समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

राष्ट्रवाद या देशभक्ति को जनता के बीच समानता और रोजगार के सवाल से काटकर नहीं देखा जा सकता

सुजीत कुमार

आरा में ‘ देशभक्ति और राष्ट्रवाद : वतर्मान संदर्भ ‘ पर विचार गोष्ठी 

आरा ( बिहार ). नारायण उत्सव भवन, पकड़ी, आरा में 24 मार्च को शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, कवि अवतार सिंह ‘पाश’ और गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत की याद में जलेस, जसम, इप्टा, जसवा और भगतसिंह विचार मंच द्वारा  विचार गोष्ठी आयोजित की गई, जिसका विषय ‘देशभक्ति और राष्ट्रवाद : वतर्मान संदर्भ ‘ था.

कार्यक्रम की अध्यक्षता कथाकार नीरज सिंह, कवि जितेंद्र कुमार और सुशील कुमार ने की तथा संचालन अंजनी शर्मा ने किया.

कार्यक्रम की शुरुआत इप्टा के कलाकारों- रोशनी, ज्योति, दीपा, ऐश्ना, नैंसी, सिद्धि, शेखर सुमन, शुभम सोनी, नागेंद्रनाथ पांडे और अंजनी शर्मा द्वारा जनगीतों के गायन से हुआ.  फांसी का झूला झूल गया मस्ताना भगतसिंह, सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, मेरा रंग दे बसंती चोला, ओ मेरे भाई, ओ मेरे देशवासी…काली नदी को करें पार, फिर नए संघर्ष का न्यौता मिला है आदि गीत कलाकारों ने गाए.

विचार गोष्ठी की शुरुआत कवि जितेंद्र कुमार द्वारा विषय प्रवर्तन से हुई. उन्होंने कहा कि भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अवतार सिंह ‘पाश’ जैसे क्रांतिकारियों से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होंने ब्रिटिशकालीन संघर्षों को विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि संवैधानिक मूल्यों अर्थात संप्रभुता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता के बगैर राष्ट्रवाद का कोई अर्थ नहीं हो सकता। वर्तमान सरकार संवैधानिक मूल्यों को पूरी तरह नष्ट कर रही है, इसे बचाना हम लोगों का कर्तव्य है. उन्होंने कहा कि आज के संदर्भ में यह जरूरी है कि धर्म को राजनीति से अलग किया जाए और आरक्षण को खत्म करने की साजिशों का विरोध किया जाए. महिलाओं की मुक्ति को भी उन्होंने जरूरी बताया।

अध्यक्षीय वक्तव्य के दौरान पुन: जितेंद्र कुमार ने कहा कि आरएसएस की विचारधारा से जुड़े व्यक्ति के प्रधानमंत्री बनने के बाद डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर, प्रो. कलबुर्गी, गौरी लंकेश, गोविंद पानसरे की हत्या हुई। सरकार का पूरा तंत्र उन्माद, हिंसा और झूठ फैलाने में लगा हुआ है। सरकार का एक सांसद साक्षी महाराज कहता है कि 2024 के बाद चुनाव नहीं होंगे और संविधान की रक्षा का जिस पर दायित्व है, वह प्रधानमंत्री उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करता। प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के मंत्री और नेता सब झूठ बोलते हैं, गलत तथ्य पेश करते हैं। जिन बातों के लिए मुख्यमंत्री रहते मोदी तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिह की आलोचना करते थे, आज वैसी ही आलोचना करने पर उनके अंधभक्त गालियां बकते हैं और हमले करते हैं।

