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स्त्री जीवन की पीड़ाओं के नॉर्मलाइज़ होते जाने का विरोध हैं अपर्णा की कविताएँ

संजीव कौशल


अपर्णा अनेकवर्णा से मेरा परिचय उनकी कविताओं के रास्ते ही है और यह रास्ता इतना अलग और आकर्षक है कि यहां से गुज़रते हुए चाल खुद-ब-खुद थोड़ी धीमी हो जाती है। न जाने कितना कुछ नया दिखाई देने लगता है जिसे अब तक देखा ही नहीं, भागम भाग में नज़रअंदाज़ करते रहे। उनके कहन में ताज़गी है और आवाज़ में गहरा ग़म जो सदियों से रिसते घावों की चुप चुप कराह है।

मछली डूबी रही
जब तक
तब तक
जीवित रही

उपराई जब भी
मृत पाई गई

फटी आंखों
अवाक मुंह से
बहता रहा
अविश्वास उसका

जीवन बहुत धीमे रीता
अंत का पता
उसे अंत में ही लगा

आप जैसे ही कुछ अलग करना चाहते हैं जिससे समाज का बंधा बंधाया विधान टूटता है आप पर हमला होने लगता है, पूरा तंत्र टूट पड़ता है आपका अस्तित्व मिटाने के लिए, और हम जो यह समझते हैं कि कोई शक्ति है जो अन्याय नहीं होने देगी, कमजोर का साथ देगी, कितना बचपना है हमारी इस समझ में। वहां हर बात पहुंचती है शायद समझी भी जाती है मगर कोई कुछ करता नहीं। सत्ता सत्ता का साथ देती है, हरदम यह कोशिश करती है कि सारे मामले उलझा दिए जाएं। कुछ इस तरह कि ठीक ठीक बताना मुश्किल हो कि आखिर चल क्या रहा है, कौन पिट रहा है, दोष किसका है। और अंत में उन्हें महसूस होता है:

‘प्रार्थना ईश्वर को नहीं बदलती
वो मुझे बदल देती है’

यह बदलाव और इस बात की समझ कि प्रार्थनाएं भी बेकाम की हैं अपर्णा की कविताओं को खास बनाता है। इस समझ से जब चीजों को देखती हैं तो संघर्ष की गहरी धार उनमें दिखाई देती है। उनकी दृष्टि बदल जाती है। वह बने बनाये खांचों को तोड़ उनके विपरीत सोचना शुरू करती हैं। अब तक जो सिखाया गया उसके विपरीत, उसी पर सवाल करती हुई सोच।

रास्ते में मुश्किलें हैं, मगर मुश्किलें ही नए दरवाज़े खोलती हैं। जब जीवन में इतना कुछ सीखा है और वह भी ऐसा जिससे हम खुद अपनी पराधीनता सुनिश्चित करते हैं तब “संसारिकता की ब्रेल लिपि भी अनुमान और अनुभव
की उंगलियों से सीखनी होगी।”

स्त्री जीवन किसी हादसे से कम नहीं, यहां वह होता है जो कहीं नहीं होता, और विडंबना यह कि यह हादसा किसी को दिखाई नहीं देता। हादसे यहां नॉर्मलाइज़ हो गए हैं, “जेठ की दुपहरी और पूस की रातें जुड़वा हैं।” कितना कुछ बोलता है यह वाक्य फिर भी वाक्य वाक्य बना रहता है जीवन की बीभत्सता इसे तोड़ कर बिखेर नहीं पाती, कि वाक्यों को पुरुषों ने बनाया है उन्हीं ने रचा है इनका व्याकरण जिसमें स्त्री को सेंध मारी का अधिकार नहीं। इस बात से डर कर अपर्णा रुकती नहीं हैं वे लगातार वाक्यों को कुरेदती रहती हैं उनकी मिट्टी हटाती रहती हैं ताकि नीचे दबे कंकालों की चीखें उघाड़ी जा सकें।

अपर्णा अनेकवर्णा की कविताएँ-

 

1. 

