समकालीन जनमत
कविता

माटी पानी : सत्ता और समय की पहचान

रवि श्रीवास्तव

सदानंद शाही के कविता संकलन ‘माटी-पानी’ को पढ़ते हुए मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर याद आया-

‘ जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ।’

इस मायने में शाही के इस संकलन की कविताएँ अनूठी हैं। उनमें अनेक गुत्थियाँ हैं। वहाँ ढेरों पैबन्द वाले लोकतंत्र की उलझने हैं, एक ठहरे हुए समाज की जड़ता को तोड़ने की जिद है, हाथी-दाँत के मीनारों पर बैठे बुद्धिजीवी हैं, बी.एच.यू. परिसर में बेटियों के पंख तराशने के महाभियान पर, उन पर चली पुलिस की लाठियाँ हैं, वृहस्पति, शुक्राचार्य, कपिल, कणाद, शंकराचार्य और द्रोणाचार्य जैसे ‘ग्यानी-ध्यानी’ विश्वविद्यालय के चतुर-प्रवीण पेशेवर आचार्य हैं, शताब्दी वर्ष पर शिक्षक के गाल पर छात्र का ‘शताब्दी तमाचा’ है, अंधविश्वासों के जीते-जागते कारखाने में बदलते उच्च शिक्षा-संस्थानों के शीर्ष पर जमे शिक्षा के, ज्ञान के डोमाजी उस्ताद हैं, पंचतंत्र की नयी कहानियाँ रचती संस्थाएँ हैं, पर्यावरण असंतुलन पर रोती प्रकृति है, देश-प्रेम और देश-द्रोह का पाखण्ड है, पत्नी होने की शर्त की विडम्बनाएँ हैं, राजनीतिज्ञों की चतुर राजनीति का धोखा है, ठगी हुई जनता है, चोटी के विद्वानों का सच है, विज्ञापन का झूठ है और इन सब पर गांधी की हँसी है। गमे जहान के हिसाब के बीच ‘तुम याद बेहिसाब आये’ जैसे दूब की तरह भोजपुरी कविताएँ हैं। गहरी आत्मीयता के अनुभवों से संपृक्त हैं ये कविताएँ, यद्यपि उनकी संख्या कुल तेरह-चैदह ही हैं। जीवन के विविध अनुभवों का कोलाज तैयार करती हैं ‘माटी-पानी’ की कविताएँ।

शाही की कविताओं में उत्साही उत्शाही आवेश नहीं दिखायी देता। वहाँ वर्तमान भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों और तर्कों को समझने वाला एक ठंडा दिमाग है, जो अच्छी तरह समझता है यह सम्मान-आत्मसम्मान का नहीं कारपोरेट पूँजी की हृदयहीन दुनिया का समय है। भारत की आज़ादी की लड़ाई जितनी राजनीतिक थी उतनी ही सांस्कृतिक भी। उसने इक़बाल, रवीन्द्रनाथ और कुमार आनंदस्वामी के महत्त्व को पहचाना था। गांधी स्वयं वैष्णव कवियों के महान मानवतावादी संदेश और नेहरू राॅबर्ट फ्रास्ट के ‘एंड माइल्स टू गो बिफोर आई स्लीप’ से आंदोलित थे। प्रबोधनकालीन भारतीय बौद्धिकों की नाक उनके लिबास के कारण नहीं बल्कि उनके विचारों के कारण ऊँची थी। आज ऊँची नाक का मायने मतलब बदल गया है। ‘ पूछताछ ’ में यह सामने आया है-

तुम्हारे पास बंगला है?/‘जी, नहीं’
तुम्हारे पास गाड़ी है?/‘जी, नहीं’
तुम्हारे पास भक्त हैं?/‘जी, नहीं’
तुम्हारे पास बहुमत है?/‘जी, नहीं’
फिर तुम्हारी नाक ऊँची कैसे है?

