समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

मार्क्सवाद की नवीनता: गोपाल प्रधान

(जयपुर में जलेस की ओर से आयोजित कार्यशाला में बोलना साहित्य और विचारधारा पर था लेकिन पिछले कुछ वर्षों से मार्क्सवाद पर जारी काम के चलते बोला मार्क्सवाद के उतार चढ़ाव पर । बोलने के बाद कुछ चर्चा भी हुई जिसके आलोक में कुछ सुधार किया गया है । मूल वक्तव्य की अनौपचारिकता को भी कम कर लिया गया है । बोले को लिखे में सलमान ने बदला है । इसके बाद संपादन हुआ ।)
सोवियत संघ के पतन के बाद कहा जाने लगा कि मार्क्सवाद समाप्त हो गया है । लेकिन इक्कीसवीं सदी की बदलती हुई परिस्थितियों में ढेर सारा नया काम हो रहा है । इस सिलसिले में याद रखना होगा कि मार्क्स ने जो कहा कि दार्शनिकों ने अब तक दुनिया की व्याख्या की है लेकिन सवाल तो उसे बदलने का है । तो मार्क्स के इस कथन की व्याख्या इस तरह की जाती है जैसे व्याख्या करना कोई बुरी बात हो । असल में इसका मतलब है- इस तरह की व्याख्या जो बदलने की प्रेरणा दे । मार्क्सवाद व्याख्या का निषेध नहीं करता । इस संदर्भ में देखना होगा कि बदले हुए समय की व्याख्या मार्क्सवाद कर पा रहा है या नहीं और कि इस व्याख्या से हम बदलाव के उपकरण तलाश कर पा रहे हैं या नहीं ।

मार्क्सवाद के बारे में आम धारणा है कि वह पुराने जमाने की बात हो गया है । इसे हम सब अपनी सभाओं में बुजुर्गों की बहुतायत से समझ सकते हैं । लेकिन पिछले दिनों तमाम नए लोग सामने आए हैं जो नए समय की चुनौतियों के समक्ष बदलाव की सम्भावना के लिए लगातार काम कर रहे हैं । कहने का मतलब यह है यह जो नया समय है इसको व्याख्यायित करने में, इसको समझने में और मूलतः इसको बदलने में मार्क्सवाद कोई उपकरण उपलब्ध करा रहा है कि नहीं इस दृष्टि से पिछले दिनों मैंने कुछ एक चीज़ों का अध्ययन किया । इस सिलसिले में हमें सफलता को पैमाना बनाने की जगह प्रयास को पैमाना बनाना होगा । नागार्जुन ने तो लिखा ही है ‘जो नहीं हो सके पूर्णकाम उनको प्रणाम’ तो कहने का मतलब है कि सफलता से अधिक महत्व प्रयास का है क्योंकि यह जो व्यवस्था है बनाई हुई पूंजीवाद की उसमें सफल लोग हमेशा मुठ्ठी भर ही हो सकते हैं, ज्यादातर लोग वंचित ही होते हैं, हारे हुए ही होते हैं । इसके मद्देनजर यह भी कि पिछले दिनों चुनावी क्षेत्र में जो परिवर्तन आया उसके समक्ष बहुत सारे लोगों ने बहुत सारी बातें कहीं लेकिन उस राजनीतिक परिवर्तन से सबसे बड़ी सीख जो हमें लेनी चाहिए वह यह कि डट करके काम करना होगा । पिछले दिनों का जो राजनीतिक परिवर्तन है उसने और कुछ बताया हो या न बताया हो यह तो बताया ही है कि अगर टिक कर के, एड़ी टिकाकर के काम करते रहते हैं तो फिर अनुकूल परिस्थितियों में बदलाव आता है ।

