों नहीं मर गए !

फिर जगते हैं देर रात तक और हृदय में अपने
शब्दों की फाँस लिए करवटें बदलते हैं

इस तरह रचते हैं हम
अपने लिए दुख का एक तिलिस्म !

 

7. अच्छे दोस्त

अच्छे दोस्त पूरे सफ़र में कम मिलते हैं
वे एकाएक किसी स्टेशन पर
हमारा साथ छोड़ देते हैं

अच्छे दोस्त बचपन की याद
की तरह होते हैं
वे मृत्युपर्यंत हमारी स्मृतियों में बने रहते हैं
पुरानी गठिया की पीड़ा की तरह

उनकी अच्छाई गड़ती है नींद में
स्वप्न तक की यात्रा में करते हैं बेचैन

इस ज़हान में
सुंदर कविताओं की तरह
मिलते नहीं अब अच्छे दोस्त !

 

8. एक कवि का अंतर्द्वंद

वह बहुत उदास-सी शाम थी
जब मैं उसे स्त्री से मिला

मैंने कहा –
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ
फिर सोचा –
यह कहना कितना नाकाफ़ी है

वह स्त्री एक वृक्ष में बदल गई
फिर पहाड़ में
फिर नदी में
धरती तो वह पहले से थी ही

मैं उस स्त्री का बदलना देखता रहा !

एक साथ इतनी चीजों से
प्रेम कर पाना कितना कठिन है !
कितना कठिन है एक कवि का जीवन जीना !!

वह प्रेम करना चाहता है
एक साथ कई चीज़ों से
और चीज़ें हैं कि
बदल जाती हैं प्रत्येक क्षण में

 

9. यह भी गुज़र जाएगा यह भी और यह भी !

अब वह एक मीठी टीस है !

वह किसी गुज़रे ज़माने की तरह याद आ रहा है
याद आ रहा है बचपन के खिलौनों की तरह
पहली पाठशाला में चित्रों वाली
किताब की तरह याद आ रहा है

ओवर ब्रिज पर चढ़ती हुई बस से जीवन में पहली बार देखी हुई रेल की तरह याद आ रहा है

हम दोनों को कॉलेज में एक ही लड़की पसंद थी
हम झगड़ते थे उसके लिए
एक अज़ब रूमानियत से भरा ज़ज़्बा था कि घर से आए पैसों के बल पर
उस लड़की की पसंद पर हम बहस करते थे

कुछ और लड़ाइयों और मनमुटावों के बाद हम रोते थे एक दूसरे के लिए

एक ही कमरे में अलग-अलग बिस्तर पर सोते हुए एक दूसरे को ख़त लिखा हमने देर रात गए

मेरी अनंत बदमाशियों को उसने क्षमा किया,
यह मैं अब समझ रहा हूँ

उसका अक्खड़पन याद आ रहा है
उसका दुख से बुझा चेहरा
प्यार देने वाली आँखें
भागलपुर के उर्दू बाज़ार से मसाकचक तक की सिनेमा की आखिरी शो तक खुलीं चाय की गुमटियों के भीतर लकड़ी की ठंढ़ी हो चुकी बेंचो पर उसके साथ की गई अनंत गर्म बहसें ….

सब याद आ रहे हैं !

जब हम युवा होती ज़िंदगी और अपने रूमानी जीवन के अंतहीन लगने वाले दुखों से भरे थे

जीवन के बारे में उसका फक़ीराना मंतव्य भी अज़ीब था यह भी गुज़र जाएगा यह भी और यह भी !

ऐसे आदमी को अब आप क्या कहेंगे
जो इसी प्रदेश के दूसरे शहर में है
और ख़तों के बारे में भूल चुका है
बचपन और जवानी के दिनों के
कई महत्वपूर्ण दृश्य अब उसे याद नहीं !

 

10. बख़्तियारपुर

एक दिन हम पिता की लंबी बीमारी से हार गए, हम सलाहों के आधार पर
उन्हें दिल्ली ले जाने की सोचने लगे

दिल्ली में हर मर्ज़ का इलाज़ है मरणासन्न गए
हीरा बाबू दिल्ली से लौट आए गाँव !
दिल्ली में कवि कैसे होते हैं !
कौन से एकांत में लिखते हैं कविताएँ !
कैसे हो जाते हैं दिल्ली के कवि जल्दी चर्चित !

मैं दिल्ली में शाम कॉफी हाउस जाना चाहूँगा
मिल-बैठकर बातें करते हुए,
सुना है, दिख जाते हैं रंगकर्मी कवि और साहित्यकार

देश समस्याओं से भरा पड़ा है !
कहाँ कवियों कलाकारों को मिल पाती होगी इतनी फुर्सत ! – पिता मेरी मंशा जानकर बोले

पिता शिक्षक थे
वे पूरी दुनिया के बारे में औसत जानते थे
कवियों के बारे में तो बहुत थोड़ा जानते थे

एक बार भागलपुर में दिनकर से
एक कवि सम्मेलन में कविता सुनी थी
इस बात का कोई खास महत्व नहीं था उनके जीवन में
लेकिन बेग़म अख़्तर की ग़ज़लों
के बारे में वह बहुत कुछ बता सकते थे
पिता के जीवन में एक साध रही कि वे बेग़म अख़्तर से मिलते !

