समकालीन जनमत
जनमतपुस्तक

‘बड़ी कविता को वक्त के सवालों और सन्दर्भों से जोड़कर उसका एक नया पाठ करना होगा’

अवधेश त्रिपाठी की इस आलोचना पुस्तक में हिंदी की आधुनिक कविता के पांच प्रमुख कवियों के कृतित्व की विवेचना है । वे हमारे देश के हाल ही के इतिहास के लगभग एक ही कालखंड में साथ साथ सक्रिय थे, यद्यपि उसी कालखंड में चुक जाने वाले नहीं ।

वह हमारे सामाजिक राजनीतिक जीवन में कुछ बड़े और दूरगामी परिवर्तनों का दौर था । यह वह वक्त था जब हमारे देश के लोकतान्त्रिक संघात्मक ढांचे में पहली दरारें पड़ी थीं । इसके आधारों और संस्थाओं, प्रक्रियाओं, व्यवस्थाओं को कमज़ोर किये जाने की शुरुआत हुई थी ।

आज जो यह विराट मलबा हमारे सामने है, यह उसी क्षरण की, उसी समय शुरू हुए क्षरण की परिणति है । अवधेश जी ने उस कालखंड के इन्हीं कवियों को क्यों चुना, इसका जवाब हमें उनकी विवेचना में ही मिलता है ।

ये पाँचों वो कवि हैं जिनकी इस देश के मुस्तकबिल और भाग्य से और यहाँ के विपन्न, अभागे अवाम से एक गहरी और सम्पूर्ण संलग्नता थी और उनकी कवितायेँ किन्हीं संकीर्ण अर्थों में ‘प्रतिबद्ध’ हों या नहीं, वे अपने वक्त में धंसी हुई थीं, अपने समय का प्रत्युत्तर थीं । बाबा नागार्जुन तो अपनी प्रतिबद्धता या अपने कवि कर्म की प्रतिज्ञाओं का एक निशंक और सगर्व बयान भी करते हैं इन पंक्तियों में –

प्रतिबद्ध हूँ
सम्बद्ध हूँ
आबद्ध हूँ
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ

बहुजन समाज की अनुपम प्रगति के निमित्त
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ…
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ…
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों को सही राह बतलाने के लिए…
अपने आपको भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर…
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ !

लेकिन अन्य कवि भी चाहे इस तरह अपनी प्रतिबद्धता का उद्घोष न करें, वे भी अपने वक्त से ही वाबस्ता हैं – इसलिए उनकी कोई विवेचना उनके वक्त की विवेचना के बिना मुमकिन नहीं, और यही अवधेश ने अपनी किताब में किया है । काव्यकर्म को जांचने की उनकी जो पद्धति है, वह यही है … कविताओं की अंतर्वस्तु को उस वक्त की राजनीतिक और समाजार्थिक परिस्थितियों के बरक्स रखकर देखना … सिर्फ कविताओं तक महदूद न रहते हुए, उनके परे जाकर उन स्त्रोतों या उन मूल तत्वों को तलाशना जिनसे इन कविताओं के रूपाकार और दृश्यावलियाँ बनतीं हैं ।

निजी तौर पर मेरे लिए यह एक सुकून की बात है कि इन पांच कवियों में से एक वे भी हैं जिन्हें मैंने अपनी शुरुआती युवावस्था में काफी पढ़ा था और यह देखकर घोर असंतोष होता था कि … लगता था जैसे कवियों की दुनिया उन्हें भुला चुकी है, यानि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ।

न जाने कब से उनके बारे में कोई लेख मैंने नहीं पढ़ा और किसी आयोजन में उन्हें याद किया जाना तो छोड़ें, फेसबुक पर लेखकों के जन्मदिन पर उन्हें याद कर लेने का जो रिवाज़ है, उसके तहत भी उन्हें याद किये जाते नहीं देखा । बेशक उनसे असहमतियां हैं, कुछ असंतोष भी, फिर भी वे हमारे ही हैं, ऐसे नहीं कि उन्हें ख़ामोशी से पराये या अजनबी या विस्मृत कवियों के खाने में खिसका दिया जाये । इसके लिए अवधेश को साधुवाद ।