ऐसी ऊँची नाक वालों को अपनी राजनीति चमकाने के लिए गिरवी रखे दिमाग की जरूरत है, एकदम एकतरफा दिमाग। उसी की मदद से राजनीति चलेगी। कवि प्रेम-कथा बाँचें, लेखक एकांतवासी हों, अध्यापक ‘चुपचाप’ पढ़ाये, कलाकार चित्र-वित्र बनाये, अर्थशास्त्री बही-खाते देखें, एक्शन-रिएक्शन को वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में परखें, नाटककार-फिलिमकार मंच पर नाचें-गायें, राजनीतिशास्त्री राजनीति की परिभाषाएँ लिखें- बाकी ‘राजनीति हम करेंगे’: फिर कैसा होगा वह समाज ? कैसा होगा वह लोकतंत्र ? कैसी होगी वह सियासत और उसका फलसफा? पिछला अनुभव हमें बताता है कि फासीवादी राजनीति इसी तरह से लोकतंत्र को गढ़ रही थी। ‘इतिहासकार सहेज लें/अपनी कलम-कापी/हमारा इतिहास लिखें/राजनीति हम करेंगे।’ की खुशफहमी पालने वालों का इतिहास स्वयं उनकी राजनीति ने लिख दिया।

शाही अपनी कविताओं में जितना बोलते हैं उससे कहीं अधिक छिपा लेते हैं। कभी-कभी तो लगता है कि उनकी कविताओं के शब्द अपने मूल अर्थ और अभिप्राय से छल करते हैं। कहते हैं मुम्बई की बरसात और प्रेमिका के मन का अनुमान लगाना कठिन है। पता नहीं कब ‘बरस’ पड़े ? शाही की कविताएँ जिस हद तक अनुभवों की पुनर्नवता हैं उसी हद तक भाषा की पुनर्नवता भी। इसलिए वे हर पाठक से अपने अर्थ की नवीन संभावनाओं की उम्मीद करती हैं जो अजन्मा हैं। चार बंदोवाली ‘मुहावरों की ऐसी-तैसी’ कविता पर ध्यान दें। रायता फैलाना, दाल में काला, नाचना न आए तो आँगन टेढ़ा, न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी, चैन की बंशी बजाना और न बाँस रहेगा न बाँसुरी बजेगी हिन्दी के प्रचलित मुहावरें हैं।

इस कविता के चार बंद अपनी अलग अर्थसत्ता बताते हैं। इस कविता का तीसरा बंद महज छः पंक्तियों में ‘न खायेंगे न खाने देंगे ‘ का रहस्य समझा देता है। इस भरोसे के आँगन में नाचने वाले कौन हैं? विजय माल्या?, नीरव मोदी या मेहुल चैकसी ? या इस भरोसे के आँगन को बनाने वाले राम-भरोसे लोगों को नचा देने वाले चतुर-सुजान ? आज तो भरोसे के दोनों आँगन गीले हैं। केवल ‘सबका साथ सबका विकास ’ का रायता फैलाते रहिए। बस ! राधा नाचेगी कैसे ? तेल तो काला बाजार में पहले ही बिक चुका। बांसुरी बजाने के लिए चैन और सुकून चाहिए। आम जन से वही छीन लो। विरोध की बेसुरी बांसुरी के स्वर अपने आप दब जायेंगे। शाही की कविताओं में ‘विट’ बहुत है, यानी कहे से अनकहे का बोध। ‘मीनिंग बिटविन द लाइन्स’।

‘देशद्रोह’ ‘देश-प्रेम’ और ‘संस्कृति क्या है’ तीनों कविताओं को मिलाकर पढ़ने पर आज की विसंगतिपूर्ण राजनीतिक संस्कृति को समझने-समझाने का वहाँ कोशिश दिखायी देती है। अनुभव और अभिव्यक्ति के कई रूपों एवं परतों में उस कोशिश से गुजरने की प्रक्रिया प्रतिबिम्बित हुई है। उस अनुभव का बोध तब और तीखा होता है जब देश प्रेम एक खास परिभाषा तक सीमित होकर उसे जबरिया स्वीकार करने को विवश करता हो। उससे इतर जो कुछ है वह देश द्रोह है। यानी बहुसंख्यकों का देश प्रेम ही सच्चा देश प्रेम है। बाकी सब ढोंगी-पाखंडी हैं। देश प्रेम और देशद्रोह की ऐसी बेरहम तस्वीर को दो छोटी कविताओं में उतारना एक समर्थ सर्जनात्मक प्रतिभा का काम है-

‘भेड़ चाल चलना/सीटी बजते ही हुआँ-हुआँ करना
कोमल और सुंदर पर/टूट पड़ना ….
नहीं नहीं, यह सब छोड़िए
थोड़े में कहें तो/जो देशद्रोह नहीं है/वही देश-प्रेम है।’

परिभाषाओं का यह विलोम मानों कह रहा है कि जिनकी मानसिकता फासिस्टों जैसी होती है उन्हें उदार लोकतांत्रिक विचारों में ही नहीं; फूल-पत्तियों के हिलने-डुलने, हवा के चलने, घर से बाहर निकल कर लोगों से मिलने-जुलने-बतियाने में भी देशद्रोह और षड्यंत्र दिखायी देता है और ठप्पेदार संस्कृति ?