जेठ की दुपहरी और
पूस की रातें जुड़वां हैं

दोनों ही मेरी स्मृति में
नाचतीं हैं कालबेलिया नृत्य
उनके घूमरैले घाघरे का वृत
बहुत पसरा है
उसमें उचाट नींदें
नीम अंधेरे कमरे
कुछ भी नहीं हो पाने की जाग
आँख फाड़े लेटी रहती है

जेठ रेंगता है गर्दन के इर्द-गिर्द
खारेपन की हंसली बनकर
लू रोज़ थोड़ा सा हिला जाती है
सलाहुद्दीन हैंडलूम हाउस की टिन की छत
माँ दोपहरी से तिजहरिया की दूरी
उस स्वर से नाप लेती हैं

पूस बंद खिड़कियों के उस पार से
खरोंचता है कांच
फुसफुसाता है झीरियों से
पुकारता है कातर
कुक्कर स्वरों में

ऋतु चक्र के दो छोरों पर
बसे ये दो अतिशयोक्ति के सघन द्वीप
आज भी रेंगते हैं
विस्मृति को पछाड़
लौट लौट आते हैं

मैं उनकी स्मृति में अभिशप्त
उल्टे पांव चलती हूँ आजकल

2.
उसने अभी-अभी
पार कर लिया है
जीते रहने का तरल
सूख रही है अब
अंतिम सी किसी शाखा पर
किसी अभी-अभी बिछड़ने वाली
पत्ती की तरह

3. दृश्य में
.
दृश्य में टांकती हूँ
सुविधानुसार कुछ आवश्यक उपस्थितियाँ
जो फ़िलहाल अनुपस्थित हैं

बुरक देती हूँ
संवेदना, सम्मोहन, सामिप्य
नमक को स्वादानुसार ही होना होता है

कतरती रहती हूँ
सभी चुभती अतिरिक्तताएँ
अनावश्यक माने गए हर सिरे को धर
उड़ा देती हूँ फूंक मारकर

कुछ संतुष्टियों के पीछे-पीछे चलती
एक नया भुगोल जीवन का रचने लगी हूँ

संवारती हूँ इसी तरह दृश्य को अक्सर
अक्सर समक्ष से पलायन कर जाती हूँ

4.

आलता लाल एक जोड़ी घिसे पाँव
निकल पड़े हैं आदिम दिशा को
कर आई विदा जिन्हें बस कल ही
वो पलटे नहीं न ठिठके
न ही बदली दिशा अपनी

पुकारता रहा आकाश
बरसता रहा जल
खूब धधकी अग्नि
चंदन पहने डोलती रही पवन
धरती ने फिर किया वहन
एक और वियोग का भार
अपने आदिम धैर्य से

संकोच ने रुंधन को जड़ दिया था ग्रंथियों में ही
दुबकी रही वह
महानगर की थमी विथिकाओं से उभरी संवेदना
जुटी और फिर वहीं लौट गईं
असहाय सी एक दूसरे से आँखें चुराए

लौटती मेरी देह से झूलता रहा
चिरायंध
चटकता रहा कानों में बंधनों का खुलते जाना
मन में बिखरा रहा कुछ देर शमशान-वैराग्य
फिर कपूर सा उड़ गया
बस एक चिन्ह से स्मृति में रुके हुए हैं
आलता से लाल एक जोड़ी घिसे पाँव

5. गिरना

गिरना
गिरने से बहुत पहले शुरु हो जाता है
जब जड़ें छोड़ने लगती हैं
मिट्टी का हाथ
खोने लगती हैं भरोसा
धरती पर

 