इसके मद्देनजर मुझे यह लगा कि मार्क्सवाद के सिलसिले में नए समय में क्या हो रहा है उसे देखा जाए और इस पूरे मामलें में यह सामान्य सी लगती बात अच्छी तरह से समझ में आई कि मार्क्सवाद कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो बहुत स्थिर रहने वाली वस्तु हो या वह एक ही जगह टिककर रह जाए बल्कि उसमें निरंतर विकास भी होता रहा है, बदलाव भी आते रहे हैं क्योंकि वह एक जीवन्त रचना है । वह ऐसा दर्शन नहीं है जिसे प्राप्त कर लिया गया है और फिर सुरक्षित बचा हुआ है जिसे समय समय पर प्रकट कर देना है । बल्कि चूंकि समाज से आने वाले लोग ही मार्क्सवाद की ताकत होते हैं और यह समाज अपनी तरह से उन लोगों का निर्माण करता रहता है । इसीलिए हर एक दौर में उसे नये तरह से व्याख्यायित भी किया जाता है क्योंकि जब मनुष्य बदलता है तो सब कुछ बदलता है । परिस्थितियों के बदलने से हमारी पार्टियों में, लेखकों में समाज से आने वाले लोगों की मानसिकता भी आती है और उसके हिसाब से बहुत कुछ बदलता जाता है । स्पष्ट है कि मार्क्सवाद एक जीवन्त दर्शन है इसलिए वह कहीं जाकर स्थिर हो गया है ऐसा हमें नहीं मानना चाहिए ।

इसके मद्देनजर आप ध्यान दीजिएगा तो दिखेगा कि बीसवीं सदी का जो मार्क्सवाद था और यह जो नये समय का मार्क्सवाद है इसमें कुछ फर्क है । इक्कीसवीं सदी का मार्क्सवाद के नाम से बाकायदा वेनेजुएला में यूगो शावेज ने इसे चलाया था । मतलब कि इक्कीसवीं सदी का मार्क्सवाद यह एक पद है जो बताता है कि इक्कीसवीं सदी में मार्क्सवाद नये किस्म का है, जो बीसवीं सदी से थोड़ा भिन्न किस्म का है । उसकी जो भिन्नता है उसमें एक तो यह कि साहित्य की दृष्टि से बीसवीं सदी के मार्क्सवाद में, सोवियत मार्क्सवाद में भी और उसके समानांतर जो पाश्चात्य मार्क्सवाद विकसित हुआ उसमें भी, साहित्य की एक बहुत गहरी भूमिका रही है । सोवियत मार्क्सवाद में भी लगातार साहित्यकारों का जिक्र किया जाता था और जो पश्चिमी मार्क्सवाद है, जो पाश्चात्य मार्क्सवाद है जिसको वेस्टर्न मार्क्सिज्म बोलते हैं उसमें भी साहित्यकारों की बड़ी उपस्थिति रही है । साहित्य से जुड़े जो लेखक थे वे भी बहसों में उदाहरण के बतौर सामने आते रहे हैं । उस दौर के मुकाबले महसूस किया जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी में मार्क्सवाद के भीतर साहित्य की उपस्थिति थोड़ी कम हो गई है । इस प्रसंग में यह ध्यान दीजिएगा कि उन्नीसवीं सदी में, मार्क्स के समय में भी साहित्य की उपस्थिति उतनी ज्यादा नहीं थी तो इसका मतलब यह है कि कुछ ऐसे दौर होते हैं जब शायद दूसरे बड़े सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं और सारी वैचारिक ऊर्जा उनको समझने में खपानी पड़ती है । तो संभवतः इसी कारण से कुछ लोगों का यह कहना है कि इस दौर में मार्क्सवाद का जो उभार हुआ है उसमें साहित्यिक प्रसंग की उपस्थिति थोड़ी कम है बीसवीं सदी के मुकाबले में और उसके मुकाबले दूसरे सवालात ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं । जो दूसरे सवालात ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं उसका कारण यह है कि बहुत से लोगों को यह लग रहा है कि यह जो हमारा पूंजीवाद है, जो हमारे समय का सबसे बड़ा यथार्थ है वह पूंजीवाद भी अपने उन्नीसवीं सदी के दिनों में लौट रहा है । जैसे जैसे निजीकरण बढ़ रहा है, जैसे जैसे अस्थायित्व बढ़ रहा है, वैसे वैसे एक तरह से वह अपने पुराने रूप में लौट रहा है । यह जो पूंजी के चरित्र में बदलाव आ रहा है उसके इर्द गिर्द जो दूसरे सवाल हैं, व्यापक सवाल हैं वे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं और शायद उसी कारण से साहित्य का प्रसंग थोड़ा पीछे रह गया है ।
दूसरा जो आमतौर पर लोगों का कहना है वह यह कि बीसवीं सदी में दोनों, फिर मैं कह रहा हूं सोवियत मार्क्सवाद के भीतर भी और उसके समानांतर जिसे आप पश्चिमी मार्क्सवाद कहते हैं उसके भीतर भी, एक तरह से मार्क्सवाद का एकेडमाईजेशन हो गया था । कहने का मतलब यह कि वह जीवंत प्रसंगों के मुकाबले एक तरह से पढ़ने लिखने की चीज़ ज्यादा हो गया था और फिर पाश्चात्य मार्क्सवाद में जिन भी व्यक्तियों का आप नाम सुनेंगे वो कहीं न कहीं किसी न किसी विश्वविद्यालय से जुड़े हुए थे और सोवियत मार्क्सवाद के भीतर भी यही हालत थी । उसके मुकाबले इक्कीसवीं सदी के मार्क्सवाद में जो जनांदोलन है इन जनांदोलनों ने अपनी ऊर्जा दी हुई है और जनांदोलनों के साथ संवाद करते हुए मार्क्सवाद के नये नये क्षेत्र खुल रहे हैं । आम तौर पर ये दो फर्क बीसवीं सदी के मार्क्सवाद से इक्कीसवीं सदी के मार्क्सवाद में महसूस किये जा रहे हैं । देखा जा रहा है कि जो एकेडमाईजेशन था मार्क्सवाद का, उसके मुकाबले वह इस दौर में जनांदोलनों से ज्यादा संवाद करता हुआ नज़र आ रहा है । एक तरह से कह लीजिए तो मार्क्सवाद के लिए यह अच्छा ही है, अच्छा इसलिए है कि इस क्रम में वह लगातार समकालीन हो रहा है ।

