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नई पीढ़ी को भी उम्दा साहित्य के संस्कार देने वाले प्रेमचंद

कहा जाता है ‘साहित्य समाज का दर्पण है’। साहित्यकारों से भी यही अपेक्षा रखी जाती है। पर धीरे-धीरे आजादी मिलने से पूर्व और इसके बाद की परिस्थितियों, मान्यताओं और वस्तुस्थितियों में काफी बदलाव आया; और यह साहित्य और साहित्यकारों की स्थिति में भी दिखा।

आज जब एक तरफ रचना और रचनाकार को भी विभिन्न दायरों, सीमाओं में बांधा जा रहा है प्रेमचंद एक ऐसे रचनाकार के रूप में याद आते हैं जिनकी कलम सभी सीमाओं को स्पर्श करती है या यूँ कहें कि किसी सीमा को नहीं मानती; फिर भी कोई उनकी रचना को बाहरी के तौर पर नहीं देख सकता- वो सभी को अपनी ही लगती है। चाहे कभी वो किसानों की हो, दलितों की, हिंदुओं की, मुस्लिमों की, स्त्रियों की, गरीबों की या बच्चों की ही… उनके पात्र, उनके परिवेश खुद से अलग नहीं लगते। पाठक उनमें खुद को अपने जाने-पहचाने परिवेश को पाने लगता है, जीने लगता है… हर वर्ग को जिसे अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति की आवश्यकता पड़ती हो वो प्रेमचंद की रचनाओं की ओर देख सकता है।

साहित्य की एक जिम्मेदारी भी है। नई पीढ़ी में सोचने, समझने, विचार करने की क्षमता विकसित करना, अपनी भाषा, साहित्य के प्रति भी सजग होना जैसी विशेषताएँ उत्पन्न करना भी एक अच्छे साहित्यकार के गुण हैं। प्रेमचंद की रचनाशीलता इन मापदंडों पर भी पूर्णतः खरी उतरती है।

कथाकार प्रेमचंद के जन्मदिन पर केंद्रित इस शृंखला में उनके इसी योगदान को याद करते हैं जिसने बच्चों, किशोरों, युवाओं आदि को सरल, सहज शब्दों में साहित्य और सरोकारों से जोड़ा।

प्रेमचंद ने बच्चों के लिए अलग से तो रचनाएँ रची ही, बड़ों के लिए लिखी कई रचनाओं में भी बालमन और बाल मनोविज्ञान को उकेरने में काफी सफल रहे। इसीलिए उनकी रचनाएँ प्रत्येक आयुवर्ग के पाठकों के मध्य लोकप्रिय हैं।

बच्चों के प्रति अपने विचार रखते हुये 1930 में ‘हंस’ पत्रिका के संपादकीय- “बच्चों को स्वाधीन बनाओ” में उन्होंने लिखा- “बालक को प्रधानतः ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह जीवन में अपनी रक्षा आप कर सके। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण-दोष को भीतर से देखें।”

स्वयं भीतर से देखने की चेतना विकसित करने की उनकी सोच उनकी कई रचनाओं में झलकती है जिनमें वो बच्चों को अनुशासित और लक्ष्य की ओर गंभीर तो देखना चाहते हैं पर अपनी स्वाभाविकता को खोकर नहीं। उनपर अंकुश न रखते हुये उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास की वो हिमायत करते हैं।

हाँ, यह जरूर है कि बच्चों में देशभक्ति, मानवीय संवेदना, सच्चरित्रता आदि जैसे गुण भी विकसित होना वो आवश्यक समझते थे, जैसी की उस दौर की परिकल्पना थी।
उनके इन्हीं विचारों का निरूपण उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘बड़े भाई साहब’ में मिलता है जो मुख्यतः दो भाईयों की कहानी है जो एक दूसरे से स्वभाव में विपरीत हैं।