6. बाक़ी जो भी है बचा

शरीर की कोशिकाओं
का मरना जारी है
साथ ही
जारी है कहीं पहुँच सकने के
संतोष के भ्रम का मरना
देह और मन बट कर बनाये
गए सारे रस्ते मिटते जाते हैं
कहीं भी पहुँचते ही
खो जाता है वहां होने का प्रयोजन
हाँ बस खुद को पहले से
ज़्यादा रोज़ मिलने लगी हूँ
एक बुलबुले में क़ैद
अपनी इस सोच को
अगर बाहर से देख सकूं
तो एक्वेरियम में
अकेली बची उस मछली की तरह ही है
वो जो बाकियों को मार चुकी है
या जैविक किसी वजह से
उनसे उम्र की दौड़ जीत चुकी है
और अब
एक घुन्नी और बेवकूफ़ ज़िद में
अपने अकेलेपन का पीछा करती रहती है

 

7. उमस

फ़्रीडा की चिर रोगशय्या और फीतों वाली कसी पोशाक के बीच कहीं से
उसके पकते-सूखते घावों और आइने से चित्रों के रास्ते
वर्षावनों के किसी प्रौढ़ बारहसिंगे सी
ठिठक ठिठक कर बढ़ती आती है उमस

मीज़ो बांसवनों के उष्णकटिबंधीयता में उभरती
बज उठती है रह-रहकर झींगुर की तमाम पीढ़ीयों में
उनके गुणसूत्रों में पिरोई कड़ियाँ बनकर

हुगली-जल पर बहती, डूबती, उतराती
उमड़ आती है घाट की सीढ़ियों पर
कालीपद के जवा पुष्प सरका कर, तनिक सुस्ताती है
दर्शन को आई नववधु का सिंदूर
पसीजकर नाक की नोक तक जा बहता है
सबसे लाल जवापुष्प वही है

भाप के नख से कुरेदती है
लाल माटी, संथाल वनान्तर की
पुचकार पुकारती है बीज में सोए शिशु वनों को
हंड़िया, महुआ, सघा-साकवा, बांसुरी, मांदर के तिलिस्म के बीच
हुलसती है ममत्व से, छलक जाती है

हमने भी तो बालों में, सीने पर और कान के पीछे
पहन लिया है उसे गहनों की तरह
उमस हमारी साधी हुई दूरीयों में रेंगती है
व्यक्त होने की कगार से लौट-लौट
सर पटक कर केश बिखराए
हारी-थकी, बीच में आ पसरती है

 

8. श्रद्धांजलि में दो मिनट का मौन

जो मारता है, वो कौन है
जो मारे गए, वो कौन थे
जो बचा न सके, वो कौन रहे
जो सियासत करेंगे, वो कौन हैं
और आज के संदर्भ में सबसे प्रासंगिक
जो प्रतिक्रियाएँ दे रहे, वो कौन हैं
इन सबसे हटकर वो कौन हैं जो मौन हैं
इन बिंदुओं पर सोचने की जगह हम सिर्फ़ नाराज़ हैं
ये फ़लसफ़ा नहीं क्रूर सच्चाई है
कितना आक्रोश भरा है कि हम वही करते हैं हर बार
एक प्रतिनिधि युद्ध लड़ते हैं
अपनी रोज़मर्रा के निजी पराजयों के विरुद्ध मात्र
बस जीतने भर की तृप्ति के लिए
अपनी जेबों से लेबल निकाल
हर दूसरे का माथा खोजते हैं
बहस/संवाद सुने बिना होते हैं
इस सार्वजनिक मंच पर जहाँ हम उतने ही निजी स्पेस में भी हैं
अपने अपने क्रोध से लैस
हम सिर्फ़ कहने बैठते हैं
ये भी आतंकवाद ही है
अरे साहब! या तो अपने स्तर वालों से भिड़ें
नहीं तो सामने वाले की समझ देख कर ही कुछ कहें
अपनी अपनी कहकर अपने अपने अहं को सहलाने वाले
हम सबके सब भी आतंकवादी हैं
और ये कोई कविता नहीं है