यह एक विकास हो रहा है मार्क्सवाद का । अच्छा अब आप ध्यान दीजिएगा इस समय की स्थिति के बारे में तो बहुत सामान्य तौर पर भी देखने से एक चीज़ समझ में आ रही है कि सोवियत संघ के खिलाफ पूंजीवाद के पास सबसे बड़ा वैचारिक अस्त्र क्या था, सोवियत संघ के खिलाफ, पूंजीवाद के पास सबसे बड़ा वैचारिक अस्त्र था ‘लोकतंत्र’ और आप यह भी ध्यान दीजिएगा कि लोकतंत्र के नाम पर ही अमेरिका ने सेनाएं भेजी थीं । कारण कि लोकतंत्र एक ऐसा विचार था जिसके बारे में पूंजीवादी बुद्धिजीवी कहते थे कि वह सोवियत संघ में नहीं है । लोकतंत्र पश्चिमी देशों के पूंजीवादी बौद्धिकों के पास वह सबसे बड़ा डंडा था जिससे जब चाहे सोवियत संघ और मार्क्सवाद वालों को पीट दिया करते थे । अब हुआ यह है कि ऊपर से भी देखने पर नज़र आ रहा है कि लोकतंत्र खुद पश्चिमी देशों में गायब हो रहा है । खुद पश्चिमी देशो में यह महसूस किया जा रहा है कि लोकतंत्र गायब हो रहा है । जैसे जैसे पश्चिमी देशों में लोकतंत्र गायब हो रहा है वैसे वैसे उसके बरक्स मार्क्सवाद के भीतर जो लोकतंत्र की दृष्टि थी उसको समझने की नये ढंग से कोशिश की जा रही है । क्योंकि पूंजीवाद का यह दावा था कि हमारे लोकतंत्र की जड़ है निजी संपत्ति । इससे पता चलता है कि यह अर्थतंत्र वाला सवाल उतना गैर वाजिब नहीं है । लोकतंत्र के बारे में तमाम उदारवादी चिंतकों का यही कहना था कि उसकी पैदाइश होती है निजी संपत्ति से क्योंकि संपत्ति आपके पास है तो आप एक तरह से अधिकारसंपन्न हैं । इस समय जो लोकतंत्र गायब हो रहा है वह केवल इस अर्थ में गायब नहीं हो रहा कि लोगों को अहसास हो रहा है कि उनके वोट का महत्व नहीं रह गया है, वे वोट कहीं भी दें, चुने वही लोग जायेंगे जो वाल स्ट्रीट की पसंद हैं बल्कि इसके समानांतर आर्थिक क्षेत्र में भी यही होता दिखाई दे रहा है । आर्थिक क्षेत्र में इस दौर में बहुत ही लोकप्रिय ढंग के नारे में अमेरिका में इस बात को कहा गया । अर्थशास्त्र के नोबेल विजेता जोसेफ स्तिग्लित्ज़ ने इस द्वैत को सामने लाया कि निन्यानबे पर्सेंट बनाम एक पर्सेंट, यानी जो संपत्ति का विभाजन है वह एक तरह से आबादी को निन्यानबे प्रतिशत बनाम एक प्रतिशत में विभाजित करना चाहता है । स्पष्ट है कि जो लोकतंत्र का क्षरण हो रहा है वह सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में अभिव्यक्त नहीं हो रहा बल्कि वह संपत्ति के क्षेत्र में भी दिखाई देता है कि संपत्ति का संकेद्रण होता जा रहा है । तेजी से संपत्ति का संकेद्रण होता जा रहा है और उसी के बरक्स हमें यह दिखाई दे रहा है कि एक तरह से लोकतंत्र गायब हो रहा है ।‌ इसके लिए किसी ने एक शब्द ही दिया ‘डालरोक्रेसी’ यानी डेमोक्रेसी डालरोक्रेसी हो गया है । अर्थात जो राजनीतिक दुनिया है उस राजनीतिक दुनिया में पैसा बोलने लगा है ।

