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श्रम के सौंदर्य के कवि हैं अनवर सुहैल

ज़ीनित सबा


अनवर सुहैल समकालीन हिंदी साहित्य के प्रमुख कथाकार होने के साथ साथ महत्वपूर्ण कवि भी हैं. उन्हें लोग विशेष रूप से ‘गहरी जड़ें’ कहानी संग्रह और ‘पहचान’ उपन्यास के लिए ही जानते हैं, इस दृष्टि से उनका कवि पक्ष उपेक्षित रहा है.

उनकी काव्यात्मक रचनाशीलता से परिचित होने से पूर्व उनका संक्षिप्त परिचय अपेक्षित है. अनवर सुहैल ‘जो रचेगा वही बचेगा’ सूक्त वाक्य का पालन करने वाले कवि हैं. उन्होंने अपने साक्षात्कार में कहा ‘मेरे लिए लिखना उतना ही आवश्यक है, जितना की सांस लेना.’
नौकरी की व्यस्तताओं और जिम्मेदारियों के बीच भी उनका लेखन का संकल्प नहीं टूटा.

अनवर सुहैल की साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविता से होती है.  बाद में उन्होंने कहानी, व्यंग्य आदि लिखना प्रारंभ किया.

अनवर सुहैल अपने साक्षात्कार में बताते हैं कि उनकी पहली कविताएँ स्कूल की पत्रिका में प्रकाशित होती थीं.  ये कविताएँ हिंदी और उर्दू का मिश्रण हुआ करती थीं. बाद में उनकी कविताएँ छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में भी छपने लगीं.

उनकी कुछ कविताएँ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुआ करती थीं. कविता कहने की कला के कारण उनकी खूब प्रशंसा हुई. यहीं से कवि के रूप में उनकी प्रसिद्धि भी होने लगी  ‘और थोड़ी सी शर्म दे मौला’(2007), ‘संतों काहे की बेचैनी’ (2009), ‘कठिन समय में’, ‘उम्मीद बाकी है अभी’, ‘कुछ भी नहीं बदला’ और ‘डरे हुए शब्द’ (2018) आदि उनकी कविता-संग्रह हैं.

अनवर सुहैल कविताओं में समकालीन समाज की विसंगतियों को प्रस्तुत करते हैं. यह इसलिए भी हुआ है कि कवि अपने समकाल में जीता है.  समकालीन समस्याएँ ही उन्हें लिखने के लिए मजबूर किया करती हैं.

अनवर सुहैल कविताओं में यथार्थ का स्पष्ट चित्रण प्रस्तुत करते हैं. उनकी कविताओं में किसी प्रकार का दुराव या छुपाव नहीं दिखाई देता. वास्तविकता को निर्भीक रूप में प्रस्तुत करना कवि का ध्येय है।

उनकी चिंता के केंद्र में मेहनतकश आम जन हैं. स्वतंत्रता के कई वर्षों बाद भी आम वर्ग किस प्रकार अपनी मौलिक आवश्यकताओं को ही पूर्ण करने में सक्षम नहीं हैं यह उनकी चिंता का विषय है. साथ ही उनकी कविताओं में यह भी स्पष्ट है कि किस प्रकार सत्ताधारियों के चिंतन में अभाव से पीड़ित जनता नहीं है –

“दुर्भाग्य ग़ुरबत की मारी
जनता रोवै बेचारी मांगे रोटी और बिछौना
मिले आश्वासनों का खिलौना. ”

उनकी दृष्टि हाशिये के लोगों पर भी गयी. अनवर सुहैल ने कविताओं के माध्यम से भारतीय मुस्लिम परिवेश में व्याप्त एक अनजाने डर को भी आवाज़ देने का प्रयत्न किया है.

उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने ‘अल्पसंख्यक वर्ग’ की आन्तरिक और बाहरी दोनों समस्याओं पर बात की है . उनकी सेकुलर दृष्टि उन्हें अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक के पक्षधर होने से कोसों दूर रखता है.

अनवर सुहैल की कविताओं में अल्पसंख्यक विमर्श के तत्व बखूबी मौजूद हैं.  उन्होंने ‘अल्पसंख्यक’, ‘वहम’, ‘मुसलमान’, ‘गोधरा के बाद’, ‘बम और अनाज’ आदि कविताओं में अल्पसंख्यक विमर्श के मुद्दे जैसे पहचान का संकट, असुरक्षा का सवाल, राष्ट्रीयता पर संदेह आदि को प्रस्तुत किया है.
उदाहरण स्वरुप ये पंक्तियाँ देखिये –
“उनसे फिर
नहीं पूछता कोई
तुम किस प्रदेश या जिले के निवासी
जब जान जाते बहुसंख्यक
उसका नाम है सुलेमान
वह है एक मुसलमान
इसके अलावा नहीं हो सकती
और कोई पहचान.”