 

9. इन दिनों

नहीं पीती सिगरेट तब भी
पैसिव स्मोकिंग तो करवा ही देते हो
सिगरेट तुम्हारी उँगलियों
से उलझी सुलगती रहती है
जलन से
मुंह कम ही लगती है इन दिनों

‘लिजलिजे’ शब्द वर्जित हैं
हमारे संवाद में जो अक्सर
एकतरफा होते हैं
मैं इस डर से ‘गैर-लिजलिजा’ बोलती रहती हूँ
कहीं बीच का चुप इतना लम्बा
न हो जाए कि उसे भरने से पहले
ये सोचने लगूं, ‘इज़ इट वर्थ इट?’

मुझे पढ़ते रहना है
तुम्हारे मौन में
तुम्हारे अनकहे में
तुम्हारे ‘सहज’ में
अपने लिए भीना सा कुछ
सुकोमल

तुम कुछ कह भी दो
तो दूसरे ही पल ‘व्यक्त’
की ग्लानि से भर उठते हो
मैं बीतते जाने के भय से

कितने सावधानी से ‘पसेसिव’
होते हो
कहीं मुझे पता न चले
और मैं
अपनी पुलक छुपाये
चुपके से ‘टच-वुड’ करती हूँ

 

10.

उफ़!उमस इतनी
कि सांसें गाढ़ी हो गई कितनी
लगता है पैरों से जड़ें
और बाहों से शाखाएँ फूट पड़ेंगी अभी
कि बस नमक ही देह का सत्य है
कि सारा आस-पास वाष्प ही रहा सदा से
कि मैं मार्क्वेज़ के किसी उपन्यास में क़ैद हूँ
जिसके कवर पर जड़ी हैं
मेरी दो आकुल तश्तरी-आँखें
और भीतरी पन्नों में कंपन है
मैना की धौंकनी-कंठ की

 

11. कुशीनगर में एक दिन

मुख्य स्तूप के भीतर
गूंजता रहता है एक प्राचीन मौन
सौम्य.. विरल.. घुलनशील..
द्वार पर ठिठके मेरे मौन का हाथ पकड़
खींच ले जाता है साधिकार भीतर..
भोग प्रसाद चढ़ावा वर्जित है
यहाँ बस मौन श्रद्धा और कौतुक का भोग चढ़ता है
बुद्ध की निर्वाणस्थली, साथ मेरे आ पहुंचे हैं
लंका, जापान, कोरिया के पथिक
हाथ प्रणाम की मुद्रा में..
आखों में श्रद्धा के दो डबडब फूल लिए
मेरे चारों ओर कई भाषाओँ में मौन प्रार्थनाएं गूँज उठी हैं
अपने भावुक ऊर्जा में समेट लेतीं हैं मुझे भी

सुनहले बुद्ध लेटे हैं दायें बगल
पीत-गन्धकी-महरूनी चीवर में लिपटे
या लपेटे हुए
पायताने खड़ी देखती हूँ
(अगर प्रतिमाओं का पायताना होता हो तो)
विशाल पैरों में अंकित राजयोग के चिन्ह
चक्रवर्ती सम्राट या महान कोई सन्यासी
सोचती हूँ तो लगता है सच ही तो
दोनों में कोई अंतर नहीं होना चाहिए
लालसा उभरती है वहीँ बैठ देखूं तलवे अपने
मुझमें कितना बुद्धत्व होगा..