असल में एक व्यक्ति एक वोट कोई एक ऐसी चीज़ नहीं थी जो मंत्र की तरह थी बल्कि यह है कि सबको बराबर अधिकार है लेकिन धीरे-धीरे कानून के स्तर पर भी तब्दीली हो गई है जैसे कि अमेरिका ने कहा कि जो कारपोरेट है उसके भी चंदे को व्यक्ति का चंदा माना जाएगा । इसका मतलब कि अगर वह व्यक्ति का चंदा हो गया तो व्यक्ति का अधिकार कारपोरेट को मिलने लगा । साफ है कि पूंजीवाद का जो स्वतंत्रता का मुलम्मा था उसके भीतर से धन की जो वास्तविक सत्ता है वह सामने चली आई है । इसके कारण जो लोकतंत्र है उसका क्षरण हो गया है । वो गम्भीरतापूर्वक क्षरित हुआ है । नये नये मुहावरे सामने आए हैं जो इस परिघटना को अभिव्यक्त कर रहें हैं । इनसे पता चलता है कि कैसे जो बहुजन है, जो जनता है वह अधिकार विहीन होती जा रही है और संपत्ति की तरह ही अधिकारों का भी संकेंद्रण हो रहा है ।

तो ऊपर से ही देखने में यह दिखाई दे रहा है, जैसा मैंने कहा कि इसका राजनीतिक पहलू भी है, एक तरह से कानूनी पहलू भी है और आर्थिक पहलू भी है । यह सब दिखाई पड़ रहा है लोकतंत्र के क्षरित होने में ।
यह जो बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हुआ है उसके बरक्स देखा जा रहा है कि मार्क्सवाद कैसे लोकतंत्र को देखता है । मार्क्सवाद में जो लोकतंत्र का सवाल है उसमें सबसे पहली बात यह है कि इसमें वह सवाल सामाजिक है । अब यह भी एक पहलू है इक्कीसवीं सदी के मार्क्सवाद के प्रसंग में कि राजनीतिक की बजाए सामाजिक का महत्व बढ़ा है । बीसवीं सदी में राजनीतिक पहलू की जो प्रधानता हो गई थी उसकी बजाए इस दौर में सामाजिक की प्रधानता पर जोर दिया जा रहा है । इस प्रसंग में ध्यान दीजिएगा कि खुद मार्क्स के चिंतक और उनके लेखन में सामाजिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण है । उनके लेखन में सामाजिक क्रांति शुरू होती है, सामाजिक वर्गों का टकराव होता है तो वहां सामाजिक बहुत महत्वपूर्ण है । यहां तक कि अर्थतंत्र को भी वह समाज के मातहत ले आना चाहते थे । तो यह जो लोकतंत्र है मार्क्सवाद के भीतर वह समाज के वंचितों की अधिकारसंपन्नता के लिए है, वह समाज के विभिन्न तबकों की हिस्सेदारी से व्याख्यायित होता है । लोकतंत्र का सवाल उनके यहां सिर्फ प्रतीकात्मक या औपचारिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व के रूप में नहीं है बल्कि सामाजिक अधिकारसंपन्नता के अर्थ में है । लोकतंत्र के सवाल पर जैसे जैसे पूंजीवाद में लोकतंत्र का क्षरण हुआ है वैसे वैसे खुद मार्क्सवाद के भीतर लोकतंत्र जिस रूप में मौजूद है उसको लोग देखने की कोशिश कर रहे हैं, लोकतंत्र को समझने की कोशिश कर रहे हैं ।