अध्यक्ष मंडल के दूसरे सदस्य कथाकार नीरज सिंह ने कहा कि आज के माहौल में ऐसे आयोजन बेहद जरूरी हैं। प्रगतिशील चिंतन और सोच तथा साझी विरासत की जो एक पूरी परंपरा और विरासत है, उस पर न केवल सवाल खड़े किए जा रहे हैं, बल्कि उनको उनके द्वारा समाप्त करने की कोशिश की जा रही है, जो जनता के द्वारा चुनकर आए हैं। राष्ट्रवाद, समाजवाद ये सब विचारधाराएं हैं, पर जहर घोलने के बाद ये सारे शब्द बेमानी हो गए हैं। आज ‘अंधभक्त’ सरकार द्वारा प्रचारित भ्रामक खबरों का समर्थन कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्र उपर से देखने पर बहुत बुरी चीज नहीं लगता, पर उसके भीतर जो जहरीला अर्थ भरा जाता है, जिससे हिटलर, मुसोलिनी और तोजो जैसे तानाशाह पैदा होते हैं, वह खतरनाक है। अपने देश में हम ऐसे ही खतरों के रूबरू हैं। फासीवाद के कदमों की आहट नहीं, बल्कि उसकी धमक सुनाई दे रही है, लेकिन साथ ही लोकतांत्रिक होने का भ्रम भी बनाए रखने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि लोकतांत्रिक सत्ता निरंकुश नहीं हो सकती। लोकतंत्र में तानाशाही नहीं चल सकती। कोई भी ताकत ऐसी नहीं है जो लोकतंत्र को खत्म कर दे। जनता ने लंबे संघर्ष से जिस लोकतंत्र को हासिल किया है, उसके लिए वह लड़ेगी।  राजनीतिक आजादी के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक आजादी के उनके सपनों को पूरा करना होगा।

अध्यक्ष मंडल के तीसरे सदस्य सुशील कुमार ने कहा कि  टैगोर ने राष्ट्रवाद से परहेज करने को कहा था, क्योंकि यह कब अतिराष्ट्रवाद में बदल जाए नहीं कहा जा सकता। देशभक्ति संस्कृति, रीति-रिवाज, सबके हित आदि के आदर्श से जुड़ा शब्द है। लेकिन जो लोग आज राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति का सर्टिकफिकेट बांट रहे हैं, वे इस देश की आत्मा के खिलाफ हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय राष्ट्रीयता का निर्माण अंग्रेजों के काल में हुआ। जिस भौगोलिक-राजनीतिक भूभाग को अंग्रेजों ने अपने शोषण के लिए तय किया, उसी के भीतर उनके विरोध में जनता का संघर्ष भी हुआ, जिससे भारतीय राष्ट्रवाद बना। इस संघर्ष में तिलक जैसे भी थे, जो प्रतिनिधि सभा यानी धारा-सभा में कामगारों-किसानों की उपस्थिति नहीं चाहते थे, दूसरी ओर गांधी थे, जिन्होंने व्यापक जनता को राष्ट्रीय संघर्ष से जोड़ा, तीसरी ओर भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे क्रांतिकारी थे। इन सबके अपने-अपने रंग और ढंग थे, पर एक काॅमन बिंदु यह था कि अंग्रेज यहां से जाएं। लेकिन एकमात्र विचारधारा ऐसी थी जो चाहती थी कि अंग्रेज यहां से नहीं जाएं। वे मुखबिर थे। यह सब कुछ डाक्युमेंटेड है।

सुशील कुमार ने आजादी के आंदोलन के दौरान आरएसएस की नकारात्मक भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उसका नाम राॅयल सिक्रेट सर्विस था। आजादी के बाद जब तिरंगा फहराया गया, तब आरएसएस ने काला झंडा फहराया था। गांधी जी की हत्या में उसकी भूमिका थी और उसके लोगों ने मिठाइयां बांटी थीं। सुशील कुमार ने कहा कि सावरकर का राष्ट्रवाद और भगतसिंह का राष्ट्रवाद बिल्कुल भिन्न है। जीवन के दूसरे दौर में सावरकर हिंदू राष्ट्रवादी हो गए थे। भगतसिंह ने खुद को फायरिंग स्कवायड के सामने मौत कबूल करने का आग्रह किया था, जबकि सावरकर ने ब्रिटिश हुकूमत से बार-बार माफी मांगी थी। धर्म आधारित राष्ट्र का पहला प्रस्ताव हिंदू महासभा ने पेश किया था, जिसकी अध्यक्षता सावरकर ने की थी। उसके चार साल बाद मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग उठाई थी। सावरकर ने आजाद हिंद फौज के खिलाफ ब्रिटिश फौज में हिंदुओं की भर्ती का आह्वान भी किया था। उन्होंने यह भी कहा कि आरएसएस का निर्माण की परिकल्पना इटली के तानाशाह मुसोलिनी से प्रेरित थी। हेडगेवार के गुरु मूंजे खुद इटली गए थे। ऐसी विचारधारा के समर्थक आज राष्ट्रभक्ति का सर्टिकफिकेट बांट रहे हैं।

