समकालीन जनमत
कविताजनमत

अंधेरे की घुसपैठ के प्रतिरोध में रोशनी की सुरंग बनाते नवगीत

डॉ. दीपक सिंह


डॉ. राजेंद्र गौतम  कवि, समीक्षक और शिक्षाविद के रूप में एक जाना-पहचाना नाम है | बरगद जलते हैं (1997), पंख होते हैं समय के (1987) तथा गीत पर्व आया है (1983) उनके चर्चित नवगीत संग्रह हैं |

पिछले दिनों रांची में उनके ताजा गीतों से रूबरू होने का मौका मिला | इन गीतों के कथ्य और शिल्प दोनों ने एक श्रोता के रूप में मुझे काफी आकर्षित किया |

गौतम जी के गीतों में भाव, लय और भाषा का सुन्दर सामंजस्य है जिसके कारण पाठक का तुरंत ही उनसे आत्मीय रिश्ता कायम हो जाता है |

उनके गीत समय के साथ संवाद करते हुए खतरे और समाधान दोनों कि तरफ साफ़ इशारा करते हैं | एक बानगी देखिये –
थाम लेंगे हाथ जब जलती मशालों को
देख लेना तब लगेगी आग पानी में
………………………………………….
रोशनी की सुरंगे हमको बिछानी हैं
अँधेरा घुसपैठ करता राजधानी में

जनता के हाथ में मशाल ही जनतंत्र के सुरक्षा की गारंटी है | जब-जब जनता इस मशाल से दूर होती है सत्ता को सर्वाधिकारवाद की और प्रवृत्त होने का अवसर मिलता है।

वह तर्क,ज्ञान और विवेक पर हमलावर होने लगती है | सत्ता को अपने काले कारनामों को छिपाने के लिए अन्धकार की ही आवश्यकता होती है अतः प्रगति और जनतंत्र की मजबूती का रास्ता जनता के सतत संघर्ष से ही बनाया जा सकता है |कवि इस बात को बहुत ही सूक्ष्मता से महज चार पंक्तियों में उकेर देता है |

डॉ. गौतम के गीत विषय की विविधता के साथ मौजूदा दौर की विडम्बनाओं को रेखांकित करते चलते हैं | अधिनायक कोड़ा , तुम हमारी जान ले लो , कल्प वृक्षों की नर्सरी आदि कविताओं में अधिनायकवादी शक्तियों द्वारा जनतंत्र को प्रहसन में बदल दिए जाने और किसानों की हत्या/आत्महत्या के साथ पर्यावरण को बर्बाद कर डालने की त्रासदी को मार्मिकता से उजागर किया गया है.

गीत पाठक/श्रोता से सीधा संवाद स्थापित करते हैं उन्हें व्याख्यायित आदि किये जाने की न्यूनतम आवश्यकता पड़ती है | किसी भी गीत की सफलता लय और अर्थ की जुगलबंदी पर निर्भर करती है यह जुगलबंदी जितनी ही मजबूत होगी गीत उतना ही सफल व सार्थक होगा |

दरअसल लय गहरे से गहरे अर्थ को भी सहजता से बोधगम्य बनाने में मददगार होता है | यहाँ लय से तात्पर्य सिर्फ तुक मिला देने या मीटर सही होने से नहीं है बल्कि अंदाज-ए-बयां ही उसका प्रमुख तत्व है | इन अर्थों में भी डॉ. राजेन्द्र गौतम के गीत खरे उतरते हैं –

पीपलों को बरगदों को काट देना
उधर स्वीमिंग पूल होगा
बस्तियां जब तक न उजड़ेंगी यहाँ से
मौसम कहाँ अनु’कूल’ होगा

इन्हीं पंक्तियों के साथ आज के अंक में पढ़िए और गुनगुनाइए डॉ. राजेन्द्र गौतम के नवगीत-

 

1. आग पानी में

थाम लेंगे हाथ जब जलती मसालों को
देख लेना तब लगेगी आग पानी में

नर्म सपनों की त्वचा जो नोचते पंजे
भोंथरे होंगे वही चट्टान से घिस कर
बहुत मुमकिन थरथराए यह गगन सारा
हड्डियाँ बारूद हो जाएँ सभी पिस कर