इस प्रसंग में एक और ठोस संदर्भ से बात करना उचित होगा । हमने बुर्जुआ लोकतंत्र की ताकत को महसूस किया है । हमने देखा है कि वह समाज के विभिन्न तबकों के भीतर पैदा होने वाली आकांक्षाओं से खूब अच्छी तरह समायोजन बिठाने में सफल रहा है । समाज के वंचित समुदायों की आकांक्षा को स्वर देने वाले प्रतिनिधियों ने चुनावों की व्यवस्था को बहुरंगी बनाया है । इस क्रम में जिन तबकों का स्वाभाविक नेतृत्व वामपंथ के पास होना चाहिए था या जिन अगुआ तत्वों की पहली पसंद वाम को होना चाहिए था वे स्थापित राजनीतिक दलों के सहारे या नए दल बनाकर संसद में प्रवेश पाते रहे । इसे बुर्जुआ लोकतांत्रिक व्यवस्था की क्षमता के बतौर स्वीकार करना होगा । पिछले दिनों लोकतंत्र का जो क्षरण हुआ उसके साथ ही व्यवस्था की इस क्षमता में भी गिरावट आई है । इसके साथ खुद इन तबकों के उभरने वाले कार्यकर्ताओं के भीतर वाम के प्रति आकर्षण बढ़ा है । दूसरी ओर जब बुर्जुआ वर्ग लोकतंत्र को मटियामेट करने पर आमादा है तो वामपंथ को इसकी औपचारिकता को सार्थक बनाने की जिम्मेदारी निभानी होगी । मार्क्सवाद में मौजूद लोकतांत्रिकता को पहचानकर इस आपसी समृद्धि को संपन्न किया जा सकता है । नये समय के सवालों को संबोधित करने के मामले में तमाम नए लोगों को यह दृष्टिकोण ज्यादा कारगार प्रतीत हो रहा है यानी सामाजिक पर जोर देने से आज जो सामाजिक उभार हो रहें हैं उनके साथ संवाद करने के लिए आपको एक जगह मिल जा रही है । यह एक पहलू है जो इस बीच बदला है ।