जैसा कि हम जानते हैं, हर रचनाकार अपने परिवेश से प्रभावित होता है. उसी प्रकार अनवर सुहैल भी अपने परिवेश से प्रभावित रहे.  आपने कर्म क्षेत्र को भी अपनी कविताओं का विषय बनाया.

उन्होंने कोयला खदान पर कई कविताएँ लिखीं जैसे–‘खनिकर्मी’, ‘मुहाडा’, ‘बालकरन पिता सोमारू’, ‘कोयला खनिक का आसमान’, ‘कोयला खदान का अँधेरा’ आदि. कोयला खदान पर बात करते हुए कोयला खदान का माहौल, उसमें कार्यरत खनिकर्मियों की जीवन संघर्ष और उनकी जिजीविषा को कवि अपनी कविताओं में प्रस्तुत करते हैं.

अनवर सुहैल की दृष्टि मनुष्य के श्रम सौन्दर्य की ओर गयी है, इसलिए उनके यहाँ सौंदर्यशास्त्र की परिभाषा भी बदली हुई है.

“यकीन करें आप
नहीं खोज पाएंगे
मेरी कविताओं में
कोमलकांत पदावली
रस-छंद-अलंकार युक्त भाषा
क्योंकि मैं एक खनिक हूँ
खदान में खटते-पदते
खो गया सौन्दर्यशास्त्र. ”

अनवर सुहैल उत्तर आधुनिक युग में फैले बाजारवाद और उपभोक्तावाद की भी कलई खोलते हैं.  ‘बाज़ार’ नामक कविता उनकी इसी से संबंधित है. कवि ने अपनी कविताओं में बाज़ारवाद को बढ़ावा देने वाले विज्ञापनों की भी मुखालफ़त की है. इस दौर में मानवीय मूल्य में आई गिरावट को भी वह अपनी कविता का विषय बनाते हैं.

संबंधों कि ऊष्मा निरंतर शिथिल पड़ रही है, इसलिए परिवार विघटन तथा बुजुर्गों की समस्याएँ बढ़ती गयी है.  इससे सम्बंधित कविता –
“बुजुर्गों की देखभाल से बचने के लिए बच्चे
जाते बार-बार बाज़ार के पास
जहाँ से मिलती कर्ज की सहूलियतें
वह भी आसान किस्तों में
ई एम आई का जिन्न के आगे
कहाँ आएं उन्हें बुजुर्ग माँ-बाप ?”

बुजुर्गों की समस्याओं पर उन्होंने ‘बुजुर्गों के लिए’, ‘अनुपयोगी’ आदि कविताएँ लिखीं हैं.
अनवर सुहैल की कविताओं में उनके व्यक्तिगत जीवन की भी झांकी प्रस्तुत होती है जैसे अम्मा, पिता:एक, पिता:दो, ‘हिना बेटी से’, ‘शिकायत’  आदि  के अलावा उन्होंने अन्य कई विषयों पर लिखीं हैं.

अनवर सुहैल की कविताएँ-

1. किताबें

बड़े जतन से संजोई किताबें
हार्ड बाउंड किताबें
पेपरबैक किताबें
डिमाई और क्राउन साइज़ किताबे
मोटी किताबें, पतली किताबें
क्रम से रखी नामी पत्रिकाओं के अंक
घर में उपेक्षित हो रही हैं अब…
इन किताबों को कोई पलटना नही चाहता
खोजता हूँ कसबे में पुस्तकालय की संभावनाएं
समाज के कर्णधारों को बताता हूँ
स्वस्थ समाज के निर्माण में
पुस्तकालय की भूमिका के बारे में…
कि किताबें इंसान को अलग करती हैं हैवान से
कि मेरे पास रखी इन बेशुमार किताबों से
सज जाएगा पुस्तकालय
फिर इन किताबों से फैलेगा ज्ञान का आलोक
कि किताबों से अच्छा दोस्त नही होता कोई
इसे जान जाएगी नई पीढी
वे मुझे आशस्त करते हैं और भूल जाते हैं…