सामने एक डलिया में कोई माली या भिक्षुक.. कोई पुजारी
सजा गया है देसी गुलाबों का एक नन्हा पिरामिड
और कुछ श्वेत कुमुदुनी के अधखिले फूलों का गुच्छ
कोई दानपात्र नहीं कहीं.. मन हल्का बहुत हल्का हो उठता है
अपनी-अपनी कथा के क्रम में एक-एक अध्याय जोड़ते हम
उस क्षण के षड्यंत्र से वहां इकट्ठे हुए एक दूसरे से अनभिग्य
पंक्तिबद्ध साथ परिक्रमा करते हैं.. कुछ तो करना है..
उन रीतियों में आश्रय ढूंढते या जाने भक्ति
या वहां होने का प्रयोजन या शायद बुद्ध को ही

हर कोण से अलग दीखता है मुखभाव..
कभी प्रस्तर सा जड़.. कभी करुणा से चैतन्य
कभी बुद्धत्व की जगर-मगर शान्ति से प्रदीप्त
ठीक सामने आकर खड़ी हुयी तो पाया
वही पढ़ी सुनी कही गुनी गयी निर्लिप्तता
बढ़ना था.. बढ़ गयी.. ज़रा सा वहीँ ठहर भी गयी थी
यात्रियों का झुण्ड अब द्वार से निकल रहा है
अब आगे नहीं जाना.. तो सिरहाने आ खड़ी हूँ
(अगर प्रतिमा का कोई सिरहाना होता है तो)
होता है.. सब होता है.. कुछ क्षण होते हैं जब प्रस्तर जीवंत होता है

बुद्ध अब मुझे एक विशाल एरावत से दीखते हैं..
निर्वाण में अमर.. अपने विशाल कर्ण समेटे चिरनिद्रा में निमग्न
देह की उदास भंगिमा मौन मुझे कह रही है
बुद्ध को भी जाना होता है.. बस मौन गूंजता रह जाता है
बस मौन.. उसी मौन का प्रसाद धारण किये निकल जाती हूँ
कुशीनगर के प्रमुख स्तूप के प्रमुख द्वार से..

 

12. निषेधों के देस में

सबको हटा कर
बीच से हर बार
मिल ही लेते हैं

हाथ नहीं उठते
स्पर्श निषिद्ध है
आँखें भी तो छूती हैं
रंग बदलती
कत्थई हो उठती हैं
उन दिनों के
उन क्षणों में

शब्द निषिद्ध हैं
कहना बहुत नहीं
बस वही है
जो रीढ़ के मूल
से शिखर तक
रज्जुओं में
गुनगुनी धूप बनकर
दौड़ती रहती है

उष्मा जोहता जीवन
इन क्षणों के आस-पास
ही सिमट आता है

बस..

 

13. प्रार्थना में

कौन है भला ऊपर वहाँ?
जो सुन रहा है
प्रार्थनाएँ
अजब ढंग से बात
उस तक पहुँचती रही है
कभी कहने के बहुत बहुत बाद
कभी सोचने से भी पहले

कौन है?
जिसे ख़याल रहता है
घंटनाओं को कैसे गड्ड-मड्ड कर देना है
कि सब अंत में सही ही लगे
कमाल की बात है न!

कुछ भी और करने में जब असमर्थ पाती हूँ ख़ुद को
तो प्रार्थना करने लगती हूँ
ज़रूरतमंद मन ही प्रार्थनारत होता है
एक व्यसन बनती जाती है प्रार्थना
सोते जागते.. मुझसे फूट, बहती रहती है

‘प्रार्थना ईश्वर को नहीं मिल
वो मुझे बदल देती है’

 

14. देख लेना

महत्वाकांक्षा की पहाड़ियाँ
चोटी पे खड़ी
यदि एक कदम.. आँखें मूँद
विश्वास का उठाऊँ
पता है उड़ने लगूंगी
देख लेना
बिलकुल नहीं गिरूंगी

मार्क्वेज़ की रेमेडिओस की तरह
उठती जाऊँगी एक दोपहर
ठीक चार बजे
ऊंचाइयों में विलीन हो जाने के लिए
नीचे सिर्फ मेरी तह की गयी
सफ़ेद चद्दरें रह जाएँगी

शव-विहीन कफ़न सारी की सारी

 

