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पंचायत राज संशोधन विधेयक : बिना चर्चा के पास खामियों से भरा विधेयक

उत्तराखंड की विधानसभा में 26 जून को भाजपा सरकार द्वारा उत्तराखंड पंचायत राज संशोधन अधिनियम,2019 पेश किया गया. इस विधेयक के पेश किए जाने से पहले ही उक्त विधेयक के ऐतिहासिक होने की चर्चा सरकार समर्थकों द्वारा की जाने लगी थी. विधेयक के पारित होने के बाद भी इसके ऐतिहासिक होने की घोषणा सोशल मीडिया में तैरती रही. लेकिन क्या विधेयक वाकई ऐतिहासिक है ? हाँ,विधेयक ऐतिहासिक तो है पर खूबियों से ज्यादा खामियों के कारण क्यूंकि जो गलतियाँ विधेयक में की गयी हैं,वे विधासभा और विधायी कार्यों के इतिहास में संभवतः पहले कभी नहीं देखी गयी होंगी.

विधेयक में गलतियाँ नहीं हैं,बल्कि विधेयक की शुरुआत ही गलतियों से होती है. विधेयक का नाम है- उत्तराखंड पंचायत राज संशोधन अधिनियम,2019.  विधेयक की धारा 2(ख) में खंड 48 के पश्चात खंड 49 और 50 अन्तः स्थापित किए जाने का उल्लेख है. और इन स्थापित खंडों में क्या प्रावधान है ?

खंड 49 में “नगर प्रमुख” की परिभाषा देते हुए बताया गया है कि नगर प्रमुख का आशय नगर पंचायत क्षेत्र में नगर पंचायत अध्यक्ष, नगर पालिका क्षेत्र में नगर पालिका अध्यक्ष और नगर निगम क्षेत्र में मेयर होगा. खंड 50 में इसी तरह की परिभाषा उप नगर प्रमुख की दी गयी है. विधयेक तो त्रिस्त्रीय पंचायतों से संबन्धित है. लेकिन संशोधन जो उसके जरिये किए जा रहे हैं, उसमें नगर निकायों से संबन्धित परिभाषाएँ हैं ! कॉपी-पेस्ट का जमाना है, इसलिए पंचायत राज के विधेयक में नगर निकाय कॉपी-पेस्ट हो गए. ऐसा कॉपी-पेस्ट करने वाले उत्तराखंड की सरकार संभवतः पहली सरकार होगी,इसलिए इसका ऐतिहासिक श्रेय उत्तराखंड सरकार के हिस्से जाना ही चाहिए !

आम तौर पर होता यह है कि अध्यादेश को कानून बनाने के लिए विधेयक पारित करवाया जाता है. परंतु उत्तराखंड सरकार के ऐतिहासिक करनामें में यह भी जुड़ेगा कि विधेयक की गलतियाँ दुरुस्त करने के लिए अध्यादेश लाने की नौबत आन पड़ी !

यह विधेयक इसलिए भी चर्चा में है कि इसमें पंचायत चुनाव लड़ने वालों के लिए शर्त रखी गयी है कि उनकी दो से अधिक संताने नहीं होनी चाहिए. विधेयक में यह प्रावधान किया गया था कि तीसरी संतान यदि विधेयक लागू होने के 300 दिन के पश्चात पैदा हुई हो तो व्यक्ति पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकेगा. परंतु बाद में 300 दिन की अवधि को समाप्त कर दिया गया. इसका आशय यह है कि किसी व्यक्ति की तीन संताने यदि विधेयक लागू होने की अवधि से पहले भी पैदा हुई हों तो वह चुनाव नहीं लड़ सकेगा. यह अपने आप में एक गंभीर खामी है.  कानून को इस तरह पीछे की तिथि यानि बैक डेट से लागू नहीं किया जा सकता.

इस विधेयक में पंचायत प्रतिनिधि चुने जाने के लिए शैक्षणिक योग्यता का भी उल्लेख है. सामान्य श्रेणी के पुरुष के लिए दसवीं तथा सामान्य श्रेणी की महिला व अनुसूचित जाति/जनजाति के पुरुष के लिए यह योग्यता आठवीं पास रखी गयी है. अनुसूचित जाति/जनजाति की महिला के लिए यह योग्यता पाँचवीं पास है. शैक्षणिक योग्यता जितनी मामूली रखी गयी है,उससे साफ है कि सरकार भी शैक्षणिक सशक्तता को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं थी. परंतु फिर प्रश्न यह है कि जब यह समझा जा रहा था कि ग्रामीण क्षेत्रों में शैक्षणिक स्थिति बहुत मजबूत नहीं है तो शैक्षणिक योग्यता का पैमाना रखने की आवश्यकता ही क्यूँ थी ?

73 वें-74 वें संविधान संशोधन का उद्देश्य घोषित किया गया था- पंचायतों और स्थानीय निकायों को शक्तिसम्पन्न बनाया जाये. लेकिन उत्तराखंड सरकार द्वारा लाये गए पंचायत राज संशोधन अधिनियम,2019 में पंचायतों के अंदर सरकारी दखलंदाज़ी का रास्ता तैयार कर लिया गया है. उक्त विधेयक की धारा 10(ग)(1)  में उप प्रधान के चुनाव के संबंध में व्यवस्था कर दी गयी है कि यदि उप प्रधान का चुनाव नियत समय पर न हो तो नियत अधिकारी ग्राम पंचायत के किसी सदस्य को उप प्रधान नामित कर देगा और उसे ही निर्वाचित माना जाएगा.

यहाँ यह याद करना भी समीचीन होगा कि कॉंग्रेस की सरकार के समय जब हरीश रावत मुख्यमंत्री थे तो उत्तराखंड पंचायत राज अधिनियम,2016 उन्होंने पारित करवाया था. 2019 में उसी विधेयक में संशोधन भाजपा सरकार पारित करवा रही है. हरीश रावत के द्वारा पारित करवाए गए विधेयक में पंचायत चुनाव लड़ने के लिए घर में शौचालय होना अनिवार्य शर्त बना दिया गया.

स्पष्ट तौर पर यह गरीबों को चुनाव लड़ने से वंचित करने का प्रावधान है. यह प्रावधान हरीश रावत ने राजस्थान की भाजपा सरकार द्वारा पारित कानून की देखादेखी किया था. राजस्थान में तो कॉंग्रेस की सरकार बनने के बाद इस प्रावधान के समाप्त किए जाने की खबर है. किन्तु उत्तराखंड में काँग्रेसी हरीश रावत द्वारा लागू भाजपाई नकल वाला प्रावधान भाजपा राज में तो लागू रहेगा ही.

उत्तराखंड विधानसभा का चलन बन गया है कि तमाम महत्वपूर्ण विधेयक,बिना किसी चर्चा और बहस-मुबाहिसे के ही पारित करवा लिए जाते हैं. इस पंचायत राज संशोधन विधेयक के साथ भी यही हुआ कि बिना चर्चा के ही यह पास हो गया और विधेयक में कमियों और गलतियों का इतिहास भाजपा सरकार के नाम दर्ज हो गया.

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