पिता दिल्ली की यात्रा में अड़ गए अचानक ! बच्चों की सी ज़िद में बोले –
बख़्तियारपुर आए तो बता देना

माँ की स्मृति बहुत साफ नहीं थी
उसने शून्य में आँखें टिकाए हुए कहा,
पिता की पहली पोस्टिंग संभवत बख़्तियारपुर थी

हमें इस बात का पता नहीं था
सच तो यह भी है मित्रों कि पिता की ज़िंदगी
के बहुत से ज़रूरी हिस्सों के बारे में हम अनजान थे

अभी महानगर की ओर भागती इस ज़िंदगी की जरूरत में पिता की स्मृतियाँ स्मृतियाँ चालीस वर्ष पुराने चौखटे लाँघ रही थी !

पिता दिल्ली की इस यात्रा में कहीं नहीं थे !

थोड़ी देर के बाद अकबकाये हुए से बोले
– मुझे खिसकाकर खिड़की के पास कर दो
रामाधार महतो की चाय पिऊँगा
फिर उन्होंने अपने स्कूल के बारे में बताया जो कभी प्लेटफार्म के किनारे से दिखता होगा

पिता की आँखें उस समय बच्चों की
शरारती आँखों की भांति नाच रही थी
ऐसे में माँ किसी अनिष्ट की आशंका में रोने लगी

एकाएक उन्होंने संकेत के समय पूछा और पूरे विश्वास से कहा कि बच्चे अभी स्कूल से छूट रहे होंगे

पिता नींद में जा रहे थे
और बख्तियारपुर आने वाला था

एक चाय बेचते लड़के से मैंने
रामाधार महतों के बारे में पूछा
लड़का चुप था
वह स्कूल के बारे में भी कुछ नहीं बता सका उसने स्कूल के बारे में कोई रुचि नहीं दिखाई

हम आश्चर्य में भरे पड़े थे
पिता की नींद महीनों के बाद लौटी थी
यह उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा था
हम नहीं चाहते थे कि उनकी नींद पर पानी पड़े !

बख़्तियारपुर गुजर गया था और इसे लेकर हम एक अनजाने अपराधबोध और संकोच से गिर गए थे
लेकिन इस समय हम पिता की नींद की सुरक्षा के बारे में सोच रहे थे और इसके खराब हो जाने के प्रति चिंतित थे

एक बार उनकी आँखें आधी रात को झपकीं उन्होंने अस्फुट स्वर में कहा कि बख़्तियारपुर आए तो बता देना

उन्होंने नींद में ही स्कूल बच्चे रामाधार महतों की चाय जैसा कुछ कहा

हम सब सहम गए
हमारी विवशता का यह दुर्लभ रूप था

उनकी नींद की बात की जिज्ञासाओं को लेकर हम किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में थे

इस यात्रा में पिता कविता के बहुत ज़रूरी हिस्से को जी रहे थे
यह सिर्फ मैं समझ रहा था

यह तय था-
बख़्तियारपुर पिता की नींद में अभी सुंदर सपने की तरह गड्डमड्ड हो रहा होगा

लेकिन दोस्तों !
हम बख़्तियारपुर के किसी भी ज़िक्र से बचना चाहते थे
हम इस शब्द के एहसास से बचना चाहते थे

11. बचपन की कोई ब्लैक एण्ड वाइट तस्वीर

अब तो उस मकान की स्मृति भर है
जिसके आगे मेरी वह तस्वीर है

एक घोड़ा बँधा दिखता है थोड़ी दूर में
और मेरा बड़ा भाई बैलगाड़ी के पीछे
कैमरे से छुपने की कोशिश में लजाता हुआ

आह, वह दृश्य !

मफ़लर और फूल वाले स्वेटर में
बुआ का हाथ थामे मैं अपने पुराने खपड़ैल वाले
घर के चबूतरे पर
और मेमने अपनी माँ के स्तन पर थूथन
मारते हुए !

कितनी विह्वलता भरी है उस तस्वीर में !
कितना जीवन रस !

अब तो वह मकान भी नहीं रहा
और टोले में वह घोड़ा किसका था ?

सब कहते हैं –
तब तो हर घर में गायें भी होती थीं !

क्या आपके पास बचपन की कोई ब्लैक एण्ड वाइट तस्वीर है,
जिसके खेंचे जाने की याद
ज़ेहन में नहीं के बराबर है ?

क्या उस फोटूग्राफ़र के बारे में यकीन से कुछ बता सकते हैं,
जो शहर से गाँव फोटू खेंचने के लिए ही आता था ?

 

(कवि विनय सौरभ झारखंड के नोनीहाट, दुमका में जन्म. भारतीय जनसंचार संस्थान से पत्रकारिता की पढ़ाई नब्बे के दशक में तेजी से उभरे युवा कवि. सभी शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन. पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य. झारखंड सरकार के सहकारिता विभाग में सेवारत

संपर्क:binay.saurabh@gmail.com

टिप्पणीकार प्रभात मिलिंद का पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. की अधूरी पढ़ाई। हिंदी की सभी शीर्ष पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, डायरी अंश, समीक्षाएँ और अनुवाद प्रकाशित।स्वतंत्र लेखन।
संपर्क: prabhatmilind777@gmail.com)

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