15. दुःख में

१.
दुःख में अवश्य
मर जाती होंगी औसत से अधिक कोशिकाएं
झुलस जाता होगा रक्त भी तनिक
ठहरता होगा जीवन-स्पंदन हठात
सब औचक की ठेस से सन्न
उस पार निकलने को बेचैन
फिर
ऊब जाता होगा मन बंधे-बंधाये से
आक्रोश भी बाँध-बाँध कर बाग़ी मंसूबे अंततः ढह जाता होगा
निश्चय ही कुछ ऐसा होता होगा जब दुःख आता होगा

२.
दुःख में
चुपचाप एक सदी बीत जाती है भीतर
बाहर बस एक निश्वास मात्र
सो भी ‘नाटकीय’ हो जाने से आँखें चुराते
अपने घटते जाने की ग्लानि में पुता हुआ

३.
तुम
मेरे जीवन का सबसे बड़ा सुख
और सबसे बड़ा दुःख दोनों ही हो

४.
तटबंध दरक जाते हैं चुपचाप
लगती ही है अदबदा कर चोट पर चोट
ख़त्म होने लगता है हांफता हुआ संवाद
चौकस हो पढ़ने लगता है मन
उस ओर की हर आनन फानन
और ऐंठ जाता है एकबारगी
लुप्त ऊष्मा की स्मृति से लज्जित होकर

५.
दुःख बासी हो उठा सुख है


दुःख दुःख है
पर उस एक से ठगा जाना
दुःख का अंतिम छोर है..
उस चरम से जो बचे
वो बदल गए थे
किसी रासायनिक परिवर्तन के तहत

७.
सुख में ऐसी मग्न थी
दुःख में निपट अकेली हुई
पता भी नहीं चला

 

16.

तुमने जब-जब एक कविता लिखी
विद्रोह, असंतोष, रोष, आक्रोश और विमर्श की
तुम चुपके से सजग दिखे सहमतियों की संख्या पर
तुम चुन-चुन कर उठे प्रश्नों का गला घोंट दिया
कर उनका उपहास
और झट सहमतियों से मिलाकर हाथ
एक साझा समूह में हो लिए सुरक्षित

तुम्हारे संदर्भ से मिलाकर कदमताल करते रहे हम
कुछ दिन डोलते रहे
बनकर घड़ी का पेंडुलम

फूहड़ लगता रहा यूँ
चर्चा के नाम पर भिड़ जाना
घेर एक अकेले को
सिद्ध करते रहना अपना पुरुषार्थ

और साथ अपने ला खींच खड़ा करना
उन सबको जो तटस्थता के आसपास बने हुए थे
और डरे हुए थे तुम्हारे सामुहिक हुंकार से
ये साधारण को अति विशिष्ट बना देना
अहंकार है, कौशल है या दरअसल एक ‘कला’ है
जो कितनी ही व्याकुल कुंठाओं का
एक आवरण मात्र है।

 

(कवयित्री अपर्णा अनेकवर्णा दिल्ली में रहती हैं। हिंदी और अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखती और अनुवाद करती हैं। कुछ रचनाएं पत्रिकाओं, ब्लॉग्स पर प्रकाशित हुई हैं। मूलतः गोरखपुर से हैं और अंग्रेज़ी में एम ए हैं। सम्पर्क: aparnaanekvarna@gmail.com

वर्ष 2017 में कविता के लिए दिए जाने वाले प्रतिष्ठित मलखान सिंह सिसोदिया पुरस्कार से सम्मानित टिप्पणीकार संजीव कौशल, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी में पी.एच.डी. 1998 से लगातार कविता लेखन। ‘उँगलियों में परछाइयाँ’ शीर्षक से पहला कविता संग्रह साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित।
देश की महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कविताएं, लेख तथा समीक्षाएं प्रकाशित। भारतीय और विश्व साहित्य के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित)

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