मौजूदा दौर में
कितनी गैर ज़रूरी हो गई किताबें
सस्तई के ज़माने में खरीदी मंहगी किताबें
बदन पर भले से हों फटी कमीज़
पैर को नसीब न हो पाते हों जूते
जुबान के स्वाद को मार कर
खरीदी जाती थीं तब नई किताबें
यहाँ-वहाँ से मारी जाती थीं किताबें
जुगाड़ की जाती थीं किताबें
और एक दिन भर जाता था घर किताबों से
खूब सारी किताबों का होना
सम्मान की बात हुआ करती थी तब…

बड़ी विडम्बना है जनाब
डिजिटल युग में सांस लेती पीढ़ी
किसी तरह से मन मारकर पढ़ती है
सिर्फ कोर्स में लगी किताबें….
मेरे पास रखी इन किताबों को बांचना नही चाहता कोई
दीमक, चूहों से बचाकर रख रहे हैं हम किताबें
खुदा जाने
हमारे बाद इन किताबों का क्या होगा……

 

2. बाज़ार में स्त्री

छोड़ता नही मौका
उसे बेइज्ज़त करने का कोई

पहली डाले गए डोरे
उसे मान कर तितली
फिर फेंका गया जाल
उसे मान कर मछली
छींटा गया दाना
उसे मान कर चिड़िया
सदियों से विद्वानों ने
मनन कर बनाया था सूत्र
“स्त्री चरित्रं…पुरुषस्य भाग्यम…”
इसीलिए उसने खिसिया कर
सार्वजनिक रूप से
उछाला उसके चरित्र पर कीचड…

फिर भी आई न बस में
तो किया गया उससे
बलात्कार का घृणित प्रयास…
वह रहा सक्रिय
उसकी प्रखर मेधा
रही व्यस्त कि कैसे
पाया जाए उसे…
कि हर वस्तु का मोल होता है
कि वस्तु का कोई मन नही होता
कि पसंद-नापसंद के अधिकार
तो खरीददार की बपौती है
कि दुनिया एक बड़ा बाज़ार ही तो है
फिर वस्तु की इच्छा-अनिच्छा कैसी
हाँ..ग्राहक की च्वाइस महत्वपूर्ण होनी चाहिए
कि वह किसी वस्तु को ख़रीदे
या देख कर
अलट-पलट कर
हिकारत से छोड़ दे…
इससे भी उसका
जी न भरा तो
चेहरे पर तेज़ाब डाल दिया…
क़ानून, संसद, मीडिया और
गैर सरकारी संगठन
इस बात कर करते रहे बहस
कि तेज़ाब खुले आम न बेचा जाए
कि तेज़ाब के उत्पादन और वितरण पर
रखी जाये नज़र
कि अपराधी को मिले कड़ी से कड़ी सज़ा
और स्त्री के साथ बड़ी बेरहमी से
जोड़े गए फिर-फिर
मर्यादा, शालीनता, लाज-शर्म के मसले…!

 

3. लोकतंत्र का महापर्व

बताया जा रहा हमें
समझाया जा रहा हमें
कि हम हैं कितने महत्वपूर्ण
लोकतंत्र के इस महा-पर्व में
कितनी महती भूमिका है हमारी
ईवीएम के पटल पर
हमारी एक ऊँगली के
ज़रा से दबाव से
बदल सकती है उनकी किस्मत
कि हमें ही लिखनी है
किस्मत उनकी
इसका मतलब
हम भगवान हो गए…
वे बड़ी उम्मीदें लेकर
आते हमारे दरवाज़े
उनके चेहरे पर
तैरती रहती है एक याचक-सी
क्षुद्र दीनता…
वो झिझकते हैं
सकुचाते हैं
गिड़गिडाते हैं
रिरियाते हैं
एकदम मासूम और मजबूर दिखने का
सफल अभिनय करते हैं
हम उनके फरेब को समझते हैं
और एक दिन उनकी झोली में
डाल आते हैं…
एक अदद वोट…
फिर उसके बाद वे कृतघ्न भक्त
अपने भाग्य-निर्माताओं को
अपने भगवानों को
भूल जाते हैं….