कुछ लोग कहते हैं मार्क्सवाद के तीन स्रोत और तीन घटक तत्व हैं । यह बहुत लोकप्रिय है । लेनिन ने तो लेख ही लिखा है- थ्री सोर्सेज आफ मार्क्सिस्म । इस प्रसंग में कहा जा रहा है कि भाई ये स्रोत तो मार्क्स के पहले के थे, जिन्होंने मार्क्स को कांट्रीब्यूट किया था यानी मार्क्स ने इनमें से चीज़ों को लिया और उन्हें एक नई शक्ल दे दी- ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र, फ़्रांसिसी समाजवाद और जर्मन दर्शन । कहते हैं कि ये तीन स्रोत हैं मार्क्सवाद के, लेनिन ने लिखा है कि ये तीन स्रोत हैं जिनसे मार्क्स ने लिया और जिसे उन्होंने नई शक्ल दे दी । कुछ लोगों का कहना है कि उसके बाद कुछ और विकास नहीं हो सकता है? क्योंकि अगर उसके बाद कांट्रीब्यूशन नहीं हो सकता है तो आप यह मान लेंगे कि वह तो स्थिर हो गया है मार्क्सवाद । लेकिन हम मानते हैं कि मार्क्सवाद एक जीवंत रचना है, व्यवहार से जुड़ी हुई चीज़ है तो इसका मतलब व्यवहार के दरमियान कुछ तो जुड़ेगा । इस बात को मैं थोड़ा मुक्तिबोध के हवाले से कहना चाहता हूं । मुक्तिबोध ने कहा कि जब आप रचना को ढालते हैं, अन्तिम शब्दों में तब तक भी बदलाव चलते रहते हैं । कहने का मतलब यह है कि अगर यह व्यवहार का सिद्धांत है, व्यवहार को गाइड करने वाला सिद्धांत है तो फिर यह जहां पर था वहां पर स्थिर कैसे रह सकता है ! सिद्धांत को लागू करने के दौरान, व्यवहार के दौरान उसमें और भी समृद्धि आ सकती है अगर वह जीवित मनुष्य के बीच होने वाला काम है तो ।

अब उस लिहाज़ से लोगों का कहना है कि साठ के दशक में कुछ ऐसे आंदोलन चले, जिन्हें उस समय और बाद के बहुत दिनों तक भी मार्क्सवाद से एक तरह की विरोधिता में देखा जाता था । उनमें से तीन आंदोलनों का विशेष रूप से ज़िक्र करना ठीक होगा । एक है जिसको हम सब लोग जानते हैं ‘नारीवाद’ । दूसरा जिससे बहुत हद तक हमारे देश के दलित साहित्य को भी प्रेरणा मिली यानी अमेरिका का ‘ब्लैक मूवमेंट’ । तीसरा पर्यावरण का सवाल । ये तीन ऐसे सवाल थें जो साठ के दशक में बहुत ही मजबूती से उठे पश्चिमी देशों में । इतिहास की अनेक तरह की विडम्बनाएं होती हैं उन विडम्बनाओं में से यह भी एक बात थी कि उस समय और बाद के बहुत दिनों तक इन इन आंदोलनों को मार्क्सवाद के विरोधी के रूप में देखा जाता था । बहुत दिनों तक यह प्रक्रिया चलती रही ।‌ इन्हें नव सामाजिक आंदोलन भी कहा गया । यह साठ के दशक में उभरा और बहुत दिनों तक लगा कि यह मार्क्सवाद के विरोधी विचार हैं लेकिन पिछले दिनों हालात में बदलाव आए हैं । कुछ इन आंदोलनों के भीतर की आत्म-समीक्षा के चलते, कुछ व्यापक समाजार्थिक और राजनीतिक बदलाव के चलते और कुछ मार्क्सवादियों की नई पौध के आने के चलते- इन तीनों ही आंदोलनों के साथ मार्क्सवाद का एक संवाद बना है और धीरे-धीरे यह संवाद आगे बढ़ा है । इन आंदोलनों में भी, उदाहरण के तौर पर पर्यावरण को लीजिए तो पर्यावरण आंदोलन के सभी लोग एक दौर तक मानते रहे, जब तक उनको पश्चिमी देशों में लोकतंत्र के भीतर अवसर दिखता रहा, कि कोई नई पार्टी बना लेने से इस व्यवस्था में चुनाव लड़के बदलाव किये जा सकते हैं । धीरे-धीरे नवउदारवाद का जब मानवभक्षी स्वरूप उभरा तब पर्यावरणवादियों को भी लगा कि पूंजीवाद के खिलाफ पूरी तरह से युद्ध किये बगैर पर्यावरण के सवाल को हल नहीं किया जा सकता । तब सवाल उठा कि पूंजीवाद से लड़ने के लिए सबसे कारगार कौन सी विचारधारा है । तो उसका जवाब मिला मार्क्सवाद ।