‘लेकिन ….
लेकिन किन्तु परन्तु की कोई बात नहीं
हम जो कह रहे हैं वही संस्कृति है
इसे चुपचाप मान लो/इसी में भलाई है।’

संस्कृति का ऐसा भयावह और विद्रूप एहसास शाही की दूसरी कविताओं में भी है। सवाल है, ‘भलाई’ और किस में है ? निखालिस ‘उच्चकुलीन कनौजिया घर की बेटी’ के लिए ‘उच्च कुल का पुरुष/कुल ही उसकी योग्यता/कुल ही उसकी ट्रेनिंग/उसे/रोजी रोटी के लिए/और कुछ करने की जरूरत ही नही थी’ जैसे किसी योग्य वर की खोज क्योंकि ‘पत्नी होने के लिए/एक अदद पति का होना आवश्यक है/खट्टू हो या निखट्टू।’ परिणाम भी सामने है-

‘ एक अदद पति को बनाये/और बचाये रखने के लिए
उसने सब किया/सब सहा/लेकिन सब व्यर्थ
बीबी के पैसे से खरीदे गये घर में/दूसरी औरत ले आया
अब बीबी एक कोने में रहती है/और सब कुछ सहती है
जैसा भी हो/पति है/पत्नी होने की अनिवार्य शर्त।’

यह कविता बहुसंख्यक स्त्रीवादी कविताओं से अपने परिप्रेक्ष्य की भिन्नता के कारण अलग है। उसमें न तो स्त्री-जीवन के संघर्ष का रुमानीकरण है न ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते…’ के लंपटीकरण को सहलाने वाली भाषा है। बल्कि कहना चाहिए कि कविता एक स्त्री विशेष के जीवनानुभवों को अतिक्रांत कर जाति और वर्ण में बँटे समाज के अन्तर्विरोधों से उत्पन्न विसंगतियों और विडम्बनाओं में फँसे स्त्री-जीवन के आवेगपूर्ण तल्खी को उसके बड़े संदर्भ से जोड़कर देखती है।

आज अब राजनीति और अपराध, शिक्षा और व्यवसाय, बाजार और संस्कृति, लेखकों- पत्रकारों-बुद्धिजीवियों की ईमानदारी और सत्ता का प्रलोभन, मानवीय रिश्ते-नाते और निजी लाभ-हित के सारे समीकरण गड्मड् हो गये हों तब रचनाकार की संवेदनशीलता और उसकी विश्वसनीयता इस बात से तय नहीं होगी कि वह अपने लिए कैसी मनोवांछित दुनिया चाहता है। वह इस समझ से तय होगी कि इस अवांछित समाज के वे कौन से झूठ हैं जिन्हें तर्कतीत सच बनाकर उसका युक्तिकरण किया जाता है; वह भी उस स्थिति में जब हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक जीवन से जुड़े महत्त्वपूर्ण एवं गंभीर मुद्दों पर लिये गए निर्णय फौरी राजनीतिक जरुरतों से तय होती हों। ‘झूठ जी से हालचाल’ इस खोजबीन की कविता है-

झूठ जी! आप इतने दिलफरेब कैसे हुए (झूठ बोलकर-मेरी तरफ से)
झूठ जी! आप फतहयाब कैसे हुए (झूठे सपने दिखाकर-मेरी तरफ से)
झूठ जी! महटिआइए नहीं (महटियाना क्या है-मेरी तरफ से)
सच सच बताइये झूठ जी! (झूठ ही अब सच है भाई-मेरी तरफ से)