बड़े भाई की अपनी इच्छाएँ हैं मगर छोटे भाई की भलाई, उसकी जिम्मेदारी निभाने की पारंपरिक सोच उसपर एक अवांक्षित गंभीरता लादी रहती है, दूसरी ओर छोटा भाई अपनी स्वाभाविक जिंदगी जीता सफलता भी पाता जाता है। अंत में बड़े भाई साहब भी अनुशासन और दबाव में अन्तर समझते हुये तालमेल बैठाते चलने की अहमियत समझते हैं। इस प्रकार यह कहानी एक मनोवैज्ञानिक समझ भी देती है।

उनकी ‘नशा’ भी एक ऐसी ही कहानी है जिसमें समाज एवं मानव व्यवहार की वास्तविकताओं का यथार्थ चित्रण है। दो युवाओं की इस कहानी से पाठक सहजता से समझता जाता है कि उपभोग की सुविधा उपलब्ध होने पर उसका नशा हावी हो ही जाता है। इंसान इसमें अपनी जमीनी सच्चाई भी भूल जाता है। मगर हमारा समाज भी एक मानसिक गुलामी झलकाता ऐसे लोगों को के सामने दबा-दबा सा रहने की मनोवैज्ञानिक दुर्बलता भी दर्शाता है।
उनकी एक और उल्लेखनीय कहानी ‘गुल्ली-डंडा’ भी मानवीय स्वभाव और बाल मनोविज्ञान को अभिव्यक्त करता है। हममें से कई भावुक लोगों को अतीत में जीने की आदत होती है। पुराने मित्र, पुराने चेहरे, पुरानी जगहें, पुरानी यादें… स्मृतियों से ओझल नहीं हो पाते। हम नहीं बदल पाते, मगर वक्त सब कुछ बदल देता है। सब कुछ सदा वैसा ही नहीं रहता जैसा हम छोड़ कर आए थे। यहाँ तक कि इंसान भी वक्त के साथ आगे बढ़ चुका होता है। यही यथार्थ है जो भावुकता की कल्पनाओं से बिल्कुल अलग होता है।

उनकी ‘रामलीला’ भी ऐसी ही कहानियों में है जिसमें बालक एक ओर रामलीला के लिए बड़ों की श्रद्धा तो देखता है मगर उनमें इसके पात्रों के प्रति संवेदना नहीं देख पाता। ये बड़े जो वेश्याओं पर अपनी शान दिखाने के लिए अशर्फ़ियाँ तो लूटा सकते हैं पर किसी जरूरतमंद की छोटी सी सहायता नहीं कर सकते। यह कहानी भी बाल मन पर कथनी और करनी में फर्क और संवेदनशीलता की गहरी छाप छोड़ती है।

प्रेमचंद की बाल मनोविज्ञान आधारित कहानियों में ‘ईदगाह’ का नाम कभी भुलाया नहीं जा सकता। बालक हामीद जो अपने माता-पिता के न रहने और बूढ़ी दादी के साथ रहता अपनी उम्र से ज्यादा समझदार हो गया है। महीने भर के रोजा के बाद जब सारे बच्चे ईद के मेले में सजधज कर आनंद उठाने जा रहे होते हैं, वो अपनी बालसुलभ चंचलता, इच्छाओं पर अपनी सूझबूझ और संवेदना से काबू करता है और अपनी बूढ़ी दादी के लिए अपने पास के सीमित पैसों से चिमटा खरीद ले जाता है जिससे रोटियाँ सेंकते उसके हाथ न जलें।

कथासम्राट प्रेमचंद की कहानियों की यही विशेषताएँ हैं जो अपनी रचना के वर्षों बाद भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी लोकप्रियता बनाए हुये हैं। उनकी कहानियों में संवेदना, मनोविज्ञान, यथार्थता जैसे तत्व इन्हें कालजयी बनाए रखते हैं और जो साहित्य एवं पाठकों को सदा समृद्ध करते रहेंगे…

 

(अभिषेक मिश्र भूवैज्ञानिक और विज्ञान लेखक हैं. साहित्य, कला-संस्कृति, फ़िल्म, विरासत आदि में भी रुचि. विरासत पर आधारित ब्लॉग ‘ धरोहर ’ और गांधी जी के विचारों पर केंद्रित ब्लॉग ‘गांधीजी’ का संचालन. मुख्य रूप से हिंदी विज्ञान लेख, विज्ञान कथाएं और विरासत के बारे में लेखन)

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