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भारतीय समाज के बदलते वर्गीय एवं जातीय चरित्र को बारीकी से व्यक्त करने वाले कथाकार हैं मार्कण्डेय

साक्षी मिताक्षरा

 

( जाने-माने कहानीकार और  ‘नयी कहानी ‘ के दौर के प्रमुख हस्ताक्षर मार्कंडेय के जन्म दिवस पर उनको याद करते हुए युवा कवयित्री साक्षी मिताक्षरा का आलेख )

मार्कंडेय उस समय के रचनाकार हैं जब कि भारत को सदियों की दासता से मुक्ति मिली थी, अब भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र घोषित हो चुका था. भारतीय संविधान निर्माताओं ने समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोककल्याणकारी राज्य के मूल्यों को अपनाया, साथ ही संविधान की प्रस्तावना में ये स्पष्ट कर दिया गया कि देश के प्रशासन का आधार ‘लोकतांत्रिक समाजवादी विचारधारा’ ही होगी.

हिंदी नयी कहानी में मार्कंडेय के महत्वपूर्ण योगदान पर चर्चा करनें से पूर्व मार्कंडेय जिस समय, समाज और परिस्थिति में लेखन कर रहे थे, उसे स्पष्ट कर देना अधिक उचित रहेगा. मार्कंडेय का पहला कहानी संग्रह ‘पान फूल’ प्रकाशित होता है 1954 में और आखिरी संग्रह ‘बीच के लोग’ प्रकाशित होता है 1975 में. अर्थात इनके समय को समझने के लिए हमें स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर 1970-75 तक की परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा.

मार्कंडेय का जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुआ और व्यक्तिगत स्तर पर वे प्रगतिशील, वामपंथी विचारधारा के समर्थक रहे, इसलिए इनकी रचनाओं में हमें इनके गाँव-जवार की संस्कृति एवं इनकी विचारधारा दोनों का ही पर्याप्त असर देखनें को मिलता है.

अंग्रेज बेशक भारत में औपनिवेशिक शासन और शोषण ले कर आए किन्तु पूंजीवादी विचारधारा के पोषक होने के कारण इनकी नीतियों और शासन प्रणाली ने सामन्ती मूल्यों पर बहुत गहरा आघात किया. परिणामतः राजनीतिक स्तर पर तो सामन्तवाद की कमर टूट गई किन्तु सामाजिक परिवेश में अभी भी उसकी जड़ें गहरे बैठी हुई हैं. गहरी पैठ जमाए इन दमनकारी मान्यताओं पर बिरसा-फुले-अम्बेडकर के जातिवाद विरोधी आन्दोलन, पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव, लोकतान्त्रिक-संवैधानिक वैचारिकी और नेहरू की समाजवादी नीतियों नें आघात किये और इनके विरुद्ध एक सामाजिक हलचल उत्पन्न कर दी.

1954 से 1975 के मध्य का समय अर्थात प्रथम से पंचम पंचवर्षीय योजना के मध्य का समय था, इन पाँचों योजनाओं के प्रमुख उद्देश्य थे -कृषि एवं उद्योगों में सुधार, बैंकों का राष्ट्रीयकारण, वित्तीय समावेशन, हरित क्रांति एवं गरीबी निवारण. अर्थात जो भारतीय जनता सदियों से, पहले राजशाही-सामन्ती शोषण और फिर ब्रिटिश औपनिवेशिक शोषण का शिकार रही अब राज्य उसके हक़ और हुकूक की बातें करनें लगा था. जनमानस अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और शोषण के विरुद्ध मुखर होने लगा था.

इस समय की अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं भी हैं जिन्होनें मार्कंडेय के रचनाकर्म को प्रभावित किया, जैसे 1951 में हुआ भावे का भूदान आन्दोलन, 1956 में अम्बेडकर और उनके अनुयायियों द्वारा हिन्दू धर्म का त्याग, 1964 में सीपीआईएम की स्थापना और 1967 का नक्सलबाड़ी आन्दोलन.

उपरोक्त सभी घटनाओं-परिघटनाओं का मार्कंडेय के लेखन पर ऐसा प्रभाव हुआ कि उनके लेखन में जनवादी पक्ष स्वतः ही समावेशित हो गया. भारतीय समाज के बदलते वर्गीय एवं जातीय चरित्र को बहुत ही बारीकी से उन्होंने अपनी कथाओं में व्यक्त किया है. हालाँकि उनकी कहानियों के दलित पात्र आधुनिक दलित साहित्य एवं विमर्श की भाँति दलित अधिकारों एवं अस्मिता के लिए नहीं खड़े होते बल्कि वहाँ वे सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि बन कर सामने आते हैं. अर्थात जातीय चेतना के स्थान पर उनके सर्वहारा दलित पात्र वर्गीय चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं.

सामाजिक ताने-बाने एवं राजनीतिक अर्थशास्त्र पर उनकी गहरी पकड़ रही जिसके कारण आदर्श कल्याणकारी लोकतान्त्रिक नीतियाँ हों या ग्रामीण जीवन, किसी के प्रति उनका रोमान एक स्तर से आगे नहीं बढ़ता. उनकी सचेत समाजशास्त्रीय दृष्टि उन्हें तुरंत यथार्थ की ज़मीन पर खींच लाते हैं.