कविता अपनी पूरी भाषिक संरचना में पाठकों पर नाटकीय प्रभाव छोड़ती है। वहाँ न बिंब है न रूपक, न जटिलता न तनाव, न विडंबना न विरोधाभास। किन्तु अपनी व्यंजना में बेजोड़। वह जड़ाऊ न हो, टिकाऊ जरूर है।

शाही की कविताएँ उस मायने में राजनीतिक कविताएँ नहीं हैं जिस मायने में नागार्जुन, धूमिल और राजकमल चैधरी की कविताएँ हैं किन्तु परिस्थितिगत राजनीतिक रूपों, व्यवहारों एवं परिणामों का उल्लेख उनमें मिलता है। मसलन ‘ दूकान ’ कविता में ‘ दूकान तुम्हारी भी है/दूकान हमारी भी है/फर्क यह है/कि तुम घृणा बेचते हो/हम प्यार बाँटते हैं।’ ‘जो हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं’ में ‘युद्ध और प्यार में/सब कुछ को जायज मानने वाले/किसी नियम और नैतिकता के गुलाम नहीं हैं/हारी हुई लड़ाई लड़ने वालों के लिए/नियम है/नैतिकता है विधान है’ के दोहरे मानदण्डों पर प्रतिक्रिया है और ‘गाय पर निबंध’ में ‘इंजेक्शन ऐसे भी हैं/कि लगा दो/तो गाय दूध की बजाय/वोट देने लगती है।’ का नुस्खा है (वह नुस्खा राष्ट्रवाद के इंजेक्शन का है)। ‘मैं बनारसी हूँ ’ में वर्तमान के राजनीतिक संकट से उपजे कुछ विराट प्रश्नों को खड़ा किया गया- ‘मैं बनारसी हूँ /और भारतीय हूँ / मैं भारत से प्यार करता हूँ /इसमें कोई विरोध है क्या ? ’

छह बंदो वाली कविता का हर बंद बनारस के बहाने एकांतवादी राष्ट्रवाद-राष्ट्र पर तीखी प्रतिक्रिया है। इस बहुलवादी धर्मों और संस्कृतियों वाले देश में जहाँ चयन की सांविधिक स्वतंत्रता है, का अपहरण दूसरों को भारतीय कैसे रहने देगा ? भिन्न अस्मिताओं के बीच सह-अस्तित्व के बिना भारत भारत रह पायेगा ? अगर ‘हम’ भिन्न जाति, भाषा-भाषी और प्रदेशों की भौगोलिक सीमा में बँधकर भी भारतीय हो सकते हैं तो ‘वे’ अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक चिति, धार्मिक स्मृति एवं धर्मग्रंथ और पवित्र प्रतीकों को मानकर भारतीय क्यों नहीं हो सकते ? … बाहर से आने वाले विदेशियों से जब उनकी नागरिकता या राष्ट्रीयता (नेशनलिटी) पूछी जाती है तो क्या वे आव्रजन अधिकारियों को अपना धर्म बतलाते हैं ? अगर दूसरे ख़तरे में होंगे तो न ‘हम’ सुरक्षित हैं न ‘वे’, न भारत सुरक्षित है न भारतीयता … ‘सोचता तो यह भी हूँ कि/भोजपुरी भोजपुरी नहीं रही/तो भला/हिन्दी कैसे रह पायेगी हिन्दी?’ ‘अपनी पूँछ उठाकर/दूसरों के नंगा होने की घोषणा करता है ’ जैसे अंधराष्ट्रवादियों की सोच और व्यवहार पर गहरी चोट हैं ये चार पंक्तियाँ।

वैसे यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि ‘ इर्ष्या द्वेष की आग/कलेजा ठंडा करने के लिए बलि मांगती है’ की प्रवृत्ति ने किसी बड़े विचार-दर्शन या बड़ी कविता को जन्म क्यों नहीं दिया जो समय और समाज के आर-पार जा सके ? यह प्रश्न ‘ झूठ और फरेब की माला पहने/कपट का तिलक लगाये/ राव वन गमन की कथा बांचते’ (मंथराएँ कविता) आखेटकों की मंथरा-राजनीति से जन्म लेता है जो फिर किसी नये शिकार की खोज में निकली है। अगर सूक्ष्मता से देखा जाये तो अपने इकहरेपन के बावजूद अपनी संरचना में ऐसी कविताएँ सामाजिक संदर्भों को नया आयाम देती हैं। उनकी उपयोगिता इस बात में है कि वे राजनीतिक प्रशिक्षक का काम करती हैं, आज जन के बोध पर उतर कर उसे ऊपर उठाने का प्रयास करती हैं।