उन्होंने कहा कि कांग्रेस तो आपातकाल कानून के जरिए लाई थी और पूरे देश को कैदखाना बना दिया था, पर इनकी तानाशाही और दृश्य मीडिया के जरिए जनमानस में जहर बोने के जरिए आई है। यह फासिज्म है। हालत यह है कि सत्ता से जरूरी सवाल पूछने वालों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे समय में तमाम तरह के खतरों को झेलते हुए भी सड़कों पर आना बेहद जरूरी है।

पूर्व रंगकर्मी और भाकपा-माले विधायक सुदामा प्रसाद ने भगत सिंह समेत तमाम शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि भारत में राष्ट्रवाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से लड़ाई के दौरान निर्मित हुआ था, पर आज वे लोग उसे बदल रहे हैं जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन से गद्दारी की थी। अडानी-अंबानी के लिए जनता के खजाने को खोल देना राष्ट्रवाद या देशभक्ति नहीं हो सकती। राष्ट्र सिर्फ भौगोलिक क्षेत्र से नहीं बनता, बल्कि वहां की जनता से बनता है। राष्ट्रवाद या देशभक्ति को जनता के बीच समानता और रोजगार के सवाल से काटकर नहीं देखा जा सकता। राष्ट्रवाद हो या देशभक्ति दोनों से जुड़े मसले सही जनपक्षीय राजनीति के जरिए ही हल हो सकते हैं।

जन संस्कृति मंच के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने कहा कि भगतसिंह अपने समय के इंकलाबी विचारों और देश के युवाओं की सामूहिक मेधा के प्रतिनिधि थे। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इतनी कम उम्र का नौजवान की वैचारिक समझ उस वक्त के तमाम नेताओं और बुद्धिजीवियों से ज्यादा गहरी और प्रखर कैसे थी। भारत की बुनियादी समस्याओं को समझने और उसके समाधान की दिशा तय करने के लिए वह दौर आज भी बेहद महत्वपूर्ण है। जहां तक राष्ट्रवाद का प्रश्न है, भगतसिंह और उनके साथी राष्ट्र की वास्तविक ताकत किसे कहते हैं, इस पर गौर करने की जरूरत है। वे कहते हैं कि राष्ट्रवादियों की सफलता के लिए उनकी पूरी कौम को हरकत में आने और बगावत करने के लिए खड़ा होने की बात करते हैं, और कौम को मजदूर-किसान के तौर पर परिभाषित करते हैं, जो भारत की 95 प्रतिशत जनसंख्या है।

‘सांपद्रायिक दंगे और उसका इलाज’ लेख में साझी राष्ट्रीयता को मजबूत करने की जरूरत की ओर संकेत करते हैं, जिसे अखबार कमजोर कर रहे हैं। क्रांति के लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए इंकलाबियों ने लिखा कि ‘क्रांति पूंजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अंत कर देगी। यह राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेगी।’ सुधीर सुमन ने कहा कि फांसी से पहले भगतसिंह ने ‘क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा’ लिखा था। उसमें उन्होंने सामंतवाद की समाप्ति, किसानों के कर्ज समाप्त करने, भूमि के राष्ट्रीयकरण और साझी खेती, आवास की गारंटी, किसानों से सिर्फ इकहरा भूमिकर लेने, कारखानों के राष्ट्रीयकरण और नए कारखाने खोलने, आम शिक्षा तथा काम करने के घंटे जरूरत के अनुसार कम करने का लक्ष्य रखा था। आज के भारत को देखें तो सत्ताधारी वर्ग इन लक्ष्यों के विरुद्ध ही कार्य कर रहा है। जाहिर है वास्तविक ‘राष्ट्र’ अभी भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया है। लेकिन भगतसिंह ने इसकी आशंका भी जाहिर कर दी थी। बारदोली सत्याग्रह के दौरान नेताओं के समर्पण पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था कि नेताओं ने जब किसान वर्ग के उस विद्रोह को देखा, जिसे न सिर्फ विदेशी राष्ट्र के प्रभुत्व से मुक्ति हासिल करनी थी, वरन देशी जमींदारों की जंजीरों को भी तोड़ देना था, तो कितना खतरा महसूस किया था। उन्होंने यह भी चिह्नित किया था कि ‘हमारे नेता किसानों के आगे झुकने की जगह अंग्रेजों के आगे घुटना टेकना पसंद करते हैं।’ इसी समझ के आधार पर भगतसिंह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि लार्ड रीडिंग की जगह सर पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास या लार्ड इरविन की सर तेज बहादुर सप्रु के आने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उन्होंने कहा था कि किसी न किसी रूप में लड़ाई जारी रहेगी, जो जारी है।

समसामयिक मुद्दों पर सोशल मीडिया में लगातार लिखने वाले आशुतोष कुमार पांडेय ने कहा कि राष्ट्रवाद को समझने के लिए हमें गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के बीच राष्ट्रवाद को लेकर हुई बहस पर ध्यान देना चाहिए। हम कितना हिंदू हैं, कितना किस धर्म के हैं, यह साबित करना राष्ट्रवाद नहीं होता। राष्ट्रवाद यह भी नहीं होता कि खुद तो रोजगार और सुरक्षा के लिए प्रवासी बन जाया जाए और वहां से मोदी-मोदी चिल्लाया जाए। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद डर पैदा करता है और उसकी आड़ में हथियारों की खरीद-फरोख्त के धंधे का माध्यम बन जाता है। उन्होंने इस मौके पर पाश की कविता ‘अपनी सुरक्षा से’ का भी पाठ किया।

कला कम्यून के चित्रकार राकेश दिवाकर ने भगतसिंह के सपनो के भारत पर चर्चा करते हुए कहा कि उनका सपना ऐसे समाज और देश के निर्माण का था जहां समानता होगी, सामाजिक बेड़ियों और शोषण से लोग मुक्त होंगे। आज पूरी फिजां में नफरत का जहर घोल दिया गया है। राष्ट्रवाद के मायने बदल दिए गए हैं। सच्चा राष्ट्रवाद तभी संभव होगा, जब शोषण का नामोनिशान मिट जाएगा।

 

विमर्श के क्रम में आशीष उपाध्याय ने कहा कि राष्ट्रवाद आजकल ऐसी विचारधारा हो गई है जिसमें धर्म की आड़ में एक-दूसरे के बीच अलगाव पैदा डाला जा रहा है। उन्होंने राष्ट्रवाद की भ्रामक अवधारणा के लिए मौजूदा मीडिया को जिम्मेवार ठहराते हुए कि सोशल मीडिया भी गलत और भ्रामक सूचनाओं के प्रचार का माध्यम बन गया है।

रंगकर्मी सूर्यप्रकाश ने कहा कि राष्ट्रवाद का मतलब ‘भारत माता का जय’ बोलना बना दिया गया है। सोशल मीडिया पर सरकार के आईटी सेल के लोग भरे पड़े हैं जो उसका इस्तेमाल अपने खास मकसद के लिए कर रहे हैं। जो भी राष्ट्रवाद की आड़ में सरकारी संरक्षण में चलने वाले उन्माद, उत्पात और हिंसा की आलोचना करता है, उसके साथ वे गाली-गलौज करते हैं। ऐसे में ऐसी विचार गोष्ठियां सच को समझने में हमारी मदद करती हैं। उन्होंने कहा कि वे अगर ऐसे विचार गोष्ठियों में शिरकत न करते तो वे भी उनके जाल में फंस जाते।

इतिहास के शिक्षक ऋषिकेश राय ने कहा कि भगतसिंह की उम्र 22-23 साल थी, पर उन्हें फ्रांसीसी क्रांति के मूल्यों- स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा की जानकारी थी। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद का संदर्भ राष्ट्रीय संप्रभुता और स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है। दिव्यप्रकाश और सन्नी प्रसाद ने भी गोष्ठी में अपने विचार रखे।

धन्यवाद ज्ञापन कवि सुमन कुमार सिंह ने किया। इस मौके पर चित्रकार राकेश दिवाकर द्वारा भगतसिंह के विचारों और पाश की कविताओं पर आधारित पोस्टर भी लगाए गए थे।
गोष्ठी में कवि सुनील श्रीवास्तव, शायर कुर्बान आतिश, इम्तियाज अहमद दानिश, रविशंकर सिंह, सिद्धार्थ वल्लभ, रंगकर्मी श्रीधर शर्मा, रंजन यादव, सत्यदेव, दिलराज प्रीतम, हरिनाथ राम, मुमताज अहमद, पत्रकार शमशाद प्रेम, डाॅ. विकास कुमार, डाॅ. कांति सिंह, मधु मिश्रा, कुमार आयुष, कुमार अमन, बाल्मीकि शर्मा, विजय सिंह फिरोज, भीम यादव, गांगुली यादव, अंशु पाठक, मंटू कुमार आदि भी मौजूद थे।

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