रोशनी की सुरंगें हमको बिछानी हैं
अंधेरा घुसपैठ करता राजधानी में

बंध सका दरिया कहाँ है आज तक उसमें
बर्फ की जो एक ठंडी कैद होती है
लाजिमी है पत्थरों का राह से हटना
सफर में जब चाह खुद मुस्तैद होती है
साहिलों तक कश्तियाँ खुद ही चली आतीं
ज़ोर होता है इरादों की रवानी में

सदा ही बनते रहे हैं लाख के घर तो
कब नहीं चौपड़ बिछी इतिहास को छलने
प्राप्य लेकिन पार्थ को तब ही यहाँ मिलता
जब धधक गाँडीव से ज्वाला लगे जलने
जब मुखौटे नायकों के उतर जाएंगे
रंग आयेगा तभी तो इस कहानी में

 

2. अधिनायक कोड़ा

हत-चेतन संज्ञाएँ,
केवल
उपसर्ग बदलते हैं!

‘निर्वाचन’ की
परम्परा ने
थक कर दम तोड़ा
लोकतंत्र की
छिली पीठ पर
अधिनायक कोड़ा
अक्षत-अक्षर वर्णों के
कब वर्ग बदलते हैं ?

वैध-अवैध
समासों ने कुछ
ऐसे कसे शिकंजे
जन की छाती
चढ़ी संधियाँ
नोच रहे तन पंजे
वही व्याकरण
काशी का , कब–
गुलमर्ग बदलते हैं.

 

3. तुम हमारी जान ले लो

तुम हमारी जान ले लो
यह बहुत सस्ती मिलेगी

बेदखल हम खेत से हैं
बेदखल खलिहान से हैं
कब भला दिखते तुम्हें हम
इक अदद इन्सान से हैं
पाँव छाती पर धरे हो
या कि गर्दन पर रखे हो
देह अब सामान, ले लो
यह बहुत सस्ती मिलेगी

पीपलों को बरगदों को काट देना
उधर स्वीमिंग-पूल होगा
बस्तियाँ जब तक न उजड़ेंगी यहाँ से
मौसम कहाँ अनु’कूल’ होगा
झील-परबत-जंगलों पर
सेज बिछनी है तुम्हारी
गाँव की पहचान ले लो
यह बहुत सस्ती मिलेगी

तुम खुदा, हाकिम तुम्हीं हो
स्वर्ग का बसना यहाँ पर लाजिमी अब
छू रहे आकाश तुम हो
राह रोके कौन अदना आदमी अब
चाँद-तारों से सजी
बारात निकली जा रही है
रात की तुम शान ले लो
यह बहुत सस्ती मिलेगी

 

4. कुहरा छाया है

बूढ़े बरगद पर छाया है
पूरी बस्ती पर छाया है
कुहरा छाया है

झुनिया ने था रखा थान पर
जो छोटा दियरा
चिरता कितना उससे तम का
पाथर-सा हियरा
टूटे छप्पर पर छाया है
सूने आँगन में छाया है
कुहरा छाया है

राजपथों पर तो दीपों की
मालाएँ होंगी
अंधकार से अनजानी
मधुशालाएं होंगी
धूसर पगडंडी पर लेकिन
गिद्धों के पंखों-सा काला
कुहरा छाया है

शीश-महल में देख रहे जो
महफिल का मुजरा
नहीं पूछते इस रधिया से
दिन कैसे गुजरा
भारी पलकों पर छाया है
धँसती आँखों पर छाया है
कुहरा छाया है

 

5. सिर-फिरा कबिरा

फूल खिले हैं
तितली नाचे
आओ इन पर गीत लिखें हम
भूख, गरीबी या शोषण से
कविता-रानी को क्या लेना

महानगर की चौड़ी सड़के
इन पर बंदर-नाच दिखाएं
अपनी उत्सव-संध्याओं में
भाड़ा दे कर भाँड बुलाएं
हम हैं संस्कृति के रखवाले
इसे रखेंगे शो-केसों में
मूढ़-गंवारों की चीखों से
शाश्वत वाणी को क्या लेना

लिए लुकाठी रहा घूमता
गली-गली सिर-फिरा कबीरा
दो कोड़ी की साख नहीं थी
कैसे उसको मिलता हीरा
लखटकिया–
छंदों का स्वागत
राजसभा के द्वार करेंगे
निपट निराले
तेरे स्वर से
इस ‘रजधनी’ को क्या लेना।