राजनीति का सूखा और सूखे की राजनीति-राजनीति का संकट और संकट की राजनीति के वर्तमान दौर में कुछ चोटी के विद्वान हैं जो जानते हैं ‘कब क्या करना है… कब क्या नहीं करना है।’ धूमिल ने ‘मोचीराम’ में एक जगह लिखा है ‘भविष्य गढ़ने में’ ‘इनकार से भरी हुई एक चीख’ और ‘एक समझदार चुप’ ‘अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से/अपना अलग-अलग फ़र्ज अदा करते हैं।’ ऐसे ही आलिम फाजिल ‘चोटी के विद्वान/चोटी पर विराजमान हैं’ और ‘चोटियों का संवाद जारी है।’ इस संवाद के हिस्सेदार दकियानूसी, पाखण्डी, समाजवादी और प्रगतिशील कहे- कहलाये जाने वाले राजनीतिक दलों और उनके नेता समभाव से सत्ता के सहकार भी हैं-

‘इसलिए चोटी पर पाखंडी चोटी लहरा रही है
जिसे समाजवादी प्रगतिशील
और दकियानूसी चोटियाँ संभाले हुए हैं’
उनकी पहली और अंतिम प्रतिज्ञा है-
‘हम सहस्रबाहु/सत्य क्या खाकर हम से जीतेगा
विद्या का विनाश हो जाये/सद्भाव रहे/चाहे जाये
ज्योति जाये तेल बेचने/बस्स/जैसे भी हो/हमारी सर्वोच्चता
बनी रहनी चाहिए।’

यह सर्वोच्चता बनायेंगे सत्ता-सेवक बुद्धिजीवी। खास-खास विचारधाराओं के भीतर तराशे गए विद्वान ! विचारधाराओं का ‘ब्रांड’ जितना लोकप्रिय और ऊँचा होगा उतनी ऊँची उनकी कीमत ! ‘वे हमारे समय के महानायक हैं ’, अपने-अपने किरदार में पूरी तरह रजनीकांत और अमिताभ बच्चन। महानायक बनते नहीं ‘बनाये जाते हैं/गढ़े जाते हैं/छीले जाते हैं/तराशे जाते हैं/पैक किये जाते हैं/भाँति-भाँति के लेवेल लगाए जाते हैं/फिर/ऊँचे दाम पर/बेचे जाते हैं/बकरीद के पहले।’

2019 का चुनाव बहुत दूर नहीं है। किन्तु महानायकों की लीलाएँ अपरंपार हैं। कल तक पेट्रोल के अर्थशास्त्र ने मूर्खता की हद तक बेख़बर चालीस रूपये लीटर पेट्रोल दिलाने वाला बाबा आज तक अपने उत्पाद का विज्ञापन कर रहा है। ‘उनकी सबसे बड़ी कला विज्ञापन है/वे किसी भी चीज का विज्ञापन कर सकते हैं/वे किसी भी चीज को विज्ञापन में बदल सकते हैं/पवित्र से पवित्र नदी हो/या फिर/पवित्र से पवित्र रिश्ता/उनके लिए सब विज्ञापन है/वे माँ को बदल सकते हैं एवरेस्ट मसाले में/एवरेस्ट को बंदर छाप दंत मंजन में/वे प्रेम को नवरतन तेल में बदल सकते हैं/ममता को बोतल में बंद करके/बेच आ सकते हैं/सात समन्दर पार/वे हमारे समय के महानायक हैं. ’

पोलैंड के समाजशास्त्री ओसोवस्की ने बुद्धिजीवियों और सत्ता के सम्बन्ध पर एक तीखी टिप्पणी की थी कि दोनों एक दूसरे से वैसी ही उम्मीद करते हैं जैसा कोई शराबी बिजली के खंभे से। दोनों को सहारे की जरूरत है, रौशनी की जरूरत दोनों को नहीं है।