मार्क्सवाद के बारे में आप जानते ही हैं कि पूंजीवाद आया तो उसके विरोध में तरह तरह की विचारधाराएं सामने आईं । ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ पढ़िए तो उसमें भी लिखा है ‘भांति-भांति के समाजवाद’ । तो उस समय कई तरह के समाजवाद आए थे जिनके साथ वैचारिक होड़ करते हुए मार्क्सवाद ने अपनी बरतरी बनाई । इसी कारण इन पर्यावरणवादियों को भी लगा कि पूंजीवाद से लड़ने के लिए सबसे मजबूत वैचारिक अस्त्र मार्क्सवाद के पास ही हैं । उसी तरह से स्त्री आंदोलन का भी मामला समझिए । स्त्री प्रश्न पर भी जो लोग लगातार काम कर रहे हैं उनको यह महसूस हुआ कि पूंजीवाद ही पितृसत्ता का सबसे बड़ा पुनरुत्पादक स्रोत है और वे भी इसीलिए मार्क्सवाद के साथ निरंतर संवाद कर रहे हैं और लगातार उस दिशा में विचार विमर्श जारी है । इसके अतिरिक्त जिस तीसरे आंदोलन का जिक्र मैंने किया उसके बारे में आप सब जानते ही होंगे । अमेरिका का अश्वेत आंदोलन अभी पिछले दिनों काफी चर्चित रहा क्योंकि वहां विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों की नई फ़ौज निकली थी । हमारे अपने देश की तरह उन लोगों में भी समूचे अमेरिकी सामाजिक जीवन पर सचेत हस्तक्षेप करने की प्रेरणा थी । नस्लभेद के विरोध में जो आंदोलन वहां चला था, उसके बाद दूसरे दौर का उभार माना जा रहा है यह ब्लैक मूवमेंट । समझ बनती जा रही है कि वहां पर जो राजसत्ता है वह एक तरह से रेसिस्ट किस्म की है और उसके खिलाफ जो आंदोलन उभरे तो नये नये नारे सामने आए- ‘ब्लैक लाईव्स मैटर’ मतलब कि जो काले लोग हैं उनकी भी जिंदगी का महत्व है । बात सिर्फ इस तरह से ही नहीं है, वह इस तरह से भी है कि जैसे पिछले दिनों हमारे यहां पर लड़कियों ने सवाल उठाया कि रात को बाहर हम क्यूं नहीं घूम सकते, क्या जरुरत है कि हम सिर्फ सब्जी खरीदने के लिए जाएं, सड़क हमारी भी है, उसी तरह से ब्लैक लाईव्स मैटर का मतलब है कि कहीं भी ब्लैक रह सकता है । इस तरह वे मौजूदा सामाजिक वातावरण में अपनी सम्मानपूर्ण उपस्थिति की मांग करते हैं । साफ है कि यह सामाजिक लोकतंत्र से जुड़ता हुआ सवाल है । इस प्रसंग में इस आंदोलन के लोग इस इतिहास को फिर से देखने की कोशिश कर रहे हैं कि खुद मार्क्स ने गृहयुद्ध के समय अब्राहम लिंकन को चिट्ठी लिखी थी इंटरनेशनल की ओर से उनको समर्थन देते हुए । पूरी दुनिया में इंटरनेशनल नाम के संगठन की चर्चा उसी समय हुई जब अब्राहम लिंकन ने उस चिट्ठी का जवाब भेजा था जो लंदन में अमरीका के राजदूत ने जाकर सौंपा था मार्क्स को । कहने का मतलब यह है कि ब्लैक समस्या का मार्क्स को ज्ञान था । वहां से जोड़कर मार्क्सवाद के साथ ब्लैक आंदोलन का क्या रिश्ता रहा है इस पर गंभीरतापूर्वक विचार हो रहा है और यह भी देखा जा रहा है कि ब्लैक मूवमेंट का जो इतिहास है उसमें मार्क्सवाद की कितनी उपस्थिति रही है, वह मार्क्सवाद को नई शक्ल देने में क्या क्या मदद कर सकता है- इस पर भी विचार हो रहा है ।