 

6. भय की एक नदी

इस जंगल में आग लगी है
बरगद जलते हैं

भुने कबूतर शाखों से हैं
टप-टप चू पड़ते
हवन-कुंड में लपट उठे ज्यों
यों समिधा बनते

अंडे-बच्चे नहीं बचेंगे
नीड़ सुलगते हैं

पिघला लावा भर लाई यह
जाती हुई सदी
हिरणों की आँखों में बहती
भय की एक नदी

झीलों-तालों से तेज़ाबी
बादल उठते हैं

उजले कल की छाया ठिठकी
काले ठूँठों पर
नरक बना घुटती चीखों से
यह कलरव का घर

दूब उबलती, रेत पिघलती
खेत झुलसते हैं

 

7. सन्त्रास उगा है

वर्षों-दो वर्षों में
यह इतिहास उगा है
फैलेगा, फूलेगा

तक्षशिला को ढो
लाना है नालन्दा
सबका कद छीलें
चले हमारा रन्दा
वर्षों-दो वर्षों में
यह सन्त्रास उगा है
फैलेगा, फूलेगा

नाक कटेगी अब
इसकी, उसकी, सबकी
कोने में दुबकी
क्यों सुबकी नागमती
वर्षों-दो वर्षों में
यह उपहास उगा है
फैलेगा, फूलेगा

सन् सत्ताइस को
लायें सत्तावन में
फर्क नहीं पड़ता
तब जन्में, अब जन्में
वर्षों-दो वर्षों में
यह विश्वास उगा है
फैलेगा, फूलेगा

आकाश अकड़ता
थूकें इस पर जीभर
आँख उठाता तू
करदें जीना दूभर
वर्षों-दो वर्षों में
नया विकास उगा है
फैलेगा, फूलेगा

 

8. धुन्ध चुप्पियों की फटती है

लगी तोड़ने खामोशी को
मछुवारिन वाचाल हवा की
नर्म-नर्म पगचापें

सूनी पगडंडी पर पड़ते
मुखर धूप के पाँव
धुन्ध चुप्पियों की फटती है
लगे दीखने गाँव
कुहरे ढकी नदी पर दिखती–
हिलती-कंपती छांव
मौसम के नाविक ने खोली
बंधी हुई फिर नाव
लहरों पर से लगी चीरने
अँधियारे की परतों को अब
चप्पू की ये थापें

बछड़ों से बिछुड़ी गायों-सी
रंभा रही है भोर
डाली-डाली पर उग आया
कोंपलवर्णी शोर
सारस-दल की क्रेंकारों से
गूँजे नभ के छोर
झीलों में आवर्त रच रहे
रंगों के हिलकोर
गंध थिरकती है पढ़-पढ़ कर
सन्नाटे की रेती पर ये–
पड़ी गीत की छापें

 

9. पथरा चुकी झीलें

कभी मौसम के पड़ें कोड़े
कभी हाकिम जड़े सांटे
खाल मेरे गाँव की
कब तक दरिंदों से यहाँ खिंचती रहेगी!

दू… …र तक जो
भूख से सहमे हुए सीवान ठिठके हैं
कान में उनके सुबकतीं
प्यास से पथरा चुकी झीलें
रेत के विस्तार में
यों ठूंठ दीखते हैं करीलों के
ज्यों ठुकी गणदेवता की काल-जर्जर देह में कीलें

खुरपियों को कब इज़ाज़त
धूप में भी रुक सकें पल भर
जाड़ियाँ भिंचती अगर हैं प्यास से भिंचती रहेंगी

चाँदनी पीकर
अँधेरा गेंहुअन-सा तांता फन
झोंपड़ी भयभीत सिमटी
चाहती इज्ज़त बचाना
वक्त का मद्यप दरोगा रोज आकर डांट जाता
टपकता
ख़ूनी नज़र से
जब इरादा क़ातिलाना

रक्त अब तो
बूँद-भर बूढ़ी शिराओं में बचा होगा
क्यारियाँ उनके गुलाबों की
इसी से ही सदा सिंचती रहेंगी

 