शाही की मानसिक बनावट का एक रूप ‘जीभ और जाँघ के चालू भूगोल’ से हटकर ‘एक स्त्री को जानना’, ‘मुझे हल कीजिये’, क्या तुम्हारे भीतर की स्त्री जाग गयी थी ‘विजय लक्ष्मी भाटिया के लिए’ और ‘उसके लौटने का इंतजार’ कविताओं में दिखायी देता है। इन कविताओं में कवि की दृष्टि न तो अकवितावादियों जैसी है और न उनके मुहावरे उन जैसे। वहाँ एक आत्मीयता है जो स्त्री की अनुपस्थिति को नोट करता है चाहे वह प्रेयसी हो, पत्नी हो या पुत्री- ‘उसके शहर में न होने से/इत्मीनान थोड़ा दरक जाता है/आसमान थोड़ा उदास हो जाता है/हवा में आॅक्सीजन कम हो जाती है/पक्षियों का चहचहाना कम हो जाता है’।

यह शाही की संवेदना की बनावट का फर्क है कि इस मामले में वह अपने ‘रीति विज्ञान’ को योनि के ‘कामविज्ञान’ में गिरने से रोक लेते हैं। इसी कारण से वह आज की बढ़ती हुई लैंगिक हिंसा के बीच ‘बिल्लोरानी फिर गुस्सा हैं’ की सात्विकता से बुनियादी मानवीय लगाव को प्रासंगिक बना देते हैं।

शाही के लिए पृथ्वी रत्नगर्भा ही नहीं है, वह सौंदर्यगर्भा भी है। आज के उपयोगितावाद से मनुष्य के निरंतर छीजते सौंदर्यबोध को बचा ले जाने की पहल का सहभागी है। ‘कविताएँ आकाश से उतर रही है’ कविता। दूब की नोंक पर ठहरा हुआ ओस, आम की गुठली में अँखुआया पल्लव नीम की महक और महुए की खुशबू, नदी की लहरों और धान की लहराती बालियों का संगीत, बाँस के झुरमुट की नयी कोंपलों में छिपा नवजीवन सभी अपने रूप-सौंदर्य के सघन ऐंद्रिक बिंबो की रचना करती हैं और एक चुनौती के साथ खत्म होती हैं- ‘आसमान से उतर रही हैं/कविताएँ/है कोई/शंकर/जो इन्हें सहेजे/अगर चली गई पाताल में/तो/गजब हो जायेगा।’

हमारे यहाँ विकास तो बहुत हुआ है, बस भाषा ही थोड़ी गंदी हो गई है। ‘व्याकरण के बाहर’ और ‘भाषा के नाखून’ ये दो कविताएँ आज की राजनीतिक संस्कृति के चालू मुहावरों के भदेसपन के समानान्तर दूसरा सांस्कृतिक मोर्चा है। असभ्यों को भक्त कहने, कुटिल खलकामी के बाबा, योगी और ईश्वर कहे जाने का रिवाज जब चल पड़े, तर्क-बुद्धि और विवेक को दूर भेजकर ‘भाषा गाली में सिमट कर रह जाये’ तो सचमुच कहने की जरूरत पड़ेगी। भाषा में उगे नाखून को जानिए- ‘भाषा में उगे नाखून को पहचानिए/समय रहते काट दीजिए भाषा के नाखून।’

मार्क ट्विन ने ठीक ही कहा था कि राजनेताओं एवं बच्चों के पोतड़े को समान कारण से बदलते रहना चाहिए ‘पाॅलिटिशियन्स एंड डायपर्स मस्ट बी चेंज्ड, एंड फाॅर द सेम रीजन।’

इस संकलन की कुछ कविताएँ भोजपुरी में हैं। ‘हमरे मन के चिरई’ ‘तू मिललऽ तऽ’, ‘हालि चालि’, ‘कबूतर, ‘‘केतना दिन’ ‘एगोचुप’ जैसी कविताएँ’ ‘तुमुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन।’ की तरह हैं और अपने आस-पास की दुनिया एवं मानवीय रिश्तों के प्रति आत्मीय लगाव उत्पन्न करती हैं। वर्तमान जीवन की आपाधापी और दुनियादारी के बढ़ते हस्तक्षेप के प्रति उन कविताओं में एक भावुक कवि-मन की करुणा दिखायी देती है। उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि हमारी कुछ मूल्यवान चीजें खो गई हैं। एक शून्य, एक अभाव है जो मन की कसक बन कर इन कविताओं में अपनी जगह बनाती है। सौदा की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं-

काबा अगर्चे टूटा तो क्या जा-ए-गम है शेख़
कुछ क़से्र दिल नहीं कि बनाया न जायेगा।

इस ‘क़स्रे दिल’ का हिसाब कौन रखेगा?