उन्होंने खेतिहर मजदूरों की समस्याओं पर अनेक कहानियाँ लिखीं जैसे ‘हल लिए मजदूर’, ‘मधुपुर के सिवान का कोना’, ‘भूदान’, ‘हलयोग’, ‘बादलों का टुकड़ा’ आदि ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें मार्कंडेय ने ग्रामीण दलित जीवन के संत्रास, दलित खेतिहर मजदूर के श्रम का शोषण और उच्च जाति के लोगों के दंभ व क्रूरता का मार्मिक चित्रण किया है . साथ ही उस जातीय दंभ और क्रूरता के प्रतिरोध का बीज भी मार्कंडेय के पात्र करते हैं. भले ही उनकी चेतना आज के दलित जितनी प्रखर और मुखर ना रही हो, मार्कंडेय के पात्र व्यवस्था से हार जाते हैं या कहें कि वे हार जाएँगे, ये जानते हुए भी अपना विरोध दर्ज़ कराते हैं.

गुलरा के बाबा कहानी में चैतू अहीर का बाबा के खेत से सरपत काटना और उनके मना करने पर ढिठाई से जवाब देना कि -“मैं तो काटूँगा”, में लेखक की निगाह ग्रामीण संरचना के उसी विस्फोटक तंतु पर है. मगर दूसरी ओर मार्कंडेय ने यथार्थ की कठोर ज़मीन पर उतरते हुए दलित समाज की उस बेबसी और लाचारी को भी दर्ज किया है जिसमें दलित सबकुछ जानते हुए, प्रतिरोध की इच्छा होने के बाद भी प्रतिरोध नहीं कर पाता है. ‘मधुपुर के सिवान का कोना’ कहानी में बाप द्वारा लिए गए पचास रुपये के उधार के बदले मुन्नन की सारी ज़िन्दगी गिरवी रख ली जाती है और इस विडम्बना का कोई प्रतिकार भी नहीं होता. उसके साथी उसकी मदद करना चाहते हैं मगर ताकतवारों से दुश्मनी मोल लेने की सामर्थ्य ना होने के कारण विवश हो जाते हैं.

ग्रामीण मजदूरों की एक बड़ी समस्या भूमिहीनता और उसके कारणों को अपनी कहानी ‘भूदान’ के माध्यम से उन्होंने स्पष्ट किया है. यह कहानी कथावस्तु और शीर्षक दोनों के माध्यम से बिनोवा भावे के भूदान आन्दोलन की भूमिका प्रस्तुत करती है. दलित खेत मजदूर रामजतन जिस ठाकुर के यहाँ मजदूरी करता है, वह ठाकुर उसे भूदान के नाम पर दस बीघे ज़मीन देने को कह कर बदले में एक बीघे ज़मीन, जो रामजतन को सिकमी में मिली थी वापस ले लेता है. धूर्त ठाकुर नदी के पेट में समा चुकी दस बीघे ज़मीन, जिसका सिर्फ कागज़ पर अस्तित्व है रामजतन के नाम कर देता है.

घूसखोरी और भ्रष्टाचार आज भी देश में एक विकराल समस्या बने हुए हैं, इस संदर्भ में मार्कंडेय की कहानी ‘आदर्श कुक्कुट गृह’ आज भी प्रासंगिक है जिसमें दिखाया गया है कि अधिकारी विकास का नाम देकर गाँव भर से मुर्गियां इकट्ठी कर आदर्श कुक्कुट गृह की नींव डालते हैं और उदघाटन के दिन ही सारे अधिकारी सारी मुर्गियां खुद हजम कर जाते हैं. इसे हम सरकार की विकासवादी योजनाओं में भी देख सकते हैं जो कि मृग मरीचिका बन देश के सामने उजागर हो रही हैं.

उनकी कहानी ‘हलयोग’ में दलित मास्टर चौथीराम का हलयोग विधि द्वारा उपचार सिर्फ इसलिए किया जाता है क्योंकि वो एक दलित है और बाकी दलितों को भी पढाने का प्रयास कर रहे थे, साथ ही समाज में मान्यताओं के नाम पर फैले जातीय भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने की कोशिश कर रहे थे. हाल ही में जस्टिस करणन ने भी कुछ ऐसी ही जुर्रत दिखाई, दलित हो कर न्यायिक संस्थान में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ बोले, परिणाम ये कि उनका भी उपचार करने का रास्ता, विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका ने मिल कर निकाल लिया और उन्हें जेल तक जाना पड़ा.

आज दलित विमर्श के साथ ही दलित-स्त्री विमर्श भी भी अस्तित्व में आ चुका है. दलित स्त्रियाँ अपनें हक़ और अधिकार की मांग को लेकर लड़ रही हैं. ‘चेलिक व बन्सत्ति माई कथानक’, ‘सोहगइला’, व ‘कल्यानामन’  आदि कहानियों में मार्कंडेय की दृष्टि दलित-स्त्रीवादी नुक्तों तक भी अपने समय में पहुँच चुकी थी. कल्यानामन कहानी की मांगी, गाँव के ठाकुर, जिसकी ज़मीन हड़प लेने की ताक में लगे थे, उसका अपना बेटा तक उसके साथ नहीं था. मगर फिर भी वह अपनी लड़ाई अकेली ही लड़ती है, चुप नहीं बैठती है. वह निर्भीक हो कर कहती है कि-” मांगी क्यों डरे, कोई सेंत का खाती हूँ.” किन्तु यहाँ भी मार्कंडेय की दृष्टि कोई आदर्शवादी आवरण नहीं ओढ़ती और मांगी के द्वारा ही यथार्थ की निर्मम तस्वीर खींचते हुए मांगी ही कहती है कि- “बेभुएँ किसान खाद हो गया है खाद,वह बस खेत बनाता है “.

 

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