किताब से गुज़रते हुए हमें एक बार फिर इन कवियों की विराटता का शिद्दत से एहसास होता है । वे सिर्फ अपने समय का कथन नहीं लिख रहे थे, वे आगत के संकेतों और अंदेशों को भी देख और दर्ज कर रहे थे । हमारे ये विलक्षण कवि, ऐसा लगता है कि जैसे भविष्यकथन की प्रतिभा रखते थे, अपने वक्त के पार जाकर, आगामी वक्तों के कुछ खटकों या खतरों को पढ़ और पकड़ सकते थे, आशंकाएं या पूर्वानुमान कर सकते थे जो हमारा दुर्भाग्य है कि सबके सब सच साबित हुए । मुक्तिबोध की ये लाइनें –

विचित्र प्रोसेशन,
गंभीर क्विक मार्च
कलाबत्तूवाला काली जरीदार ड्रेस पहने
चमकदार बैण्ड-दल…
बैण्ड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं-से…
कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते,
उनके चित्रा समाचार-पत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं
भई वाह!
उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण
मंत्राी भी, उद्योगपति और विद्वान
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद

क्या ऐसा नहीं लगता कि यह उनके समय से ज्यादा हमारे समय का कथन हैं ? इसी तरह रघुवीर सहाय की ये पंक्तियाँ :

फलने-फूलने वाले हैं लोग
औरतें पिएँगी आदमी खाएँगे रमेश
एक दिन इसी तरह आएगा रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय रमेश
खतरा होगा खतरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा रमेश

या फिर उनकी रामलाल कविता का ही यह अंश :
खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रखकर
सधे कदम रख करके आए
लोग सिमटकर आँख गड़ाए
लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी ।
भीड़ ठेल कर लौट गया वह
मरा पड़ा है रामदास यह
देखो-देखो बार बार कह
लोग निडर उस जगह खड़े रह
लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी

या ये –
निर्धन जनता का शोषण है
कहकर आप हँसे
लोकतंत्रा का अंतिम क्षण है
कहकर आप हँसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कहकर आप हँसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कहकर आप हँसे
कितने आप सुरक्षित होंगे मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पाकर फिर से आप हँसे

या ये कि-

कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूँगा
न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अंदर का कायर टूटेगा टूट
मेरे मन टूट एक बार सही तरह
अच्छी तरह टूट तम झूठमूठ अब मत रूठ
मत डूब सिर्फ टूट

ये सब लाइनें, लगता नहीं कि किसी गुज़रे समय में लिखी गयीं हैं । ये बिलकुल आज की, अभी की रचनाएँ हैं । इसी तरह धूमिल की इन लाइनों में भी जो ‘वह’ है उसे भी हम आज अपने वक्त में पहचान सकते हैं :

जिसने विरोध का अक्षर-अक्षर
अपने पक्ष में तोड़ लिया है।
जो जानता है कि अकेला आदमी झूठ होता है।
जिसके मन में पाप छाया हुआ है।
जो अघाया हुआ है,
और कल भी
जिसकी रोटी सुरक्षित है।
‘वह’ तुम्हें अकेला कर देने पर
तुला है।

और यही नहीं, डा. अंबेडकर ने भारतीय लोकतंत्र के अंतर्विरोधों और भविष्य के असमाप्त कार्यभारो का रेखांकन करते हुए कहा था कि ‘‘26 जनवरी, 1950 को हम एक अंतर्विरोधपूर्ण जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में बराबरी होगी लेकिन सामाजिक और आर्थिक ढाँचे में गैरबराबरी होगी। हमें कितने समय तक यह अंतर्विरोधपूर्ण जीवन जीना चाहिए ? हम कब तक अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे ? उन्होंने जो चेतावनी दी थी कि इस अंतर्विरोध से हमारा लोकतंत्र जोखिम में आयेगा, क्या यह भी हम अपनी आँखों के सामने सच साबित होती नहीं देखते ?

इन पांच कवियों में नागार्जुन थे जो अपने समय के साथ एक लोहूलुहान यानि रक्तरंजित मुठभेड़ कर रहे थे । वे ही थे जो तमाम मोर्चों में सशरीर शामिल रहते हुए जैसे अस्थियों और रक्त से कवितायेँ रच रहे थे । किसी अमूर्तन या धुंधलेपन के खोल में मुंह छिपाए बिना वे सत्ताधारियों को जिस तीखे और तल्ख़ तरीके से लताड़ सकते थे, अक्सर नाम लेकर भी, वह स्वर और तेवर हमारी इस समय की कविता से नदारद है जबकि उसकी ज़रूरत शायद पहले से भी अधिक है । हमारे समय का नागार्जुन कौन है ?