चौखटों से अटकने वाले बरसात में फूले हुए दरवाजे? पाठक की स्मृति पर अपने पाँवों का लंबा निशान छोड़ जाती हैं ये कविताएँ।

‘राम-रावण के नवकी लड़ाई’ की पटकथा मिथकीय है। उसे केंद्र में रखकर कविता एक रूपक रचती है, संवाद की शैली में। मिथक प्रायः उस अर्थ के साथ खड़े होते हैं जिन्हें हम वहाँ खोजना चाहते हैं। उसकी पुनर्रचना इस बात पर निर्भर है कि वह कैसे रचे जाने की आशा रखता है। कवि की यह रचनात्मक अन्तर्दृष्टि महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह उस बोध का निरंतर प्रकटीकरण है जो सामाजिक जीवन में अमूर्त बना हुआ है। इससे कविता के शिल्प में तराश तो आयी ही है, कथन की मितव्ययिता से उसका नाटकीय प्रभाव असरदार साबित हुआ है- ‘रवनवा राम जी के लगे आइल/उनका गोडे़ पर गिर गइल/कहलस देखीं! अब हमरा आ रउरा में/कवनो टसल नइखे/रहि गइल/एगो सीता जी रहली/न ऊ धरती में समा गइली/अब उन कर कवनो मामला बचल नइखे/रहल सवाल राज-काज के/त हम रउरे पालिसी के कायल हो गइल बानी/अब हमरो रउरे रसता पर चले के बा/जनता खातिर जियेके बा/जनता खातिर मरे के बा।’

यही रावण सत्ता में आया था, उद्धारक राम का बाना पहनकर। वही जनता के लिए जीने-मरने की कसमें खाकर! अब वही जनता दरकिनार है और देश का धन उड़ाकर विदेश भाग जाने वाले चोर-उचक्कों के पौ बारह हैं। सत्ताधारियों का कारोबार भी आराम से चल रहा है। गोदी मीडिया उसे रामराज्य बता रहा है- ‘रवनवा आपन दसो मँुह रामजी के दे देहलस/आ राम जी के चेहरा अपने उप्पर लगा लेहलस…/आ राम जी के चेहरा लगवले/रावन/मगन होके राज करे लगल/लोग के बुझाइल/कि रामराज आ गइल बा।’ बा मौका मुझे श्रीकांत वर्मा की ‘मगध’ कविता की एक पंक्ति याद आयी ‘मगध में विचारों की कमी है’। वह आपातकाल का दौर था। अभिव्यक्ति के खतरे बहुत थे। राजनीति का मगध दिल्ली था और दिल्ली के तख़्त पर कौन रौशन अफरोज था, बताने की जरूरत नहीं है। ऐसे खतरे के समय में मिथकों का सर्जनात्मक उपयोग बहुत कारगर होता है। अपने प्रकट अर्थ में एक मिथकीय कथा किंतु अपने अप्रकट अर्थ की व्यंजना में एकदम अलग।

मार्टिन लूथर किंग ने एक मौके पर कहा था कि जहाँ सियासत धार्मिक मसलों को शांत करे वह देश महान होता है। जहाँ सियासत खुद धार्मिक मसलों को पैदा करे, समझो देश को गलत लोग चला रहे हैं। गोरक्षा की राजनीति पर गाय की निम्न प्रार्थना अमन-चैन वाले जीवन के लिए भी प्रार्थना है- ‘हमार निहोरा बा/हमके मुद्दा मति बनावऽ/गाई हईं/हमके/गइये रहे द/माई मत बनावऽ’। विडंबना और विरोधाभास की बलि पर बेचारी गाय! प्रकट और अप्रकट अर्थ की तनी रस्सी पर आँख मारती कविता और कविता की कलात्मकता !!

माटी-पानी,
लोकायत प्रकाशन, सत्येन्द्रगुप्त नगर, लंका, वाराणसी- 221005
प्रथम संस्करण: 2018
मूल्य 250/- (सजिल्द)
125/-  (अजिल्द)
पृ.सं. 144

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