10. कल्पवृक्षों की नर्सरी

आह, कितने जंगली ये लोग
हरदम रोटियों की बात करते हैं।
नित्य रचते
स्वप्न हम तो
इन्द्रधनुषों के
झिलमिलाती चाँदनी का
शून्य में रचते महल
आम जनता की
हमें तो खास चिंता है
सोचते हैं
किस तरह
इनका सकेगा मन बहल
किन्तु दकियानूस ये
फुटपाथ की
थोड़ी जगह का
राग रटते हैं।
मखमली आश्ववासनों के
शाॅल जितने चाहिए में
विविध-वर्णी योजना के
हम बुनें कौशेय पट
चपल मुग्ध नीतियों के
लोचनों से
बाण छूटें
मोहती मन
बहस की उलझी हुई
यह श्याम लट
किन्तु कुंठित-बोध ये
कब देखते
लड़ चीथड़ों पर रोज मरते हैं।
महक
बसरा के गुलाबों की
यहाँ आयात कर देंगे
रोप देंगे
कल्पवृक्षों की
यहाँ कल ‘नर्सरी’
भूख का या प्यास का
अहसास ही क्यों हो
हम करेंगे
चेतना की
बंधु ऐसी ‘सर्जरी’
पर हरें जादू-छड़ी से
कष्ट पल में
सभी हमसे आस रखते हैं

 

11. क़त्ल नदी का

सब बंद मदरसे
जारी जलसे
गलियाँ युद्धों का मैदान।
अब कैसी होली
लाठी-गोली
भेंट मिली है जनता को
क्यों मांगे रोटी
किस्मत खोटी
गद्दी को बस जन ताको
थे ही कब अपने
सुख के सपने
पड़े रेत में लहूलुहान।
कल नन्हीं चिडि़या
भोली गुडि़या
भेंट चढ़ी विस्फोटों में
अब तेरा टुल्लू
उसका गुल्लू
आँके इतने नोटों में
क्यों भावुक होते
गुमसुम होते।
ले लो यह है नक़द इनाम।
यह साँड़ बिफरता
आता चरता
फसलें भाईचारे की
कट शाख गिरेंगी
देह चिरेंगी
धार निकलती आरे की
कर क़त्ल नदी का
ध्येय सदी का
फैलाना बस रेगिस्तान।

अब के तो लपटों में
ऐसे कलियाँ होम हुईं
गलियों में सपने जलते हों
जैसे गांधी के

कल तक कुछ चहरे रहते ढके नकाबों से
अब तो दाढ़ों वाला मुखड़ा खल-खल हँसता है
गुर्राहट, चिल्लाहट, क्रंदन रातों सुनते हैं
पूरी बस्ती पर जंगल का कब्जा लगता है

देह समय की चिथड़ा- चिथड़ा
नुक्कड़ पर छितरी
उफ, कितने पैने पंजे थे
अबके आँधी के।

 

(नवगीतकार डॉ. राजेन्द्र गौतम, प्रोफ़ेसर, (सेवानिवृत्त) दिल्ली विश्वविद्यालय.

कवि, समीक्षक और शिक्षाविद के रूप मे डॉ. राजेन्द्र गौतम एक जाना-पहचाना नाम है। बरगद जलते हैं (1997), पंख होते हैं समय के (1987) तथा गीत पर्व आया है (1983) उनके चर्चित नवगीत-संग्रह हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी ने उनकी कृतियों – ‘बरगद जलते हैं’ को 1998 में तथा ‘गीतपर्व आया है’ को 1984 में श्रेष्ठ कविता-पुस्तक के रूप में पुरस्कृत किया है। नवगीत दशक-3, यात्रा में साथ-साथ तथा नवगीत-अर्धशती आदि सभी प्रतनिधि नवगीत-संग्रहों में इनकी रचनाएँ संकलित हैं। एक आलोचक के रूप में उनकी पहचान का आधार काव्यास्वादन और साधारणीकरण (2010), दृष्टिपात (1997), पंत के काव्य में आभिजात्यवादी और  स्वच्छंदतावादी तत्त्व (1989) तथा हिंदी नवगीत : उद्भव और विकास (1984) जैसे समीक्षा-ग्रंथ हैं। उनकी 400 से अधिक रचनाएँ हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं मे प्रकाशित और आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित हुई हैं। 

सम्पर्क : rajendragautam99@yahoo.com

टिप्पणीकार डॉ. दीपक सिंह छत्तीसगढ़ में प्राध्यापक हैं और जन संस्कृति मंच में सक्रिय हैं।)

 

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