 

4. विडंबना

उनकी न सुनो तो
पिनक जाते हैं वो
उनको न पढो तो
रहता है खतरा
अनपढ़-गंवार कहलाने का
नज़र-अंदाज़ करो
तो चिढ़ जाते हैं वो
बार-बार तोड़ते हैं नाते
बार-बार जोड़ते हैं रिश्ते
और उनकी इस अदा से
झुंझला गए जब लोग
तो एक दिन
वो छितरा कर
पड़ गए अलग-थलग
रहने को अभिशप्त
उनकी अपनी चिडचिड़ी दुनिया में…

 

5. ख़्वाब के मिलावट

उन अधखुली
ख्वाबीदा आँखों ने
बेशुमार सपने बुने
सूखी भुरभरी रेत के
घरौंदे बनाए
चांदनी के रेशों से
परदे टाँगे
सूरज की सेंक से
पकाई रोटियाँ
आँखें खोल उसने
कभी देखना न चाहा
उसकी लोलुपता
उसकी ऐठन
उसकी भूख
शायद
वो चाहती नहीं थी
ख्वाब में मिलावट
उसे तसल्ली है
कि उसने ख्वाब तो पूरी
ईमानदारी से देखा
बेशक
वो ख्वाब में डूबने के दिन थे
उसे ख़ुशी है
कि उन ख़्वाबों के सहारे
काट लेगी वो
ज़िन्दगी के चार दिन…

 

6. दोस्त

वो मुझे याद करता है
वो मेरी सलामती की
दिन-रात दुआएँ करता है
बिना कुछ पाने की लालसा पाले
वो सिर्फ सिर्फ देना ही जानता है
उसे खोने में सुकून मिलता है
और हद ये कि वो कोई फ़रिश्ता नही
बल्कि एक इंसान है
हसरतों, चाहतों, उम्मीदों से भरपूर…
उसे मालूम है मैंने
बसा ली है एक अलग दुनिया
उसके बगैर जीने की मैंने
सीख ली है कला…
वो मुझमें घुला-मिला है इतना
कि उसका उजला रंग और मेरा
धुंधला मटियाला स्वरूप एकरस है
मैं उसे भूलना चाहता हूँ
जबकि उसकी यादें मेरी ताकत हैं
ये एक कडवी हकीकत है
यदि वो न होता तो
मेरी आँखें तरस जातीं
खुशनुमा ख्वाब देखने के लिए
और ख्वाब के बिना कैसा जीवन…
इंसान और मशीन में यही तो फर्क है……

 

7. अभिशप्त

जिनके पास पद-प्रतिष्ठा
धन-दौलत, रुआब-रुतबा
है कलम-कलाम का हुनर
अदब-आदाब उनके चूमे कदम
और उन्हें मिलती ढेरों शोहरत…
लिखना-पढ़ना कबीराई करना
फकीरी के लक्षण हुआ करते थे
शबो-रोज़ की उलझनों से निपटना
बेजुबानों की जुबान बनना
धन्यवाद-हीन जाने कितने ही ऐसे
जाने-अनजाने काम कर जाना
तभी कोई खुद को कहला सकता था
कि जिम्मेदारियों के बोझ से दबा
वह एक लेखक है हिंदी का
कि देश-काल की सीमाओं से परे
वह एक विश्‍व-नागरिक है
लिंग-नस्ल भेद वो मानता नहीं है
जात-पात-धर्म वो जानता नहीं ही
बिना किसी लालच के
नोन-तेल-कपडे का जुगाड़ करते-करते
असुविधाओं को झेलकर हंसते-हंसते
लिख रहा लगातार पन्ने-दर-पन्ने
प्रकाशक के पास अपने स्टार लेखक हैं
सम्पादक के पास पूर्व स्वीकृत रचनायें अटी पड़ी हैं
लिख-लिख के पन्ने सहेजे-सहेजे
वो लिखे जा रहा है…
लिखता चला जा रहां है…

 

8. कार्तिक मास में काले बादल

कार्तिक मास में काले बादल
आकाश में छाये काले बादल
किसान के साथ-साथ
अब मुझे भी डराने लगे हैं…

ये काले बादलों का वक्त नही है
ये तेज़ धुप और गुलाबी हवाओं का समय है
कि खलिहान में आकर बालियों से धान अलग हो जाए
कि धान के दाने घर में पारा-पारी पहुँचने लगें
कि घर में समृद्धि के लक्षण दिखें
कि दीपावली में लक्ष्मी का स्वागत हो