क्या कविताओं के हमेशा के लिए सुनिश्चित या फिक्स्ड मायने होते हैं या वे बदली परिस्थितियों में नए नए मायने अख्तियार करती हैं ? मैं समझता हूँ कि यह साहित्य की प्रकृति, या कह लीजिये, जादू है … कोई भी कविता या रचना कागज पर दर्ज एक जीवंत, जानदार, एक साँस लेती, धड़कती हुई भाषिक संरचना होती है । उनके मायने कभी हमेशा के लिए तय नहीं हो जाते । वह मायनों से खाली हो सकती है और नए मायनों से भर भी सकती है । यह बहुत प्राचीन संस्कृत कविता या मध्ययुग की, वीरगाथा काल या भक्तिकाल या रीतिकाल की कविताओं के लिए भी सच है और समकालीन कविताओं के लिए भी ।

जब कविताओं के कोई अंतिम या तयशुदा मायने नहीं होते तो ज़ाहिर है कि उनका कोई पाठ भी अंतिम या तयशुदा नहीं हो सकता । आज जब हम कबीर या सूर या रहीम, रसखान, अमीर खुसरो को पढ़ते हैं तो उनके समकालीनों की तरह नहीं । उनका पाठ कुछ और रहा होगा । आज हम अपने समय के सन्दर्भ में उनमें नए अर्थानुसंधान करते हुए, कुछ जोड़ते, कुछ रद्द करते हुए, अपनी तरह से उनका एक नया पाठ करते हैं ।

ये कवितायेँ जब वजूद में आई थीं, वह बहुत पुराना नहीं, फिर भी अब अतीत हो चुका है । हमारा आज का, अभी का वक्त उस वक्त से गुणात्मक रूप से अलग है । अब हमारे सारे दु:स्वप्न असलियत के रुप में सामने हैं । इस समय अनुभवों का इतिहास दुबारा लिखा जाना और राष्ट्र, प्रगति और वैज्ञानिक तर्कवाद के नए मिथकों का गढ़ा जाना जारी है । यह कैसा समय है यह विस्तार से कहना जरुरी नहीं ।

किताब से गुज़रते हुए मुझे लगा कि यह इन पांच कवियों का एक परिचित पाठ है । मैं इसकी वजह भी समझ सकता हूँ । ये आलेख (शायद) प्रथमत: उस पाठक को संबोधित हैं जो हिंदी की आधुनिक कविता की इस दुनिया में नवागंतुक है । उन्हें संबोधित ये सभी आलेख, कहना अनावश्यक है, बेहद महत्वपूर्ण हैं और अपना उद्देश्य पूरा करते हैं । लेकिन मुझे लगता है कि इस संगीन समय में इन कविताओं का एक सर्वथा नया पाठ मुमकिन है जिसमें कुछ नवीन अर्थ-संधान होगा और मुमकिन है कि पुराने मायनों में से कुछ को रद्द करना भी ।

समय देखते ही देखते कुछ का कुछ हो रहा है और एक पस्ती, एक बेबसी सी फैलती लगती है, क्या ऐसे समय में भी हम पूर्वव्याख्याओं या पूर्वनिर्धारित, बने बनाये मानियों से काम चला सकते हैं ? हम ताकत पाने के लिए और कहाँ जा सकते हैं सिवाय अपने बड़े कवियों और लेखकों के – लेकिन क्या हमें फिर वही पूर्वनिश्चित, पहले हासिल किये गए मायने लेकर लौट आना होगा या अपने वक्त के सवालों और सन्दर्भों से जोड़कर उनका एक नया पाठ करना होगा ? क्या यह वांछनीय है और फिर क्या यह मुमकिन है ?

 

(परिवेश सम्मान, कथा सम्मान, विजय वर्मा सम्मान, स्पंदन पुरस्कार से सम्मानित टिप्पणीकार योगेन्द्र आहूजा, जन्मतिथि 1/12/59 बदायूँ (उ प्र), शिक्षा : स्नातकोत्तर (अर्थशास्त्र), एक राष्ट्रीयकृत बैंक से एक वरिष्ठ अधिकारी के रूप में सेवानिवृत्त। दो कथा संग्रह : अंधेरे में हँसी और पाँच मिनट और अन्य कहानियाँ, तीसरा संग्रह प्रकाशनाधीन। अनुवाद – इंग्लिश मराठी उर्दू बांग्ला जर्मन पंजाबी। राँची दूरदर्शन के लिए एक टेलीफ़िल्म।)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion