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नागार्जुन के उपन्यासों पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

आत्माराम सनातन धर्म महाविद्यालय, जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि तथा रज़ा फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में दिनांक 16 अक्टूबर को ‘नागार्जुन के उपन्यास : विविध आयाम’ विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया.

आत्माराम सनातन धर्म महाविद्यालय के सेमिनार हाल में आयोजित इस संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडे ने कहा कि प्रसाद, अज्ञेय और नागार्जुन ऐसे प्रसिद्ध कवि हुए हैं जिन्होंने अनेक महत्वपूर्ण उपन्यासों की रचना की है। उन्होंने कहा कि नागार्जुन ने मिथिला समाज पर केन्द्रित अपने अधिकांश उपन्यासों की रचना की है। बाबा ने बिना घोषणा किए हुए ही अनुभव आधारित यथार्थ को लिखा है। उन्होंने मैथिल समाज की प्रकृति, संस्कृति और विकृति पर अपने उपन्यासों की रचना की है। मिथिला में पाए जाने वाले धान, मछलियाँ, आम आदि के विविध किस्मों का जैसा वर्णन बाबा ने किया है किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने मिथिला में व्याप्त बहु विवाह और बाल विवाह पर अपने उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ में तीखी आलोचना की है। नागार्जुन के उपन्यास जनपदीयता के आधार पर खड़े हैं। उन्होंने आगे कहा कि बाबा नागार्जुन ने अपने उपन्यास में लोक मन और लोकमत की बात की है। हिन्दी में पहली बार ‘बाबा बटेसरनाथ’ में यथार्थ और फैंटेसी का मेल दिखाई पड़ता है। उनके उपन्यासों में समाज के साथ साथ व्यक्ति की चिंता भी है। उन्होंने कहा कि आत्मकथात्मक उपन्यास लेखन की शुरुआत नागार्जुन ने ‘रतिनाथ की चाची’ के माध्यम से की। हिन्दी आलोचना में नागार्जुन के गद्य की कला पर ध्यान नहीं दिया गया। अंग्रेजी के आलोचक राल्फास ने लिखा है कि ‘चीजों को सही नाम से पुकारना ही गद्य कला का मूल मंत्र है’। नागार्जुन चीजों को सही नाम से पुकारते थे क्योंकि उनके पास चीजों को समझने की क्षमता और सच कहने का साहस था। उन्होंने आगे कहा कि भारतीय समाज में शालीनता की रेशमी चादर से ढंककर अश्लीलता छुपाई जाती है। नागार्जुन के उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ में होमो-सेक्सुअलिटी का चित्रण हुआ था जिसको लेकर इतना हंगामा हुआ कि बाबा को अपने उपन्यास में से उन अंशों को निकालना पड़ा। इस सन्दर्भ में उन्होंने ‘उग्र’ की कहानी ‘चाकलेट’ और इस पर गांधी और बनारसी दास चतुर्वेदी के पत्रों का जिक्र किया।

प्रथम सत्र में ‘नागार्जुन के उपन्यास : मातहत संस्कृति की महागाथा’ विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए चर्चित आलोचक कमलानंद झा ने कहा कि नागार्जुन के उपन्यासों में मातहत और मातबर संस्कृति के बीच का संघर्ष चित्रित हुआ है। अन्न आम व्यक्ति के लिए उसके जीवन के लिए क्या महत्व रखता है उसे बाबा नागार्जुन जैसे रचनाकार ही अभिव्यक्त कर सकते हैं। प्रो. झा ने कहा कि बाबा के उपन्यासों पर बात करते हुए जर्मन विद्वान लोठार लुत्से ने कहा था कि नागार्जुन के उपन्यासों में खाने की वस्तुओं की अत्यधिक चर्चा और विवरण है जो उसकी कमजोरी है। दरअसल आर्थिक रूप से पिछड़े हुए मिथिला में फैले भूख की संस्कृति को लोठार जैसे विदेशी नहीं समझ सकते। ‘अकाल और उसके बाद’ जैसी स्थितियों का वर्णन नागार्जुन ही कर सकते थे जो स्पष्ट कहते हैं कि ‘अन्न ब्रह्म ही ब्रह्म है, बाकी ब्रह्म पिशाच’। उन्होंने विस्तार से नागार्जुन के उपन्यासों में चित्रित अनेक पात्रों के माध्यम से मातहत संस्कृति के चित्रण को रेखांकित किया। चर्चित आलोचक संजीव कुमार ने नागार्जुन के उपन्यासों के सन्दर्भ में आंतरिक कलात्मक सत्ता के प्रश्न पर विस्तार से चर्चा की। संजीव कुमार ने कहा कि मार्क्सवादी आलोचना में अमूमन रचना की आंतरिक कलात्मकता पर चर्चा नहीं की जाती, बल्कि उसे रचना की कमजोरी मानी जाती रही है जबकि प्रगतिवादी रचनाओं में भी कलात्मकता को लेखकों ने गंभीरता पूर्वक साधने का काम किया है। उन्होंने कहा कि जैसे बाबा नागार्जुन का कथा पक्ष उपेक्षित रहा है वैसे ही उनके उपन्यासों का कला पक्ष भी उपेक्षित रहा। उन्होंने बताया कि नागार्जुन के यहां भाषा वाचिक परंपरा को समेटते हुए नजर आती है, चाहे वह उपन्यास बलचनमा हो या बाबा बटेसरनाथ।

प्रो संजीव कुमार

संजीव कुमार ने बलचनमा और उग्रतारा उपन्यास से कई उदाहरण देते हुए यह दिखाने का प्रयास किया कि कैसे नागार्जुन ने अपनी बात कहने के लिए अपने उपन्यास में कला पक्ष पर भी गंभीरतापूर्वक ध्यान दिया है। नागार्जुन की स्त्री दृष्टि पर चर्चा करते हुए प्रसिद्ध लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि नागार्जुन के उपन्यासों में स्त्री पक्ष समग्रता में उभर कर आया है। नागार्जुन अपने उपन्यासों में स्त्री के दुख शोषण और उसके संघर्ष की कहानी को संवेदना पूर्वक चित्रित करते हैं। रतिनाथ की चाची उपन्यास में गौरी और उसकी मां को नागार्जुन ने जिस तरह गढ़ा है वह आधुनिक दृष्टि और सोच रखने वाली महिला के रूप में हमारे सामने आती है। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ आलोचक प्रोफेसर आनंद प्रकाश ने कहा कि मैं नागार्जुन कीकई रचनाओं की रचना प्रक्रिया का साक्षी रहा हूं। यह संगोष्ठी इस मायने में एक अच्छी शुरुआत है कि एक लंबे अरसे बाद बाबा के उपन्यासों पर चर्चा की शुरुआत हो रही है।
संगोष्ठी के द्वितीय सत्र की अध्यक्षता डॉ रमेश कुमार ने की पहले वक्ता के रूप में एनसीईआरटी से आए विद्वान डॉ नरेश कोहली ने नागार्जुन के उपन्यास दुख मोचन और गरीबदास की चर्चा की। उन्होंने कहा कि ‘गरीब दास’ उपन्यास स्कूली शिक्षा को ध्यान में रखकर लिखा है। इस उपन्यास में नागार्जुन ने सर्वप्रथम दलित शब्द का प्रयोग किया है। चर्चित पत्रकार रमण कुमार सिंह ने अपने आलेख में ‘जमानिया का बाबा’ उपन्यास के यथार्थ को समकालीन मठों, महंतों और बाबाओं के करतूतों से जोड़ते हुए या दिखाने का प्रयास किया कि कैसे नागार्जुन ने बहुत पहले ही धर्म के क्षेत्र में फैले हुए इस गोरखधंधे का भंडाफोड़ किया था, जिसका विस्तार आज भी लगातार देश में हो रहा है। युवा कवि, आलोचक रामाज्ञा शशिधर ने कहा कि नागार्जुन के उपन्यास अपने रूप और वस्तु में ‘नेशनल एलगरी’ का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन उपन्यासों की संरचना को पूर्व औपनिवेशिक, औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक देशकाल में बांटकर अध्ययन करने की जरूरत है। नागार्जुन मैथिल समाज के सीमांत जीवन से अपना हीरो चुनते हैं जिनके आसपास दमन शोषण के जाल हैं तो वहां देशज प्रतिरोध के रूप भी हैं। अपने संक्षिप्त कहन, रणनीतिक डिटेल्स,जीवंत लोक भाषा और अनूठे प्रयोगशील नैरेटर के चलते नागार्जुन के उपन्यास हिंदी उपन्यास संसार में आज ज्यादा समकालीन लगते हैं।
कार्यक्रम के प्रारंभ में अपने स्वागत भाषण में महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. ज्ञानतोष कुमार झा ने विद्वानों का स्वागत करते हुए कहा कि यह संगोष्ठी नागार्जुन के उपन्यासों को ध्यान में रखकर आयोजित की गई है जिसके माध्यम से बाबा के उपन्यासों पर बातचीत की एक नई शुरुआत होगी। नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में कविता की ही तरह शोषित-पीड़ित जनता की विविध समस्याओं को स्थान दिया है, जिसमें गरीब, स्त्री, दलित, छात्र आदि सभी शामिल हैं। विषय प्रवर्तन करते हुए संगोष्ठी के संयोजक श्रीधरम ने कहा कि बाबा ने अपने उपन्यासों में तत्कालीन समाज में व्याप्त वर्ग, जाति और जेंडर आधारित समस्याओं का न सिर्फ चित्रण किया बल्कि संघर्ष के माध्यम से उसके हल ढूंढने का प्रयास भी किया। बाबा ने लगभग आधा दर्जन उपन्यास स्त्री समस्या पर केंद्रित लिखा है। वे हिंदी और मैथिली में पहला उपन्यास बेमेल विवाह और विधवा समस्या पर लिखते हैं और उग्रतारा उपन्यास में विवाह संस्था पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं जो उनकी स्त्री संवेदना का परिचायक है। उद्घाटन सत्र का संचालन करते हुए आलोचक देवशंकर नवीन ने सर्वप्रथम जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि का परिचय दिया तथा बाबा के उपन्यासों में अभिव्यक्त विभिन्न पहलुओं को रेखांकित किया। इस एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में नागार्जुन के उपन्यासों की कथा शिल्प और भाषा पर बात हुई वहीं दूसरी ओर आने वाले शोधार्थियों के लिए बाबा के उपन्यासों पर शोध करने हेतु अनेक बिंदुओं को भी रेखांकित किया गया। अंतिम सत्र में बाहर से आए हुए शोधार्थियों के चुने हुए शोध पत्रों को प्रस्तुत करने का अवसर दिया गया जिसमें प्रमुख थे निवेदिता, शुभा द्विवेदी, निवेदिता, कंचन कुमारी, अंजली कुमारी, सुनील चौधरी आदि।
प्रस्तुति- डॉ. अर्चिता सिंह

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