कार्तिक मास में काले बादल
किसान के लिए कितने मनहूस
संतोसवा विगत कई दिनों से
कर रहा है मेहनत
धान के स्वागत के लिये
झाड-झंखार कबाड़ के
उबड़-खाबड़ चिकना के
गोबर-माटी से लीप-पोत के
कर रहा तैयार खलिहान
कि अचानक फिर-फिर
झमा-झम बारिश आकर
बिगाड़ देती खलिहान…

इस धान कटाई, गहाई के चक्कर में
ठेकेदारी काम में
जा नही पाता संतोसवा
माथे पे धरे हाथ
ताकता रहता काले बादलों को

हे सूरज!
का तुम जेठ में ही तपते हो
कहाँ गया तुम्हारा तेजस्वी रूप
हमारी खुशहाली के लिए एक बार
बादलों को उड़ा दो न
कहीं दूर देश में
जहां अभी खेतों में पानी की ज़रूरत हो…

 

9. विभाजन-रेखा

एक विभाजन रेखा
दिखलाई देती साफ़-साफ़
कामगारों में भी
जिन काम में
ख़तरे ज्यादा
जिनमें श्रम ज्यादा
उनमें हैं मज़दूर
आदिवासी, दलित और पिछड़े
जिस काम में रहता आराम
वहां दिखते अगड़ी और
ऊंची जाति के लोग तमाम!

 

10. टिफिन में कैद रूहें

टिफिन में कैद रूहें
हम क्या हैं
सिर्फ पैसा बनाने की मशीन भर न
इसके लिए पांच बजे उठ कर
करने लगते हैं जतन
चाहे लगे न मन
थका बदन
ऐंठ-ऊँठ कर करते तैयार
खाके रोटियाँ चार
निकल पड़ते टिफिन बॉक्स में कैद होकर
पराठों की तरह बासी होने की प्रक्रिया में
सूरज की उठान की ऊर्जा
कर देते न्योछावर नौकरी को
और शाम के तेज-हीन सूर्य से ढले-ढले
लौटते जब काम से
तो पास रहती थकावट, चिडचिडाहट,
उदासी और मायूसी की परछाइयां
बैठ जातीं कागज़ के कोरे पन्नों पर….

और आप ऐसे में
उम्मीद करते हैं कि
मैं लिक्खूं कवितायें
आशाओं भरी
ऊर्जा भरी…?

 

11. खौफ के पल

उड़ रही है धूल चारों ओर
छा रहा धुंधलका मटमैली शाम का
छोटे-छोटे कीड़े घुसना चाहते आँखों में
ओंठ प्यास से पपडिया गए हैं
चेहरे की चमड़ी खिंची जा रही है
छींक अब आई की तब
कलेजा हलक को आ रहा है
दिल है कि बेतरतीब धड़क रहा है
साँसे हफ़नी में बदल गई हैं
बेबस, लाचार, मजबूर, बेदम
और ऐसे हालात में
हांके जा रहे हम
किसी रेवड़ की तरह…

वे वर्दियों में लैस हैं
उनके हाथों में बंदूकें हैं
उनकी आँखों में खून है
उनके चेहरे बेशिकन हैं
उनके खौफनाक इरादों से
वाकिफ हैं सभी…

ये वर्दियां किसी की भी हो सकती हैं
ये भारी बूट किसी के भी हो सकते हैं
ये बंदूकें किसी की भी हो सकती हैं
ये खौफनाक चेहरे किसी के भी हो सकते हैं
हाँ…रेवड़ में हम ही मिलते हैं
आँखों में मौत की परछाईं लिए
दोनों हाथ उठाये
बेदर्दी से हंकाले जा रहे हैं

हमारे भीतर प्रतिरोध की स्वाभाविक प्रवित्ति
जाने कब और कहाँ गुम गई
हम जान नहीं पाए
और अचानक खून के छींटों से
सजा चेहरा लेकर
जब तुम आये तो जैसे
उम्मीद एक कौंध की तरह
आ बसा हमारी आँखों में…

 

(कवि अनवर सुहैल का जन्म 09 अक्टूबर सन 1964 ई. में छतीसगढ़ के जांजगीर में हुआ.
प्रकाशित पुस्तकें : दो उपन्यास, तीन कथा संग्रह, कई कविता संग्रह,
सम्पादन : संकेत नामक लघुपत्रिका के सत्रह अंक.
सम्प्रति: कोल इंडिया में कार्यरत. संपर्क: sanketpatrika@gmail.com

टिप्पणीकार ज़िनित सबा हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं. इन्होंने अनवर सुहैल के उपन्यासों पर एम. फिल. किया है.)

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