इस तरह से इस नए दौर के लिए ये तीनों आंदोलन हैं साठ के दशक में जो पैदा हुए, जिनके साथ मार्क्सवाद की एक समय तक विरोधिता समझी जाती रही थी और अब उनके साथ मार्क्सवाद का संवाद शुरू हुआ है । इस क्रम में ये आंदोलन भी बदल रहे हैं तथा खुद मार्क्सवाद भी नए तरह से देखा जा रहा है, नई तरह से समझा जा रहा है । आप सब लोग जानते ही हैं कि मार्क्स ने भी कई बार सोचा कि क्रांति बस आ ही रही है लेकिन फिर एक दौर के बाद उनको लगा कि अब ज्यादा गहरे सैद्धांतिक कामों पर अपनी ऊर्जा को केंद्रित किया जाए । कहने का मतलब है कि एक दौर में आपको ठहरकर तैयारी करने की जरूरत होती है । मार्क्सवाद के साथ नए हालात का यह संवाद चल रहा है, एक गहरा संवाद चल रहा है और एक नई कल्पना रखी जा रही है । कहा ही जाता है कि सभी एक्सपेरीमेंट एक ही बार में पूरे नहीं होते । पहला एक्सपेरिमेंट पेरिस कम्यून का था जो सत्तर दिन चला । दूसरा एक्सपरीमेंट था रूस जो सत्तर साल चला‌ । इनसे सीखते हुए एक नई परंपरा बनाने की जरूरत पड़ सकती है । नए समाज में उस नई परंपरा को गढ़ने के लिए इन आंदोलनों के साथ संवाद के जरिए एक नया स्वरूप गढ़े जाने की बात चल रही है । इसका एक कारण प्रतिक्रिया की आक्रामकता से भरा हमारा समय भी है ।

अंतिम बात जो मैं कह रहा था वह यह कि यह जो समय है उसमें सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पश्चिमी देशों में भी फासीवाद का गहरा उभार देखा जा रहा है और यह जो फासीवाद का गहरा उभार देखा जा रहा है इस सिलसिले में कई तरह के झमेले खड़े हो गए हैं । अभी थोड़े दिनों पहले राजनीतिशास्त्री कार्ल बाग्स ने एक किताब लिखी । उन्होंने लिखा कि हम लोग जब फासीवाद के बारे में बात करते हैं तो हमारे सामने सिर्फ हिटलर और मुसोलिनी की सत्ता होती है, हम देखते हैं कि इन्होंने राजसत्ता में रहते हुए क्या किया । यह हमारे दिमाग मे रहता है । सच है कि केवल ये ही फासिस्ट नहीं थे, अन्य रूप भी फासिस्म के । इसके अलावे जैसे हम लोग अपने अतीत के एक्सपेरिमेंट से सीखकर नई नई कल्पनाएं गढ़ते हैं उस तरह से हमारे विरोधी भी करते हैं । वे भी अपने पुराने एक्सपेरीमेंट से सीखते हैं और वे भी अपने आप को बदलते हैं । इसलिए इस दौर में फासिस्म के बारे में अगर आपकी यह धारणा है कि वह हिटलर वाला ही होना चाहिए तभी हम उसे फासीवाद कहेंगे । यह रुख मुझे ठीक नहीं लगता । एक उपन्यास था कामू का ‘प्लेग’ । आप लोगों ने पढ़ा होगा तो उसमें उन्होंने कहा है कि जब जब प्लेग प्रकट होता है तो वह अपने रूप बदल लेता है, और वह इस तरह रूप बदल लेता है कि डाक्टर भी नहीं समझ पाते हैं कि यह प्लेग ही है । उसी तरह फासीवाद भी जब सामने आता है तो वह नए दौर में अपना रूप बदल लेता है । इसीलिए इस दौर में जो फासीवाद आया है वो एक तरह से नए रूप में सामने आया है । इस सिलसिले में आप ध्यान दीजिएगा कि जो हिटलर का उभार था या मुसोलिनी का भी उभार था, वह नाटकीय तरीके से हुआ था और इसीलिए नाटकीय तरीके से उसकी समाप्ति भी हो गई । यहां पर जो फासीवाद आया है उसने लम्बे दौर में अपने लिए जगह बनाई है और इसीलिए बहुत संभव है कि इसको परास्त करने की लड़ाई भी लम्बी होगी ।
शुक्रिया ।

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